Thursday, March 28, 2024
होमसंस्कृतिज़िंदगी के नए और अनजान इलाकों तक ले जाती सिनेमा की सड़कें

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

ज़िंदगी के नए और अनजान इलाकों तक ले जाती सिनेमा की सड़कें

साहित्य में यात्रा वृतांत लेखन एक अलग धारा के रूप में स्थापित है। साहित्य की भांति सिनेमा में भी ट्रैवल सिनेमा एक महत्वपूर्ण जेनर (कटेगरी) है, जिसमें यात्रा वृतांत को मुख्य विषय बनाकर सिनेमा के पर्दे पर प्रस्तुत किया जाता है। रोड मूवीज इसी जेनर की एक उपश्रेणी है। रोड मूवीज में मुख्यतः रोड पर […]

साहित्य में यात्रा वृतांत लेखन एक अलग धारा के रूप में स्थापित है। साहित्य की भांति सिनेमा में भी ट्रैवल सिनेमा एक महत्वपूर्ण जेनर (कटेगरी) है, जिसमें यात्रा वृतांत को मुख्य विषय बनाकर सिनेमा के पर्दे पर प्रस्तुत किया जाता है। रोड मूवीज इसी जेनर की एक उपश्रेणी है। रोड मूवीज में मुख्यतः रोड पर कार से की गई यात्रा को कुछ कहानियों से जोड़कर प्रस्तुत करने का चलन है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ फिल्म स्टडीज रोड मूवी के बारे में लिखता है-

The road movie tends to display a certain metaphysical or existential bent, via themes of rebellion, escape, discovery and transformation and is typified by an attenuated or picaresque narrative… the road movie is strongly associated with US cinema and with the increasingly widespread use of cars in the second half of the 20th century. (Kuhn, A. & Westwell, G. 2012:351).

स्पष्ट है कि रोड मूवी अमेरिकी सिनेमा का प्रमुख जेनर है, जिसमें कारों का बहुत उपयोग होता है। साहित्य और सिनेमा के बीच हमेशा से पारस्परिकता का संबंध रहा है। कई यात्रा वृतांत लेखकों की किताबों पर फिल्में बनी हैं जैसे कि जैक केरऔयक के नॉवेल ऑन द रोड (1957) पर इसी शीर्षक से बनी फिल्म। यह पुस्तक ही रोड मूवीज के लिए प्रस्थान बिन्दु है। ट्रेवल मूवीज सिनेमा का एक इंटरनेशनल जेनर है। इसके एक भाग के रूप में ही रोड मूवीज को जाना जाता है। जिसमें फिल्मकार अपने कैमरे के डिफरेंट एंगल के प्रयोग से सड़क पर होने वाली विभिन्न तरह की घटनाओं, जैसे कि यात्रा का आनंद, यात्रियों के बीच के पारस्परिक वार्तालाप, रोमांस, झगड़े, हिंसा, लूटपाट एवं दुर्घटना की परिस्थितियों में होने वाली विभिन्न तरह की गतिविधियों का चित्रण करता है। रोड मूवीज मुख्यतः अमेरिकी सिनेमा उद्योग (हॉलीवुड) का प्रमुख जेनर है, जिसमें मुख्य रूप से कारों का उपयोग किया गया। अमेरिका के अलावा ऑस्ट्रेलियन सिनेमा में भी कई रोड मूवीज बनी हैं जैसे, वाकअबाउट (1971), मैड मैक्स (1979-85), द एडवेंचरस ऑफ प्रिससिला, क्वीन ऑफ द डेजर्ट (1994) इत्यादि। यूरोप में भी वीकएंड (फ्रांस 1967), पेरिस टेक्सास (जर्मनी 1984), इन डिस वर्ल्ड (इंग्लैंड 2002 एक अफ़गान रिफ्यूजी की पाकिस्तान से इंग्लैंड तक की यात्रा के बारे में) जैसी फिल्में कई यूरोपियन देशों में बनीं, जिन्होंने प्रवास, निर्वासन, सीमा पर वैध या अवैध घुसपैठ जैसे मुद्दों को भी प्रमुखता से चित्रित किया है। स्पेनिश फिल्म द मोटरसायकिल डायरीज (2004) चे ग्वेरा की बायोपिक है। सन 1952 में दक्षिणी अमेरिका के देशों में अपने दोस्त अल्बर्टो ग्रेनाडो के साथ बाइक से यात्राएं की थीं, उनके यात्रा संस्मरणों पर केंद्रित यह फिल्म बनाई गई थी।

अमेरिका में फोर्ड के कार उद्योग, शानदार रोड और लंबी दूरियों ने रोड मूवीज के लिए अनुकूल माहौल दिया लेकिन इसका सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू भी काफी महत्वपूर्ण है। अमेरिका के दक्षिण में रहने वाले ब्लैक अमेरिकन-अफ्रीकन लोगों ने रंगभेद, बेरोजगारी और पाबंदियों से मुक्त होने के लिए उत्तरी विकसित शहरों की तरफ प्रवास किया और ट्रेनों से यात्राएं की, उन्हें मुख्य सड़कों पर चलने की भी पाबंदी थी। अमेरिका में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दिनों में जब सड़कों और ऑटोमोबाइल का तेजी से विस्तार हुआ, नए गाने (गेट योर किक्स ऑन रूट 66-नाट किंग कॉल) और रोड फिल्मों का भी तेजी से बनना शुरू हुआ। आयरमैन और ओरवर (1995:55) अपने शोधपत्र में लिखते हैं-

alongside the westward-moving wagon trains, slavery, the civil war and uneven industrial development created great migrations along a south-north axis. Black American took the A-train from southern farms and plantations to northern industrial cities…millions abandoned rural southern poverty for a new start in the north.

इस प्रकार रोड सामाजिक गतिशीलता के साधन के रूप में सामने आया, भौतिक गतिशीलता के साथ अमेरिकन ब्लैक्स के लिए सामाजिक गतिशीलता और परिवर्तन सम्भव हुए। ईजी राइडर (1969) और बैडलैंड्स (1974) जैसी अमेरिकन रोड फिल्मों की विषयवस्तु निराशावादी थी। इस दौर की फिल्मों में घोर सुविधापूर्ण जीवन, भ्रष्टाचार, अन्याय से पलायन को चित्रित किया गया था। सड़क पर होने वाले बेमतलब की हिंसा और हत्याएं निराशा, बोरडम और असामान्य वातावरण की तरफ इशारा करती हैं। बॉलीवुड की फिल्में रोड (2002) और एनएच 10 (2015) जैसी फिल्में भी हिंसा, ऑनर किलिंग पर केंद्रित करती हैं जो एक क्षेत्र विशेष की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना और समाज में हो रहे बदलावों के प्रति लोगों के प्रत्युत्तर को दर्शाती हैं।

इसी क्रम में पाल ओलिवर (1960) लिखते हैं कि, The road even for relatively well to do African-Americans was an unsafe and unwelcome environment…it was the train that symbolized both the hope of a new life down the road and the means of escaping the restrictions and pain of the present, not the automobile.

एनएच 10 का दृश्य

ट्रेन गरीबों के लिए आसान और मुफीद सवारी है और रोड महंगा। भारत में भी बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रमिक बड़ी संख्या में पिछले चार दशकों से दिल्ली, मुंबई और पंजाब के कई औद्योगिक शहरों में बेहतर रोजगार और जीवन के अवसरों की तलाश में ट्रेनों से जाते हैं। कोरोना काल में सड़कों और ट्रेनों की पटरियों को पकड़कर वे वापस घर की तरफ भी लौटे थे। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में रोड मूवी किस तरह तनाव और संकट, पहचान और लैंगिक (gendered) भेदभाव को अपने विषय में शामिल कर फिल्म बनाती हैं, इसका मूल्यांकन भी किया जाता है।

जब हम रोड मूवीज की बात कर रहे हैं तो हमें कई सवालों के उत्तर ढूँढने की कोशिश भी करनी होगी-

  • सड़क पर कौन लोग घूमते हैं ?
  • कौन लोग हैं, जो सड़क पर रहते और चलते हैं?
  • सड़क पर रहने के कारण क्या हैं?
  • पैदल, सायकिल, बैलगाड़ी, जीप, कार, बस, ट्रक किसके लिए बनी हैं सड़कें?
  • क्या सड़कें सबके लिए एक समान हैं?

सड़क पर मुद्दे तो बहुत हैं

सड़क पर सबसे ज्यादा समय बिताने वाले लोग पुरुष ट्रक ड्राइवर हैं, जो कई दिनों और कभी-कभी महीनों तक अपने घरों से दूर रहते हैं। नेशनल परमिट लिए ये लोग देश के एक कोने से दूसरे कोने तक सामान की ढुलाई करते हैं। इन यात्राओं में उनके पड़ाव सड़क किनारे के ढाबे होते हैं, जहां उन्हें खाना-पानी, नींद सब लेनी होती है। वैसे ट्रक में उनकी एक पूरी गृहस्थी भी चलती है, क्योंकि ये चलते-फिरते ट्रक उनके घर की तरह ही होते हैं। ट्रक ड्राइवर अपनी सेवा की परिस्थितियों के कारण कई बुराइयों के शिकार होकर बीमारियाँ भी पाल लेते हैं जैसे कि, एचआईवी, दारू, स्पिरिट, ड्रग्स का लती हो जाना। काम का दबाव और नींद पूरी न होने से बड़ी दुर्घटनाएं उनके हिस्से में आती हैं। कोरोना काल की ऐतिहासिक बंदी में ट्रक ड्राइवरों ने जिस तरह जरूरत की वस्तुओं को प्रत्येक जनपद व शहर में पहुंचाने का काम किया था, वह सराहनीय रहा। हमने देवरिया (उत्तर प्रदेश) में उन्हें कोरोना योद्धा घोषित किया था और उनके सम्मान का विशेष ध्यान रखते हुए पानी की बोतलें और खाने के पैकेट भी उपलब्ध कराते थे।

स्पीड ब्रेकर, ज़ेबरा क्रासिंग, ट्रैफिक लाइट, रोड सेफ़्टी वीक, ये सब अकादमिक और प्रशासनिक विषय हैं लेकिन ये सारे उपाय सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के लिए किए जाते हैं। सड़कों पर चलने वाले लोग मुख्यतः पुरुष हैं, महिलायें या तो नहीं हैं और यदि हैं तो पुरुषों के साथ (कॉम्पाइनीयन) हैं। यह जेंडर आधारित मुद्दा भी निश्चित रूप से है। दुर्घटनाओं की बात करें तो रोड एक्सीडेंट का शिकार मुख्यतः गरीब लोग होते हैं जो पैदल, सायकिल, ठेला या मोटरसायकिल से अपने काम या गंतव्य को जा रहे होते हैं। चूंकि रोटी अर्जक के रूप में वे घर से बाहर सड़क पर होते हैं, इसलिए दुर्घटनाओं के शिकार तुलनात्मक रूप से पुरुष ही ज्यादा होते हैं। मैंने अक्सर सड़क दुर्घटनाओं मे 20 वर्ष से 50 वर्ष की उम्र के लोगों को मरते देखा है जिनके मरने के बाद उनके बीवी-बच्चों के सामने रोटी-रोजगार के सवाल खड़े हो जाते हैं। उनके घर-परिवार बिखर जाते हैं।इन दुर्घटनाओं से प्रभावित परिवारों के हिस्से हमेशा के लिए एक कभी न भरने वाला घाव, सदमा और अपूरणीय क्षति आ जाती है। आप बस, कार, ट्रक या अन्य किसी भी वाहन से सड़क पर यात्रा करते हैं तो जहरखुरानी, जेब कटने, लूट, हिंसा, मारपीट या धोखाधड़ी के शिकार हो सकते हैं। कुछ कस्बे, कुछ गाँव, किसी शहर का बस स्टेशन या रेलवे स्टेशन बदनाम होते हैं कि वहाँ पानी, चाय या समोसे न खरीद लेना बहुत महंगे मिलेंगे, दुकानदार मिलकर लूट लेंगे…। जाने किस खाने-पीने की चीज में बेहोशी की दवा मिलाकर तुम्हारा सब कुछ लूट लिया जाएगा, सावधान रहो किसी अपरिचित के हाथ से कुछ मत लो, कुछ मत खाओ… ऐसे स्लोगन भी स्टेशन परिसर में चिपके हुए मिल जाएंगे। आप एनएच 10 से हरियाणा में जा रहे हैं या राजस्थान के रेगिस्तान में किसी अपरिचित व शरीफ दिखने वाले आदमी को अपनी गाड़ी में लिफ्ट दे रहे हैं या गोंडा स्टेशन के समोसे खा रहे हैं या पंजाब-जम्मू नेशनल हाइवे के किनारे किसी ढाबे पर खाना खा रहे हैं तो सावधान रहिएगा… जेब में पर्याप्त पैसे रखिएगा… आपकी सोच से कितने गुने ज्यादा चुकाना होगा, आपको अंदाजा भी नहीं होगा। ये सब सड़क के मुद्दे हैं और फिल्में इन सब बातों के बारे में आपको मनोरंजन के साथ आगाह करती भी चलती हैं।

भारतीय सिनेमा में रोड मूवीज

भारत के संदर्भ में देखें तो बॉलीवुड में भी शुरुआत से ही कई तरह की रोड मूवीज बनती रहीं हैं। सड़क पर चलने वाले कई तरह के लोग होते हैं- पैदल, साइकिल, मोटरसाइकिल, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, ऊंटगाड़ी, टेम्पो, जीप, कार, बस, ट्रक (किंग्स ऑफ रोड) और जुगाड़ इत्यादि। यात्रा करने वाले यात्रियों और यात्रा के दौरान घटित होने वाली तमाम तरह की रोमांटिक, हास्यप्रद एवं दुखद मानवीय अनुभवों और भावों का चित्रण सिनेमा के पर्दे पर समय-समय पर कुछ मशहूर फिल्मकारों ने किया है और जिन्हें भारतीय दर्शकों ने पसंद भी किया है भारतीय सिनेमा में रोड मूवीज श्रेणी की पहली फिल्म राजकपूर और वहीदा रहमान अभिनीत तीसरी कसम को माना जा सकता है। बाद के बरसों में महमूद प्रोडक्शन की फिल्म बांबे टू गोवा भी बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है। बॉलीवुड में रोड मूवीज का चलन मुख्यतः 90 के दशक में बाद शुरू हुआ और सन 2000 तक इसमें और गति आई। राम गोपाल वर्मा निर्देशित और मनोज वाजपेयी, विवेक ओबेराय एवं अंतरा माली अभिनीत फिल्म रोड सही मायने में इस जेनर की प्रतिनिधि फिल्म है। चलो दिल्ली, NH 10, बाइपास, रोड, ट्रिप, हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड, नौ दो ग्यारह इस श्रेणी की कुछ बेहतरीन और सफल फिल्में रही हैं।

फिल्म लॉकडाउन

प्रमुख ट्रेवल/ रोड मूवीज

तीसरी कसम 1966, बॉम्बे टू गोवा 1972, नमकीन 1982, सड़क 1991, दिल है कि मानता नहीं 1991, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 1995, गदर: एक प्रेम कथा 2001, दिल चाहता है 2001, रोड 2002, स्वदेस 2004, हम तुम 2004, धूम 2004, काबुल एक्सप्रेस 2006, टैक्सी नंबर 9211 (2006), हनीमून ट्रवेल्स प्राइवेट लिमिटेड 2007, जब वी मेट 2007, बाम्बे टू गोवा 2007, 3 इडियट्स 2009, रोड 2009, अनजाना अनजानी 2010, ज़िंदगी ना मिलेगी दुबारा 2011, चलो दिल्ली 2011, बर्फ़ी 2012, क्वीन 2013, लंदन पेरिस न्यू यॉर्क 2012, क्वीन 2013, चेन्नई एक्सप्रेस 2013, ये जवानी है दीवानी 2013, हाइवे 2014, फाइन्डिंग फन्नी 2014, तमाशा 2015, दिल धड़कने दो 2015, एनएच 10 2015, बजरंगी भाईजान 2015, पीकू 2015, धनक 2015, द रोड ट्रिप 2016, जब हैरी मेट सेजल 2017, करीब करीब सिंगल 2017, जग्गा जासूस 2017, कारवां 2018, बाइपास रोड 2019, 1232 किमी 2021, लॉकडाउन 2022, भीड़ 2023.

कुछ प्रतिनिधि फिल्मों पर बातें

जब हम रोड मूवीज का विश्लेषण करेंगे तो सड़कों पर चलने वाले व्यक्तियों और साधनों का जिक्र क्रमबद्ध तरीके से आएगा। आज़ादी के पहले के हिंदुस्तान में सड़कें बहुत कम थीं या शहरों तक सीमित थीं। ग्रांड ट्रक रोड और कुछ लंबी दूरी की सड़कों को छोड़ दें तो ज्यादातर स्थानों तक पहुँचने के लिए कच्चे मार्ग और पगडंडियाँ ही उपलब्ध थीं। जमींदारी व्यवस्था के समाप्त होने (1950), चकबंदी (1953) के माध्यम से कृषि जोतों को व्यवस्थित करने के क्रम मे चकमार्ग और सेक्टर मार्ग बनने आरंभ हुए ताकि किसान अपने खेतों तक आसानी से पैदल, बैलगाड़ी और बाद में ट्रैक्टर से पहुँच सकें। धीरे-धीरे आवश्यकतानुसार ये कच्ची सड़कें, सीसी और खड़ंजा मार्ग में बदलने लगीं। मंडियों, बाजारों और चीनी मिलों तक कृषि उत्पाद पहुंचाने के लिए कुछ प्रमुख मार्गों को पक्की सड़कों में भी बदला गया। नदी, नालों और नहरों पर छोटे-बड़े पुल बनने लगे। 70 के दशक में सिंचाई की बड़ी नदी-नहर परियोजनाओं के निर्माण ने भी नहर की पटरियों के रूप में नए आवागमन मार्ग उपलब्ध कराए, जिन्होंने कई गांवों और शहरों को जोड़ने का काम किया।

तीसरी कसम ने पहली बार रोड सिनेमा की संभावनाओं का द्वार खोला

तीसरी कसम (1966) फिल्म का हीरामन एक गाड़ीवान (बैलगाड़ी) है। फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य के साथ होती है जिसमें वो अपनी बैलगाड़ी को हाँक रहा है और बहुत खुश है। उसकी बैलगाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। रास्ते में दोनों का परिचय होना, बातचीत का होना लोककथाओं के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका की कहानियाँ, लोकगीत सबकुछ राह चलते सामने आते हैं। इस बीच उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं और लोककथाओं और लोकगीत से भरा यह अंश फिल्म के आधे से अधिक भाग में है। बातों-बातों में वह भारत-नेपाल सीमा पर तस्करी का माल लादने और फिर पकड़े जाने के डर से भागने की घटनाओं का जिक्र बताता है कि बॉर्डर एरिया में रहने वाले लोग किस तरह स्मगलिंग करके सरकार को नुकसान पहुंचाते हैं। यात्रा के दौरान पात्रों के बीच हुई बातचीत और घटनाएं ही रोड मूवीज की मुख्य विषय वस्तु हैं जो दर्शकों को बांधे रखती हैं। जैसे हीरामन खुद बताता है कि बांस की लदनी से परेशान होकर उसने प्रण लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बांस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। नौटंकी की बाई हीराबाई, हीरामन गाड़ीवान की सादगी से इतनी प्रभावित होती है कि वो मन ही मन उससे प्रेम कर बैठती है। उसके साथ मेले तक पहुँचने का 30 घंटे का सफर कैसे पूरा हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में ट्रेन और रेलवे स्टेशन प्रगति और सामाजिक गतिशीलता के प्रतीक के रूप में सामने आयें हैं। स्टेशन के किनारे रहने वाली लड़कियां, कुली और खलासी उनकी नजर में बहुत होशियार लोग होते हैं जिनके पास नई सूचनायें होती हैं।फिल्म में स्टेशन से हीराबाई के आने और फिर वापस जाने के दो दृश्य हैं। शेष में तो हीरामन है, उसके बैल हैं और कच्ची-पक्की सड़क है, बीच में गाँव हैं, गाँव के लोग हैं जो बैलगाड़ी में नई बहू के बैठकर जाने का समझकर कर लाली रे डोलिया… गीत भी गा लेते हैं। फिल्म के आखिरी हिस्से में रेलवे स्टेशन का दृश्य है जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसके पैसे उसे लौटा देती है जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे दिए थे। उसके चले जाने के बाद हीरामन वापस अपनी गाड़ी में आकर बैठता है और जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं ‘मारो नहीं…’ और वह फिर उसे याद कर मायूस हो जाता है। अन्त में हीराबाई के चले जाने और उसके मन में हीराबाई के लिए उपजी भावना के प्रति उसके विदा लेने के बाद उदास मन से वो अपने बैलों को झिड़की देते हुए तीसरी क़सम खाता है कि ‘अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं ले जाएगा।’ गुलजार निर्देशित फिल्म नमकीन (1982) की वहीदा रहमान (ज्योति) बुढ़ापे की हीराबाई लगती हैं जो नौटंकी के शराबी बाजेवाले से शादी करके हिमालय के एक पहाड़ी गाँव में बस गई हैं जिसकी तीन बेटियाँ हैं। वह अपनी तीनों बेटियों पर उनके बाप की नजर नहीं पड़ने देना चाहती हैं क्योंकि वह उन्हें नौटंकी की बाई बनाकर नचाना चाहता है। हीरामन बैलगाड़ी हाँकता है लेकिन नमकीन फिल्म में हीरामन का प्रमोशन हो गया है और वह बाबू ट्रक ड्राइवर गेरुलाल (संजीव कुमार) बनकर हीराबाई के घर में किराये पर रहने आता है और परिवार के सदस्य की तरह भरोसेमंद बन जाता है। वह ज्योति और उसकी तीनों बेटियों के लिए एक सहारा बन जाता है।

सड़क के जीवन को अनेक कोनों से उठाती बॉम्बे टू गोवा का दृश्य 

बॉम्बे टू गोवा (1972) महमूद प्रोडक्शन की फिल्म थी जिसमें पहली बार अमिताभ बच्चन को लीड रोल काम करने का मौका मिला। यह तमिल फिल्म मद्रास टू पांडिचेरी (1962) की रीमेक थी। यह फिल्म सही मायनों में रोड मूवी का बेहतरीन उदाहरण थी। इस बस में बैठे हुए पैसेंजर अलग-अलग बैकग्राउंड के थे और हास्य क्रिएट करने के लिए अलग-अलग मौकों पर उनका उपयोग किया गया था। बॉलीवुड की फिल्मों के महान हास्य कलाकार महमूद, मुकरी, केष्टो मुखर्जी एवं अन्य कलाकार फिल्म में रखे गए थे। फिल्म मोटे, पतले, नाटे, खब्बू, छोटे, बड़े तमाम तरह के व्यक्तियों के माध्यम से हास्य सृजित करने का प्रयास करती हुई दिखती है। जब आप किसी सड़क से होकर यात्रा करते हैं तो कई तरह की घटनाएं होती हैं, यात्रियों के बीच वाद-विवाद होते हैं, बस खराब भी होती है, इस फिल्म में कुछ जानवर भी हैं जैसे कि मुर्गी और कोबरा सांप जो हास्य क्रिएट करने में मदद करते हैं। इस फिल्म में युवा लड़के-लड़कियां हैं, जादूगर भी हैं, सपेरे भी हैं चोर-लुटेरे लंपट और दिलफेंक सभी हैं। गीत गाने के अपने खास अंदाज के लिए प्रख्यात गायक किशोर कुमार भी हैं। कंडक्टर और ड्राइवर भी बहुत मजेदार हैं। जब भी बस यात्री किसी मुद्दे पर आपस में झगड़ कर शोरगुल हंगामा कर रहे होते हैं तो कंडक्टर और ड्राइवर बाहर निकल कर ताश की पत्ती खेल कर अपना समय काटते हैं और जब देखते हैं शोरगुल कम हो गया है तो वापस आकर बस को आगे ले जाने का काम करता।

रामगोपाल वर्मा निर्मित और रजत मुखर्जी निर्देशित रोड (2002) एक रोड थ्रिलर फिल्म है जिसमें मनोज वाजपेयी, विवेक ओबेराय, राजपाल यादव और अंतरा माली ने काम किया है। इस फिल्म की खासियत है कि यह नाम के अनुरूप सड़क पर ही चलती है और शुरू से अंत तक विषय पर केंद्रित रहते हुए दर्शकों को बांधे रहती है। इस फिल्म का मोरल ऑफ द स्टोरी है कि किसी पर भरोसा मत करना। आप सड़क से फैमिली के साथ जा रहे हैं और रास्ते में किसी नौजवान को पैदल जाता देख लिफ्ट मांगने पर उसकी बातों के प्रभाव में आ जाते हैं और बाद में आपको मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। राजस्थान के रेगिस्तान (जोधपुर) में सुनसान लंबी सड़क पर आप किसी अनजान आदमी को लिफ्ट क्यों देते हैं? प्यार करने वाले एक लड़का और लड़की बिना माँ-बाप को बताए टाटा सफारी गाड़ी से दिल्ली से राजस्थान की तरफ घूमने निकल पड़ते हैं। वे एक साथ रोमांस विद रोड, रोमांस विद लाइफ और रोमांस विद कार करते दिखाई देते हैं। एक अनजान आदमी गुंडा बाबू कबाब में हड्डी बनकर आता है और दोनों के रोमांस में अपने रोमांस का तड़का डालकर खूब परेशान करता है। मुश्किल में फंसने पर ट्रक ड्राइवर लड़के अरविन्द (विवेक ओबेराय) की मदद करता है ताकि वह अपनी गर्लफ्रेंड लक्ष्मी (अंतरा माली) को गुंडे बाबू के चंगुल से छुड़ा सके। पुलिस का ढुलमुल रवैया, पीड़ित को ही अपराधी समझने की थ्योरी भी दर्शकों के सामने आती है।

 चलो दिल्ली

चलो दिल्ली (2011) ‘इसमें कौन-सी बड़ी बात है जी…’ का जुमला हर बड़ी बात या घटना के समय बोलने वाला विनय पाठक (मनु गुप्ता) अपनी सहयात्री लारा दत्ता (मिहिका बनर्जी) का पूरे सफर में मनोरंजन और मदद करता है। यह फिल्म स्टीव मार्टिन की रोड फिल्म प्लेन्स, ट्रेंस एण्ड ऑटोमोबाइल्स (1987) पर आधारित है। मिहिका एक बैंकर है और मुंबई में रहती है, उसे अपने पति कर्नल विक्रम राणा (अक्षय कुमार) से मिलने दिल्ली जाना है लेकिन उसकी फ्लाइट छूट जाती है। वह संयोग से मनु गुप्ता (विनय पाठक) से मिलती है और वे दोनों कभी रोड तो कभी ट्रेन से भारत के विविधतापूर्ण गांवों और शहरों से होते हुए अपनी दूरी तय करते हैं। रास्ते की मुश्किलों, हास्य के पलों के बीच मिहिका और मनु किस तरह इस यात्रा को तय करते हैं, यह निश्चित ही देखने लायक है। भारत में आप बस या ट्रेन से यात्रा कर रहे हैं तो किसी राह में किसी मोड़ पर आपकी जेब कट सकती है। इसी दर्शन के अनुसार ट्रेन का टिकट लेते समय राजस्थान के झुंझुनू स्टेशन पर मनु की जेब कट जाती है और उसे बड़ी मुश्किल से मनु के साथ दिल्ली पहुंचना होता है।

 क्रूरता और नृशंशता का बाइपास

बाइपास (2003) इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत इस फिल्म के पहले ही दृश्य में हम देखते हैं कि एक नवविवाहित जोड़ा कार द्वारा शहर के बाइपास से होकर गुजरता है पर रेगिस्तान में रेत के पहाड़ पर बैठा हुआ गूंगा आदमी चिल्लाता है और अपने दोस्त को बताता है कि एक गाड़ी आ रही है। उसका दोस्त गाड़ी पर निशाना लगाकर एक बड़ा-सा पत्थर फेंकता है जिससे गाड़ी का एक्सीडेंट होता है। ड्राइवर, पति और उसकी पत्नी दोनों बेहोशी की हालत में होते हैं। दोनों लुटेरे उनका सारा कीमती सामान लूट लेते हैं। लड़के के हाथ में पहनी हुई घड़ी जब आसानी से नहीं निकलती तो नवाजुद्दीन का अपनी कुल्हाड़ी से कलाई काटकर घड़ी निकालता जैसे उसके लिए यह एक बहुत साधारण-सी बात हो। उसका साथी घायल पड़ी महिला के गाल को बुरी नियत से सहलाता है। वह कुछ बोल नहीं पाती। मदद के लिए इशारे करती है, लेकिन वे दोनों कीमती सामान और जेवरात लूटकर चले जाते हैं। उस सड़क पर गश्त में लगा पुलिसवाला (इरफान) अपनी मोटरसाइकिल पास के ढाबे पर रोककर एक्सीडेंट वाली कार के बारे में पूछताछ करता है और उन दोनों बदमाशों को पकड़ने की कोशिश करता लेकिन गूंगा अपराधी सिर पर पीछे से पत्थर मारकर इरफ़ान को जमीन पर गिरा देता और पत्थर से कुचलकर बेरहमी से उसकी हत्या कर देता है। घटना के बाद में वे दोनों बाइपास से गुजरने वाले एक ट्रक पर सवार होकर उसे ही लूटने के जुगाड़ में लग जाते हैं लेकिन ट्रक में बैठी महिला बांके से मारकर पहले गूंगे आदमी को और फिर उसके साथी (नवाजुद्दीन) को नीचे गिरा देती है। राहगीरों को लूटने और बेरहमी से हत्या करने वाले दोनों निर्दयी अपराधी बेमौत मार दिए जाते हैं और जैसी करनी वैसी भरनी… की कहावत को पूरी करते हैं।

शहर की भीड़ और जाम से बचने के लिए तथा यात्रा में लगने वाले समय को कम करने के लिए सरकारों ने शहरों के किनारे बाइपास बनाए। इन बाइपास पर दूर-दूर तक गाड़ियां दिखाई नहीं देती हैं, क्योंकि लोग बहुत तेजी से आगे भागते हैं। जैसे वे रेस अगेंस्ट टाइम की होड़ में लगे हों। इस बाइपास वाली रेस के कारण दो मुश्किलें पैदा हुईं: पहला- तेज गति से होने वाली भयानक दुर्घटना, जिसमें तमाम लोग अपनी जान गँवाते हैं। दूसरा- निर्जन बाइपास पर गाड़ी खराब होने पर सहायता ना मिलना और लूट व रेप जैसी दर्दनाक घटनाओं का बढ़ जाना। इरफान और नवाजुद्दीन लूट हिंसा के साथ महिलाओं से बदतमीजी और छेड़खानी और रेप की कोशिश करते हैं। इस फिल्म में कैमरा सब कुछ बोलता है और कैमरे के एंगल से दर्शक पूरी कहानी को देखते-समझते हैं। इस साइलेन्ट फिल्म में जिसकी आवाज सबसे लाउड है वह है गूंगा व्यक्ति, जो क्रूर, निर्दयी अपराधी है और हत्यारा भी। वह किसी को भी बिना किसी हिचक के जान से मार सकता है। पत्थर से कूच कर, चाकू से गोंद कर किसी भी तरीके से वह हत्या और लूट करने का अभ्यस्त जान पड़ता है। वैसे तो नवाजुद्दीन और उसका साथी दोनों ही बहुत जघन्य हत्यारे किस्म के लोग हैं। गूंगे अपराधी की दिव्यांगता पर दर्शक को सहानुभूति नहीं होती बल्कि क्रोध, घृणा और जुगुप्सा होती है। वह निर्दोष लोगों का शिकार करने वाला हिंसक जानवर प्रतीत होता है। बाइपास या एक्सप्रेसवे से गुजरते वक्त हमें ऐसे तत्वों से विशेष सावधानी रखनी होती है।

द रोड ट्रिप का एक दृश्य

द रोड ट्रिप (2016) मशहूर अभिनेत्री निम्रत कौर और ताहिर राज भसीन की शॉर्ट फिल्म है। आराम करने वाली फिल्म के शुरुआती दृश्य में हम देखते हैं कि यह कार सड़क किनारे खड़ी है जो शायद खराब है। दो व्यक्ति (पति-पत्नी) हैं, बातचीत कर रहे हैं। वे शादी के पहले महिला और पुरुष मित्रों से करीबी को लेकर लड़ते भी हैं। कुछ मिनट में ही हम उनके आपसी वार्तालाप से आज के युवा दंपतियों के बिना वजह के झगड़ों को देखते हैं। एक-दूसरे के फोन चैट पढ़ना, शक करना और भी बहुत कुछ। वे इस बात पर पछताते हैं कि उस टर्न पर हमें स्पीड कम रखनी थी। तब तक सड़क के दूसरी तरफ से एम्बुलेंस और दूसरी गाड़ियां आती दिखती हैं और वे दोनो कहते हैं, ‘अरे देखो वे लोग आ गए, हमें चलना होगा।’ वे दोनों एक-दूसरे के गले लग जाते हैं फिर दर्शक चौंकते हैं। अब तक जो पति-पत्नी बातचीत कर रहे थे उनकी मृत देह जमीन पर पड़ी है। अस्पताल से आये लोग स्ट्रेचर पर उन्हें लादकर अपने साथ ले जाते हैं और फ़िल्म समाप्त हो जाती है। सड़क पर गाड़ी की स्पीड, किसी मोड़ पर गाड़ी ओवरटेक करना, सड़क किनारे खड़ी गाड़ी में पीछे से टक्कर मारना… यह सब हमारी असावधानी से होता है। शार्ट फिल्में अपने छोटे कलेवर में भी बहुत कुछ कह जाती हैं।

बारात 

बारात (2022) चंद्रकांता धारावाहिक फेम अखिलेन्द्र मिश्रा एक साथ फिल्म के प्रारंभिक दृश्य में एक ठेले पर पानी-पूरी खा रहे हैं और बड़े प्रेम से खाकर आह्लादित हो रहे हैं। वहीं पर कुछ लड़कियां स्कूल से लौटकर पानी पूरी खा रही है और पुल पर बारात और बस के बीच एक्सीडेंट होने की बात कर रही हैं जिस पर अखिलेंद्र मिश्रा बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं। पानी पूरी खाने के बाद वह अपने स्कूटर से घर की तरफ चल पड़ते हैं।  रास्ते में छोटा सा जंगल पड़ता है। कुछ दूरी चलने पर रास्ते में पड़ा हुआ नोट देखते हैं और उसे उठाने के लिए जाते हैं। चारों तरफ देखते हैं कोई उन्हें देख तो नहीं रहा और नोट उठाकर आगे की जेब में रख लेते हैं। जब उठाते हैं तो पीछे से बैंड बाजे और ऊपर से एक चिड़िया के लगातार बोलने की आवाज आती है, फिर थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर तीन या चार बार ऐसा होता है जब वह रोड पर गिरे हुए नोट देखते हैं और उठाकर अपनी जेब में रखते हैं उतनी बार पीछे से आती हुई आवाज सुनाई देती है पर दिखाई कुछ नहीं देता। कभी-कभी ऐसा लगता है कि किसी ने कहीं से उठा लिया हो और रास्ते में उसने बिखेर दिए हों या कभी ऐसा लगता है कि कोई बारात इधर से गुजरी है और नोट लुटाया गया है। नोट उठाने के दौरान अखिलेंद्र मिश्रा की बेटी का फोन आता है और वह घर पर आइसक्रीम लाने के लिए कहती है। नौकरी से घर लौटता हुआ आदमी शाम को देर होने पर अपने स्कूटर की स्पीड को उसकी क्षमता से बहुत तेज बढ़ा देता है और अचानक एक्सीडेंट का शिकार हो जाता है। थोड़ी देर बाद हम उसे जागते हुए देखते हैं। उसकी नींद खुलती है जब पीछे बैंड-बाजा और बारात आती हुई दिखाई देती है।  लेकिन सच कुछ और होता है। जिंदा रहते हुए के बारात में शामिल नहीं हुए बल्कि मरने के बाद उस बारात में शामिल हुए हैं। एक्सीडेंट में मरने वाले तमाम व्यक्तियों का हुजूम बैंड-बाजे के साथ निकला हुआ है। शायद फिल्म यह मैसेज देना चाहती है कि हम थोड़े से लालच और लापरवाही के कारण सड़क पर असावधानी से चलते हैं और असमय काल के गाल में समा जाते हैं और घर पर इंतजार कर रहे अपने परिवार तक नहीं पहुंच पाते।

हाइवे में रणदीप हुडा और अलिया भट्ट

हाइवे (2014) सही मायनों में एक रोड मूवी है। इम्तियाज़ अली की इस फिल्म में एक दर्शन भी है कि जिस घर को हम अपने और अपने बच्चों के लिए सुरक्षित समझते हैं वे रिश्तों और दीवारों की आड़ में हमारे बच्चों के लिए कब असुरक्षित हो जाते हैं हमें पता ही नहीं चलता।  लेकिन जिस अनजान सड़क और किसी ट्रक ड्राइवर जैसे अपहरणकर्ता को खतरनाक समझते हैं और परेशान होते हैं वे हमारे लिए या बच्चों के लिए कितने प्रेम और मानवीयता से भरपूर हो सकते हैं। हम एक बने बनाए साँचे और ढांचे के अनुसार सोचते और व्यवहार करते हैं जबकि दुनिया में समय और परिस्थितियाँ बहुत ही परिवर्तनशील और विविधतापूर्ण हैं। वे हमें अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आकर सोचने का आमंत्रण देती हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें मानें या अस्वीकार करें। फिल्म का ट्रक ड्राइवर (रणदीप हुड्डा) अपहरण की गई लड़की (आलिया भट्ट) को लेकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत लोकेशन्स पर जाता है। घर से बाहर की सड़क और दुनिया में एक लड़की अपनी जीने की आजादी और जीवन के नए अर्थ और आयाम खोज पाती है।

फिल्म पीकू का एक दृश्य

पीकू (2015) पिता-पुत्री के बीच उलझे हुए लेकिन खूबसूरत रिश्ते को परदे पर दिखाती हुई फिल्म है। वे कार से दिल्ली वाया बनारस होते हुए कोलकाता जाते हैं। इरफान खान (राणा चौधरी), दीपिका पादुकोण (पीकू बनर्जी)और अमिताभ बच्चन (भास्कर बनर्जी) और छबि मौसी (मौसमी चटर्जी) की शानदार अदाकारी से सजी यह फिल्म यह संदेश देती है कि आदमी अपने जीवन के अंतिम समय में सुकून से अपने घर में मरना चाहता है, जहां उसका समय अपने परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों के साथ सुख-दुख में साथ रहते लड़ते-झगड़ते प्यार करते बीता है। तभी तो गुलजार कोरोना काल पर बनी फिल्म 1232 किमी के गाने में लिखते हैं ‘मरेंगे तो वहीं जाकर जहां ज़िंदगी है’। उभरते हुए गीतकार डॉ सागर ने भी अनुभव सिन्हा की फिल्म भीड़ (2023) के गीत चल उड़ चल सुगना गउवां के ओर जहां माटी में सोना हेराइल बा… में इसी भावना को आवाज देते दिखाई पड़ते हैं। पीकू के भास्कर बनर्जी कब्ज के मरीज हैं। वे आसानी से फ्रेश नहीं हो पाते इसलिए वे हवाई जहाज और ट्रेन से दिल्ली से कोलकाता जाना पसंद नहीं करते। उन्हें सड़क से ही जाना है ताकि वे अपनी मर्जी से चल और रुक सकें। इन्ही परिस्थितियों के बीच रोड एक सुविधाजनक पात्र की तरह हमारे सामने आता है।

दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे

भारत में रोड मूवी के सामने जिंदगी की वास्तविक आईनादारी की चुनौती है 

सन 1960 के दशक में अमेरिका और यूरोप में रोड फिल्में बननी आरंभ हुई। भारत में उसी समय तीसरी कसम जैसी रोड फिल्म बनीं।  बाम्बे टू गोवा, टैक्सी ड्राइवर, नया दौर जैसी हिन्दी फिल्मों में भी कभी-कभार बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी के माध्यम से रोड फिल्मों की विषयवस्तु को केंद्र में रखा गया लेकिन सही मायने में 1990 के दशक में आई सुपरहिट फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) में पहली बार ब्रिटेन के साथ यूरोप के कई देशों की सड़क और ट्रेन से यात्रा को कहानी का हिस्सा बनाया गया जो बाद में पंजाब के ग्रीनफील्ड तक आती है। इक्कीसवीं सदी में रोड मूवी जेनर की फिल्मों को बनाने और देखने का चलन बढ़ा है। सन 2020 में आई कोरोना महामारी के दौरान हुए भारत बंद ने मजदूरों, विद्यार्थियों और कमजोर वर्ग के प्रवासियों को अपने गांवों-घरों को लौटने को मजबूर कर दिया। इस यात्रा में बहुत से निर्दोष लोगों ने जान गंवाई। कुछ लोग अनगिनत मुश्किलों को झेलते हुए अपने घर तक पहुँच पाए। इन अनुभवों को समेटते हुए 1232 किमी (2021), इंडिया लॉकडाउन (2022) और भीड़ (2023) जैसी फिल्में बनीं, जिन्होंने दिखाया कि किस तरह सन 1947 के भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर आने को मजबूर हुए ताकि वे अपने घरों को पहुँच सकें।

 भीड़

सड़क और हाइवे के दूसरे पहलू को देखें तो आजकल फोरलेन और 8 लेन हाइवे और एक्सप्रेसवे बनाने का जमाना आ गया है। दुर्गम पहाड़ों के अंतिम बिन्दु तक आल वेदर रोड बनाने के काम लगातार चल रहे हैं। तेज गति वाली सड़कों के जाल को तेज विकास की पहली शर्त मान लिया गया है। लंबी दूरी की चौड़ी सड़के बनने से कृषि जोत कम होने, पेड़ों और जंगलों के कटने, भारी मात्रा में मिट्टी की मांग बढ़ने से पर्यावरणीय असंतुलन की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। आरसीसी या डामर रोड के निर्माण में हजारों-लाखों कुंतल पत्थर, पानी, सीमेंट, तारकोल आदि की खपत होती है। ऐसा लगता है कि इतनी सड़के बनाने और उनको मेंटेन करने के लिए सारे ऊंचे पहाड़ एक दिन समाप्त हो जाएंगे और धरती समतल हो जाएगी, फिर मानसून, वर्षा, जंगल और नदियों का क्या होगा, धरती पर जीवन का क्या होगा? फिल्में क्या सड़क से जुड़े इन मुद्दों को अपना विषय बनाकर आने वाले खतरों के प्रति आगाह कर पायेंगी? ये कई गंभीर सवाल हमारे सामने खड़े हैं। आयरमन और लोफ़ग्रेन रोड मॉवईज के बारे में निष्कर्ष के रूप मे लिखते हैं- The road movie is a genre tailored for tales and times of crisis- for downward as well as upward mobility-weather they be individual or collective. This together with the capacity for producing a nostalgia for tomorrow, for romancing the open road form the essential part of the genre’s seemingly universal appeal. (1995:77)

दुनिया भर में रोड मूवीज के प्रति आकर्षण और लोकप्रियता बढ़ रही है। विषयवस्तु की विविधता और सड़क का प्रयोग करने वाले, उससे लाभ या नुकसान उठाने वाले समाज के विभिन्न वर्गों, सड़क से जुड़ी समस्याओं को केंद्र मे रखकर संवेदनशील फिल्में बनाने और कहानी कहने के लिए अभी एक विशाल क्षेत्र अछूता पड़ा है। गरीबों और महिलाओं के लिए सड़कें सुरक्षित हों, उनके मुद्दों को केंद्र में लाकर फिल्में बने यह बहुत आवश्यक है, क्योंकि फिल्मी सड़कों पर अब तक अमीर और उनकी सफारी (रोड), इनोवा (पीकू) से लेकर फॉर्चुनर (एनएच 10) तक महंगी गाड़ियां स्टाइल मारते हुए दिखाई गईं हैं। इसके आगे जहां और भी है और लोगों के लिए भी है।

संदर्भ

Chawla, Anjali (2023) 30 Bollywood Travel Movies That Will Give You Serious Travel Goals.
Eyerman, Ron & Lofgren, Orvar (1995) Romancing the Road: Road Movies and Images of Mobility, in theory Culture and Society, Sage Publications, Feb 1,1995, 12:53.
Kuhn, A. Westwell, G. (2012) Oxford Dictionary of Film Studies, OUP, UK.
Laderman, David (1996) What a Trip: The Road Film and American Culture, Journal of Film and Video, Vol. 48, No. ½ (Spring-Summer 1996), pp.41-57.
Oliver, Paul (1960) Blues Fell this Morning, Cambridge University Press, Cambridge, USA.

 

 

डॉ. राकेश कबीर
डॉ राकेश कबीर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

5 COMMENTS

  1. लंबा लेख लेकिन बेहतरीन प्रस्तुति के साथ। लेख के माध्यम से आम लोगों के जीवन के द्वंद आसानी से समझा जा सकता है।

  2. शानदार तरीके से सड़क के माध्यम से समाज के निम्न प्रश्नों का जवाब देता लेख
    सड़क पर कौन लोग घूमते हैं ?कौन लोग हैं, जो सड़क पर रहते और चलते हैं?सड़क पर रहने के कारण क्या हैं?पैदल, सायकिल, बैलगाड़ी, जीप, कार, बस, ट्रक किसके लिए बनी हैं सड़कें?क्या सड़कें सबके लिए एक समान हैं?
    💐

  3. ये तो पूरी की पूरी रिसर्च आर्टिकल है, मनोरंजन के स्वाभाविक विषय के अलावा। प्रस्तुतीकरण बढ़िया है। बस केवल कहीं कहीं कड़ियों के संयोजन में कुछ कमी दिखती है। परन्तु है एक बेहतरीन आर्टिकल। बहुत बहुत बधाई पटेल जी को।

  4. रोड की महत्वता, समुचित प्रयोग,( दुरुपयोग, लूटपाट ,रेप, हत्या )संवेदनशीलता( दुर्घटना होने की आशंका )अछूता वर्ग (जिन विषय वस्तु को फिल्मकारों ने प्रदर्शित नहीं किया )इस फिल्म के माध्यम से बनी अभी तक आई फिल्मों का हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का उत्कृष्ट कार्य किए हैं👌👌👌🌻🌻🌻🙏🙏🙏

  5. There are some interesting deadlines in this article however I don’t know if I see all of them heart to heart. There may be some validity however I’ll take maintain opinion till I look into it further. Good article , thanks and we would like more! Added to FeedBurner as nicely

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें