Saturday, April 20, 2024
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जातिगत जनगणना से ख़त्म होंगी जातियों की दीवारें

डॉ. ओमशंकर का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे फिलहाल सर सुंदरलाल चिकित्सालय के हृदयरोग विभाग के अध्यक्ष हैं और हृदयरोग चिकित्सा के क्षेत्र में उनकी अनेक विशिष्ट उपलब्धियां हैं। मधेपुरा के एक साधारण किसान परिवार से निकले डॉ. ओमशंकर ने जीवन में विकट संघर्ष किया है लेकिन उन्होंने अपने मूल्यों से […]

डॉ. ओमशंकर का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे फिलहाल सर सुंदरलाल चिकित्सालय के हृदयरोग विभाग के अध्यक्ष हैं और हृदयरोग चिकित्सा के क्षेत्र में उनकी अनेक विशिष्ट उपलब्धियां हैं। मधेपुरा के एक साधारण किसान परिवार से निकले डॉ. ओमशंकर ने जीवन में विकट संघर्ष किया है लेकिन उन्होंने अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया।

डॉ. ओमशंकर
डॉ. ओमशंकर

चिकित्सा क्षेत्र में अपनी शुरुआत दिल्ली के एस्कॉर्ट हॉस्पिटल से किया। बाद में एमडी की उपाधि उन्होंने बीएचयू के चिकित्सा विज्ञान संस्थान से गोल्ड मेडल के साथ की और इसी को अपनी कर्मस्थली बनाया। वर्षों से वे जनता के स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार को लेकर संघर्षरत हैं और वाराणसी में एम्स के निर्माण के लिए कई बार आमरण अनशन किया। वे इस मुद्दे पर लगातार मुखर हैं। इसके साथ ही वे जातिगत जनगणना और आरक्षण के मुद्दे पर भी लगातार जनजागरण कर रहे हैं। इस मुद्दे पर गाँव के लोग की प्रतिनिधि पूजा ने उनसे बातचीत की है। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश :

जातिगत जनगणना को लेकर आपका क्या दृष्टिकोण है ?

जातिगत जनगणना होनी चाहिए, क्योंकि जनगणना जन की गणना है, चाहे वह जन किसी भी जाति से हो या किसी भी धर्म से हो। सर्वेक्षण और जनगणना में यही फर्क है। सर्वेक्षण में लोग कुछ क्षेत्र या कुछ सोसाइटी के अन्दर लोगों का चुनाव कर लेते हैं और उसका अध्ययन करते हैं, जनगणना में एक-एक व्यक्ति की व्यक्तिगत गणना की जाती है, और जब हम इस देश कि जनगणना करते हैं और इस देश के 80 या 78% आकड़ों को इकट्ठा ही न करें तो इस देश में जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी जो विभिन्न तरह की असमानताएं है उसका पता कैसे चलेगा।

बहुत ही लाज़मी-सी बात यह है कि जब तक आपको कमियों के बारे में या किसी के मजबूतियों के बारे में पता नहीं चलेगा तो बिना आंकड़ों के नीतियां कैसे बनायेंगे और यदि इसके बिना नीतियां बनीं भी तो इससे समाज का भला कैसे होगा। मेरी समझ से यह सबसे बड़ी बेईमानी होगी की बिना किसी को जाने अगर आप नीतियां बनाते हैं चाहे उनको समावेश करने की नीतियां हों या निष्कासन की नीतियां हों दोनों के फायदे और नुकसान के लिए हर व्यक्ति की जनगणना करना आवश्यक है। 80 % लोगों कि गणना यदि नहीं होगी तो कैसे आप उनके लिए सही नीतियां बना पाएंगे।

वर्तमान में देखा जाये तो केवल दलित व आदिवासियों कि गणना होती है जिनकी जनसख्या लगभग 23%, 24% या अधिकतम 25% होगी। इतने लोगों कि जनगणना होगी और यदि 75% से 78% लोगों की जनगणना ही नहीं होगी तो उस जनगणना का क्या मतलब है सिवाय रुपयों की बर्बादी, खानापूर्ति और दिखावे के और दुनिया को ये बताने के लिए कि हमारे यहां पारदर्शिता है।

इसका विरोध कौन कर रहा है और इसका समर्थन क्यों जरूरी है ?

इसे हमें जड़ से समझने कि ज़रूरत है। भारतीय समाज पौराणिक काल से ही असमानताओं से भरा हुआ है, जो धर्म पहले ब्रह्म धर्म के नाम से जाना जाता था उसको बाद में लोग सनातन धर्म और आज हिन्दू धर्म के नाम से जानते हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है और सबसे बड़ी कमी भी यही है कि हिन्दू धर्म वर्ण व्यवस्था से परिभाषित होता है और वर्ण व्यवस्था का मतलब जाति व्यवस्था से है और जाति व्यवस्था लोगों को जाति से ही ऊँच और नीच में विभाजित करती है। किसी को जन्म से श्रेष्ठ और किसी को जन्म से ही नीच पैदा करता है।

[bs-quote quote=”बहुत ही लाज़मी-सी बात यह है कि जब तक आपको कमियों के बारे में या किन्ही के मजबूतियों के बारे में पता नही चलेगा तो बिना आंकड़ों के नीतियाँ कैसे बनायेंगे और यदि इसके बिना नीतियां बनीं भी तो इससे समाज का भला कैसे होगा। मेरी समझ से यह सबसे बड़ी बेईमानी होगी कि, बिना किसी को जाने अगर आप नीतियां बनाते हैं चाहे उनको समावेश करने कि नीतियां हों या निष्कासन कि नीतियां हो दोनों के फायदे और नुकसान के लिए हर व्यक्ति की जनगणना करना आवश्यक है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह हिन्दू, सनातन और ख़ासकर ब्रह्म धर्म में सबसे महत्वपूर्ण कमियों के रूप में देखा जा सकता है। जिसकी वजह से इतिहास में देखें तो हजारों सालों में इनके विरुद्ध आन्दोलन हुआ और कई सम्प्रदाय और धर्म इससे अलग हो गये, और बड़ी संख्या में लोगों ने इस धर्म को अस्वीकार किया और दूसरे धर्म को स्वीकार किया। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है जो असमानता के रूप में इसके जड़ में बसा है। जिस समाज में हजारों सालों से जन्म से अवसर कि असमानता रही हो जन्म से हर चीज में आपको ऊँच और नीच का सामना करना पड़ा हो जिसको हम आजादी के बाद सामाजिक पिछड़ापन कहतें हैं यानि जन्म से पिछड़ापन, जब तक उस पिछड़ेपन के बारे में अध्ययन नही करते जिसकी संख्या इस देश में बहुसंख्यक है, फिर आज़ादी के बाद भी उसकी आज़ादी का महत्व वहीं खत्म हो जाता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों को समझने कि ज़रूरत है कि जातीय जनगणना जातीय विभेद पैदा नहीं करता बल्कि समाज के अन्दर की कमियों का आंकलन करता है और यहीं से न्याय के सिद्धांत की शुरूआत होती है, यहीं से न्याय लागू होना शुरू होता है, यही से असमानता ख़त्म होने कि पहली सीढ़ी की शुरुआत होती है और यहीं से जातियों के ख़त्म होने की शुरूआत भी होती है।

सबसे बड़ी बात जो लोग कहतें हैं इससे इस देश में जातियां कमज़ोर होंगी, जातियों में कलह होगा इसके जवाब में मैं यही कहना चाहूंगा कि इससे जातियां ख़त्म होंगी जातीय विभेद नहीं होगा ये जातियों को ख़त्म करने कि पहली सीढ़ी है। आप लोगों को लगेगा कि जातिगत जनगणना से जातियां कैसे ख़त्म होंगी इसके जवाब में मैं बताना चाहूँगा कि, मैं एक डॉक्टर हूँ मेरे पास जब भी कोई मरीज़ आता है तो हम उसकी जांच कराते हैं जाँच का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि, मैं उस कीटाणु का पता लगा सकूं जो इस बीमारी का कारक है और ये जो टेस्ट है वह जातिगत जनगणना है। उसके साथ समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक अध्ययन करेंगे और यही जनगणना का मुख्य उद्देश्य होगा। आप बाकी तो चीजें गिनतें हैं कि कितनी गायें और भैंस हैं कितनी बकरियां है ताकि टैक्स ले पायें उनसे, वो कार उपयोग करतें हैं मोबाइल उपयोग करते हैं टीवी उपयोग करतें हैं घर पक्का है या कच्चा है ये सारी जानकारी आप पहले ही लेते हैं इसमें सिर्फ दो सूचनाएं और जोड़नी है कि ये अगली जाति के हैं या पिछड़ी जाती के हैं बाकि दलित, आदिवासी, मुस्लिम, जैन, बौद्ध ये इन लोगों कि जानकारी आप पहले से ही ले रहे हैं इसमें सिर्फ दो स्तम्भ बढ़ाना हैं कि आप ऊँची जाति से हैं या नीची जाति से हैं और आपकी जाति क्या है तो इससे क्या होगा कि आप पूरे देश में इनका प्रतिनिधित्व तय कर पाएंगे। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, न्यायिक, शैक्षणिक सभी स्तर पर उनका इस देश में आज़ादी के बाद या आज़ादी से पहले समीकरण क्या रहा है, आज़ादी से पहले और बाद से हम इसलिए तुलना कर पा रहें हैं क्योंकि हमारे पास एक आधार है 1931 की जनगणना, जो आज़ादी से पहले कि अंतिम जातिगत जनगणना रही है और अब जो होगी वो आज़ादी के बाद कि पहली जातिगत जनगणना होगी।

[bs-quote quote=”आप बाकी तो चीजें गिनतें हैं कि कितनी गायें और भैंस हैं कितनी बकरियां है ताकि टैक्स ले पायें उनसे, वो कार उपयोग करतें हैं मोबाइल उपयोग करते हैं टीवी उपयोग करतें हैं घर पक्का है या कच्चा है ये सारी जानकारी आप पहले ही लेते हैं इसमें सिर्फ दो सूचनाएं और जोड़नी है कि ये अगली जाति के हैं या पिछड़ी जाती के हैं बाकि दलित, आदिवासी, मुस्लिम, जैन, बौद्ध ये इन लोगों कि जानकारी आप पहले से ही ले रहे हैं इसमें सिर्फ दो स्तम्भ बढ़ाना हैं कि आप ऊँची जाति से हैं या नीची जाति से हैं और आपकी जाति क्या है तो इससे क्या होगा कि आप पूरे देश में इनका प्रतिनिधित्व तय कर पाएंगे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो इससे आज़ादी के पहले कि स्थितियों में और आज़ादी के बाद समाज में आये बदलाव का हम अध्ययन कर सकते हैं। जब जातिगत जनगणना हो जाएगी तो हमारे पास एक ऐसा आंकड़ा होगा जो ये बताएगा की आमुक जातियों का कितना प्रतिनिधित्व किस जगह पर है। उनकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, स्तर पर  समाज में क्या स्तिथि है कौन कहाँ पर किस जगह स्टैंड करता है और क्या असमानताएं- समानताएं हैं इसके बारे हमें पता चलेगा। सामाजिक, शैक्षणिक और अन्य स्तर कि असमानताओं को दूर करने के लिए सरकार ठोस कदम उठाएगी। यानि कि जातिगत जनगणना वो आधार है जिसके आधार पर सरकार नीतियां बनाएगी और जब सरकार इनके लिए नीतियां बनाएगी तो इससे क्या होगा कि जो असमानताएं है वो वक्त के साथ धीरे- धीरे ख़त्म हो जाएँगी, यानि कि जो सरकार, शक्ति, स्रोत व नीति निर्धारक तत्व में विभिन्न जातियों का जो प्रतिनिधित्व है, जब वो धीरे-धीरे बढेगा तो लोगों के साथ अन्याय, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, राजनीतिक, असमानताएं समाज में ख़त्म हो जाएंगी। जन्म से जिन जातियों को लाभ मिला हुआ था वो ख़त्म हो जायेगा जातियां ख़त्म हो जाएंगी।

कुछ लोग जातियां क्यों कायम करके रखना चाहतें हैं क्योंकि किसी को जन्म से उसका लाभ मिला हुआ है, यानि कि जन्म से ही वो श्रेष्ठ हो जाता है। लेकिन वो श्रेष्ठता तब कायम होगी जब जातियों का वर्चस्व नीति निर्धारक तत्वों में और शक्ति के स्रोतों में जैसे धर्म, धंधा, जंगल, ज़मीन, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ऐसे जो स्रोत हैं उसमे जब बराबरी का हक़ हो जायेगा तो कोई भी जाति ये कह नही सकती कि मैं तुमसे ऊपर हूं। क्योंकि समाज में सबका सामान औधा होगा यानि जातियों को लोग तभी लेके चलेंगे जब उनसे लाभ होगा। एकदिन हम उस आधार पर पहुंच जाएंगे जहाँ हर जाति सामान हो जाएगी और जब जातियां समान हो जाएंगी तो, समान चीज को कोई क्यों आगे ढोयेगा। जातियों को लोग तभी लेकर आगे जायेंगे जब जातियों में असमानताएं हो किसी को उससे फ़ायदा तो किसी को नुकसान होगा तभी लोग उसको लेकर आगे जायेंगे जब असमानताएं ही ख़त्म हो जाएंगी तो लोग जाति को क्यों लेकर चलेंगे।

क्या जातिगत जनगणना के लिए सरकार तैयार होगी ?

अब ये सरकार पर निर्भर करता है कि इसका क्या निर्णय होगा सकारात्मक या नकारात्मक, या सिर्फ दिखावे के लिए जनगणना होगी या वास्तविक जनगणना होगी। आप जानते हैं कि, जो समाज इस देश में कई सालों से राज़ कर रहें है वो हिन्दुओं और ब्रह्म् धर्म के कर्ता-धर्ता हैं, और वो असमानता में विश्वास रखते हैं इसलिए उन्होंने हिन्दू जैसा धर्म बनाया और उनकी आज सत्ता है, हिन्दुवाद कि सत्ता है। तो इनका कभी अन्दर से तो न्यायिक चरित्र रहा नहीं। उनके अन्दर न्यायिक चरित्र नहीं होने के कारण पहले तो कोशिश ये होगी कि जनगणना न हो और यदि हो भी जाये तो ऐसी कि जाये जहाँ बेईमानी करके आकड़ों से छेड़छाड़ करने कि जगह हो। तीसरी इस आधार पर करें कि वो आंकड़ें बाहर ही नहीं आये जैसे आपने  2011 में देखा कि जनगणना के आकड़ें बाहर ही नही आये, जनगणना हुयी या नही ये भी समझ नही आया उसके आकड़ें हमारे पास नहीं हैं। इन सब चीजों को समझने कि बहुत ज़रूरत है।

[bs-quote quote=”पहली बात सरकार कोशिश करेगी कि जनगणना हो ही नहीं और दूसरी कोशिश होगी कि यदि हो भी जाये तो ये 1948 का जो जनगणना कानून है उस आधार पर नहीं हो। 1948 जनगणना संबंधित जो कानून है वो ये कहता है कि जनगणना एक सार्वजनिक प्रतिक्रिया है और अगर उस कानून के आधार पर जातीय जनगणना होती है तो, उनको जनगणना के सभी आकड़ों को सार्वजनिक करना होगा और पिछले 2011 में यही बेईमानी हुयी जनगणना तो हुयी लेकिन 1948 के एक्ट का तहत नहीं की गयी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पहली बात सरकार कोशिश करेगी कि जनगणना हो ही नहीं और दूसरी कोशिश होगी कि यदि हो भी जाये तो ये 1948 का जो जनगणना कानून है उस आधार पर नहीं हो। 1948 जनगणना संबंधित जो कानून है वो ये कहता है कि जनगणना एक सार्वजनिक प्रतिक्रिया है और अगर उस कानून के आधार पर जातीय जनगणना होती है तो, उनको जनगणना के सभी आकड़ों को सार्वजनिक करना होगा और पिछले 2011 में यही बेईमानी हुयी जनगणना तो हुयी लेकिन 1948 के एक्ट का तहत नहीं की गयी। इसीलिए सरकार वो आंकड़े देने को बाध्य नहीं है या न आप किसी कोर्ट में जाकर लेने के बाध्य हैं। दूसरी बात यह जनगणना डिजिटल जनगणना थी जिसमे एक शून्य इधर- उधर हो गया तो कहानी उलट-पलट जाएगी तो थोड़े से ही हेर-फेर से आप डिजिटल आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं। जैसे आप इवीएम से छेड़छाड़ कर सकते हैं, जैसे किसी कम्प्यूटर से कर सकते हैं। वो आंकड़ों में ही सेंधमारी करके इधर- उधर कर सकते हैं। इसलिए आंकड़े डिजिटल नही होने चाहिए ये दिखावटी नही होने चहिये इनकी जनगणना सिर्फ 1948 के कानून के हिसाब से होनी चाहिए और जनगणना के सभी आंकडें सार्वजनिक होने चाहिए। मान लीजिये कि जनगणना 1948 के हिसाब से हो भी गया तो भी ये डिजिटल नही होना चाहिए। क्योंकि फिर आंकड़ों से छेड़छाड़ करने की ज्यादातर सम्भावना होगी।

वर्तमान में जो सरकार है वो इसे राजनीतिक तौर पर देखेगी, जो सरकार में लोग हैं या उनके जो बौद्धिक गुरु हैं वो सभी ब्रह्म धर्म को चलने वाले लोग हैं इस धर्म में जो शुरुवाती असमानताएं हैं उनके जड़ में बसी हुयी हैं। वो लोग असमानताओं में विश्वास करने वाले लोग हैं। तो पहली कोशिश तो यही होगी कि जनगणना न हो, लेकिन आगे राजनितिक मज़बूरी हो और आन्दोलन चले तो वो इसके लिए मज़बूर हो जायेंगे और अगर हो भी जाएंगे तो जिन तीन तरह कि बेईमानी कि बात कही मैंने उनकी कोशिश की जाएगी। और इस सब के लिए रणनीति हमारे पास होनी चाहिए जो लोग या जो बौद्धिक समाज इस जनगणना कि बात करते हैं उनको इसके लिए भी संघर्ष करना होगा। सिर्फ जातिगत जनगणना हो जाये यहीं से काम नही होगा, बल्कि जातिगत जनगणना 1948 के कानून के हिसाब से हो एक रजिस्टर मेन्टेन हो, ये डिजिटल नही हो, और इसके अलावा इसके आंकड़े प्रकाशित हों और इसके आधार पर ही आगे कि नीतियां निर्धारित हों। क्योंकि आजतक आप देखेंगे जितने भी आरक्षण या इससे सम्बंधित मामले न्यायालय में गये तो उन्होंने हमेशा कहा है यहाँ तक कि आंध्र प्रदेश न्यायलय 2020 का एक निर्णय है जिसमे कहा गया है सरकार को आंकड़े अपडेट करने चाहिये कि किसकी क्या जनगणना कि जा रही है तो ये क़ानूनी वही आधार कोर्ट भी कह रहा है चूँकि आरक्षण के मामलों में लगातार बढोत्तरी हो रही है।

कुछ आदमी बौद्धिक तौर पर बेईमान है जो नही चाहतें हैं कि ये असमानताएं ख़त्म हों समाज से, जो चाहते हैं कि ये अँधेरा बना रहे कि कौन किसका कितना है हम इसका एक काल्पनिक आकड़ा सामने पेश करते रहें । इससे हर वर्ग का फायदा होगा उन वर्ग के लिए भी ज़रूरी है जो उच्च जाति से आते हैं क्योकि उन्हें भी अब आरक्षण मिल रहा है उनके लिए भी जातिगत जनगणना जरुरी है कि, क्या वो 10% के लायक हैं उनका कहाँ क्या प्रतिनिधित्व है । इस देश में आरक्षण कि ज़रुरत तब तक होगी जब तक इस देश में जातियां ख़त्म नहीं हो जाती, जन्म से ऊँच-नीच का भाव ख़त्म नही हो जाता और जब तक इस देश में समान शिक्षा के मौलिक अधिकार हर व्यक्ति को प्राप्त न हो जाये।

जातिगत जनगणना करने की रणनीती क्या होनी चाहिए ?

जातिगत जनगणना करने की दो रणनीतियां है एक सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक तो यह है कि इस देश के अन्दर जो भी राजनितिक या सामाजिक व्यक्ति हैं उनको गाँव में लोगों को जागृत करना होगा छोटी- छोटी सभाएं करनी होंगी और उसके बाद एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करना होगा। कहा जाए कि गाँव से पोस्टकार्ड लिखकर प्रधानमंत्री जी को भेजिए। इस मुद्दे को फेसबुक, सोशल मीडिया, ट्विटर पर ट्रेंड करा सकते हैं।

[bs-quote quote=”ये जनगणना होगी तो सबसे ज्यादा लाभ पिछड़ी जाति को होना है और पिछड़ी जातियों का जो अंतःकलह वो भी मिट जायेगा। क्योंकि वास्तविक आंकड़े सामने होंगे कि, किस जाति की संख्या कितनी है उसके बाद उसका प्रतिनिधित्व कितना है आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और इस तौर पर शैक्षणिक अलग अलग औधे में क्या प्रतिनिधित्व है, नीति निर्धारक तत्वों में किसकी क्या भूमिका है, मीडिया में और सरकार के विभिन्न अंगों में उनका क्या स्थान है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सड़कों पर आकर प्रदर्शन कर सकतें हैं और जो सत्ता के अन्दर हैं जैसे कि दलित और पिछड़ी जाति के लोग सत्ता के अन्दर भी हैं और विपक्ष में भी हैं, तो जो विपक्ष के लोग है वो आन्दोलन के तरीकों से मनवा सकते हैं। क्योंकि आपकी संख्या अधिक है तो आप ऐसी घोषणाएं कर दीजिये चुनाव में हम वोट नहीं देंगे राजनितिक पार्टियाँ इससे दबाव में आएंगी। इसके आलावा एक नकारात्मक तरीका भी वो ये है कि, अगर दलित, आदिवासी की आप पहले से ही जनगणना करते हैं मुसलमानों कि करते ही हैं सिर्फ दो ही जातियां हैं जिनकी जनगणना नहीं करते हैं वो हैं सवर्ण और पिछड़ी जाति। और सवर्ण इस जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं तो पिछड़ी जाति के लोगों को सिर्फ एक काम करने कि ज़रूरत है कि जो जनगणना करने आये व्यक्ति को अपनी जानकारी दे ही ना, सरकार को अपने आप पता चल जायेगा की देश में कितने आंकड़ें उन्होंने नहीं जुटाए और जो नही जुटाए वो पिछड़ी जातियों के हैं।

हालांकि सरकार इसके प्रति उदासीन है लेकिन क्या आगामी विधानसभा चुनाव पर इसका असर पड़ेगा ?

जो भी राजनेता समझदार है अगर वो इस मुद्दे पर जनांदोलन बनाने में सक्षम होते हैं, तो ये 2022 के चुनाव में एक मत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। ये दलित, पिछड़े, आदिवासियों के नेताओ पर निर्भर करता है चाहे वो किसी भी पार्टी के अन्दर हों अपने विचार प्रमुखता से समाज के व्यक्ति को कहना चाहिए कि चाहे आप जिस भी पार्टी में हों अगर आप हमारे इस मुद्दे के साथ हैं तभी हम आपके साथ हैं। क्योंकि यहाँ से जातियां, गरीबी, असमानताएं ख़त्म होंगी और यहाँ से हमारे मौलिक अधिकार की समानता और महिलाओं के अधिकारों कि समानता व शोषण से मुक्ति मिलेगी। अगर ये करने में सक्षम हुए तो ज़रूर ये मुद्दा आने वाले चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा होगा।

आमतौर पर ओबीसी मध्य वर्ग इसके प्रति उदासीन है, इससे उसे क्या नफा या नुकसान होने वाला है ?

आज के समय में जिसके साथ सबसे ज्यादा अन्याय हो रहा है वो पिछड़ी जातियां हैं क्योंकि दलितों और आदिवासियों के आरक्षण पहले से निर्धारित हैं और उनको मिल रहा है। जो उच्च वर्ग के कुलीन लोग है  वो अपने से ज्यादा आरक्षण ले रहें हैं, तो वर्ग तो चार ही हैं एक दलित हैं, एक आदिवासी कुलीन और पिछड़ी जातियां हैं। दलित आदिवासी अपने अधिकार खुद ले ले रहें हैं अब बचा कौन कुलीन और पिछड़ी जातियां अगर कुलीन जातियां अगर किसी के अधिकार लेकर अपने आप को संवर्धित कर रही हैं किसी के खर्च पर किसी के बदौलत तो वो पिछड़ी जातियों के हक़ है। और ये जनगणना होगी तो सबसे ज्यादा लाभ पिछड़ी जाति को होना है और पिछड़ी जातियों का जो अंतःकलह वो भी मिट जायेगा। क्योंकि वास्तविक आंकड़े सामने होंगे कि, किस जाति की संख्या कितनी है उसके बाद उसका प्रतिनिधित्व कितना है आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और इस तौर पर शैक्षणिक अलग अलग औधे में क्या प्रतिनिधित्व है, नीति निर्धारक तत्वों में किसकी क्या भूमिका है, मीडिया में और सरकार के विभिन्न अंगों में उनका क्या स्थान है। क्योकि इस देश कि बहुसंख्यक आबादी तो वही है इस लिए सरकार डरी हुयी है वो लोग डरे हुए हैं जो इनके अधिकार खा रहें हैं। लोग दलित के अधिकार नही खा रहें हैं सबसे ज्यादा अधिकार पिछड़ी जातियों के खा रहे हैं, तो इससे सबसे ज्यादा फायदा पिछड़ी जातियों को होना है। इससे लोगों को उनका हक़ पता होगा। जातिगत जनगणना का जब शोध होगा जो भी आंकड़ें सामने आयेंगे इससे इस देश से समाज से जातियां अपने आप ही ख़त्म हो जाएंगी अंतःकलह ख़त्म होगा और वास्तव आपको सच पता हो कि आपके पिता जी कि चार एकड़ ज़मीन है और आप चार भाई हैं तो आप उसे बराबर-बराबर बांट सकेंगे, और यही पता नही है कि चार भाई कि कितनी ज़मीन है तो कैसे बांटी जाएँगी।

मेरे हिसाब से ये जनगणना होनी चहिये और सभी लोगों को अपने अधिकारों के लिए बच्चे, जवान,बूढ़े हर किसी को इसके लिए संघर्ष करना चाहिए और जनगणना में जब जन कि गणना ही नहीं तो फिर इसका मतलब क्या है तो ऐसी जनगणना दिखावटी एक कहानी होगी। इससे किसी को न्याय नहीं मिलेगा न्याय कि शुरुवात जनगणना से ही होती है अन्याय मिटाने की शरुआत और न्याय दिलाने कि शुरुवात भी यहीं से होती है।

 

गाँव के लोग
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