Tuesday, March 19, 2024
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संविधान और डॉ. अम्बेडकर

भारत की स्वतंत्रता कोई एकाकी घटना नहीं थी। वास्तव में इसके साथ आजादी के मायनों की गंभीर पड़ताल भी जुड़ी हुई है। इसी के साथ हमें यह भी मानना होगा कि भारत की आजादी का क्षण महज सत्ता के हस्तांतरण का क्षण नहीं था। भारत का संविधान इस बात की तस्दीक भी करता है कि […]

भारत की स्वतंत्रता कोई एकाकी घटना नहीं थी। वास्तव में इसके साथ आजादी के मायनों की गंभीर पड़ताल भी जुड़ी हुई है। इसी के साथ हमें यह भी मानना होगा कि भारत की आजादी का क्षण महज सत्ता के हस्तांतरण का क्षण नहीं था। भारत का संविधान इस बात की तस्दीक भी करता है कि भाषा, रियासती व्यवस्था, धर्म, विचार, संस्कृति, प्रकृति और अन्य तमाम विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने का लक्ष्य सबसे संवेदनशील लक्ष्य बन गया था। इसे हासिल करने का जरिया बना भारत का संविधान।

इस बात से सभी वाकिफ हैं कि इस संविधान को एक स्वरूप देने में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की भूमिका सबसे केंद्रीय थी। इससे भी आगे यह कहना भी जायज है कि वास्तव में भारत के संविधान को एक स्वभाव और चरित्र प्रदान करने में भी डॉ. अम्बेडकर की अहम भूमिका रही। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि यदि मैं उस घिनौनी गुलामी और मानवीय अन्याय को मिटाने में विफल रहा, जिसके साथ मैं जन्मा और कराहता रहा हूँ, तो मैं बन्दूक की एक गोली से अपने जीवन का अंत कर लूंगा। (रेवांकर, 1971)।

वास्तव में भारत के संविधान के अध्ययन से यह बात स्पष्ट भी होती है कि दुनिया के तमाम देशों के संविधानों और विधानों से सन्दर्भ और प्रावधान लेकर इसका बड़ा हिस्सा तैयार किया गया, किन्तु इसके भारतीयकरण का भाव उन प्रावधानों में स्पष्ट दिखाई देता है, जिनमें मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व और बहिष्कृत तबकों के लिए आरक्षण सरीखी व्यवस्थाएं की गई हैं।

डॉक्टरेट की चार उपाधियां पाने वाले भीमराव अम्बेडकर भारतीय समाज की विसंगतियों के गहरे प्रभावों का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। वे हिंदू महार जाति में जन्मे थे, जिसे अछूत माना जाता था और इसी कारण उन्हें जीवन भर उपेक्षा व अपमान का सामना करना पड़ा। शिक्षा से लेकर रोजगार तक हर कदम पर उनका तिरस्कार झेलना पड़ा। हम सब जानते हैं कि डॉ. अम्बेडकर कानून के विशेषज्ञ थे; किन्तु जरा उनकी शिक्षा के बारे में जानिये। उनके शोध विषयों की सूची यह है –

  • नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया – अ हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी
  • इवोल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया
  • एन्शियंट इंडियन कॉमर्स
  • भारत में जातियाँ, उनकी प्रणालियाँ, उत्पत्ति और विकास
  • द प्रॉब्लम ऑफ रुपया – इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशंस

[bs-quote quote=”सभी नागरिकों को अवसर समता प्राप्त होनी चाहिए। इस सभा के अनेक सदस्यों की यह इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति को, जो किसी विशेष पद के लिए योग्य हो, इस बात की आजादी होना चाहिए कि वह उसके लिए आवेदन कर सके। परीक्षा में बैठ सके और यह निश्चित करने के लिए कि वह पद के योग्य है या नहीं, उसकी योग्यता की जाँच होनी चाहिए और इस सम्बन्ध में अवसर-साम्य के सिद्धांत को अमल में लाने पर कोई प्रतिबन्ध, कोई बाधा नहीं होना चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यानी अम्बेडकर ने भारत की व्यवस्था को सबसे माकूल नजरिए- राजनीतिक अर्थशास्त्र के नजरिए से जाँचा परखा था। उनके पूरे संघर्ष में उन्होंने माना कि छुआछूत गुलामी से भी बदतर है। यही कारण है कि उन्हें दो मैदानों में एक साथ संघर्ष करना था- पहला भारत की उपनिवेशवाद से आजादी का स्वरूप कैसा हो? और दूसरा आजाद भारत की व्यवस्था भीतरी उपनिवेशवाद से कैसे मुक्त हो? यही कारण है कि डॉ. अम्बेडकर भारत को ब्रिटिश डोमिनियन के अंतर्गत स्वतंत्र देश के रूप में देखने की चाहत रखते थे।

डॉ. अम्बेडकर ने भारत सरकार अधिनियम, 1919 तैयार कर रही समिति के सामने अपनी मांगें रखकर दलितों और अन्य वंचित धार्मिक-सामाजिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की थी। इसके बाद साइमन कमीशन का भारत में बड़े स्तर पर विरोध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सिफारिशें लिखकर कमीशन को भेजीं। वे भारतीय समाज में छुआछूत और भेदभाव को मिटाने के लक्ष्य पर टिके रहे। इसके बाद उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भी अपना पक्ष रखा। अम्बेडकर जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका चाहते थे, परन्तु महात्मा गाँधी धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका को देश के खंडित होने की आशंका के रूप में देखते थे।

डॉ. अम्बेडकर, वैयक्तिक स्वतंत्रता का संघर्ष व संविधान

बम्बई विधान परिषद में अगस्त 1923 को एसके बोले ने एक प्रस्ताव रखा कि ‘परिषद यह अनुशंसा करती है कि पानी के सभी सार्वजनिक स्रोतों, कुओं, धर्मशाला, स्कूल, अदालत, दफ्तर और चिकित्सालय, जिनका निर्माण शासकीय संसाधन से हुआ है या जिनका प्रबन्धन सरकार द्वारा नियुक्त निकाय करते हैं, का उपयोग करने की सभी अछूतों/ वंचित तबकों के लोगों को अनुमति है।’ यह प्रस्ताव पारित कर दिया गया।

बम्बई प्रांतीय परिषद के तहत आने वाली महाड़ नगर परिषद ने भी इस प्रस्ताव का वर्ष 1924 में अनुमोदन कर दिया।

डॉ. अम्बेडकर भारत की बुनियादी ढाँचागत और सामाजिक चुनौती वर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था को तोड़ना चाहते थे। 19 और 20 मार्च, 1927 को वे रामचंद्र बाबाजी मोरे के आमंत्रण पर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ क्षेत्र में वंचित समुदाय के समूह द्वारा दलित समुदाय के लोगों के अधिकारों और उत्थान पर आयोजित दो दिन के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गए थे। इस सम्मेलन में सैंकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। यहाँ तय हुआ कि दलित समुदाय चवदार तालाब (मीठे पानी का तालाब) के पानी का स्पर्श करेंगे।

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बहुजन नायकों-विचारकों के प्रति उपेक्षा और चुप्पी वामपंथ के लिए घातक साबित हुई

डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है कि ‘गाँव से दलित समुदाय के लोग किसी न किसी कारण से महाड़ आना होता था, क्योंकि वे गाँव सेवक के रूप में काम करते थे या गाँव में इकट्ठा होने वाला राजस्व जमा करने उन्हें तालुका अधिकारी के यहाँ आना पड़ता था। महाड़ में आगंतुकों के लिए पानी का एक मात्र सार्वजानिक स्रोत चवदार तालाब ही था, लेकिन अछूतों को इस तालाब से पानी लेने का अधिकार नहीं था। इसके अलावा अछूतों के मोहल्ले में कुआँ था, किन्तु वह नगर के केंद्र से दूर था। वास्तव में वंचित तबकों के प्रति नगर निकाय की उपेक्षा का यह जीवंत उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि इस तालाब से ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशुओं, कुत्तों सभी को पानी का उपयोग करने की स्वतंत्रता थी, सिवाए दलितों और अछूतों के। अछूतों के साथ होने वाले छुआछूत के अमानवीय व्यवहार के दर्द को महसूस कर पाना असंभव है।

20 मार्च, 1927 को डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में लगभग 1500 दलित समुदाय के लोगों ने इस तालाब की तरफ कूच किया और सबसे पहले डॉ. अम्बेडकर ने इसका पानी अपनी अंजुली में लिया। फिर अन्य लोगों ने भी पानी को छुआ और कार्यक्रम स्थल पर लौट आये। इसके दो घंटे बाद सवर्ण हिंदू समूहों ने यह अफवाह फैलाई कि दलितों का समूह वीरेश्वर मंदिर में प्रवेश करने जा रहा है। इसके बाद लाठियाँ लेकर पंडाल पर प्रतिभागियों पर हमला किया गया। कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए। लेकिन अछूतों ने प्रतिकार नहीं किया। इसके साथ ही सम्मेलन में आये प्रतिभागियों के गाँव के सवर्ण समुदाय को सन्देश भेजा गया कि वे भी इन लोगों को वापस लौटने पर चवदार तालाब का पानी छूने के अपराध की सजा दें।

महाड़ सत्याग्रह को संबोधित करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि ‘हम यहाँ इसलिए नहीं आये हैं, क्योंकि हमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता या इस तालाब का पानी मीठा है। हम दरअसल, हमारे इंसान होने का हक जताने के लिए यहाँ आये हैं।’ इसके बारे में 28 अप्रैल, 1927 को यंग इंडिया में महात्मा गाँधी ने लिखा कि ‘डॉ. अम्बेडकर ने जो अस्पृश्यों को तालाब पर पानी पीने की सलाह देकर बम्बई विधान परिषद और महाड़ नगरपालिका के प्रस्तावों को कसौटी पर कसा, उनका काम मैं समझता हूँ कि बिलकुल उचित था।’ इसी महाड़ में 25 दिसंबर, 1927 को डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का दहन भी किया।

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सरकार ने गांव और जिंदगी पर हमला किया है

डॉ. अम्बेडकर मुख्य रूप से अस्पृश्यता और वर्ण व्यवस्था की समाप्ति को प्राथमिकता दे रहे थे और देश की स्वतंत्रता के विषय में वे मानते थे कि ब्रिटिश डोमिनियन के भीतर या इसी शासन व्यवस्था के तहत जाति आधारित व्यवस्था को मिटाया जा सकता है। भारत की देशज व्यवस्था वर्ण और जाति के प्रभाव को कम नहीं होने देगी।

22 सितम्बर, 1932 को महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर के बीच हुआ संवाद महत्वपूर्ण है। इसमें डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि मुझे आपसे एक ही झगड़ा है। आप ‘तथाकथित राष्ट्रीय हितों’ के लिए प्रतिबद्ध हैं और केवल हमारे (अस्पृश्यों) लिए नहीं। यदि आपने अपना जीवन वंचित/ अछूत तबकों के कल्याण के लिए समर्पित किया होता, तो आप हमारे नायक होते। सबसे मूल बात यह है कि डॉ. अम्बेडकर ने भारत के दलित समुदाय की स्थिति को बदलने के लिए प्रतिबद्ध नेतृत्व लिया था, किन्तु वह ऐसा समय भी था, जब भारत को उपनिवेशवाद से आजादी की लड़ाई भी लड़ना थी। ऐसे में हमें गाँधी को गाँधी के नजरिए से और अम्बेडकर को अम्बेडकर के नजरिए से समझे जाने की जरूरत है। गाँधी मानते थे कि हिंदू व्यवस्था पर वार करके, जाति को खत्म करना संभव नहीं है। इससे टकराव बढ़ेगा और वैसे भी इस व्यवस्था को कुछ ही वक्त में बदला नहीं जा सकता है। वहीं अम्बेडकर मानते थे कि इसे बदलने के लिए बहुत वक्त क्यों लगाया जाना चाहिए?

वर्ष 1935 में अम्बेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने और सामूहिक धर्मान्तरण की घोषणा की। ऐसे में 4 मार्च, 1936 को सांवली गाँव में जमनालाल बजाज ने महात्मा गाँधी से उनका रुख पूछा; तब गाँधीजी ने कहा कि “डॉ. अम्बेडकर की जगह अगर मैं होता, तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता। उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता। डॉ. अम्बेडकर जो कुछ करें, उसे नम्रता से सहना चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि हरिजनों की सेवा भी इसी में है। अगर वे सचमुच हमें जूतों से भी मारें, तो भी हमें सहन करना चाहिए। पर उनसे डरना नहीं चाहिए। डॉ. अम्बेडकर की कदमबोसी करके उन्हें समझाने की भी ज़रूरत नहीं है। इससे कुसेवा होगी। वे या अन्य हरिजन को हिंदू धर्म में विश्वास न रखते हों, वह यदि धर्मान्तरण करें तो वह भी हमारी शुद्धि का ही कारण होगा। हम इसी योग्य हैं कि हमारे साथ ऐसा व्यवहार हो।”

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यह स्पष्ट है कि उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने वर्ण व्यवस्था-जाति के सवाल पर ठोस पहल नहीं की और महात्मा गांधी ‘हृदय से व्यवहार परिवर्तन’ की नीति पर चल रहे थी, जिसकी कोई समय सीमा तय नहीं थी। डॉ. अम्बेडकर को दु:ख था कि महात्मा गाँधी के कारण राजनीतिक आजादी के साथ सामाजिक आजादी नहीं पायी जा सकी। महात्मा गाँधी अपने सनातनी हिंदू होने लेकर संतुष्ट थे और लगभग आखिरी दिनों तक उन्होंने वर्ण व्यवस्था को हटाने का बहुत प्रतिबद्ध आह्वान नहीं किया।

गाँधी और अम्बेडकर के विचारों और नजरिए में विविधता थी और उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। गाँधी को अम्बेडकर बनाने की कोशिश या अम्बेडकर को गाँधी बनाने की कोशिश भारत की आजादी के आन्दोलन और सामाजिक बदलाव के संघर्ष की गाथा को एक परिणामविहीन दिशा में तो ले ही जाती है, साथ ही वह इनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को अप्रिय बहस में भी तब्दील कर देती है।

गाँधी गाँव और पारंपरिक व्यवस्था को सबसे ठोस विकल्प मानते थे, जबकि अम्बेडकर शहरी और आधुनिक व्यवस्था में बदलाव की संभावना देखते थे। गाँधी पश्चिम की सभ्यता के आलोचक थे, पर अम्बेडकर उसके प्रति झुकाव रखते थे। डॉ. अम्बेडकर की सोच थी कि ब्रिटिश सरकार ही कानून बनाकर अस्पृश्यता और छुआछूत की समस्या को समाप्त करने में भूमिका निभाये, किन्तु महात्मा गाँधी मानते थे कि हिन्दुस्तान के लिए कोई भी कानून बनाने का हक ब्रिटिश सरकार को देना बिलकुल सही नहीं है। यदि ऐसा कोई कानून बनाना है, तो उसे भारतीय लोगों और सरकार द्वारा बनाना चाहिए। इससे आगे उनका मानना था कि जाति-छुआछूत के व्यवहार की समाप्ति सामाजिक बदलाव का काम है और यह किसी सरकारी कानून से न होगा। अगर ब्रिटिश सरकार को यह कानून बनाने का अवसर दिया तो ब्रिटिश शासन को भारत में बने रहने का तर्क मिल जाएगा। वे नहीं चाहते थे कि हिंदुस्तान और उसके समाज के भीतरी टकरावों से आजादी का संघर्ष कमजोर पड़े। वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाकर लड़ाई को परिणाम तक ले जाना चाहते थे। यह भी एक कारण है कि वे जाति और छुआछूत के प्रश्न को तवज्जो तो देते रहे, किन्तु उन्होंने राजनीतिक-आर्थिक स्वराज के प्रश्न को प्राथमिकता दी। रणनीतिक रूप से वे हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक विषय पर अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति को समझ चुके थे, इसलिए उनका मानना था कि छुआछूत और जाति के प्रश्न को हमें अपने देश के भीतर ही हल करना चाहिए और अंग्रेजों को इस विषय पर कोई निर्णायक भूमिका नहीं देना चाहिए। बहरहाल यह भी सच है कि महात्मा गाँधी जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे, किन्तु वर्ण व्यवस्था पर उनका विश्वास लम्बे समय तक बना रहा।

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डॉ. अम्बेडकर ने बहुत ही बुनियादी राजनीतिक बात कही थी कि “जिस तरह महात्मा गाँधी छुआछूत और जाति के प्रश्न का हल खोज रहे हैं, उससे यह स्थापित होगा कि उच्च वर्णों और सवर्णों ने अछूतों का उद्धार किया। इस प्रकार दलित उच्च वर्णों का उपकरण मात्र बन जायेंगे तथा इतिहास में कोई दलित नायक नहीं हो पायेगा।” महात्मा गाँधी जिस तरह से भाव-व्यवहार परिवर्तन करके इस भेदभाव को खत्म करना चाहते थे, इसके लिए हर व्यक्ति को गाँधी होना होता।

आखिर में जब डॉ. अम्बेडकर को संविधान सभा में मसौदा समिति का सभापति बनाया जाता है, तो इससे यह बात तो स्पष्ट होती है कि वक्त और परिस्थितियों ने महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर को एक-दूसरे के प्रति व्यवहारिक परिपक्वता प्रदान की थी।

 पृथक निर्वाचिका

वर्ष 1932 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के साथ अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की मांग मान ली गई। ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने कम्युनल अवार्ड (जिसमें अछूतों और वंचितों के लिए पृथक निर्वाचिका का प्रावधान था) जारी कर दिया गया। इसका मतलब यह था कि दलित समुदाय को दो मत देने का अधिकार मिलना था। यानी एक मत से वे अपना दलित प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे मत से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार था। दलित प्रतिनिधि को चुनने में केवल दलित मतों की भूमिका थी, जबकि सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने में दलित मत की भी भूमिका थी।

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जब यह निर्णय हुआ, तब महात्मा गाँधी जेल में थे और उन्होंने इस व्यवस्था के खिलाफ जेल में ही 20 सितम्बर, 1932 से अनशन शुरू कर दिया। डॉ. अम्बेडकर उनके अनशन से विचलित नहीं हो रहे थे। उन्होंने कहा कि यदि महात्मा गाँधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखते तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने दलित समाज के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी अधिकार को लेकर गाँधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई। यह वक्त था जब डॉ. अम्बेडकर को हिंदू विरोधी माना जाने लगा।

इसके बाद उन्होंने महात्मा गाँधी से इस मसले पर संवाद किया जिसके परिणाम स्वरूप 24 सितम्बर, 1932 को पूना पैक्ट सामने आया। नौ बिंदुओं वाले इस समझौते के तहत तय हुआ कि केन्द्रीय और प्रांतीय विधान परिषद में अछूतों और वंचित तबकों के लिए सीटें आरक्षित हैं। अछूत वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 148 (कम्युनल अवार्ड में 71 थीं) और केन्द्रीय विधान परिषद में कुल सीटों को 18 प्रतिशत तक कर दिया गया। इसमें पृथक निर्वाचिका के बजाय संयुक्त निर्वाचिका की व्यवस्था थी। यानी आरक्षित स्थान पर सभी तबकों द्वारा मिलकर दलित समुदाय के प्रतिनिधि को चुनना था।

इसके साथ ही पूना पैक्ट में यह बात कही गई कि लोक सेवाओं में वंचित-दलित तबकों के साथ किसी तरह का भेदभाव न हो, लोक सेवाओं में उनका उचित प्रतिनिधित्व हो और राज्य की शिक्षा के लिए होने वाले आवंटन में वंचित तबकों की शिक्षा के लिए एक विशेष हिस्सा तय किया जाए।

डॉ. अम्बेडकर इस समझौते से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि वंचितों-अछूतों के राजनीतिक उत्थान के लिए पृथक निर्वाचिका यानी दो वोट एक प्रभावी व्यवस्था हो सकती थी। डॉ. अम्बेडकर की पीड़ा यह थी कि भारत शासन अधिनियम, 1935 में मुसलमानों, सिख और अन्य समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका का प्रावधान किया गया, किन्तु वंचित-अछूतों के लिए नहीं।

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डॉ. अम्बेडकर दलित समुदाय के लिए पृथक निर्वाचिका (यानी दो वोट देने का अधिकार, जिसमें से एक वोट दलित प्रतिनिधि के चयन के लिए दिया जाता और दूसरा वोट अन्य सामान्य उम्मीदवार के लिए) के जबरदस्त पक्षधर थे।

उन्होंने लिखा भी है कि ‘यह मानना गलत है कि मतदाता किसी उम्मीदवार या उम्मीदवारों के द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम या योजना के आधार पर बिना उसकी छवि और सामाजिक सम्बन्ध को नजरअंदाज करके अपना मत देते हैं। यह एक तथ्य है कि कोई भी व्यक्ति मतदाता होने से पहले किसी सामाजिक समूह का प्राथमिक सदस्य होता है। मतदाता के लिए उसका सामाजिक व्यक्तित्व बहुत मायने रखता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से मतदाता सभी उम्मीदवारों में से उस व्यक्ति को प्राथमिकता देते हैं, जो उनके अपने सामाजिक समूह से जुड़ा होता है। जबकि, उम्मीदवार के रूप में उनके काम और भूमिकाएँ तो समान ही होती हैं। इस प्रक्रिया का एक मर्म होता है हितों और विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाली लोकप्रिय सरकार का गठन और दूसरा मर्म होता है सरकार में व्यक्तिगत/ निजी प्रतिनिधित्व के लिए अवसर सुनिश्चित होना।

यह अपेक्षा करना कठिन है कि भारत जैसे देश में, जहां ज्यादातर लोग साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के हैं, वहाँ व्यवस्था में शामिल लोग उन लोगों के साथ समान व्यवहार करेंगे, जो उनके समुदाय से संबधित नहीं हैं। भारत में वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व के अधिकार का वृहद पैमाने पर हनन हुआ है। प्रांतीय विधान परिषदों में वंचित वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया और ऐसे मामले दिखाई देते हैं कि ऐसे लोगों ने खुद को नामित करवा लिया, जो वंचितों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करना चाहते थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गवर्नर को यह अधिकार था कि वह वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व के लिए ऐसे व्यक्तियों को नामित कर सकते थे। ऐसे में पृथक निर्वाचिका वंचित तबकों को अपना प्रतिनिधि अपने समुदाय में से चुनने का अधिकार देती।’

सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 28 अगस्त, 1947 को सभा में कहा कि “हमें विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाओं के निर्माण से बचना चाहिए। इससे भारत में भेदभाव और टकराव बना रहेगा। परिगणित जातियों के मित्रों से भी मैं यह अपील करता हूँ कि हमें डॉ. अम्बेडकर या उनके दल ने जो कुछ भी किया, उसे भूल जाना चाहिए। आपने जो कुछ भी किया, उसे हमें भूल जाना चाहिए। आपकी विचारधारा के अनुसार भी देश का विभाजन होते-होते बच गया और उसके कुफल से आप बच गए। बम्बई में आपने पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के परिणाम को देखा है। जब आपकी जाति का सबसे बड़ा हितैषी बम्बई आकर और भंगियों की बस्ती में ठहरने के लिए गया तो आप ही के लोगों ने उनके विश्राम गृह पर पत्थर मारे। वह सब क्या था? वह इसी विष का परिणाम था। मैं इसीलिए इसका विरोध कर रहा हूँ कि हिंदुओं में से बहुसंख्यक लोग आपका हित चाहते हैं।” वस्तुत: हिन्दू-मुस्लिम टकराव के अनुभव से राष्ट्रवादी राजनेताओं को यह लग रहा था कि पृथक निर्वाचिका और निर्वाचन से समुदायों के बीच भेद और दूरी बनेगी और बढ़ती रहेगी।

अम्बेडकर और उनका संविधान

डॉ. भीमराव अम्बेडकर संविधान सभा की मौलिक अधिकार उपसमिति के सदस्य थे। उन्होंने इस उपसमिति के मौलिक अधिकारों पर अपना एक विस्तृत दस्तावेज प्रस्तुत किया। डॉ. अम्बेडकर ने वर्ष 1945 में अनुसूचित जाति फेडरेशन (जिसका निर्माण खुद उन्होंने 1940 के दशक की शुरुआत में किया था) के लिए स्टेट्स एंड माइनोरिटीज (राज्य और अल्पसंख्यक/अल्पमत) का लेखन किया था। इसका मुख्य मकसद अनुसूचित जाति समुदाय के लिए सुरक्षातंत्र के विकल्प प्रस्तुत करने थे।

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वास्तव में डॉ. अम्बेडकर द्वारा बनाया गया यह दस्तावेज एक छोटा संविधान ही था, जो मुख्य रूप से नागरिकों और अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों के मौलिक अधिकारों को परिभाषित भी करता था। इसमें उन्होंने संवैधानिक संरचना की व्याख्या करते हुए यह बताने की कोशिश की थी कि अनुसूचित जाति समुदाय के मौलिक अधिकारों के हनन को रोके जाने के लिए क्या व्यवस्था होगी। इससे यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए केवल इतना पर्याप्त नहीं था कि संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख भर कर दिया जाए, बल्कि उन अधिकारों के संरक्षण और उनकी सुरक्षा के लिए व्यवस्था का होना एक बुनियादी अनिवार्यता थी। उन्होंने एक तरह से इस दस्तावेज में ‘समाजवादी राज्य’ और ‘आर्थिक प्रजातंत्र’ की अवधारणा पेश की। डॉ. अम्बेडकर की सोच थी कि हम ऐसी व्यवस्था बनायेंगे, जिसमें सभी समुदायों को राज्य संस्थानों में समान प्रतिनिधित्व हासिल होगा। हालाँकि वे पृथक निर्वाचिका का प्रावधान संविधान सभा में पारित नहीं करवा पाए, लेकिन वे राज्य विधानसभाओं और संसद में अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों के लिए निर्धारित स्थान आरक्षित करवाने में सफल रहे।

वे मानते थे कि सामाजिक टकराव समाज के भीतर बहुमत द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न को बढ़ावा देता है। इसलिए, उनका सोचना था कि व्यक्ति और राज्य के बाद समाज भी अधिकारों का दुश्मन होता है। अत: अधिकार समाज के अनुपालन में होना चाहिए। क्योंकि, समाज ही वास्तव में अधिकारों का संरक्षक होता है, न कि राजनीतिक संस्थाएँ।

डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि ‘अधिकार कानून के माध्यम भर से संरक्षित नहीं होते हैं। वे समाज की सामाजिक और नैतिक चेतना से संरक्षित होते हैं। यदि सामाजिक चेतना उन अधिकारों को मान्यता देने के लिए तत्पर होती है, जो कानून द्वारा निर्धारित किये गए हैं। तब ही अधिकार सुरक्षित होंगे। लेकिन यदि समाज खुद मौलिक अधिकारों के खिलाफ हो, तो कोई कानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती है। कानून अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी एक व्यक्ति को दण्डित कर सकता है, या सजा दे सकता है, किन्तु कानून भी ऐसे लोगों के व्यापक समूह के खिलाफ कार्यवाही नहीं कर सकता है, जो कानून के उल्लंघन के लिए प्रतिबद्ध है। एक लोकतांत्रिक सरकार यह धारणा लेकर चलती है कि समाज भी लोकतांत्रिक है, लेकिन लोकतंत्र की औपचारिक व्यवस्था तब तक बेमानी और बेमोल है, जब तक कि सामाजिक लोकतंत्र (खुद समाज का लोकतांत्रिक होना) स्थापित न हो। राजनीतिक विचारक यह महसूस नहीं कर पाये कि लोकतंत्र सरकार की व्यवस्था का रूप नहीं है, यह समाज की व्यवस्था का एक रूप है। किसी लोकतांत्रिक समाज के लिए यह जरूरी नहीं है कि उसे एकरूपता, उद्देश्यों की समानता, लोगों के प्रति वफादारी, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति से चिन्हित किया जाए, लेकिन इसमें दो तत्व जरूर शामिल हैं – एक : मानसिक प्रवृत्ति, गरिमा की प्रवृत्ति व दूसरे के प्रति समानता का भाव और दो : कठोर सामाजिक बाधाओं और भेदभाव की भावना से मुक्त समाज।

[bs-quote quote=”भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया और उसमें डॉ. अम्बेडकर की भूमिका ने भारतीय सन्दर्भ में इस विचार को बहुत स्पष्ट किया कि आर्थिक और सामाजिक न्याय के बिना न तो लोकतंत्र स्थापित हो सकता है, न ही समाज सभ्यता के मानकों पर खरा उतर सकता है। छुआछूत, शोषण, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति के प्रावधान से लेकर समाज में समानता और बंधुता के भाव की स्थापना के लिए जो प्रावधान संविधान में हैं, उनसे ही भारत के बेहतर होने की संभावना स्थापित हुई।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 डॉ. अम्बेडकर का संयुक्त राज्य भारत का संविधान

इसकी प्रस्तावित उद्देशिका में लिखा था- ‘हम ब्रिटिश शासित भारत के प्रांतीय और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों और भारतीय राज्यों के लोग’ प्रांतीय और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों को मिलकर एक व्यवस्थित संघ बनाने के मकसद से व्यवस्थित विधायिका, कार्यपालिका और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए संयुक्त राज्य भारत के रूप में निम्न लक्ष्यों से एकजुट होते हैं –

  1. अपने और अपनी भावी पीढ़ी के लिए संयुक्त राज्य भारत में स्व-शासन और सुशासन की स्थापना।
  2. जीवन के हर पक्ष में जीवन, स्वतंत्रता, खुशहाली, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपने धर्म को मानने की स्वतंत्रता की सुनिश्चितता।
  3. समाज के वंचित और उपेक्षित वर्गों को बेहतर अवसर उपलब्ध करवाकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानता को खत्म करना।
  4. हर व्यक्ति को भय और दबाव से स्वतंत्रता मिलना।
  5. देश की भीतरी सुरक्षा और बाहरी आक्रमण / घुसपैठ से सुरक्षा के लिए संयुक्त राज्य भारत का संविधान बनाया जाना।

नागरिकों के मौलिक अधिकार

  1. संयुक्त राज्य भारत में जन्मे और भारत में बस गए सभी लोग संयुक्त राज्य भारत के नागरिक होंगे। यहाँ पदवी, जन्म, व्यक्ति, परिवार, धर्म और परंपरा आधारित विशेषाधिकार और वंचना को खत्म किया जाता है।
  2. राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगा, जो नागरिक के अधिकार और प्रतिरक्षा को सीमित करता हो और किसी उचित कानून या कानून की प्रक्रिया के बिना जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार से नागरिक को वंचित करता हो। हर व्यक्ति कानून के समक्ष समान होगा।
  3. सभी नागरिक कानून के सामने समान हैं, और ऐसा कोई भी कानून, रीति-रिवाज, परम्परा, आदेश, जिनके तहत किसी दंड या सजा का प्रावधान है, इस संविधान के लागू होते ही निष्प्रभावी हो जायेंगे।
  4. कोई भी लोग, जो सभी लोगों या किसी समुदाय के व्यक्ति को लोक स्थानों, सड़क, शिक्षण संस्थानों, कुओं, तालाब, जल, थल या आकाश में लोक उपयोगी सेवाओं के उपयोग से रोकते हैं, उन्हें भेदभाव के अपराध का दोषी माना जाएगा।
  5. धर्म, जाति, वंश, लिंग या सामाजिक स्थिति के आधार पर सार्वजनिक कार्यालय में काम करने या कोई भी व्यापार करने से रोका नहीं जाएगा।
  6. लोक व्यवस्था या नैतिक के मानक के अलावा किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार होगा।
  7. बंधुआ और जबरिया मजदूरी करवाना अपराध होगा।
  8. बिना किसी उचित कारण से व्यक्ति, उसके दस्तावेज, घर की तलाशी या जब्ती से सुरक्षा।
  9. हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार।
  10. ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाया जाएगा, जिससे वाक् और अभिव्यक्ति, प्रेस, संगठित होने की स्वतंत्रता (लोक व्यवस्था की शान्ति को खतरा होने के अलावा) सीमित होती हो।
  11. सभी को धार्मिक विश्वास, प्रार्थना, प्रवचन और सीमित दायरे में धर्म परिवर्तन की स्वतंत्रता होगी, उस सीमा तक जहाँ तक लोक व्यवस्था को कोई नुकसान न हो।
  12. किसी भी व्यक्ति को किसी धार्मिक संगठन का सदस्य बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा और 16 वर्ष की उम्र तक के बच्चों को उनके माता-पिता धार्मिक शिक्षा देने के लिए अधिकारी होंगे।
  13. राज्य किसी धर्म को राज्य धर्म (राज्य के धर्म) के रूप में मान्यता नहीं देगा।

मौलिक अधिकारों पर आक्रमण से सुरक्षा

1. न्यायिक व्यवस्था

  1. भारत की न्यायिक शक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय में सन्निहित होंगी।
  2. सर्वोच्च न्यायालय देश के अन्य न्यायालयों और न्यायालय की भूमिका निभाने वाले अधिकारों की देखरेख और निगरानी की भूमिका निभाएगा।

2. असमानता के व्यवहार से संरक्षण

  1. निजी संपत्ति को पाने के लिए अनुबंध, बेचने, खरीदने, किराए पर देने के लिए अनुबंध करना।
  2. सभी नागरिक और मिलिट्री स्थानों और सभी शैक्षणिक संस्थाओं में बिना किसी भेदभाव के प्रवेश का अधिकार (कुछ तय सीमाओं और शर्तों के अलावा।)
  3. सभी स्थानों, संस्थानों, सड़कों, नदी, तालाब, कुओं, लोक स्थानों समेत अन्य सुविधाओं को जाने / उपयोग के लिए नस्ल, वर्ग, जाति, रंग और वंश के आधार पर कोई रोक या प्रतिबन्ध नहीं होना।

3. भेदभाव से संरक्षण

  1. किसी भी नागरिक के प्रति सार्वजनिक कार्यालय/ स्थान या निजी कार्यालय/ स्थान पर भेदभाव को अपराध माना जाएगा।

4. आर्थिक शोषण से संरक्षण

  1. संयुक्त राज्य भारत संविधान के तहत घोषित करेगा।
  2. मुख्य उद्योग या ऐसे उद्योग जिन्हें मुख्य उद्योग घोषित किया जा सकता है, उन्हें राज्य के अधीन (जिनका मालिकाना हक राज्य के पास होगा।) रखा जाएगा।
  3. जो मुख्य उद्योग नहीं हैं, किन्तु जिन्हें आधारभूत उद्योग माना जाएगा, उन्हें राज्य अपने नियंत्रण में रखेगा, उसे सहकारी पद्धति से चलाएगा।
  4. बीमा क्षेत्र पूर्ण रूप से राज्य के नियंत्रण में होगा और राज्य का इस पर एकाधिकार होगा। राज्य हर व्यक्ति से उसके वेतन के मान से बीमा करवाएगा। इस विषय पर विधायिका निर्णय ले सकती है।
  5. कृषि राज्य की संपत्ति होगी।
  6. राज्य निजी क्षेत्र या व्यक्तियों के मालिकाना में शामिल मुख्य उद्योगों, बीमा और कृषि भूमि को उनके मूल्य के मुताबिक डिबेंचर्स के रूप में मुआवजा प्रदान करके अधिग्रहीत करेगा।

5. कृषि क्षेत्र इस तरह से संयोजित किया जाएगा

  1. राज्य अधिग्रहीत की गयी भूमि को गाँव के लोगों में सामान रूप से वितरित करके परिवारों के समूह को सहकारी / साझा खेती के लिए प्रदान करेगा।
  2. खेती के लिये राज्य नियम और निर्देश जारी करेगा। खेती से हुई आय को, खेती करने में हुए व्यय को हटाकर, सभी सहभागी परिवारों में बांटा जाएगा।
  3. भूमि का आबंटन / किराए पर देने की प्रक्रिया में वंश, जाति, वर्ग के आधार पर कोई भेद नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि कोई भी भू स्वामी नहीं होगा, कोई किरायेदार नहीं होगा और कोई भी भूमिहीन मजदूर नहीं होगा।
  4. राज्य की जिम्मेदारी होगी कि वह खेती की प्रक्रिया का पानी, खेती के सहयोगी पशुओं का पालन, कृषि उपकरण, खाद और बीज की आपूर्ति के जरिये वित्तपोषण करेगा।
  5. राज्य निश्चित मात्रा में कृषि भूमि पर शुल्क लगा सकेगा।

6. सामाजिक बहिष्कार से संरक्षण

  1. किसी भी तरह का सामाजिक बहिष्कार करना, बहिष्कार के लिए प्रेरित करना, बहिष्कार की धमकी देना संविधान के तहत अपराध होगा।

7. विधायिका में प्रतिनिधित्व का अधिकार

  1. अनुसूचित जाति समुदाय को उनकी जनसंख्या के अनुपात में समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाएगा।
  2. विशेष परिस्थितियों में प्रतिनिधित्व के अनुपात को बनाये रखने के लिए विशेष प्रावधान किये जा सकेंगे, मसलन किसी बड़े बहुमत वाले समुदाय के प्रतिनिधित्व को कम करना हो। इसके लिए सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति और शैक्षणिक स्थिति को मानक सूचक के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।

8. सेवाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार

  1. संघ सेवाओं में – भारत की कुल जनसंख्या या ब्रिटिश भारत की कुल जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार।
  2. राज्य और समूह सेवाओं में – राज्य या संघ की जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार।
  3. नगरीय निकायों और स्थानीय निकायों में – नगरीय निकाय और स्थानीय निकाय में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार।
  4. किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी जनसंख्या के अनुपात से ज्यादा प्रतिनिधित्व की मांग करने का हक नहीं होगा।

9. अनुसूचित जाति की बेहतरी के लिए विशेष प्रावधान

  1. संघ और राज्य सरकारें अनुसूचित जाति वर्ग की शिक्षा के लिए वित्तीय व्यवस्था करेंगी। इसके लिए सरकार के बजट से प्रावधान किये जायेंगे।
  2. अनुसूचित जाति के समुदाय की जनसंख्या के अनुपात में उच्चतर शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए वार्षिक बजट में प्रावधान किये जायेंगे।

10. नयी बसाहटों के लिए प्रावधान

  1. नए संविधान में एक व्यवस्थापन आयोग बनाया जाएगा, जो गैर-कृषि योग्य भूमि का उपयोग अनुसूचित जातियों के आवास/व्यवस्थापन के लिए करेगा। इस आयोग को ऐसे उद्देश्य के लिए जमीन खरीदने का भी अधिकार होगा।

 भारत का संविधान और डॉ. अम्बेडकर

भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया और उसमें डॉ. अम्बेडकर की भूमिका ने भारतीय सन्दर्भ में इस विचार को बहुत स्पष्ट किया कि आर्थिक और सामाजिक न्याय के बिना न तो लोकतंत्र स्थापित हो सकता है, न ही समाज सभ्यता के मानकों पर खरा उतर सकता है। छुआछूत, शोषण, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति के प्रावधान से लेकर समाज में समानता और बंधुता के भाव की स्थापना के लिए जो प्रावधान संविधान में हैं, उनसे ही भारत के बेहतर होने की संभावना स्थापित हुई।

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उन्होंने कहा था कि “छुआछूत केवल असीमित आर्थिक शोषण की ही व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह आर्थिक शोषण की अनियंत्रित व्यवस्था भी है। यह इसकी (आर्थिक शोषण और शोषण की व्यवस्था की) जड़ें जमाती है क्योंकि इसे निर्मूल करने के लिए कोई जनमत नहीं है और न ही इसे खत्म करने के लिए कोई निष्पक्ष प्रशासनिक व्यवस्था ही विद्यमान है।” (भाटिया, 1994)।

उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि ‘राज्य किसी भी धर्म/ खास धर्म को राज्य धर्म (किसी विशेष सम्प्रदाय के सन्दर्भ में) के रूप में स्थापित नहीं करेगा और देश के हर नागरिक को अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी भी धर्म को मानने-अपनाने का अधिकार दिया गया। बहरहाल, यह सच है कि डॉ. अम्बेडकर हिंदू कोड बिल को भारत के संविधान का हिस्सा नहीं बना पाए। इसके माध्यम से वे हिंदू समाज में बुनियादी बदलाव लाना चाहते थे। वे विविधता का सम्मान करते हुए संवैधानिक प्रावधानों और कानून के जरिये बदलाव के पक्ष में थे।

लोकतंत्र ही बेहतर शासन व्यवस्था है, जिसमें अस्पृश्यता और शोषण से मुक्ति के लिए लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से संघर्ष करने का भी अधिकार मिलता है। उनका मानना था कि आपके पास अब बदलाव लाने के साधन हैं। आप राजनीतिक रूप से और उचित संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से बेहतर समाज बना सकते हैं। आप राज्य व्यवस्था को भोजन, कपड़ा, आश्रय, शिक्षा आदि की व्यवस्था करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, बाध्य कर सकते हैं।

बहरहाल संविधान के सन्दर्भ में यह बहस बहुत समय से चलती रही है कि डॉ. अम्बेडकर ने मुख्य रूप से सामाजिक-राजनीतिक न्याय और अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किये, किन्तु आर्थिक-सामाजिक न्याय से जुड़े हुए अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्वों में रखा। यानी आर्थिक-सामाजिक न्याय से जुड़े अधिकारों की सुरक्षा के लिए सरकार कानूनी रूप से बाध्य नहीं है। उनका मानना था कि नीति-निर्देशक तत्व राजनीतिक कारणों से सरकारों को जनपक्षीय नीतियाँ बनाने के लिए बाध्य करेंगे।

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यह उल्लेखनीय है कि भारत की संविधान सभा ने शुरुआती चरण में मौलिक अधिकार, अल्पमत-अल्पसंख्यकों के अधिकारों, संघ अधिकार समिति, संघ विधान, प्रांतीय विधान आदि विषयों पर समितियों का गठन किया गया। इन समितियों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट संविधान सभा के सामने प्रस्तुत की और उन सभी रिपोर्ट्स पर सभा में बहस हुई।

संविधान सभा ने इन सभी रिपोर्ट्स के आधार पर संविधान का प्रारूप या मसौदा बनाने यानी संविधान को रूप देने के लिए संविधान मसौदा/ प्रारूप समिति का गठन किया। इस समिति का सभापति/ अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बनाया गया। डॉ. अम्बेडकर को यह भूमिका प्रदान करने का आग्रह महात्मा गाँधी ने किया था।

हम संविधान की किताब में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय के जो अनुच्छेद पढ़ते हैं, उन्हें स्थापित करने के लिए सबसे ज्यादा बहस, संघर्ष और कोशिश डॉ. अम्बेडकर ने ही की थी।

वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 15 में उल्लेख है कि ‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। नागरिकों के साथ इन आधारों पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश पूर्णत: या भागत: राज्य निधि से पोषित या आधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बंधन या शर्त के अधीन नहीं होगा।’

संविधान सभा में इस पर मोहम्मद ताहिर में कहा था कि ‘इस अनुच्छेद में होटलों के साथ धर्मशाला, मुसाफिरखाना भी जोड़ा जाए। क्योंकि, देश में इन दो प्रकार की संस्थाओं में बराबर निजी प्रणीवि द्वारा संधारण होता है और वहां अनुसूचित जाति अथवा किसी ऐसी जाति के व्यक्ति को टिकने नहीं दिया जाता है, जिसे धर्मशाला का प्रबंध स्वीकार नहीं करता हो।’ जबकि शिब्बनलाल सक्सेना का कहना था कि ‘मेरे विचार से कुओं, जलाशयों, सड़कों इत्यादि के सम्बन्ध में जो खंड है, वह हमारे विधान में स्थान पाने के योग्य नहीं है, क्योंकि वर्तमान निर्योग्यताएँ अस्थायी हैं और कुछ समय के उपरान्त लुप्त हो जायेंगी। परन्तु यदि इसे हमारे विधान में स्थायी रूप से स्थान दिया गया तो अन्य देशों के लोग हमारे यहाँ पहले इस प्रकार का विभेद रहने के कारण हमें घृणा की दृष्टि से देखेंगे। यदि हम केवल यह उल्लेख करें कि अस्पृश्यता के आधार पर कोई विभेद किया गया तो उसे निषिद्ध समझा जाएगा, अत: केवल प्रारंभिक वाक्य ही पर्याप्त है। मेरी तो इच्छा है कि इस खंड को राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में समाविष्ट किया जाए और इसे मूलाधिकार का रूप न दिया जाए।’

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इस पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि ‘मेरे मित्र मोहम्मद ताहिर ने अछूतों की स्थिति की ओर विशेष रूप से संकेत किया और कहा कि इन कार्यों के सम्बन्ध में जो अछूतों के लिए जनसाधारण के साथ समान रूप से अपने अधिकारों का उपभोग करने में बाधक हैं, हम उस समय तक अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकेंगे, जब तक कि हम इन कार्यों को, जिनके फलस्वरूप अछूत लोक समागम के स्थानों का उपयोग नहीं कर सकते हैं, अपराध न घोषित कर दें। हम सबकी यही इच्छा है, परन्तु वे देखेंगे कि अनुच्छेद 11 के प्रावधानों से जिनमें अस्पृश्यता का विशेष रूप से उल्लेख है, इस उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है। बिना संसद अथवा राज्य के ऊपर इसे अपराध घोषित करने का भार डाले हुए अनुच्छेद ही में यह कह दिया गया है कि इस वर्ग के अधिकारों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप अपराध समझा जाएगा और कानून के अधीन दंडनीय होगा। जहाँ तक कानून बनाने की बात है अनुच्छेद 227 में संसद पर इसका भार है कि वह ऐसे कानून बनाए जो यह घोषित करें कि इस प्रकार का हस्तक्षेप अपराध है। संसद को यह शक्ति दी गई है क्योंकि मूल अधिकारों के सम्बन्ध में अपराध भारत के सारे राज्य क्षेत्र में समान रूप से दंडनीय हों, यदि राज्यों को यह शक्ति नहीं दी गई, तो हमारे उद्देश्यों की पूर्ति होगी।’

इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया था कि “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बच्चों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।” इस पर प्रो. केटी शाह ने प्रस्ताव दिया था कि ‘जिस तरह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष उपबंध (मसलन आरक्षण, विशेष आवंटन, विशेष व्यवस्थाएँ आदि) बनाने की स्वतंत्रता इस अनुच्छेद में दी गई है, इसमें अनुसूचित जातियों अथवा पिछड़ी हुई जातियों के लिए उनके लाभ, अभिरक्षण अथवा उन्नति के उद्देश्य से’ भी जोड़ा जाए।

इस पर डॉ. अम्बेडकर ने तर्क दिया कि ‘मेरे विचार से इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। हम सभी का उद्देश्य है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित वन जातियों को जन साधारण से पृथक न रखा जाए। उदाहरण के लिए हममें से, मेरे विचार से, कोई यह न चाहेगा कि जब गाँव में सभी लोगों के लिए एक पाठशाला है, तो अनुसूचित जातियों के लिए एक पृथक पाठशाला खोली जाए। यदि ये शब्द जोड़ दिए जायेंगे तो संभवत: किसी राज्य के लिए यह कहने को हो जाएगा कि वह अनुसूचित जातियों के लिए विशेष रूप से व्यवस्था कर रहा है।’

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एस. नागप्पा ने पूछा था कि क्या दुकान शब्द में धोबी या नाई की दुकान भी सन्निहित है? और बीजी खेर ने पूछा कि क्या इसमें डॉक्टर और वकील के दफ्तर भी सन्निहित हैं? जवाब में डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि नि:संदेह इसमें प्रत्येक ऐसा व्यक्ति सन्निहित है, जो सेवा करने के लिए तत्पर है। मैं इस शब्द को उसके सामान्य अर्थ में प्रयोग में ला रहा हूँ।

इसी तरह कब्रिस्तान को लोक समागम का स्थान माना जाएगा कि नहीं? डॉ. अम्बेडकर इसे लोक समागम का स्थान मानते थे, लेकिन उनका कहना था ‘प्रतिबन्ध यह है कि उनका पूर्णत: अथवा अंशत: लोक प्रणीवि से संधारण होता हो। जहाँ कोई ऐसे कब्रिस्तान नहीं हैं जिनका नगर समिति से अथवा स्थानीय बोर्ड से अथवा तालुका बोर्ड से अथवा प्रांतीय सरकार से या ग्राम पंचायत से संधारण होता है, तो नि:संदेह उसके सन्दर्भ में किसी को अधिकार नहीं है। क्योंकि वह कोई ऐसा सार्वजनिक स्थान नहीं है, जिसके सम्बन्ध में कोई व्यक्ति प्रवेश के अधिकार का दावा कर सकता है। इसमें तालाब, नदियाँ, झरने, नहरें भी आते हैं।’

इसी दौरान ‘पिछड़ा वर्ग’ पर भी बहुत बहस हुई। पं. हृदय नाथ कुंजरू ने सुझाव दिया था कि अनुच्छेद 10(3) में पिछड़े हुए वर्ग के लिए आरक्षण के व्यवस्था में यह जोड़ा जाए कि दस वर्ष की अवधि के भीतर पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी। उनका कहना था कि संविधान में कहीं भी पिछड़ा वर्ग की कोई परिभाषा तय नहीं है, इससे कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। इसमें वर्गों की कोई नामावली नहीं है। यह निर्णय लेने का भार न्यायालय पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इस पर अरि बहादुर गुरुंग ने कहा कि यहाँ मैं मानता हूँ कि पिछड़ा वर्ग के अंदर तीन श्रेणियों के लोग आते हैं – एक तो परिगणित जातियाँ, दूसरे कबायली लोग और तीसरे वह विशेष वर्ग जिन्हें अब तक पिछड़ों वर्गों में शामिल नहीं माना गया है पर जो शिक्षा और अर्थ की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं।

पिछड़ा वर्ग की बहस का जवाब देते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि ‘मेरे मित्र टीटी कृष्णामाचारी ने कहा है कि हमने एक विधान बनाने के बजाये अपने कतिपय सदस्यों की हितपूर्ति के लिए एक ऐसी चीज तैयार कर दी है जो वकीलों के लिए कल्पवृक्ष है। मैं यह कहने के लिए तो तैयार नहीं हूँ कि इस विधान से ऐसे सवाल खड़े न होंगे, जिन पर विधि सम्बन्धी निर्वाचन की या न्यायालय द्वारा निर्णय की आवश्यकता न हो। क्या वह विश्व का एक भी ऐसा विधान बता सकते हैं जो वकीलों के लिए कल्पवृक्ष न हो। अगर इस विधान को भाष्यार्थ (व्याख्या के लिए) संघ न्यायालय के समक्ष ले जाना पड़े तो इसके लिए मैं रंचमात्र भी लज्जित नहीं हूँ। इस सम्बन्ध में तीन दृष्टिकोण हैं। पहला यह है कि सभी नागरिकों को अवसर समता प्राप्त होनी चाहिए। इस सभा के अनेक सदस्यों की यह इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति को, जो किसी विशेष पद के लिए योग्य हो, इस बात की आजादी होना चाहिए कि वह उसके लिए आवेदन कर सके। परीक्षा में बैठ सके और यह निश्चित करने के लिए कि वह पद के योग्य है या नहीं, उसकी योग्यता की जाँच होनी चाहिए और इस सम्बन्ध में अवसर-साम्य के सिद्धांत को अमल में लाने पर कोई प्रतिबन्ध, कोई बाधा नहीं होना चाहिए। दूसरा दृष्टिकोण, जो ज्यादा करके सभा के एक वर्ग का है कि किसी वर्ग या सम्प्रदाय के पक्ष में किसी प्रकार भी आरक्षण की व्यवस्था न होनी चाहिए और सभी नागरिकों को, अगर वह योग्य हैं तो जहाँ तक सरकारी नौकरियों का सम्बन्ध है, समान रूप से अवसर मिलना चाहिये। तीसरा दृष्टिकोण यह है कि सैद्धांतिक दृष्टि से अवसर-समता का सिद्धांत बहुत अच्छा है किन्तु फिर भी नियुक्तियों में उन कतिपय संप्रदायों को स्थान देने के लिए हमें एक न एक व्यवस्था करनी चाहिए, जिन्हें अब तक शासन कार्य से अलग ही रखा गया है। मसौदा समिति ने इन तीनों दृष्टिकोणों का ध्यान रखा है। शासन का नियंत्रण अब तक ऐतिहासिक कारणों से एक सम्प्रदाय या चंद सम्प्रदाय ही के लोग करते रहे थे और अब इस स्थिति का अंत होना चाहिए और दूसरों को भी सरकारी नौकरियों में स्थान-प्रवेश पाने के अवसर मिलना चाहिए। जो सम्प्रदाय की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है, उसे पिछड़ा सम्प्रदाय माना जाएगा। इसे अमल में लाने के लिए न्यायालय में अपील की जा सकती है और अगर किसी स्थानीय सरकार ने इस आरक्षण की श्रेणी में बहुसंख्यक जगहों को शामिल कर लिया है तो मैं समझता हूँ कि कोई भी व्यक्ति संघ-न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में जाकर यह कह सकता है कि इतनी अधिक आरक्षित जगहें रख दी गई हैं कि उससे अवसर-समता के नियम का ही हनन कर दिया गया है और तब न्यायालय यह निर्णय करेगा कि स्थानीय शासन या राज्य शासन ने समुचित रूप से विवेक का कार्य किया है या नहीं?’

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भारत राज्यों का संघ (यूनियन ऑफ स्टेट) होगा या राज्यों का संधान (फेडरेशन ऑफ स्टेट्स)। इस पर सभा में बड़ी बहस हुई। डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मसविदे की कई लोगों ने इसलिए आलोचना की क्योंकि इसमें भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। उनका कहना है कि इसे राज्यों का संधान कहा जाना चाहिए। मसविदा समिति इस बात को स्पष्ट करना चाहती थी कि यद्यपि भारत एक संधान बनने जा रहा है, पर यह किसी ऐसे समझौते के फलस्वरूप नहीं बन रहा है, जिससे प्रादेशिक राज्यों ने संधान में सम्मिलित हो जाना स्वीकार किया हो। उक्त समिति यह भी स्पष्ट करना चाहती है कि चूँकि संधान किसी ऐसे समझौते के आधार पर नहीं बन रहा है, इसलिए किसी भी राज्य को संधान से अलग होने का अधिकार नहीं हो सकता। यद्यपि शासन की सुविधा के लिए इस देश को और यहाँ के निवासियों को अलग-अलग राज्यों में बांटा जा सकता है, किन्तु सब मिलकर देश एक हैं, इसके निवासी एक हैं और एक शासन के अधीन हैं, जिसके समस्त अधिकार एक ही सूत्र में प्राप्त हुए हैं। अमेरिकावासियों को इस सिद्धांत को स्थापित करने के लिए कि राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं है और संघ अविनाश्य है, गृह युद्ध करना पड़ा था। मसविदा समिति ने यही श्रेयस्कर समझा कि प्रारम्भ में ही इसे स्पष्ट कर दिया जाए, ताकि भविष्य में इसके सम्बन्ध में कोई विवाद या भाष्य का प्रश्न न उठे।’

डॉ. अम्बेडकर ने संविधान बनाने के दौरान देश और विश्व के सामने अपने आपको खोलकर रख दिया था। 2400 से ज्यादा सुझावों और संशोधनों पर उन्होंने जिस तरह से जवाब दिए और बहस की, उससे यह साफ हो जाता है कि वे देश की संरचना से ही वाकिफ नहीं थे, बल्कि आने वाले समय को भी देख पा रहे थे। 25 नवंबर, 1949 को अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि ‘26 जनवरी, 1950 को भारत एक पूर्ण स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वाधीनता का क्या परिणाम होगा? क्या वह अपनी स्वाधीनता की रक्षा कर सकेगा या उसको फिर खो देगा? मेरे मन में सर्वप्रथम यही विचार आता है। यह बात नहीं कि भारत कभी स्वाधीन न रहा हो। बात यह है कि एक बार वह पायी हुई स्वाधीनता को खो चुका है। क्या वह दोबारा भी उसे खो देगा? यही वह विचार है जिसके विषय में भविष्य के प्रति मैं बहुत चिंतित हूँ। जो तथ्य मुझे बहुत परेशान करता है वह यह है कि भारत ने पहले एक बार अपनी स्वाधीनता खोई ही नहीं बल्कि अपने ही कुछ लोगों की कृतघ्नता तथा फूट के कारण वह स्वाधीनता आई-गई हो गई। मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण करते समय दाहर राजा के सेनापति ने मुहम्मद बिन कासिम के अभिकर्ताओं से घूस ले ली और अपने राजा की ओर से युद्ध करने से मना कर दिया। वह जयचंद था, जिसने मुहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने और पृथ्वीराज से युद्ध करने का निमंत्रण दिया और अपनी तथा सोलंकी राजाओं की सहायता का वचन दिया। जब वीर शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहे थे, उस समय अन्य मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल बादशाहों की ओर से युद्ध कर रहे थे। जब अंग्रेज सिख शासकों को मिटाने में लगे हुए थे, सिखों का मुख्य सेनापति गुलाब सिंह चुपचाप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में सहायता न की। वर्ष 1857 में जब भारत के एक विशाल भाग ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता के संग्राम की घोषणा की तो मूक दर्शकों की भांति सिख खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे।

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क्या इसी इतिहास की पुनरावृत्ति होगी? इस विचार से मैं चिंतित हूँ। इस तथ्य के कारण कि जाति और मत-मतान्तर के बीच में हमारे प्राचीन दुश्मनों के साथ हम राजनीतिक मत-मतान्तर के आधार पर कई राजनीतिक पक्ष बनाते चले जा रहे हैं, यह चिंता और भी अधिक उग्र रूप धारण कर लेती है। क्या भारतीय मत-मतान्तरों को देश से श्रेष्ठ मानेंगे या देश को मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ मानेंगे? मैं इस बात को नहीं मानता हूँ, पर सत्य यह है कि यदि ये पक्ष मत-मतान्तरों को देश से श्रेष्ठ मानते हैं तो हमारी स्वाधीनता फिर संकट में पड़ जायेगी और संभवत: सदैव के लिए हाथ से जाती रहेगी। यह वक्तव्य डॉ. अम्बेडकर के नजरिए की व्यापकता को साबित भी करता है। उन्होंने ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर यह चेतावनी दी थी कि सामाजिक भेदभाव की व्यवस्था का फायदा उठा कर उपनिवेशवादी शक्तियाँ भारत की आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को अपना गुलाम बना चुकी हैं। अत: अब हमें अपनी जाति-सम्प्रदाय या पूँजीगत हितों की सुरक्षा के बजाये भारत की स्वाधीनता की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, नहीं तो भारत को फिर से गुलाम बन जाना होगा।

यह लेख अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित सचिन कुमार जैन की पुस्तक ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’ से लिया गया है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद हैं।

पुस्तक मंगवाने के लिए संपर्क करें – 09479060031

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