[bs-quote quote=”पितृसत्ता की धमक नारी को अपने इच्छा से जीने नहीं देती। वह दौर भारत में अंग्रेजी शासनकाल का था। देश के पास न अपना संविधान था न ही कानून। ग्रामीण स्तर पर पंचायतों के द्वारा ही समाज की समस्याओं का समाधान किया जाता था। पंचायत में बुजुर्ग और अनुभवी लोगों को ही सरपंच नियुक्त किया जाता था।” style=”default” align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
भिखारी ठाकुर-जिन्होंने अपने रंगकर्म का सरोकार ग्रामीण स्त्रियों के दुःख से जोड़ दिया
भिखारी ठाकुर की ५२वीं पुण्यतिथि पर विशेष भिखारी ठाकुर के विभिन्न नाटकों में बेटी वियोग बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील नाटक है। यह नाटक उस समय के समाज की ज्वलंत समस्याओं पर लिखा गया है। भिखारी ठाकुर आश्रम के महामंत्री रामदास राही बताते हैं कि जब वे बेटी वियोग नाटक मंच पर खेलते थे तो […]
भिखारी ठाकुर की ५२वीं पुण्यतिथि पर विशेष
भिखारी ठाकुर के विभिन्न नाटकों में बेटी वियोग बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील नाटक है। यह नाटक उस समय के समाज की ज्वलंत समस्याओं पर लिखा गया है। भिखारी ठाकुर आश्रम के महामंत्री रामदास राही बताते हैं कि जब वे बेटी वियोग नाटक मंच पर खेलते थे तो मंच के नीचे बैठे हजारों दर्शकों की आंखों से आंसुओं की नदियां बहती थी क्योंकि बेटी बेचना या खरीदना समाज की बिडम्बना थी। समाज में वस्तु की तरह बेटी की सौदेबाजी होती थी। प्राय: बेटी बेचने वाला गरीब और निर्धन परिवार का तथा बेटी खरीदने वाला अमीर और तथाकथित उच्च वर्ग का व्यक्ति होता था। इस तरह की घटनाएं घर-घर घटित हो रही थी। उनका नाटक देखने के लिए महिलाएं भी अपना काम-धाम छोड़कर दर्शक मंडली में शामिल हो जाती थी। उनमें से कुछ महिलाएं ऐसे भी थी जो अपने निजी जीवन में इस तरह का दुख और कष्ट स्वयं भोग चुकी थी। उनके लिए पूरा नाटक देख पाना बड़ा कठिन हो जाता था क्योंकि बेटी उपातो जब अपने वृद्ध पति की शिकायत करते हुए अपना दुख बयां करती थी तो उसका स्वर मन को छू लेता था।
एक वर्ग ऐसा भी था जो कि भिखारी ठाकुर के नाटकों के खिलाफ लाठी डंडा लेकर खड़ा हो जाता था। भिखारी को बुरा भला गालियां तक देने लगता था। चूँकि दर्शकों के बीच बेटी बेचने और खरीदने वाले दोनों मौजूद होते थे, इसलिए रार होना स्वभाविक था। कहीं-कहीं भिखारी ठाकुर को पुलिस के पहरे में नाटक खेलना पड़ता था। इसमें ताज्जुब की बात यह होती कि दर्शकों को मंच के ऊपर और नीचे दोनों जगह नाटक देखने को मिल जाता। निर्देशक की भूमिका में खड़े भिखारी ठाकुर अनुनय-विनय, मान-मनौव्वल करके उनके आक्रोश को स्वयं शांत कराते थे। वस्तुतः भिखारी ठाकुर बाहर से जितने सरल थे, अंदर से उतने ही जटिल। वे सांप भी मार देते थे और लाठी भी बचा लेते थे।
इस नाटक में चटक और लोभा पति और पत्नी हैं। धन के अभाव के कारण वे अपनी बेटी की शादी के खर्च उठाने से बचना चाहते थे। चटक बहुत लालची और धूर्त चरित्र का व्यक्ति था। पैसों के लालच में वह अपनी जवान और इकलौती बेटी को किसी धनी व्यक्ति को बेचने का फैसला इसलिए कर लेता है क्योंकि उसका कुछ खेत रेहन पर फंसा हुआ था। इन पैसों से कर्ज भरते हुए वह अपने अन्य स्वार्थ भी पूरा करने की इच्छा रखने लगा और इसके लिए अपनी पत्नी लोभा को भी राजी कर लिया। वह एक धूर्त और सौदेबाज पंडित जी से बात करके अचानक एक दिन एक झाँटुल नामक वृद्ध व्यक्ति से अपनी बेटी की शादी कराने का दिन रखा आया। लड़का सुंदर और पढ़ा लिखा बताकर पत्नी को भी चुप करा दिया। जब लड़का देखने के लिए गांव जवार के किसी व्यक्ति को नहीं ले गया तो कुछ लोगों को शक होने लगा कि इसमें बेटी बेचने का मामला तो नहीं? एक गोतिया के विरोध करने पर वह समाज से यह कहते हुए किनारा कर लेता है कि हमें समाज के किसी भी व्यक्ति के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। यह चटक और गोतिया के बीच एक संवाद बहुत कुछ कहता है-
गोतिया- का हो चटक भाई, शादी कहां ठीक कइला हा?
चटक- उहे बकलोलपुर!
गोतिया – ई बतावs, जे अकेले गईल रहला ह कि आउर केहूं के लिया गइल रहला हा?
चटक- हम गईल रहली हां, आउर पंडीजी गइल रहली हां!
गोतिया- ई तू नइखs जानत जे गांव में दूगो -चारगो जाति- भाई बा आ अकेले पंडीजी के ले के चलि गइला हा?
चटक- कवन हम बेजाँय काम करतानीं
गोतिया- रे मरदे, जब से तोर चाखा-पाखा चलल, लेढ़ा लगा के ध देलs!
चटक- ई तूँ बोली कवन बोलतारा?
गोतिया – तोहरा बुझात नईखे? लड़की पर रोपेया लेके सादी करतारs! तोहरा के केहूं भाई में ना खियाई।
चटक- हम अकेले खइबि !
गोतिया- तोहरा के केहूं छुतिहारी ना छुआई। नरिय हूका तोहार बंद कर दिआई।
चटक- हम आपन बीड़िए पर काम चला लेबि।
गोतिया – देखिला तोहरा अँगना गीत गावे के जाला!
चटक- हम लाउडस्पीकर लगा लेबि।
इस संवाद से पता चलता है कि जिस समाज में बेटी बेचने की परंपरा थी, उसी समाज में इस परंपरा का विरोध भी था। यानि लोग खुलेआम बेटी नहीं बेच सकते थे। यह कृत्य समाज के मर्यादा एवं संस्कार के विपरीत माना जाता था। समाज बेटी बेचने वाले व्यक्ति का अपनी बिरादरी से हुक्का पानी बंद करा देता था। फिर भी कुछ लोग इस प्रकार का कोई कृत्य कर बैठते थे।
आज नारी सशक्तिकरण के तमाम अभियान के बावजूद हमारे ग्रामीण समाज में कुछ विशेष बदलाव नहीं हो सका है। महिलाएं अपने लिए स्वयं कोई फैसला नहीं कर पाती। परिवार और समाज में उन्हें तमाम अधिकारों से वंचित रखा जाता है। उन्हें अपनी इच्छा और पसंद की चीजों को दबाकर रखना पड़ता है। मां बाप पर भरोसा करके शादी ब्याह के फैसले में वह अपनी राय नहीं रख पाती। यही कारण है कि बेटी वियोग नाटक में अपनी इच्छाओं को दमित करने वाली बेटी उपातो को पिता के एक गलत फैसले के कारण उम्र भर अभिशप्त जीवन जीना पड़ा। किशोरावस्था में ही उसकी शादी एक वृद्ध पति से कर दी गयी। जिसके बाद वह जीवन के तमाम सुखों से वंचित रह गयी। किसी भी महिला के जीवन का सपना होता है कि शादी के बाद यौन सुख की प्राप्ति हो जिसकी वह खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाती। तथाकथित सभ्य समाज में शादी के बाद कैसा भी घर परिवार और पति हो किंतु स्त्रियां पिता कै फैसले को स्वीकार करके पति के घर को ही अपना असली घर मान लेती हैं। दुख और विपत्ति कितना भी हो किंतु उन्हें जीवन पति के साथ बिताना पड़ता है। उनमें पितृसत्तात्मक समाज के फैसले का विरोध करने का साहस आज भी नहीं है। इस नाटक में बेटी उपातो शादी के बाद ससुराल तो चली गयी किंतु वहाँ वह बूढ़े पति की प्रताड़ना और दुख अधिक दिन नहीं झेल पायी तो अचानक एक दिन ससुराल से मायके भाग गई। और अपने मां-बाप को जिन शब्दों में बेटी बेचने की नियति को कोसती है वह बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है-
रोपेया गिनाई लिहलs, पगहा धराइ दिहलs,
चेरिया के छेरिया बनवलs हो बाबूजी।
पढ़ल गुनल भूलि गइलs, समदल भेड़ा भइलs
सउदा बेसाहे में ठगइला हो बाबूजी।
वर खोजे चलि गइलs, माल लेके घरे अइलs
दादा लेखा खोजलs दुलहवा हो बाबूजी
वह अपने पिता से बुढ़े पति के रुप रंग और दशा को बताती है तथा उससे उसके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसे सुनकर मन पूरी तरह से खिन्न हो जाता है। इस व्यथा को सुनने के बाद कोई नवयुवती किसी वृद्ध से शादी करने की इच्छा तो बिल्कुल ही नहीं कर सकती।
बुढ़ऊ से सादी भइल, सुख के सोहाग गइल,
घर पर हर चलवलs हो बाबूजी
मुहवाँ में दाँत नाही, लार चुवेला गाल माही,
बावला प भीतरी समुद्र हो बाबूजी।
जीभ दाँत ओठ गाल, पान से भइल लाल,
काल लेखा लागत बा सुरतिया हो बाबूजी।
ससुराल की शिकायत करते करते वह अपने मायके की भी चर्चा करने लगती है। जहां वह झाड़ू, पोछा, बर्तन, गोबर, कड़सी हर काम करती थी तथा सारा काम करते हुए सब की बात को सिर-आंखों पर रखती थी। वह पूछती है आखिर आप लोग मुझे किस कुकर्म की सजा दे दिए हैं-
साफ कके आँगन गली के, छीपा-लोटा जूठ मलिके,
बनि के रहली माई के टहलनी हो बाबूजी।
गोबर करसी कइला से, पियहा छुतिहर घइला से
कउना करनिया में चुकली हो बाबूजी
इसी तरह वह अपने मां से भी शिकायत करती हैं। हे माँ! आप मुझे अनायास नौ माह तक उदर में रखीं। इसके बाद दूध पिलाकर, तेल लगाकर, मेरी काया को सजा-सवारकर इतना बड़ा मुझे क्यों किया? मेरे लिए आप इतना दुख क्यों सही? क्यों नहीं मुझे आप बचपन में ही जहर देकर मार दी?
जमते मइया माहूर दे के, काहे ना दिहलू मारी?
हमरा के नाहक पालन करे में सासत सहलू भारी।
आठ मास नव उदर का भीतर बाहर गोद मँझारी।
दूध पिया के, तेल लगा के, काया के दिहलू सवारी।
इसी प्रकार वह गाँव जवार समाज व पूरे व्यवस्था को कोसती है कि मेरे इस दशा और बुढ़े पति को देखकर आज पूरा गाँव-जवार हँस रहा है। असहाय दु:ख, अपमान और उपहास के कारण वह जीने की इच्छा भी त्याग देती है।।
हँसत लोग गइया के, सूरत देखि सइयां के,
खाइके जहर मरि जाइब हो बाबूजी।
पितृसत्ता की धमक नारी को अपने इच्छा से जीने नहीं देती। वह दौर भारत में अंग्रेजी शासनकाल का था। देश के पास न अपना संविधान था न ही कानून। ग्रामीण स्तर पर पंचायतों के द्वारा ही समाज की समस्याओं का समाधान किया जाता था। पंचायत में बुजुर्ग और अनुभवी लोगों को ही सरपंच नियुक्त किया जाता था। पंचायत जो फैसला सुना देती थी उसे मानना ही पड़ता था। बेटी वियोग नाटक में भी पंचायत ही फैसला सुनाती है। बेटी उपातो का इतना दु:ख सुनने के बावजूद पंचायत उसके पक्ष में फैसला नहीं सुनाती। उन्हें ससुराल में रहने को ही कहती है। इस प्रकार उपातों एक बार फिर उस बुढ़े व्यक्ति के साथ शेष जीवन काटने को मजबूर हो जाती है।
आवत एक जगह से, उतरत एक ही घाट।
अपना-अपना कर्म से, भइल बहुत सा बाट।
प्राय: ग्रामीण स्तर पर पंचायत उसी नियम से बंधी होती है जो पारम्परिक रूप से समाज में विद्यमान होते हैं। पंचायत पितृसत्तात्मक ब्यवस्था जो समाज के बने बनाये नियमों को तोड़ना नहीं जानती। यहां भिखारी ठाकुर स्त्री के पक्ष में न्याय करते नहीं दिखतें, इसके पीछे कारण यह है कि उन्होंने समाज की सच्चाई को यथार्थ उजागर किया है। उस समय के समाज में पितृसत्ता की ऐसी ही धमक थी। वे समाज के बीच रहकर समाज की समस्या को पढ़ते थे और उनके चरित्र को नाटकों के माध्यम से समाज में अभिव्यक्त करते थे। नाटक का अंत कुछ भी रहा हो किंतु भिखारी ठाकुर ने अपने विचार को प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया है- “हमारा मन में मालूम होता बा जे बाल-वृद्ध विवाह विश्वासघात ह, काहें से जे शादी योग लड़की हो जाली, तब वो लड़की के बाप कहेलन अपना जाति-प्रेमी से जे चले के एगो लड़का देखें। तब लड़की का मन में आसरा लागेला कि हमरा बाबू जी हमार बर नीमन खोजिहन। बाबूजी धन-मकान देख के शादी कर देहलन, आजकल धन-मकान केहूं का नइखे जेकरा धन-मकान रहल हा, से धन मकान के चीज ना बुझल हा, अपना पति वास्ते।”
भिखारी ठाकुर ने एक अन्य नाटक विधवा विलाप में इस नाटक के उत्तरार्द्ध के रुप में दिखाया है। हालांकि वे तत्कालीन समाज में स्त्रियों की मनोदशा का चित्रण करने में समर्थ रचनाकार थे। स्त्री विमर्श के संदर्भ में भिखारी ठाकुर का यह नाटक बहुत महत्वपूर्ण है।
दीपक शर्मा सहायक अध्यापक हैं।