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चिल्ड्रेन ऑफ डीफ एडल्ट्स  (डायरी 26 अप्रैल, 2022)

यह केवल भारतीय समाज का मामला नहीं है। विश्व भर के समाजों पर फिल्मों का प्रभाव पड़ा है। मैं तो यह देखता हूं कि फिल्मों ने कितना कुछ दिया है इस समाज को। फिर चाहे वह बाल संवारने का मामला हो, बोल-चाल करने का मामला हो, प्यार करने का मामला हो या फिर दूसरे के […]

यह केवल भारतीय समाज का मामला नहीं है। विश्व भर के समाजों पर फिल्मों का प्रभाव पड़ा है। मैं तो यह देखता हूं कि फिल्मों ने कितना कुछ दिया है इस समाज को। फिर चाहे वह बाल संवारने का मामला हो, बोल-चाल करने का मामला हो, प्यार करने का मामला हो या फिर दूसरे के साथ किस तरह का व्यवहार करने का मामला हो, फिल्मों ने हमारी मदद की है। पहनावों पर भी फिल्मों का असर साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। यह फिल्मों का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन मैं ये बातें केवल उन फिल्मों के बारे में कहना चाहता हूं जिनके केंद्र में मानवता रही हैं और यदि मैं इस कसौटी पर भारतीय फिल्म जगत को देखता हूं तो कुछ फिल्में ही हाथ लगती हैं।

फिल्मों की चर्चा आज इसलिए कि दो दिन पहले एक फिल्म देखने जयपुर गया। ‘बसुंधरा मंच’ एक संगठन है, जिसके तत्वावधान में यह आयोजन हुआ। इस मंच का खास उल्लेख इसलिए कि यह एक बहुआयामी संगठन है जो फिलहाल आकार ले रहा है। इसके संस्थापकों में प्रख्यात साहित्यकार जितेंद्र भाटिया हैं। उनके मुताबिक, इस मंच को विविध गतिविधियों यथा साहित्य सृजन, शोध व रंगमंच आदि को बढ़ावा देने के लिए किया जाएगा। फिलहाल इस मंच का प्रेक्षागृह एक खास मायने में भव्य है। इसकी दीवारों पर साहित्य और कला जगत के महत्वपूर्ण हस्तियों के स्वहस्ताक्षिरत तस्वीरें हैं। यह संग्रह प्रशांत अरोड़ा जी की है।

[bs-quote quote=”न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने कल मध्य प्रदेश सरकार की उस नीति पर विचार किया, जिसके तहत मृत्युदंड की सजा दिलाने में सफलता हासिल करनेवाले अधिवक्ताओं को पुरस्कृत किया जाता है। केके वेणुगोपाल जो कि भारत सरकार के मुलाजिम हैं, ने इसके विरोध में तर्क दिया है। हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा है। लेकिन मुझे लगता है कि इस परंपरा को बंद किया जाना चाहिए। मृत्युदंड केवल अपराधी को सजा देता है, अपराध को खत्म नहीं करता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, मैं अब उस फिल्म की बात करता हूं जिसे देखने का मौका मुझे ‘बसुंधरा मंच’ के कारण मिला। फिल्म का नाम है– कोडा (चिल्ड्रेन ऑफ डीफ एडल्ट्स)। इस फिल्म का निर्माण 2021 में किया गया और यह 2014 में आयी फ्रेंच फिल्म ला फैमिली बॅलॅर का रीमेक है। कोडा का निर्देशन सियान हेडेर ने किया है, जो एक युवा और प्रयोगधर्मी फिल्मकार रही हैं। इसकी फिल्म की पटकथा भी उन्होंने ही लिखी है।

फिल्म के केंद्र में एक ऐसा परिवार है जिसके तीन सदस्य गूंगे व बहरे हैं। केवल एक लड़की रूबी रॉसी है जो बोल-सुन सकती है। वह अपनी मां जैकी रॉसी और पिता फ्रैंक रॉसी तथा अपने भाई लियो रॉसी की अपने पारिवारिक व्यवसाय जो कि समुद्र से मछली पकड़ने का है, मदद करती है। इन सबके अलावा वह गायिका बनना चाहती है। पूरी फिल्म में हॉलीवुड के तमाम मसाले हैं। मतलब अंतरंग दृश्यों को भी फिल्मों का हिस्सा बनाया गया है, लेकिन यह जबरदस्ती ठूंसा हुआ नहीं लगता है। फिल्म का केंद्रीय पक्ष मानवता है और फिल्मकार का उद्देश्य पारिवारिक रिश्तों की गहरी परतों को सूक्ष्मता से दिखाना है।

मैं फिल्मों का केवल अच्छा दर्शक हूं। इससे अधिक कुछ भी नहीं। हालांकि इस फिल्म में मुझे एक बात जो खासतौर पर अच्छी लगी, वह है फिल्म का एक ऐसे परिवार के साथ चलते रहना जो कि बोलने और सुनने में सक्षम नहीं है। फिर चाहे वह ऍमिला जोंस, जिन्होंने केंद्रीय मात्र रूबी रॉसी की भूमिका निभायी है, या फिर टॉय कोसर (फिल्म में फ्रैंक राॅसी) या मार्ली मॅटिन (फिल्म में लियो रॉसी), सबने मूक-बधिरों के द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले सांकेतिक भाषा का बेहतरीन प्रदर्शन किया है। हालांकि भारतीय फिल्म जगत में भी इसी तरह की एक खूबसूरत फिल्म कोशिश (1972) और खामोशी (1996) बनायी जा चुकी हैं। ये दोनों फिल्में भी बेहतरीन हैं।

[bs-quote quote=”इस फिल्म में मुझे एक बात जो खासतौर पर अच्छी लगी, वह है फिल्म का एक ऐसे परिवार के साथ चलते रहना जो कि बोलने और सुनने में सक्षम नहीं है। फिर चाहे वह ऍमिला जोंस, जिन्होंने केंद्रीय मात्र रूबी रॉसी की भूमिका निभायी है, या फिर टॉय कोसर (फिल्म में फ्रैंक राॅसी) या मार्ली मॅटिन (फिल्म में लियो रॉसी), सबने मूक-बधिरों के द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले सांकेतिक भाषा का बेहतरीन प्रदर्शन किया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बहरहाल, आज मैं मृत्युदंड के प्रावधानों के बारे में सोच रहा हूं और हैरान हूं कि इसके संबंध में अर्टानी जनरल केके वेणुगोपाल ने आपत्ति व्यक्त की है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों– न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने कल मध्य प्रदेश सरकार की उस नीति पर विचार किया, जिसके तहत मृत्युदंड की सजा दिलाने में सफलता हासिल करनेवाले अधिवक्ताओं को पुरस्कृत किया जाता है। केके वेणुगोपाल जो कि भारत सरकार के मुलाजिम हैं, ने इसके विरोध में तर्क दिया है। हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा है। लेकिन मुझे लगता है कि इस परंपरा को बंद किया जाना चाहिए। मृत्युदंड केवल अपराधी को सजा देता है, अपराध को खत्म नहीं करता।

मेरे ऐसा सोचने के पीछे मेरे अपने तर्क हैं। एक वजह शायद यह कि मैं इश्क करनेवाला इंसान हूं। मुझे इश्क करनेवाले लोग पसंद हैं। कल ही एक कविता सूझी।

मुझे विश्वास है कि

यह धरती कायम रहेगी

तब भी जब सूरज हारेगा

और चंद्रमा की रोशनी जाती रहेगी क्योंकि

इस कायनात में कायम रहेगी

इश्क की महक

और एक सूरज के बाद

दूसरा सूरज जन्म लेगा

धरती बनी रहेगी खूबसूरत

जैसे खूबसूरत है 

आज तुमहरा घानी आंचल

और जिंदा रहेंगे

तमाम शब्द जो

आज तुम्हारे लरजते होंठों पर हैं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

 

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