बदलाव की गति गोबर में दिख रही है

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बदलते वक्त में गांव के लोग रेणु के कथा पात्र हीरामन की तरह सीधे और निश्छल नहीं रहे। राजनीति ने सामाजिकता की हवा निकाल कर रख दी है। लोग ठंड के मौसम में घूरे के नीचे बैठकर एक दूसरे का सुख दुख बतियाने के बजाय घरों के भीतर दुबके हुए फेसबुक और वाट्सएप में व्यस्त हैं। छोटे बच्चे भी अब अपने हमउम्रों के साथ खेलने के बजाय वीडियो गेम और टेलीविजन में ज्यादा मस्त हैं। बच्चों को कई-कई सहभागी खिलाड़ियों वाले पारंपरिक खेलों से अधिक चकाचैंध वाले वीडीओ खेल अधिक रास आ रहे। गांव में अब बच्चों को कटकट्टी, लाई, जिलेबी, मूढ़ी, फरही जैसे पारंपरिक खाद्यों के नाम तक नहीं मालूम, अब गांवों में चाउमीन, पिज्जा, बर्गर जैसे पश्चिमी खाद्य आसानी से ठेले पर घूमते हुए ललचाते हैं। घर से बाहर नहीं निकल पाने वाली स्त्रियां अब बाजारों से बगैर मर्दों से पूछे सौंदासुलुफ कर आती हैं। फिल्मों के गाने तक गुनगुनाने की जिन स्त्रियों पर पाबंदी रहती थी, वे स्त्रियां आसानी से मोबाइल फोनों में मनचाही फिल्में भरवाकर अथवा इंटरनेट से डाउनलोड कर देख लेती हैं। पराये मर्दों के सामने घूंघट से नहीं निकल पाने वाली स्त्रियां आसानी से मोबाइल फोन के माध्यम से दोस्त बनाकर रात रात भर अमर्यादित बातें करती रहती हैं।

पर्वों त्योहारों से जुड़े पारंपरिक गीतों का जमाना गया. स्थिति यह है कि परिवार की बुजुर्ग स्त्रियां भी पर्वों के प्रावधान भूलती जा रही हैं। पर्वों पर गाये जाने वाले निर्मल गीत मर चुके। फिल्मों और लोकभाषाओं के अश्लील अथवा द्विअर्थी गीत लोकप्रिय हो रहे हैं। विवाह जैसे प्रमुख लोक संस्कार में भी इसी प्रकार की धुनों पर गीत रचे और गाये जाते हैं।

गांव में आपसी सद्भाव समाप्त हो चुका है। वह जमाना था जब ग्राम प्रधान के रूप में किसी एक व्यक्ति को सर्वसम्मति से चुन लिया जाता था, अब तो बाप बेटे में ही ग्राम प्रधान बनने के चुनावी युद्ध में संस्कार तिरोहित हो रहे। छोटे छोटे विवाद बड़े मामले बनते जा रहे हैं। कोई किसी की बात नहीं मानता। हर किसी को बुद्धिमान होने का दंभ हो गया है। आपसी सहमति से मामले नहीं सुलझ रहे। जरा जरा सी बात पर लोग कोर्ट कचहरी तक फांद आते हैं।

सामा, कौनी, बाजरा, कोदो, अलुआ, सुथनी जैसे गरीबों के सस्ते खाद्य विलुप्त हो गये। नयी पीढ़ी के लोग इन खाद्यों के नाम तक भी नावाकिफ हैं। नयी पीढ़ी के बच्चों को यहां तक नहीं मालूम की भिंडी की लता होती है कि पौधा होता है। खेती किसानी छुट रही है। लोग फैक्ट्रियों में मजदूरी करना अधिक मुनासिब समझते हैं।

बदलते वक्त में गांवों की पगडंडियों ने सड़क का रूप ले लिया है। मोटरसाइकिलें बढ़ी हैं। झोपड़ियां पक्के घरों में तब्दील हो रही हैं। विकास के नाम पर सरकारी खजाने से एक ही काम के लिए कई कई योजनाओं से धन निकाला जा रहा है। पुलिस, प्रशासक आक्रामक भूमिका के साथ गरीबों को अपने नाम से ही भयभीत करते हैं, तो धनवालों को मित्र बनाये फिरते हैं। न्याय आज भी मजबूरों को दूर का ढ़ोल लगता है। पढ़ाई की ओर जागरूकता बढ़ी है। पर सरकारी विद्यालय सरकारी अस्पतालों की तरह तसल्ली भर देते हैं।

रोजमर्रा के लक्षण बदले हैं। हाट की संस्कृति विलुप्त हुई जा रही है। नाच, लोक गायन किताबों में शोध से बचाये जा रहे हैं। गांव के लोगों ने गांव का रंग रोगन बदल दिया। प्रेमचन्द के गोदान का होरी भी बदल गया, धनिया भी वैसी नहीं रही। बदलाव की गति सबसे ज्यादा गोबर में दिख रही है।

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