Thursday, March 28, 2024
होमसंस्कृतिभारत में जाति एक ऐसा कोढ़ है जिसे निरंतर खुजलाए जाने की...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

भारत में जाति एक ऐसा कोढ़ है जिसे निरंतर खुजलाए जाने की जरूरत रहती है

बातचीत का तीसरा और अंतिम हिस्सा   क्या आपको लगता है कि अभी तक का दलित साहित्य ब्राह्मणवाद की आलोचना तक सीमित है, उसमें विकल्प में उतना जोर नहीं दिया गया है ?  रावत जी, काश! मैं कह पाता कि यह आरोप गलत है। इसके विपरीत न चाहते हुए भी मुझे इस मुद्दे पर पुन: मुझे राजेन्‍द्र यादव और […]

बातचीत का तीसरा और अंतिम हिस्सा

 

क्या आपको लगता है कि अभी तक का दलित साहित्य ब्राह्मणवाद की आलोचना तक सीमित हैउसमें विकल्प में उतना जोर नहीं दिया गया है ?

 रावत जी, काश! मैं कह पाता कि यह आरोप गलत है। इसके विपरीत न चाहते हुए भी मुझे इस मुद्दे पर पुन: मुझे राजेन्‍द्र यादव और राजेश चौहान के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। जैसाकि मैंने आत्‍मकथाओं के संबंध में आपसे पहले साझा किया है। मैं इसे पुन: दोहरा देना चाहता हूं जो जरूरी भी है और प्रासांगिक भी। बकौल राजेन्‍द्र यादव ‘दलित का सारा लेखन सवर्णों के खिलाफ आरोप-पत्र जैसा है।’ यही बात डा. राजेश चौहान के अनुसार-दलित साहित्‍य ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एफआईआर की तरह लिखा गया है, ऐसी किसी एफआईआर के आधार पर कार्यवाही होना बड़ी बात है।

डॉ. धर्मवीर के साथ ईश कुमार गंगानिया

मैं क्षमा याचना के साथ कहना चाहता हूं कि लगभग पचास वर्ष की लम्‍बी यात्रा के बावजूद दलित साहित्‍य आज भी इसी पैट्रन पर लिखा जा रहा है। यहां मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं। इसके लिए मैं मोटे तौर पर इस साहित्‍य के वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों को भी जिम्‍मेदार मानता हूं। उन्होंने कनिष्‍ट रचनाकारों के आरोप-पत्र रूपी साहित्‍य के न तो खतरों को समझा और न उनका ईमानदारी से सहानुभूतिपूर्ण खंडन ही किया। मार्गदर्शन तो दूर की बात है। जब खंडन व मार्गदर्शन ही नहीं किया तो फिर परिवर्तन की उम्‍मीद कहां से आएगी। इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि ये तथाकथित वरिष्‍ठ साहित्‍यकार स्‍वयं वैचारिक क्राइसिस के शिकार रहें हैं। दूसरे, खेद के साथ कहना पड़ रहा है मैंने खुद बहुत सारे वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों को असुरक्षित व झूठी लोकप्रियता हासिल करने के लिए अशोभनीय हथकंडे अपनाते देखा है। इनके लेखन में भी निरंतर इनोवेटिव एप्रोच का जबदस्त अभाव नजर आता है। संभवत: ये इनोवेटिव एप्रोच को स्‍पेस ही नहीं देना चाहते। कहने की जरूरत नहीं कि दलित साहित्‍य की लगभग सारी ऊर्जा ब्राह्मणवाद को कठघरे में खड़ा करने में जाया हो रही है। गौलतब यह भी है कि इस संबंध में भी नया कुछ नहीं है जो पहले सैंकड़ों-हजारों बार न दोहराया गया हो।

 मुझे इस समस्‍या के विकराल रूप धारण करने के पीछे आत्‍ममंथन का अभाव लगता है। शायद, हम यह मान कर चल रहें हैं कि ब्राह्मणवाद को बार-बार एक्‍सपोज करने से समता, स्वतंत्रता व बंधुता का लक्ष्‍य प्राप्‍त हो जाएगा। दूसरी वजह यह भी है कि हम आत्‍ममंथन से डरते हैं। यदि कोई अपने अंदर का व्‍यक्ति भी अपने अंदर की कमजोरियों को सार्वजनिक करता है, तो उसे दुश्‍मन की तरह देखा जाता हैं और ब्राह्मणवादियों की श्रेणी में रखकर उसकी आलोचना करते हैं। मेजोरिटी के दम पर उसे हतोत्‍साहित व बायकाट करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि अम्‍बेडकरवाद और आजीवक (यहां मैं आजीवक के फर्जी पैरोकारों की बात नहीं कर रहा हूं।) के पैराकार इस मेजोरिटी आतंक के शिकार हुए हैं क्‍योंकि इन्‍होंने संवाद के अवसरों की सामूहिक हत्‍या कर दी गई।

 मुझे इसकी एक खास वजह यह भी नजर आती है कि हम अपनी गंदगी तो कार्पेट के नीचे छिपाकर रखना चाहते हैं लेकिन सामने वाले की गंदगी को दशकों से एक ही अंदाज में उछाले जाने से कभी बोर नहीं होते। शायद ऐसा करने में हमे सोचने-विचारने के लिए कोई मेहनत-मशक्‍कत की जरूरत नहीं होती है। सब माल मुफ्त में उपलब्‍ध है। यह तो वही बात हो रही है, मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन।

 यदि मैं इसे दूसरे रूप में बताने का प्रयास करूं तो स्थिति ज्‍यादा स्‍पष्‍ट हो सकती है। दरअसल, हम निरंतर आईने को साफ करने में हलकान हुए जा रहे हैं और यह नहीं समझ पर रहे हैं कि गंदगी आईने में नहीं, गंदगी हमारे फेस पर है। यदि हमने अपने फेस को साफ कर लिया तो आईना साफ करने में ऊर्जा जाया करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यहां मेरा तात्‍पर्य आत्‍ममंथन से है जिस दिन हमने आत्‍ममंथन से उपजे निष्‍कर्षो को ईमानदारी से अंगीकार कर इस पर काम करना शुरु कर दिया हमें अपनी अधिकतर समस्‍याओं के समाधान के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

[bs-quote quote=”यह इनके जातिवादी कारतूसों के बैक-फायर का ही परिणाम है कि हम तथागत बुद्ध, कबीर, डा. अम्‍बेडकर, फुले, पेरियार आदि सभी को जाति की कीच में घसीटने से बाज नहीं आते। फर्जी आजीवक के पैरोकारों ने तो इस कीच को दलदल का अखाड़ा बना छोड़ा है। वे खुद तो इस दलदल में फंसे हैं और अन्‍य को भी इसी दलदल में फंसाकर अपनी चौहदराट स्‍थापित करने के पक्षधर हैं। लगता है हर साख पे उल्‍लू बैठा है, मगर यह तो समय ही बताएगा कि अंजाम ए गुलस्तिां क्‍या होगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

बहुत से साहित्यकारों ने बुद्ध और कबीर की जातिया भी ढूंढ निकाली ? क्या कहेंगे इस विषय में ?

रावत जी, इसमें कोई संदेह नहीं है भारत में जाति एक ऐसा कोढ़ है जिसे निरंतर खुजलाए जाने की जरूरत रहती है ताकि यह कोढ़ निरंतर बना रहे और इसका उपचार न हो सके। इसका लाभ जातिवादियों को मिलता है जो जाति की विरासत में निरंतर फल-फूल रहे हैं। लेकिन दलित साहित्‍यकार जाने-अनजाने इस छूत का शिकार हो गए हैं। इसलिए इनके सोने-जागने, उठने-बैठने और सांस लेने तक में जाति ने अपनी घुसपैठ कर ली है। बाबा साहब ने जातिवादियों के बारे एक बड़ी खूबसूरत बात कही थी जो सार रूप में कुछ इस प्रकार है-उनके लिए नैतिकता, न्‍याय और व्‍यवहार जाति के आधार पर तय होता है। यदि व्‍यक्ति उनकी अपनी जाति का है तो नैतिकता, न्‍याय और व्‍यवहार के सारे मानदंड अलग होंगे, सकारात्‍मक होंगे। यदि व्‍यक्ति किसी दूसरी जाति का है तो यही मानदंड एकदम अलग होंगे यानी नकारात्‍कमक होंगे।

ईश कुमार गंगानिया द्वारा लिखित पुस्तक

खेद का विषय है कि दलितों ने जातिवादियों से लड़ने के लिए जाति को अपना हथियार बना लिया है। बकौल तथागत आग से आग कभी नहीं बुझती यह पानी से बुझती है। इसलिए मुझे लगता कि दलित साहित्‍य जाति के टूल से जाति उन्मूलन की जंग कभी नहीं जीत पाएगा। मुझे ऐसा लगता है दलित साहित्यकारों के कारतूस बैक-फायर कर रहे हैं इसलिए ये अपनी जातियों को मजबूत कर रहे हैं और जातियों के महिमं‍डन के इतिहास लिख रहे हैं। ये प्रत्‍यक्ष व परोक्ष रूप से जातियों के आधार पर गोलबंद हो रहें हैं और इसी आधार पर संगठन बना रहे हैं। ऐसा कार्य करके ‘दलित’ को वर्ग या ब्रोडर यूनिटी बनाने की अपेक्षा अपने अंदर एक घातक विभाजन को जन्म दे रहे हैं।

यह इनके जातिवादी कारतूसों के बैक-फायर का ही परिणाम है कि हम तथागत बुद्ध, कबीर, डा. अम्‍बेडकर, फुले, पेरियार आदि सभी को जाति की कीच में घसीटने से बाज नहीं आते। फर्जी आजीवक के पैरोकारों ने तो इस कीच को दलदल का अखाड़ा बना छोड़ा है। वे खुद तो इस दलदल में फंसे हैं और अन्‍य को भी इसी दलदल में फंसाकर अपनी चौहदराट स्‍थापित करने के पक्षधर हैं। लगता है हर साख पे उल्‍लू बैठा है, मगर यह तो समय ही बताएगा कि अंजाम ए गुलस्तिां क्‍या होगा।

[bs-quote quote=”प्रत्‍येक नागरिक की स्‍वत: जिम्‍मेदारी हो जाती है कि वह लोकल के साथ-साथ ग्‍लोबल मुद्दों के प्रति भी जागरुक बना रहे और अपनी यथासंभव रचनात्‍मक भूमिका अदा करता रहे। इसलिए पूंजीवाद या उदारीकरण ही व्‍यक्ति के अजेंडे में शामिल नहीं रहेंगे बल्कि प्रत्‍येक मुद्दा विश्‍व नागरिक के ऐजेंड में रहेगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 महिलाओं के प्रश्न पर भी बहुत द्वंद्व नज़र आते हैं। कई बार तो बेहद अशालीन भाषा का इस्तेमाल होता है। मैं जानना चाहता हूँ ये ‘जार कर्म क्या होता है और आप ऐसी भाषा को किस सन्दर्भ में देखते है

 रावत जी, मुझे इस बात को स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि महिलाएं पुरुषवादी मानसिकता का शिकार कल भी थीं और आज भी हैं। इसके प्रामाणिक उल्‍लेख महिलाओं के लेखन और उनकी आत्‍मकथाओं में बराबर देखने को मिलते हैं। महिलाएं आमतौर पर दो स्‍तर पर अभिशाप झेलती हैं। एक-परिवार के स्‍तर पर और दूसरे परिवार से बाहर। लेकिन दलित महिलाएं एक तीसरा अभिशाप भी झेलती है, वो है-दलित महिला होने के नाते। लेकिन जैसाकि मैंने पहले जिक्र किया है कुछ हमारे अधिक विद्वान साथी अपनी पारिवारिक असफलताओं के कारण कुंठाग्रस्‍त हो जाते हैं। वे अपनी कुंठाओं को साहित्‍य का सामान बनाते हैं और सस्‍ती लो‍कप्रियता हासिल करने की मुहिम चलाते हैं।

 ऐसे मामले में मुंशी प्रेमचंद की कहानी कफन का अक्‍सर इस्‍तेमाल किया जाता है। मेरे पास नाम लेने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है, इसलिए डा. धर्मवीर के नाम का उल्‍लेख करना मेरी मजबूरी है क्‍योंकि वर्तमान संदर्भ में ‘जार-कर्म’ के पद का इस्‍तेमाल उन्‍हीं ने किया है। वे मुंशी प्रेमचंद के परिवार को लेकर और प्रेमचंद की नीली आखों को लेकर उन पर जार होने का आरोप लगा चुके हैं। कफन कहानी के संबंध में भी बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्‍चा बताकर ठाकुर को नहीं, बुधिया को जार-कर्म का दोषी ठहराते हैं और घीसू व माधव के असंवेदनशील व गैर-जिम्‍मेदाराना आचरण को प्रतिरोध के रूप में देखते हैं, ठीक ठहराते हैं।

इतना ही नहीं डा. धर्मवीर साहित्‍य की जंग को अपने तक भी घर ले जाने में संकोच नहीं करते हैं। वे अपनी आत्‍मकथा मेरी पत्‍नी और भेडि़या में एक प्रकार से अपनी पत्‍नी को बुधिया की तर्ज पर अपराधी ठहराते हैं और खुद घीसू और माधव की तर्ज पर स्‍वयं प्रतिकार करते नजर आते हैं। यहां भी जब उन्‍हें अपनी कुंठा राहत नहीं मिलती तो वे अपनी कुंठा को पूरे दलित समाज पर थोपते हैं। वे दलित समाज की महिलाओं को जार की श्रेणी में रखकर टिप्‍पणी करते है कि दलित पुरुष गैर-दलितों की अवैध संतानों की परवरिश के लिए अभिषप्‍त हैं। बड़े खेद का विषय है कि अपनी पत्‍नी व पूरे समाज की महिलाओं को जार-कर्म से आरोपित करना हिन्‍दूवादी किसी भी धर्मग्रंथ में नहीं मिलेगा, लेकिन धर्मवीर के यहां सक जायज है। आज डा. धर्मवीर हमारे बीच नहीं हैं, संभवत: वे सारी कुंठाओं से मुक्‍त हैं लेकिन वे अपने पीछ फर्जी आजीवकों की एक छोटी-सी फर्जी जमात पीछे छोड़ गए हैं वो आज भी उनके द्वारा की गई जुगाली को अपने मुंह में लिए बैठे हैं और समय-समय पर जार कर्म को लेकर अपना मुंह चलाने से बाज नहीं आते। संभवत: समय ही करेगा उनके भी भविष्‍य का फैसला, मुझे उनके बारे में कुछ और नहीं कहना है। जाहिर है, जरूरत भी नहीं है।

 

आर्थिक उदारीकरण के दौर में हमारे साहित्य को क्या पूंजीवाद के खतरों को भी अपने अजेंडा में शामिल नहीं करना चाहिए ?

रावत जी, जैसाकि मैंने आपसे शुरु में चर्चा की है कि दलित समाज का व्‍यक्ति या गैर-दलित समाज का संवाहक, वह विविधताओं से भरे समाज और राष्‍ट्र का नागरिक भी होता है। इस नाते वह ग्‍लोबल विलेज का नागरिक भी स्‍वत: ही हो जाता है। इसलिए प्रत्‍येक नागरिक की स्‍वत: जिम्‍मेदारी हो जाती है कि वह लोकल के साथ-साथ ग्‍लोबल मुद्दों के प्रति भी जागरुक बना रहे और अपनी यथासंभव रचनात्‍मक भूमिका अदा करता रहे। इसलिए पूंजीवाद या उदारीकरण ही व्‍यक्ति के अजेंडे में शामिल नहीं रहेंगे बल्कि प्रत्‍येक मुद्दा विश्‍व नागरिक के ऐजेंड में रहेगा। गौरतलब यह है कि सबसे महत्‍वपूर्ण विषय प्राथमिकता निर्धारण का रहेगा। कौन-सा मुद्दा कब, कैसे और कितना अपने अजेंडे पर रहेगा, यह समय, काल और परिस्थितियां तय करेंगी। उम्‍मीद है आप मेरा आशय समझ गए होंगे।

गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

1 COMMENT

  1. अच्छा विश्लेषण है।सचेतन तौर पर अम्बेडकर और बुद्ध के सामाजिक, सांस्कृतिक, जातिगत मसलों पर उनकी सोंच और इसके कारण उपजी गंभीर समस्याओं के उन्मूलन हेतु उनके बताए मार्ग पर कहीं पर भी ईमानदारी और मेहनत से काम हुआ नहीं ।परिणाम सामने है।जैसा कि आप हमेशा कहते हैं कि विकल्प के बगैर कोई भी कवायद थोथी जुगाली है ।इस आलेख को पढ़कर भी वही बात फिर आती है कि सिर्फ दूसरे को कोसकर,कठघरे में खड़ा कर हम आत्मसंतुष्ट तो हो लेंगे,जैसा की होते ही हैं,पर कोई ठोस परिणाम आना नामुमकिन है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें