Thursday, March 28, 2024
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भद्रजनों का खेल और सिनेमा

क्रिकेट भद्रजनों का खेल कहा जाता रहा है, अब यह कितना भद्र बचा है और कितने भद्र लोग इसके कर्ताधर्ता हैं यह विचारणीय विषय है। अंग्रेज इस खेल को भारत में ले आए और जब भारतीयों ने अपनी स्वतंत्र टीम और बीसीसीआई बना ली तब से यह खेल न केवल स्थापित होकर लंबा समय तय […]

क्रिकेट भद्रजनों का खेल कहा जाता रहा है, अब यह कितना भद्र बचा है और कितने भद्र लोग इसके कर्ताधर्ता हैं यह विचारणीय विषय है। अंग्रेज इस खेल को भारत में ले आए और जब भारतीयों ने अपनी स्वतंत्र टीम और बीसीसीआई बना ली तब से यह खेल न केवल स्थापित होकर लंबा समय तय कर टेस्ट और वनडे मैच बल्कि ट्वेंटी-ट्वेंटी तक पहुँच चुका है।

भारतीय टीम के पास विश्व विजेता बनने तक के कीर्तिमान हैं तो दूसरी तरफ महान खिलाड़ियों की भी लंबी सूची है जिनमें सुनील गावस्कर, रवि शास्त्री, कपिल देव, अनिल कुंबले, अजहरुद्दीन, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, महेन्द्र सिंह धोनी और विराट कोहली तक के नाम हैं।

 

फिल्मों में क्रिकेट और खिलाड़ी सबसे पहले सन् 2001 में आमिर खान ने अपनी फिल्म लगान में क्रिकेट के खेल को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया। सन् 2005 में मराठी फिल्म इकबाल में एक गूंगे-बहरे लड़के की कहानी प्रस्तुत की गयी, जिसमें क्रिकेट को लेकर दीवानगी और जुनून है। इस फिल्म में श्रेयस तलपड़े ने मुख्य भूमिका निभाई  थी। यह एक प्रेरणात्मक परन्तु काल्पनिक कहानी पर आधारित फिल्म थी, जिसे दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा था। यह सच है शारीरिक रूप से अक्षम/दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए स्थानीय स्तर से लेकर ओलंपिक/ पैरालंपिक तक में जगह होती है। क्रिकेट और बैडमिंटन में तो दिव्यांग खिलाड़ी अच्छा खेलते हैं। इकबाल फिल्म से इतर खिलाड़ी और कोच (गुरु-शिष्य) के आपसी संबंधों को भी प्रमुखता से विदित करती है। इधर, एक दशक में क्रिकेट व अन्य खेलों के महान खिलाड़ियों के जीवन पर आधारित जीवनीपरक फ़िल्में बनी जिनमें अजहर (2006) एमएस धोनी: अन्टोल्ड स्टोरी (2006) कपिल देव पर केन्द्रित  83 (2021) सचिन: बिलियन ड्रीम्स (2017) कौन प्रवीण तांबे? (2022)।

 

इन फिल्मों में महेन्द्र सिंह धोनी और प्रवीण तांबे पर बनी फिल्मों को खूब पसंद किया गया। एक समय था जब भद्रजनों के इस खेल में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चंडीगढ़, बेंगलौर जैसे बड़े शहरों के इलीट क्लबों के माध्यम से कुछ खास लोग ही क्रिकेट टीम में इंट्री कर पाते थे। जातीय और वर्गीय भेदभाव प्रतिभाओं को आगे आने में बाधक तत्व की तरह वहां भी मौजूद थे। विनोद कांबली की कहानी क्रिकेट प्रेमियों को अच्छे से पता है कि द्रोणाचार्य, अर्जुन और एकलव्य का त्रिकोण कैसे बना और परिणाम क्या हुआ। रेडियो कमेंट्री, टेलीविजन पर लाइव प्रसारण ने क्रिकेट को गाँव, देहात से लेकर गली-कूचों तक पहुंचाया। स्कूल-कालेजों में मैच होने लगे। जब ललित मोदी आईपीएल के माध्यम से टवेंटी-टवेंटी क्रिकेट का फटफटिया मॉडल लेकर 2008 में सामने आया तो खिलाड़ियों की खुले बाजार में बोली लगने लगी। देश-दुनिया की सीमायें अप्रासंगिक हो गई। सभी देशों की टीमों के खिलाड़ियों को मिक्स करके खिचड़ी टीमें तैयार की गईं। ढेर सारे नये प्रतिभावान खिलाड़ियों को क्रिकेट के इस अवतार में खेलने और जल्दी से लखपति/ करोड़पति बनने का अवसर मिलने लगा।

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कौन प्रवीन तांबे? इसी फटफटिया क्रिकेट मॉडयूल में बामुश्किल इंट्री पाने वाले 41 साल के खिलाड़ी प्रवीण तांबे की संघर्ष कहानी है। प्रवीण तांबे का सपना था कि वे रणजी मैच खेलें लेकिन उनका सेलेक्शन नहीं होता। बाद में उनकी उम्र ज्यादा होने के कारण टीम में जगह नहीं मिलती। शादी और बीवी-बच्चों के लिए उसे छोटी-मोटी नौकरियां करनी पड़ती हैं। होटल में वेटर बनकर मध्यक्रम के पेसर बॉलर को अपमानित तक होना पड़ता है। आशीष विद्यार्थी कोच की भूमिका में आरम्भ के दृश्यों में खलनायक से लगते हैं जो मध्यमगति के तेज बॉलर को स्पिनर बनने की सलाह देते हैं। एक दुर्घटना के बाद अपने जुनून के दम पर फिर खड़े हो जाने वाले प्रवीण तांबे स्पिनर बनने का ख्वाब लिए फिर से गुरु-कोच आशीष के पास जाते हैं। सन 2013 में टवेंटी-टवेंटी क्रिकेट में मौका मिलने पर वह 41 साल की उम्र में राजस्थान रायल्स की तरफ से स्पिनर बॉलर के रूप में खेलते है। 5 मई सन 2014 में प्रवीन तांबे राजस्थान रॉयल्स की तरफ से खेलते हुए न केवल  टीम को जिताया बल्कि हैट्रिक लेकर कोलकाता नाईट राइडर्स को हराकर मैन आफ द मैच बने। रॉबिन सिंह और सचिन तेन्दुलकर ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जो चालीस साल तक फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेलते रहे हैं क्योंकि यह रिटायर होने की उम्र होती है। राहुल द्रविड़  में प्रवीण तांबे को 41 साल में फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेलने का मौका दिया और उन्होने अपनी प्रतिभा को साबित किया।

 

फिल्म 83

श्रेयस तलपडे़ मराठी रंगमंच और धारावाहिकों से होते हुए इकबाल (2005) से क्रिकेटर की भूमिका से अपना फिल्मी करियर आंरभ किया और अभी 46 साल की उम्र में एक बार फिर क्रिकेट खिलाड़ी बने और प्रवीण तांबे के जीवन के अभावों, संघर्षों, अपमान और सफलता-जुनून जैसे भावों को रूपहले पर्दे पर बखूबी जिया। डोर, वेलकम टू सज्जनपुर, ओम शान्ति ओम, गोलमाल जैसी फिल्मों में उन्होंने श्याम बेनेगल, नागेश कुकुनूर जैसे सिद्धहस्त फिल्मकारों के साथ काम किया। साउथ की फिल्म पुष्पा (2021) में उन्होने लीड एक्टर अल्लू अर्जुन की आवाज को इतनी कुशलता से हिन्दी भाषा में डब किया कि  यह फिल्म संवाद अदायगी के चलते जबरदस्त हिट हुई। क्रिकेट का खेल बॉलीवुड की ही तरह बहुतों के लिए मायानगरी है, सपनों की दुनिया है। कुछ के सपने टूटकर बिखर जाते हैं तो कुछ का संघर्ष रंग लाता है और खूब नेम-फेम मिलता है। पानीपूरी बेचने वाले जुनूनी क्रिकेटर यशस्वी जायसवाल की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है। वह लिस्ट-ए श्रेणी में डबल शतक माने वाले दुनिया के सबसे कम उम्र के बल्लेबाज हैं। आईपीएल 2020 में उनकी बोली लगी और वे भी राजस्थान रायल्स की तरफ से खेले।

क्रिकेट भद्रजनों का खेल था। इसमें कई दिनों तक आराम से चलने वाला टेस्ट मैच-समानांतर सिनेमा की तरह था। पचास ओवर का मैच कमर्शियल सिनेमा की तरह है तो टवेंटी-टवेंटी फार्मेट ओटीटी प्लेटफार्म वाले सिनेमा की तरह है। समय की कमी है और पैसा भी ज्यादा कमाना है, ज्यादा खेल ज्यादा खिलाड़ी ने सबकी उम्मीद बढ़ा दी है। क्रिकेट और बॉलीवुड दोनों का गढ़ मुम्बई है, दोनों की माया से बचना नामुमकिन है। देव आनंद की फिल्म लव मैरिज (1959) क्रिकेट खिलाड़ी पर बनी पहली फिल्म थी तो कौन प्रवीण तांबे? (2022) लेटेस्ट फिल्म है। फिल्म और क्रिकेट को साथ लाकर डबल मनोरंजन कराने वाली फिल्में एक नया जोनर  स्थापित कर रही हैं।

 

 

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डॉ. राकेश कबीर
डॉ राकेश कबीर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

5 COMMENTS

  1. हमेशा की तरह बेहतरीन और प्रभावशाली। कलम की रफ्तार बनी रहे सर?

  2. बेहतर जानकारी उपलब्ध कराता ज्ञानवर्धक लेख “भद्रजनों का खेल एवं सिनेमा”?

  3. अक्सर क्रिकेट दुनियां पर साहित्यिक रूप से बहुत कम लिखा जा रहा है। आपका यह आलेख महत्वपूर्ण है। सारगर्भित सर

  4. बढ़िया आलेख। भारत में क्रिकेट करोड़ों लोगों के लिए धर्म जैसा बन गया है। क्रिकेट में पैसा, प्रसिद्धि, ग्लैमर और चकाचौंध…यानी सब कुछ है। भारत में क्रिकेट के प्रति हद दर्जे की दीवानगी ने अन्य खेलों (जो वास्तव में ग्लोबल खेल हैं) और उन खेलों की प्रतिभाओं का कितना अहित या नुकसान किया है और आज भी कर रहा है वह एक अलग बहस और चिंता का विषय है। हां, यह परिवर्तन जरूर हुआ है कि अब निम्न मध्यमवर्गीय या निम्न वर्ग से भी छोटे कस्बों/शहरों से प्रतिभावान क्रिकेटर सामने आ रहे हैं और अपनी प्रतिभा और समर्पण के बलबूते पर नाम और दाम कमा रहे हैं।

    आईपीएल भले ही सर्कस जैसा विशुद्ध मनोरंजन आधारित आयोजन माना जाता हो किंतु इसने अनेक गरीब किंतु होनहार प्रतिभाओं का भी भला किया है इसमें दो राय नहीं है। पृथ्वी साव के पिताजी मुंबई महानगर की सीमा से 25किमी दूर विरार कस्बे में कपड़े की एक छोटी से दुकान चलाते थे। उसी पृथ्वी साव के द्वारा पिछले दिनों 10.5 करोड़ रुपए मूल्य का मुंबई के पॉश इलाके वर्ली में पेंट हाउस खरीदने का समाचार अखबार में पढ़ा था। एम एस धोनी स्पोर्ट्स कोटे से रेलवे में टीसी की नौकरी करते थे। अपनी बेजोड़ प्रतिभा के बलबूते वे अब *करोड़ों* में खेलते हैं। प्रतिभा का मूल्यांकन और उसे पुरस्कार मिलना ही चाहिए अतः इसमें कोई बुराई नहीं है। आज जरूरत है सभी प्रकार के खेलों को अवसर, सम्मान और पुरस्कार प्रदान करने की ताकि इतनी बड़ी आबादी के महादेश की लाखों खेल प्रतिभाओं को सही अवसर और मंच मिल सके।

    आपके इस आलेख में क्रिकेट के कुछ प्रसिद्ध और कुछ unsung नायकों के कृतित्व को सिनेमा के परदे पर उतारने की कोशिशों के बहाने अच्छी जानकारी दी गई है।

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