Tuesday, March 19, 2024
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मनुवाद पर चौतरफा प्रहार का सही समय

अगर महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स के अनुसार दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो उन्हीं के समतुल्य डॉ. आंबेडकर के अनुसार भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और उस ब्राह्मण धर्म के मध्य संघर्ष का इतिहास है, जो कालांतर में हिन्दू धर्म के नाम से जाना गया एवं जिसके तहत हजारों साल से […]

अगर महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स के अनुसार दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो उन्हीं के समतुल्य डॉ. आंबेडकर के अनुसार भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और उस ब्राह्मण धर्म के मध्य संघर्ष का इतिहास है, जो कालांतर में हिन्दू धर्म के नाम से जाना गया एवं जिसके तहत हजारों साल से आधी आबादी और शूद्रातिशुद्र नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हुए। आज मोदी राज में वर्ण-धर्माधारित वही हिन्दू धर्म अपने स्वर्णिम दौर में है, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों से युक्त बहुजन समाज को शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत कर गुलामों की स्थिति में पहुंचा दिया गया है। आज बौद्ध बहुजनों ने 33 कोटि देवी-देवताओं से समृद्ध उसी हिन्दू धर्म के खिलाफ ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं के जरिये विद्रोह का बिगूल फूंक दिया है और इसके पृष्ठ में है संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा सहित विश्व हिन्दू परिषद इत्यादि द्वारा राजेन्द्र पाल गौतम के खिलाफ की गयी उग्र प्रतिक्रिया। आप सरकार के मंत्री राजेन्द्रपाल गौतम 5 अक्तूबर को बाबा साहेब डॉ आंबेडकर द्वारा दिल्ली में स्थापित ‘आंबेडकर भवन’ में आयोजित एक धम्म दीक्षा समारोह में शिरकत किये, जहाँ उन्होंने बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाएँ दोहराया. धम्म दीक्षा समारोहों में आमतौर पर लोग 22 प्रतिज्ञाएँ दोहराते हैं, वही काम उस दिन गौतमजी ने कर दिया। इस पर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा और संघ के आनुषांगिक संगठनों ने ऐसा बवाल काटा कि गौतमजी को मंत्री पद छोड़ना पड़ा। यही नहीं उसके बाद उन्हें जान से मार देने की धमकियां मिलने के साथ पुलिस कार्रवाई का भी सामना करना पड़ा।

[bs-quote quote=”मंडल उत्तरकाल में मंदिर आन्दोलन के जरिये मिली राजसत्ता का सम्पूर्ण इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित दोनों प्रधानमंत्रियों- वाजपेयी और मोदी ने मुख्यतः बहुजनों का आरक्षण ख़त्म करने में किया है। इसलिए निजीकरण, विनिवेशीकरण, लैटरल इंट्री इत्यादि के जरिये देश बेचने जैसा जघन्य काम अंजाम देने में भी सकोच नहीं किया है। किन्तु उन्होंने सवर्ण-हित में देश विरोधी जो नीतियाँ अख्तियार की, उसे लेकर वंचित बहुजनों में काफी आक्रोश रहा पर, समाज से विमुख बहुजन नेता उसका सदव्यवहार न कर सके।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

संघी सत्ता द्वारा राजेन्द्र पाल गौतम पर ढाए जा जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने न तो खुद उनकी पार्टी के मुखिया केजरीवाल आये और न ही सामाजिक न्यायवादी और वाम दलों से जुड़े नेता ही सामने आये। ऐसे में 22 प्रतिज्ञाएँ उच्चारित करने के जुर्म में सत्ताधारी पार्टी के निशाने पर आये गौतमजी को अकेला पा कर उनके पक्ष में बहुजनों के सहानुभूति का सैलाब उमड़ पड़ा। इसका एक खास कारण यह भी था कि बहुजनों को लगा कि यदि 22 प्रतिज्ञाएँ दोहराने के अपराध में सत्ताधारी भाजपा सहित अन्य हिंदूवादी संगठनों के निशाने पर एक मंत्री आ सकता है तो कल ऐसा भी हो सकता है कि संघी सत्ता बाबा साहेब का नाम लेना निषिद्ध घोषित कर दे! ऐसे में देखते ही देखते बहुजन समाज गौतमजी के पीछ लामबंद होने लगा और आज वे बहुजनों के आइकॉन बन चुके हैं। इस क्रम में मोदी- राज्य में नेतृत्व- शून्य हो चुका बहुजन समाज गौतमजी को बाबासाहेब के सच्चे सिपाही के रूप में पाकर एक नए बहुजन नायक के रूप में वरण कर लिया। अपने नए नायक को मजबूती प्रदान करने के लिए ही 9 अक्तूबर को लखनऊ में 30-35 हजार लोगों ने उद्घोष किया,’ राम-कृष्ण, गौरी-गणपति को नहीं मानूंगा…’ यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है. गौतम जी के पीछे अपने समर्थन की मोहर लगाने के लिए देश के विभिन्न अंचलों में बड़े पैमाने पर 22 प्रतिज्ञाएँ लेने का सिलसिला शुरू हो चुका है और सोशल मीडिया पर उनके समर्थन की बाढ़ में इजाफा हुए ही जा रहा है। यही नहीं अपने कठिन समय में गौतमजी ने जो स्टैंड लिया है, उससे आज मनुवाद से पीड़ित भारत के वंचितों की ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की नजरें उनपर टिक गयी हैं।

बहरहाल, आम आंबेडकरवादी मुख्यतः 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर उत्साहित हैं। किन्तु वर्तमान में गौतमजी जिस घटना के केंद्र में हैं, वह हिस्ट्री चेंजर हो सकता है। शायद इसका इल्म उन्हें हो चुका है, इसीलिए वह लड़ाई को मनुवाद बनाम अम्बेडकरवाद घोषित कर दिए  हैं और धर्म से इतर आर्थिक मुद्दे उठाते हुए सवाल पूछ रहे हैं कि संपदा-संसाधनों, शिक्षा, न्यायायिक सेवा इत्यादि पर कब्ज़ा किनका हैं? वह विभिन्न साक्षात्कारों में लगातार कहे जा रहे है कि मनुवाद का सबसे बड़ा पोषक संघ और उसका राजनीतिक संगठन भाजपा है जो देश बेचने के साथ सारी चीजें निजी क्षेत्र में देने के जरिये सम्पूर्ण आरक्षित वर्ग  को गुलामों की स्थिति में पहुंचा दिया है। वह कांशीराम के भागीदारी दर्शन, जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी की बात भी उठा रहे हैं। ऐसे में यदि वह सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, शिक्षण संस्थानों में छात्रों के प्रवेश और शिक्षकों की नियुक्ति इत्यादि सभी क्षेत्रों में कांशीराम के भागीदारी दर्शन का मुद्दा उठाना शुरू करते हैं तो मोदी की आर्थिक नीतियों का शिकार दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की विराट लामबंदी आकार ले सकती है और 2024 के बाद मनुवादी सत्ता के अंत के आसार उभर सकते हैं। खैर! राजेन्द्रपाल गौतम कांशीराम के भागीदारी दर्शन के जरिये मनुवाद के खिलाफ लड़ाई को व्यापक रूप दे पाते हैं या नहीं, यह भविष्य बताएगा। किन्तु जो लोग हजारों साल से मनुवाद से पीड़ित हैं, मौजूदा समय में उसके खिलाफ चौतरफा प्रहार करने का बेहद अनुकूल समय आ चुका है। और जहां तक मनुवाद से पीड़ित लोगों का सवाल है सवर्ण पुरुषों और अरब मूल के मुट्ठी भर इस्लाम विजेताओं के परिवारों को छोड़कर देश की 90 प्रतिशत अधिक आबादी ही हजारों साल से ब्राह्मण धर्म उर्फ़ हिन्दू धर्म उर्फ़ मनु धर्म से आक्रान्त रही है।

स्मरण रहे जो ब्राहमण उर्फ़ हिन्दू धर्म उर्फ़ मनु धर्म बहुजनों के दुखों का कारण है, उसके प्रवर्तक विदेशागत आर्य मनीषी रहे रहे, जिन्होंने चिरकाल के लिए शक्ति के समस्त स्रोत (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) अपनी भावी पीढ़ी के लिए आरक्षित करने हेतु वर्ण धर्माधारित ब्राह्मण उर्फ़ हिन्दू धर्म का प्रवर्तन किया। वर्ण-व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के लिए पेशे (प्रोफेशन) तय रहे। इसमें जहां ब्राह्मणों के लिए अध्ययन-अध्यापन, राज्य-संचालन में मंत्रणा-दान जैसे बौद्धिक पेशों के साथ पौरोहित्य जैसा धार्मिक-कर्म, वहीं क्षत्रियों के लिए भूस्वामित्व, राज्य संचालन और सैन्य कार्य तो वैश्यों के लिए पशुपालन और व्यवसाय-वाणिज्य के कार्य निर्दिष्ट रहे। चूंकि धर्म शास्त्रों द्वारा पेशों की विचलनशीलता (प्रोफेशनल मोबिलिटी) पूरी तरह निषिद्ध रही, इसलिए वर्ण व्यवस्था ने एक आरक्षण का रूप अख्तियार कर लिया, जिसे हिन्दू आरक्षण कहते हैं। इस हिन्दू आरक्षण में दलित, आदिवासी, पिछड़ों के सवर्णों के लिए आरक्षित सभी पेशे निषिद्ध रहे। इनके हिस्से में आई सिर्फ तीन उच्चतर वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों) की सेवा, वह भी पारिश्रमिक-रहित! इस हिन्दू आरक्षण के खिलाफ मूलनिवासी बहुजन विद्रोह न कर सकें, इसके लिए लिए आर्य मनीषियों ने बड़ी चालाकी से वर्ण-व्यवस्था को ईश्वर-सृष्ट प्रमाणित करने के असंख्य पृष्ठों में वैदिक साहित्य रचने के साथ 33 कोटि देवताओं को जन्म दे दिया। हजारो पृष्ठों में फैले धार्मिक साहित्य के जरिये वर्ण-व्यवस्था को ईश्वर-सृष्ट प्रमाणित करने के फलस्वरूप सवर्ण जहाँ खुद को शक्ति के स्रोतों के भोग का दैविक- अधिकारी समझने की मानसिकता से पुष्ट हुए वहीं, शूद्रातिशुद्र दैविक- गुलाम (डिवाइन-स्लेव्स) और दैविक- सर्वहारा में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हुए। ये दैविक गुलाम ईश्वर की इच्छा मानकर शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाये सवर्णों और उनको सर्व-सुख सुलभ कराने वाले हिन्दू धर्म के खिलाफ संग्राम न चला सके। संग्राम चलाया प्राचीन युग के पहले समतावादी तथागत गौतम बुद्ध ने।

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गौतम बुद्ध के प्रयासों से हिन्दू धर्म उर्फ़ ब्राह्मण-धर्म का अर्थशास्त्र टूटा और मूलनिवासी शुद्रातिशुद्र उन सब पेशों में हाथ अजमाने का अवसर पाए जो हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित रहे। बुद्ध के प्रयासों के फलस्वरूप बहुजनों का विशाल मानव-संसाधन पहली बार देश-हित में प्रयुक्त हुआ। उसके फलस्वरूप भारत का व्यापार देश-देशांतर फैला और भारत की हिस्ट्री का स्वर्णकाल रचित हुआ। किन्तु बहुजनों का शक्ति के स्रोतों में अवसर पाना और हिंदुत्व का अर्थशास्त्र टूटना ब्राह्मणों को रास नहीं आया और पुष्यमित्र शुंग ने एक प्रतिक्रांति घटित कर हिन्दू आरक्षण को नए सिरे से प्रतिष्ठित कर दिया, जो इस्लाम भारत में भी अटूट रहा। इसी हिन्दू आरक्षण के खिलाफ शुंगोत्तर भारत में मध्य युग के बहुजन नायको- रैदास, कबीर, नानक, चोखामेला इत्यादि से लगाये आधुनिक भारत में फुले, शाहूजी, पेरियार, सर छोटू राम इत्यादि ने अक्लांत संग्राम चलाया। अंततः बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के संग्रामों के फलस्वरूप हिन्दू आरक्षण ध्वस्त हुआ और आधुनिक आरक्षण के जरिये दलित-आदिवासियों को शक्ति के स्रोतों में आरक्षण मिला। जन्मजात वंचितों को आरक्षण सुलभ कराने वाले बाबा साहेब ने न सिर्फ विदेशी मूल के लोगों को शक्ति के सभी स्रोत आरक्षित करने वाले हिन्दू-धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म अंगीकार किया बल्कि जिन हिन्दू देवी-देवताओं के जरिये हजारों साल से बहुजनों को शोषित-निष्पेषित किया, उन देवी-देवताओं को ख़ारिज करने का साहस भी दिखाया। बाबा साहेब के सच्चे अनुयायी इसीलिए सामाजिक अन्याय को बढ़ावा देने वाले देवी-देवताओं को आनुष्ठानिक तौर पर ख़ारिज करते रहते हैं, वही काम राजेन्द्र पाल गौतम ने किया है, इसलिए हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हितों का चैम्पियन संघ परिवार उग्र रूप अख्तियार कर लिया है।

बहरहाल, सवर्णवादी हिन्दू धर्म का ठेकेदार संघ परिवार पूना-पैक्ट के ज़माने से ही आरक्षण के खिलाफ रहा। किन्तु जब 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट के जरिये पिछड़ों तक आरक्षण विस्तार हुआ, संघ और उसके आनुषांगिक संगठन आरक्षण के खिलाफ खुला युद्ध घोषित करते हुए, सितम्बर 1990 से मंदिर आन्दोलन छेड़ दिए और इसी मंदिर आन्दोलन के जरिये उनकी आज तानाशाही सत्ता कायम हो चुकी है।

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मंडल उत्तरकाल में मंदिर आन्दोलन के जरिये मिली राजसत्ता का सम्पूर्ण इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित दोनों प्रधानमंत्रियों- वाजपेयी और मोदी ने मुख्यतः बहुजनों का आरक्षण ख़त्म करने में किया है। इसलिए निजीकरण, विनिवेशीकरण, लैटरल इंट्री इत्यादि के जरिये देश बेचने जैसा जघन्य काम अंजाम देने में भी सकोच नहीं किया है। किन्तु उन्होंने सवर्ण-हित में देश विरोधी जो नीतियाँ अख्तियार की, उसे लेकर वंचित बहुजनों में काफी आक्रोश रहा पर, समाज से विमुख बहुजन नेता उसका सदव्यवहार न कर सके। उनकी आँखों के सामने बहुजनों के अधिकार लूटते रहे, पर वे चुप्पी साधे रखे। लेकिन राजेन्द्र पाल गौतम के खिलाफ संघ के हमले से लोगों के धैर्य का बांध टूट गया और वे अब मुखर हो चुके हैं।ऐसे में जो माहौल बना है उससे मनुवाद की चैम्पियन पोषक भाजपा और हिन्दू आरक्षण के खिलाफ चौतरफा हमला कर करने का सही अवसर आ गया है। इसके लिए जरुरी है कि भाजपा की नीतियों से पीड़ीत सभी तबको को जोड़ा जाय। चूँकि भाजपा ने मंदिर आन्दोलन का इस्तेमाल आरक्षित वर्गों को फिनिश करने में किया है, इसलिए उसके खिलाफ यूनिवर्सल रिजर्वेशन अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण का मोर्चा खोलना बेहतर रहेगा। यदि सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों के साथ सप्लाई डीलरशिप, ठेकेदारी, संसद-विधानसभा के सीटों, मंत्रीमंडलों के बंटवारे, शिक्षण संस्थानों में छात्रों के प्रवेश, टीचिंग स्टाफ की नियुक्ति सहित समस्त क्षेत्रों में सभी समाजों के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में बंटवारे के लिए वंचितों का संयुक्त मोर्चा खोला जाय तो हिन्दू उर्फ़ ब्राह्मण-धर्म की रक्षक भाजपा बहुजन आकांक्षा के सैलाब को झेल नहीं पायेगी और 2024 में तिनकों की भांति बह जाएगी। अगर हम ऐसा नहीं कर सके तो 2024 में सत्ता में आकर भाजपा वह कर देगी कि बहुजन शक्ति के स्रोतों में भागीदारी का सपना देखना छोड़ देंगे!

 

 

 

 

 

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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