बीसवीं सदी का सातवाँ दशक। अभी आजाद भारत ’रेखिया उठान’ से आगे बढ़ता गबरू जवान होने की प्रक्रिया में था। नेहरू के सपनों का भारत अधूरा था। उनका पंचशील ’हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ से धोखा खाकर औंधे मुँह पड़ा था। छद्मी-पाक अपनी नापाक हरकतों में परास्त हो गया था, किन्तु काशी के लाल भारत-रत्न शास्त्री जी को कूटनीतिक धोखा दिया जा चुका था। एक सुनहरे भविष्य की अकाल मौत हो चुकी थी। सुअर के दाँतों जैसे अमेरिकी मक्कों के दानों से उबरने के दिन शुरू हो गये थे। पेट में अपने घरों के अन्न फिर जाने लगे थे। हरित क्रान्ति की नींव पड़ गयी थी, मगर अभी भारत का सूर्य विश्व के आकाश पर छा जाने को बाकी था। अभी बंगला देश को मुक्त कराकर ’इन्दिरा इज इण्डिया’ और ’इंडिया इज इन्दिरा’ होना शेष था। दो बैलों की जोड़ी बिदक गयी थी। देवी रणचण्डी-दुर्गा कहलवाने से पहले के दिन थे। गाय-बछड़ा कांग्रेस की निशानी बन चुका था, तिरंगा फिर भी उसके हाथ था। प्रदेश में कांग्रेस के पाँव हिलाने की कोशिश शुरू हो चुकी थी। लोहिया का समाजवाद अपना भविष्य चौधरी चरण सिंह के हाथों पिछड़ों के बीच निहारने लगा था। गाजीपुर जनपद कांग्रेस का गढ़ था, लेकिन कहीं कोने-कतरे में कामरेड सरयू पाण्डेय बुढ़ापे में भी अपनी ललकार सुना ही रहे थे। जनसंघ के दीपक में अभी तेल भर भी नहीं पाया था कि बरगद, हलधर किसान जैसी समाजवादी सोच नई पीढ़ी की तरफ झाँक-झूँक करने लगी थी। पड़ोसी महानगर वाराणसी के विश्वविद्यालय परिसर युवकों में समाजवादी चेतना के विकास की उर्वर भूमि बन चुके थे । अभी और बहुत कुछ होना बाकी था । देवव्रत मजूमदार जैसे छात्र नेताओें के नेतृत्व में ’अंग्रेजी हटाओ’ अभियान काशी से चलकर सादात-मऊ भाटपार रानी स्टेशनों पर उभार लेने लगा था । गाँव-देहात के बच्चे, जिन्हें कक्षा छः से ए बी सी डी पढ़ना शुरू करना पड़ता था, अंग्रेजी से चिढ़ने लगे थे । हाईस्कूल से ही ऐच्छिक विषय में अंग्रेजी छोड़ने के अति-उत्साह में ’भविष्य में पछताने’ की आशंका से कोसों दूर किशोर मन विदेशी भाषा से मुक्ति का स्वप्न देखने लगा था । समाजवादी चिन्तक आचार्य नरेन्द्रदेव के प्रभामंडल में राजनारायण, चन्द्रशेखर, कालीचरण, मुलायम आदि की छाया अब उभरने लगी थी। स्थानीय कालीचरण के पीछे विधानसभा चुनावों में छात्र-दल ’बरगद’ का झण्डा थामे टिड्डी दल की तरह भागने लगा था और फिर….कांग्रेस का गढ़ बापू इण्टर कालेज सादात, कालीचरण जैसे नेता-शिक्षकों से पिण्ड छुड़ाने को मजबूर होने लगा था । राजनीतिक लड़ाई में जातिगत लड़ाई के बीज उगने लगे थे ।
1970 में बापू इ.का. सादात के साथ ही गोविन्द इ.का. (डोरा) सादात भी पुराना कालेज था, लेकिन वहाँ प्रमुख रूप से भूमिहार (ब्राह्मण) जाति का वर्चस्व था, जबकि बापू अभी व्यवहृत रूप में अपने पूर्ण समावेशी शक्ल में ही था । याद नहीं आता, उस समय तक ब्राह्मण वर्चस्व का कोई कालेज था। नेशनल कालेज सैदपुर परा कांग्रेसी विधायक आत्माराम पाण्डेय का प्रभाव जरूर था । खैर…….अपना सादात उस समय का ’एजुकेशनल हब’ बन चुका था, किन्तु प्रचलन में यह शब्द प्रयोग में नहीं आ पाया था। वाराणसी के बाद शिक्षा का बड़ा केन्द्र सम्भवतः सादात ही था। पूरे सैदपुर तहसील (तत्कालीन) में सैदपुर, नन्दगंज, भुड़कुड़ा में एक-एक कालेज के बरक्स यह सादात ही था, जहाँ तीन-तीन कॉलेज, कई मिडिल स्कूल भी थे। सियावाँ इ.का., नेहरू शादियाबाद तो नेशनल और बापू के विद्रोही या निष्कासित प्रबन्धन की उपज में अंकुरित हो रहे थे ।
1970 के आस-पास हिन्दी साहित्य में भी नया इतिहास रचा जा रहा था । नयी कहानी, नयी कविता नवगीत के विकास की यात्रा को सादात क्षेत्र के आस-पास के घोर गँवई, अभावों में जीने को अभिशप्त ग्रामीण अंचल का युवा-मन क्या जाने ! वह तो आजादी की पहली किरन प्राथमिक शिक्षा के बढ़ते उजाले में सादात जैसे कस्बाई गाँव को भी शहर समझने लगा था। महानगर की तो शायद ही कल्पना उन किशोर युवाओं में रही हो, जो शर्ट, कमीज और पाजामे में ही इण्टर पढ़ने आ गए थे । चप्पल भी हवाई या कुछ के पैर में बाप-चाचाओं के छोड़े टायर के चप्पल, वह भी अधिकतर जाड़े या गर्मी के दिनों में ही नसीब हो पाते थे । बरसात के चार-पाँच महीने तो अधिकतर कमीज-जाँघिये में ही कालेज के पास तक आने को बाध्य करते और कहीं रूक-कर कंधे पर लाये पाजामे को पहनकर लाज-मर्यादा बचाने को ।
बापू इ.का. उस समय के सभी कालेज (समता इ.का. तो अभी कालीचरण जी के निष्कासन से प्राइवेट शुरू ही हुआ था) यहाँ तक कि भुड़कुड़ा, सैदपुर, नन्दगंज से भी पढ़ाई के माने में अव्वल था। गोविन्द तो पिछड़े मेरिट का आश्रय स्थल था ही। सियावां(उसरहा गाँव) शादियाबाद अभी हाईस्कूल ही थे, वह भी कुछ विषयों में ही मान्यता प्राप्त आधा प्राइवेट की तरह। बापू में एडमिशन होना गर्व की बात थी। वहाँ स्टेशन-रेलवे लाइन विद्यालय के छात्र समुदाय को दो भागों में स्पष्ट विभाजित करता था । एक-लाइन (रेल-पटरी) के पश्चिम का अपेक्षाकृत सवर्ण एवं सम्पन्नता बहुल, जिनमें टाड़ा, हरतरा, मिर्जापुर, बहरियाबाद, हुरमुजपुर, डढ़वल, भरतपुर जैसे बड़े गाँव के छात्र शामिल थे, दूसरा-लाइन के पूरब का-टड़वा, मौधिया, घिनहागाँव, सौरी, बरहट, बरौली, कठघरा, सुदनीपुर, शादियाबाद, बरईपारा आदि अपेक्षाकृत पिछड़े बहुल किसानी-मजदूरी प्रधान गाँवों के छात्र। कठघरा, बरहट-बरौली आदि अपनी बसाहट में क्षत्रिय बाहुल्य जरूर थे, मगर इनकी भी स्थिति सौरी, घिनहागाँव, कैथौली, अन्धोखर आदि से थोड़ी ही बेहतर थी । हाँ, जातिगत आधार पर जमींदारी टूटने के बावजूद क्षत्रिय अभी ’ठाकुर’ रह गये थे। अभी हाँक लगाने पर हरवाहों-मजदूरों के भाग कर आने की प्रवृत्ति खत्म नहीं हुई थी। रोटी-दाल और मोटा खाने-पहनने के नाम पर इन्हें सम्पन्न कहा जाय, तो बहुत एतराज नहीं है ।
लेकिन पैसे-रूपये और वेशभूषा के मामलों में बहुत ज्यादा अन्तर नहीं था। एक तीसरा छात्र समुदाय भी था, जिनमें माहपुर, जखनियाँ, दुल्लहपुर यहाँ तक कि मऊ भाटपार रानी स्टेशनों के आस-पास के गाँवों के बच्चे थे। ये छात्र अधिकतर टिड्डी-दल की तरह आते और स्टेशन पर उतरकर बिखर जाते। इनमें अधिकतर गोविन्द और कुछ मेधावी बापू में शरण पाते थे। इनके एक भीड़ जैसे तंत्र में बदलने की आंशका से न सिर्फ विद्यालय प्रबन्धन बल्कि गँवई दूरस्थ इलाके के लड़के भी भयभीत रहा करते थे। यहाँ बार-बार छात्र या लड़के शब्द के प्रयोग से भले ही आज के युवा चौंके मगर उस समय का सच यही था कि हजार विद्यार्थियों में शायद दो-तीन लड़कियाँ, वह भी किसी टीचर या प्रबन्ध समिति के सदस्य के घर की ही इण्टर कालेज में पढ़ पाती थीं। हाँ, गोविन्द में जरूर दहाइयों में लड़कियाँ रहती थीं, मगर वह भी डोरा जैसे अति निकटस्थ पास-पड़ोस के दबंग घर वालों की ही बेटियाँ होती थीं ।
1970 और आस-पा सादात जैसे कस्बाई उपनगर होने के बावजूद, पूर्वांचल के अन्य पिछड़े इलाकों की तुलना में इस क्षेत्र को अत्यंत पिछड़ा कहना भी अनुचित नहीं था, जहाँ दस आने महीने की फीस माफी के लिए प्रबन्धन की सिफारिश गिड़गिड़ाने की हद तक पहुँच जाती या फिर नवमीं कक्षा में फीस न दे पाने की स्थिति में स्वतः नाम कट कर स्कूल छोड़ने वालों की संख्या भी कम न थी। कॉपी-किताब खरीदने के दिनों में सादात में मात्र दो-तीन दुकान ही थीं, जिनपर गार्जियन साहित बड़े भाइयों की भीड़ में नवागत छात्र बस मुँह बाये खड़े रहते थे । उन्हें खरीद करने में कमीशन या ’घलुआ’ माँगना अभी सीखना था। हाँ, पुरानी किताबों की अधिया दाम पर खरीद या बड़े भाइयों (पास-पड़ोस के भी) से माँगकर काम चला लेना उस समय की सम्मानजनक मजबूरी थी। कमीशन से बचे दस पैसे में पानीदार छोला-पकौड़ी का स्वाद किसी पिज्जा-बर्गर से कम नहीं था, ये अलग बात है कि उस समय तक ये डिशें जनम नहीं ले पायी थीं।
यह वह समय था, जब गाँव पीछे दो-तीन नौकरियाँ भी गाँव को ’विकसित’ संज्ञा देने के लिए काफी थीं । ‘करे मदरसी दुइ जनि खाँय, लरिका होंय ननियउरे जाँय’ जैसी कहावत के बावजूद मास्टरी तब भी ललचाने वाली चीज थी। तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के विभाजन को झुठलाते रेलवे का गार्ड बाबू या ड्राइवर होना भी कम गौरव की बात नहीं थी ।
1970 – यह वही समय था, जब सड़क के नाम पर बाप-दादों के जमाने की बैलगाड़ी-युग की कंकड़-मिट्टी की ’चौड़ी’ सड़कें थीं, जिन्हें तारकोल का पहिनावा शायद बीसों साल बाद नसीब हो पाया। इन परम्परागत सड़कों को आज की नई पीढ़ी फणीश्वर नाथ रेणु के ’मारे गए गुलफाम’ पर बनी फिल्म ’तीसरी कसम’ के हीरामन गाड़ीवान के प्रेमगीत से तुलना कर रोमांचित हो सकती है, किन्तु तब तो शादी-बियाह या घर-छाजन के लिए थपुआ-नरिया (खपरैल आदि) सामान ढोने के लिए बनी बैलगाड़ियों के लिए ये सड़कें ही ’एक्सप्रेस रोड या हाइवे’ थीं अन्यथा फसल कटे या बिन बोये खेतों-खलिहानों के बीच बनती पगडंडियाँ तो थी हीं, जो ज्यादे-समय तक गाड़ीवान की कुशलता और बैलों की चपलता का इम्तहान लेती रहती थीं। इनके अलावा गाँव में कुछ चकरोड, खोर आदि भी थे, मगर वे जमीन पर कम पटवारी के शजरे (नक्शे) में ज्यादा चमकदार दिखलायी देते थे। गरज ये कि ये सड़कें भी आधे साल तक पानी से डूबी रहतीं और आधे साल धूल से, जहाँ बिना आँधी के भी गर्द-गुबार उड़ते रहते थे। जीप-फटफटिया कभी-कभार चुनाव के दिनों में ही दिखते थे, जिसके पीछे छूने की ललक में ये बच्चे दूर तक दौड़ते थे, जब तक कि आँख से ओझल न हो जाय। गर्द के गुबार में पचास-साठ गज दूरी ही ओझल करने को पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य यह कि विकास नाम की चिड़िया का कहीं अता-पता नहीं था। कुछ नुचे पंख के टुकड़े भी इस क्षेत्र को नसीब नहीं हो पाये थे। इसका एक कारण अनुसूचित जाति के लिए आजन्म आरक्षित विधानसभाओं में अन्य प्रभावशाली जातियों की रूचि व पकड़ की कमी भी थी। कांग्रेस किसी का कान पकड़कर खड़ा कर दे, वही ’शेर’ हो जाता था-वोट माँगने और विकास काम करने की जरूरत ही कहाँ थी । खैर…….।
बैलगाड़ी तो उस समय की सबसे प्रचलित और उपयोगी भार-वाहन थी। गाड़ीवान या गाड़ी मालिक को शादी-गवना में आये पाहुर के ’झपोलों’ में से एक चुनकर ले जाने की छूट का फायदा उन्हीं से पूछा जा सकता था, जिनके घरों में कोई गाड़ीवान या गाड़ी होती थी। क्या पता-खाझा, टिकरी, लड्डू, इमिरती, बताशा में से क्या निकल जाये ! वजन भाँप कर चालाकी किए गए को कभी-कभी समधिनों की मजाक का शिकार भी होना पड़ता था, जहाँ गगरी-ठिल्ले (झपोली उस समय तक ज्यादा प्रचलित नहीं थे) से आम के पल्लवों से छिपाये गोबर के सूखे कण्डों, पुराने कपड़ों से बनाए बेडौल गुड्डे-गुड्डियों के वजन के बीच कुछ पाव-सेर लड्डू ही मिल पाते थे। जिससे अदृश्य समधिनों को गरियाते-हँसते वह अगले नेवते का इन्तजार करने लगता था ।
1970 और बापू इ.का.। कांग्रेस के गढ़ में विपक्षी दल की झण्डाबरदारी करने वाले शिक्षक नेता कालीचरण यादव को कालेज से बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका था । इस राजनीतिक द्वन्द्व में जातीयता के बीज अँकुराने शुरू हो गए। उनके निकलते ही बापू के भौतिक विज्ञान और गणित के दो धुरंधर शिक्षक मुरारी और रामधनी यादवबन्धु भी उन्हीं के पथगामी बने। कॉलेज का हिन्दी विभाग तो राममूर्ति पाण्डेय एवं सुदर्शन सिंह जैसे योग्य समकालीनों की वजह से बहुत कमजोर तो नहीं था, मगर भौतिक और गणित विषय जरूर लड़खड़ाने लगे थे। हाईस्कूल में प्रवेश लेने वाले नवागत छात्रों को इण्टर के छात्रों या उनके ’पास आउट’ भाइयों से जब इन
तीनों अध्यापकों की कुशलता एवं सक्षमता का बखान सुनने को मिलता, तो अक्सर आह निकल जाती। काश ये मास्टर न गए होते ! और इस आह और काश के घावों पर कई वर्षों तक मरहम भी बहुत नहीं लग पाया। साइंस विभाग में हुई इस क्षति से उबरने की कोशिश में कॉलेज प्रबन्धन द्वारा डॉ. तपेश्वर सिंह और धर्मदेव प्रजापति जैसे अति कुशाग्र शिक्षकों की सेवा तो ली गई, लेकिन धर्मदेव प्रजापति जैसों को यह इ.का. कहाँ रास आता। शीघ्र ही किसी उच्चतर शिक्षा में उनके जाने से यह कमी काफी वर्षों तक झेलनी पड़ी। उधर कालीचरन ने रेल पटरी के नजदीक ही बापू की पट्टीदारी में समता कालेज को खड़ा कर दिया। मड़हे, टीन शेड में शुरू किए गये कॉलेज में उक्त यादव त्रयी के जाने का असर रहा या जातिगत चेतना कि साल-दो साल में ही संख्या बल एवं गुणवत्ता में समता बापू का प्रतिस्पर्धी बन चुका था । याद नहीं आता कि उस समय कोई यादव शिक्षक बापू में रह गया हो। यही नहीं, हाईस्कूल में आये हुए अधिकतर यादव बिरादरी के छात्र नवीं के बाद समता के लिए भाग खड़े हुए। कहाँ बीसों साल का जमा-जमाया मान्यता प्राप्त विद्यालय और कहाँ जुमा-जुमा डेढ़-दो साल का प्राइवेट स्कूल ! लेकिन यह जातिगत चेतना ’यादवों के कॉलेज’ की शोहरत इस कदर फैली की शायद ही कोई यादव छात्र बापू या गोबिन्द में पढ़ रहा होगा! कालीचरण के इस विद्यालयीय-जातिवाद में कोई सूक्ष्म दूरदर्शी भविष्य के समाजवादी जातिवाद के चरमोत्थान के शाखा-सूत्र भी ढूँढ सकता था।
वस्तुतः इस इलाके के ’सिंह यादव’ अब ’अहीर’ नहीं रह गए थे। पुण्य-पाप से डरने वाले, अधिकतम दुग्धाहारी-शाकाहारी यह जाति खान-पान आदि में यदि ब्राह्मणों के करीब थी, तो दण्ड-बैठक-कसरत लाठी-बनेटी में दक्ष शारीरिक बल-सौष्ठव में क्षत्रियों के। अभी तक ये दूसरों के द्वारा उपयोग किए जा रहे थे, लेकिन समता इण्टर कालेज के खुलते-खुलते इन्हें अपनी ताकत का अहसास होने लगा था। आजादी के पहले जन्मे इनके चाचा ’मसि कागज छूओ नहीं’ जरूर थे, लेकिन लाठी के हूरे की ताकत को तब भी समझ रहे थे मगर अब, उन्हें पास-पड़ोस के कायस्थों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों के लड़कों के ’साहब’ होने का कारण समझ में आने लगा था। दूध-दही घी ही नहीं गोबर तक से कुछ कमा लेने की इनकी फितरत अब इनकी ताकत बनने लगी थी। खुदकाश्त तो नहीं थे मगर असामी होने से खेत और खेती से इनका जन्मजात लगाव के कारण शुरू में बच्चों को प्राइमरी पास होते-होते गोरवारी-चरवाही में लगाने वाली उनकी आदत में अब सुधार होने लगा था। अपने होनहार भाई को पढ़ाने के लिए बड़ा भाई खुद चरवाही करने लगता या फिर बाहर कमाने चला जाता। गो-पालन से जुड़े व्यवसाय की बारीकी तो शायद ही आज की पीढ़ी समझ पाये, लेकिन वे दिन गँवई सहकारी-साझेदारी की संस्कृति के बेजोड़ उदाहरण थे। ’बड़ी जातियों’ के गायों को सुबह दूध दुहने के बाद ’रेहड़’ (गायों का झुण्ड) में मँगाना और दिन भर चराने के बाद वापस भेजा जाना एवज में कुछ अनाज और धोती आदि लेना एक परम्परा थी। बकेन यानी विशुक गयी (दूध देना बन्द कर चुकी) गायों को गोपालक के रेहड़ में ही रखकर साल के 2-2 माह के दो सत्रों में सवर्णों के पलिहर खेतों में रात को ’छनाव रखना’ भी आमदनी की एक जरिया थी। आधे से ज्यादा गाय-बछड़े उन्हीं सवर्णों के मगर ’छनाव’ का खर्च प्रति जोड़ी पशु पर कुछ सेर अनाज एक-एक रात का उस चरवाहे का होता था। बैलगाड़ी के गाड़ीवान से शुरू इस जाति की यात्रा तो अब ट्रैक्टर-बस-ट्रक मालिक तक पहुँच जाने के पीछे इनकी इसी मेहनत और जातीय-चेतना का हाथ कहा जा सकता है । समता कालेज का उभार जातीय-चेतना का उभार कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
समय गवाह है कि 1970 में सादात से उभरे इस शिक्षालय की जातीय-चेतना ने आज गाजीपुर जनपद में हर दो-चार किमी पर माध्यमिक एवं महाविद्यालयों की एक श्रृंखला बना डाली है। यह अलग बात है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इन विद्यालयों को शुरू से ही नकल माफियाओं की काली छाया में जीना पड़ रहा है। कभी बापू से होड़ लेते समता कालेज के मेधावी छात्र डाक्टर, इन्जीनियर अफसर होने में सवर्णों को मात देने लगे थे, वहीं अब फर्जी मेरिट उत्पादक इन कुकुरमुत्तीय कालेजों से निकले छात्र अपनी जन्मतिथि बदलवा-बदलवा कर मिलिट्री और पुलिस की भर्ती में या तो लाइन लगा रहे हैं या बिना टीईटी के मेरिट की शिक्षक भर्ती के किसी सरकारी फरमान का इन्तजार। इस काल-प्रवाह में हमें आज भी उस समय के बापू-समता पर गर्व होता है। हाँ, एक बात की चिन्ता अवश्य है कि हमारे दिनों के ये कॉलेज आज के लूट-खसोट, नकल-उत्पाद के दक्ष फैक्टरी बन चुके विद्यालयों के बीच अपने दामन की पवित्रता कैसे बचा रहे होंगे । फिर भी अपना ही एक मुक्तक दुहरा रहा हूँ –
चराग उम्मीद का हर वक्त जलाए रखिए
रूख हवाओं से भी हर वक्त मिलाए रखिए
सिल जाती हैं बरसात में माचिस की तीलियाँ
चूल्हे में भी कुछ आग बचाए रखिए ।
चूल्हे की यह आग सादात की पुरानी गौरवमयी, शैक्षिक परिवेश-परम्परा की आग है । अपनी साझी विरासत की आग है और सबसे बढ़कर जातीय-चेतना से ऊपर भारतीय-चेतना की आग है, जिसे हर हाल में बचाना ही होगा ।
(’ओम धीरज’ साहित्यिक नाम है, वाराणसी मण्डल हैं । इनके रचनाकार व्यक्तित्व ने आधे दर्जन पुस्तकों का प्रणयन किया है । इन्हें उप्र हिन्दी संस्थान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि सहित कई संस्थाओं से दर्जनों सम्मान व पुरस्कार प्रदान किए गए हैं ।)