कमलेश यादव
डॉक्टर मनराज शास्त्री के न रहने की खबर स्तब्धकारी थी और वह भी कोरोना से । इलाज के लिए वे जौनपुर के सुनीता नर्सिंग होम में भर्ती हुये लेकिन दो दिन बाद डॉ. आरपी यादव ने मुझसे कहा कि यहाँ उनका समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है । इनको बनारस ले जाना चाहिए । बनारस में अस्पताल से उनसे फोन पर बातचीत हुई तो उन्होंने कहा घबराने की कोई बात नहीं है । और जैसी कि उनकी आदत थी वे सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर बात करने लगे । मुझे उनके जीवट और उम्मीद पर बहुत संतोष मिला और लगा कि वे जल्दी ही स्वस्थ होकर जौनपुर लौटेंगे ।
लेकिन उसी दिन तीसरे पहर मनहूस खबर आई कि डॉ. शास्त्री नहीं रहे । यह हमारे लिए वज्रपात जैसा ही था। और उस समय का माहौल इतना डरावना हो चुका था कि हर रोज किसी न किसी परिचित के गुजर जाने की खबर आ रही थी । गोया सबकी संवेदनाओं का स्रोत सूख रहा हो और ऐसी दुखद खबरों को सुन-सुनकर मन जैसे पत्थर हो गया था जिस पर बेहिसाब पानी गिरता लेकिन कोई असर नहीं पड़ता ।
डॉ. मनराज शास्त्री जौनपुर की सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में थे। उनसे मेरी मुलाक़ात एक गोष्ठी के दौरान जौनपुर में हुई थी। मैं कई लोगों से उनके ज्ञान के बारे में काफ़ी कुछ सुनता रहता था जिसके कारण उनसे मिलने की मेरे मन में बड़ी उत्कंठा जाग गई। सच कहूँ तो डॉ.मनराज से ही मिलने के लिए मैंने उस गोष्ठी का आयोजन किया था। गोष्ठी में आए सभी लोगों ने अपनी-अपनी बात रखी लेकिन जब डॉ.मनराज जी ने बोलना शुरू किया तब मुझे एहसास हुआ किलोग उनकी बड़ाई क्यों करते हैं। यही से मेरा उनसे मिलने जुलने का सिलसिला शुरू हुआ। फिर तो लगातार जिज्ञासाएँ उठतीं । बहस-मुबाहसे चलते और एक खास किस्म की गर्मजोशी बनी रहती।
अपनी आँखों की दवा लेने के लिए वे महीने में एक-दो बार शाहगंज से जौनपुर आते रहते। और उनका आना दरअसल बहुत विशिष्ट हो जाता । उनका सान्निध्य मेरे लिए एक वैचारिक पूंजी की तरह था।
डॉ मनराज शास्त्री का जन्म 1 जुलाई 1941 को जौनपुर जनपद के बटाऊबीर के निकट सरायगुंजा गाँव में हुआ था। शुरुआती शिक्षा पास के ही प्राइमरी स्कूल से हुई और प्राइमरी स्कूल से शुरू होकर सल्तनत बहादुर इंटर कॉलेज से इंटर तक की शिक्षा के उपरांत स्नातक की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी हुई । यही से उन्होंने संस्कृत विषय से एम.ए एवं पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा। अपनी पूरी पढ़ाई के दौरान डॉ शास्त्री ने सामाजिक विषमता को भी ख़ूब गहराई से महसूस किया ।
शास्त्री जी जब विद्यार्थी थे तभी यह सामाजिक विचारधारा को लेकर के बहुत सशक्त और आने वाले दिनों में चौधरी चरण जैसे किसान नेता के संपर्क में आए और उनके सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया। वह श्री रामस्वरूप वर्मा और बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के संपर्क में आए। वह अर्जक संघ के प्रचारक के रूप में कार्य करने लगे। शास्त्री जी ने तमाम शादी विवाह वह अर्जक पद्धति से संपन्न कराए।
डॉक्टर मनराज शास्त्री एक शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे । वे अक्सर बताया करते थे कि वे अपने विद्यार्थी जीवन से ही सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेते थे। संस्कृत का विद्यार्थी होने के नाते उन्हें धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कपोल-कल्पित घटनाओं को समझने एवं जानने में बड़ी सहूलियत हुई । इसके बाद से ही उन्होंने लोगों को मृत्युभोज, चमत्कार, पाखण्ड, अन्धविश्वास और सामाजिक असमानता के प्रति जागरूक करना शुरू कर दिया जो अनवरत उनकी मृत्यु तक चलता रहा।
[bs-quote quote=”हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि व्यक्ति को उसके काम से नहीं बल्कि उसकी जाति से जाना जाता है। शास्त्री जी भी इसके शिकार हुए हैं। उन्होंने पिछले कुछ समय से अपने जीवनानुभव लिखना शुरू किया था। लोगों में इसकी काफी चर्चा थी। वे हर वक्त समाज के बारे में ही सोचते रहते थे। वे अपनी अंतिम बातचीत में भी निजी दुख या बीमारी को लेकर परेशान नहीं थे बल्कि उनकी चिंताएँ समाज के बारे में ही थीं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
डॉ.मनराज शास्त्री नौजवानों को रामास्वामी पेरियर, ज्योतिबा फुले, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, रामस्वरूप वर्मा,जगदेव कुशवाह जैसे बहुत से समाज सुधारकों को पढ़ने की सलाह दिया करते थे। यहाँ तक कि अपनी किताबें तक उनको पढ़ने के लिए दे दिया करते थे । वो अक्सर कहा करते थे की अब समय आ गया है कि सारे नौजवानो को मिलकर सामाजिक विषमता,पाखण्ड,अन्धविश्वास और मृत्युभोज जैसी बुराइयों को ख़त्म करने के लिए जागरूक हो जाना चाहिए।
डॉक्टर मनराज शास्त्री सामाजिक ज्ञान के भण्डार थे। वे किसी चलती-फिरती लाइब्रेरी की तरह थे । उनसे किसी भी मुद्दे पर चर्चा की जा सकती थी । हर बात का उत्तर वे काफ़ी तार्किक और साक्ष्यों के साथ देते थे । कई कई बार तो वे अपनी बात बक़ायदा किसी न किसी संदर्भ के साथ रखते थे कि फ़लाँ बात फ़लाँ किताब में अमुक लेखक ने कही है । वे स्पष्टवादी थे । जिस विषय की उन्हें जानकारी नहीं रहती थी वे औरों की तरह गोल-गोल घुमाने के बजाय उसके बारे में बात करने से साफ़ मना कर देते थे । डॉक्टर शास्त्री जो कहते थे उसको करके भी दिखाते थे। जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तो उन्होंने लोगों के लाख दबाव के बावजूद तेरही या मृत्युभोज करने से मना कर दिया। यह पाखण्डवाद के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा था ।
मैंने डॉ. मनराज शास्त्री को जौनपुर में ही जागरुकता अभियान चलाते नहीं देखा, अपितु वे पूरे देश में जाकर लोगों को जगाने का अभियान चलाते थे । इसके लिए उन्हें ढलती उम्र में भी काफ़ी यात्रा करनी पड़ती थी। वे कई पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख लिखकर लोगों को जगाते रहते थे। डॉक्टर शास्त्री सामाजिक विषमता और समाज फैले पाखण्ड को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। वे अक्सर मुझसे कहते कि आपको नौजवानों को इकट्ठा कर गाँव-गाँव का भ्रमण कर लोगों को सामाजिक बुराइयो के प्रति जागरूक करना चाहिए। इस काम में मै भी आप लोगों के साथ गाँवो का भ्रमण कर लोगों को जागरूक करूँगा। इन सब कामों में शास्त्री जी के जोश और जुनून को देखकर लगता था कि वे हम लोगों से भी ज़्यादा जवान और उत्साही व्यक्ति हैं। उनका यह गुण किसी को भी प्रभावित कर जाता था। मैंने आजतक उनके मुँह से कभी भी कोई नकारात्मक बात नहीं सुनी। वे हमेशा सकारात्मक बात ही करते और लोगों को हमेशा प्रोत्साहित करते रहते थे। डॉ. मनराज शास्त्री जी का साफ़ मानना था कि “तरक्की वहीं हुई है जहां के नागरिक धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड, चमत्कार और अवतारवाद के तिलिस्म से मुक्त हो चुके हैं।”
इतना सब कुछ होते हुए भी हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि व्यक्ति को उसके काम से नहीं बल्कि उसकी जाति से जाना जाता है। शास्त्री जी भी इसके शिकार हुए हैं। उन्होंने पिछले कुछ समय से अपने जीवनानुभव लिखना शुरू किया था। लोगों में इसकी काफी चर्चा थी। वे हर वक्त समाज के बारे में ही सोचते रहते थे। वे अपनी अंतिम बातचीत में भी निजी दुख या बीमारी को लेकर परेशान नहीं थे बल्कि उनकी चिंताएँ समाज के बारे में ही थीं।
सुप्रसिद्ध चित्रकार डॉ लाल रत्नाकर डॉ शास्त्री के बहुत नज़दीक थे। अनेक कार्यक्रमों में और योजनाओं में दोनों सहभागी थे। उनके बारे में डॉ रत्नाकर ने लिखा है –“शास्त्री जी को लेकर मैंने जो काम शुरू किया था वह कुछ इस तरह से है कि आप एक एक लिंक को क्लिक करके सुन करके समझ सकते हैं कि उनके पास हमारे समाज का कितना बड़ा इतिहास सुरक्षित था । मेरी योजना थी कि उस पूरे इतिहास को मैं यूट्यूब के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा इस बीच उसके लिए मैंने परियोजना बनाई थी जिसमें मुझे पूरा भरोसा था कि मैं बहुत अच्छी तरह से उनके पूरे सामाजिक सरोकारों को इकट्ठा करके समाज के लिए उपलब्ध करा पाऊंगा लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि वह सारा का सारा धरा रह गया । ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है । इससे पहले भी कई परियोजनाएं फेल हो गई हैं जिसके पीछे इसी समाज का बहुत बड़ा हाथ है । आप निजी तौर पर जो कुछ सोचते हैं लेकिन आपका जो सामाजिक स्वरूप है वह निहायत कमजोर है । आपके पास कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे आप पूरे समाज को जागरूक कर सके।”
डॉ रत्नाकर के पास शास्त्री जी की स्मृतियों का खजाना है। वे उनके सुख-दुख के गवाह रहे हैं । एक अन्य पोस्ट में उन्होंने डॉ शास्त्री की एक कविता को दर्ज किया है । वे लिखते हैं – “लंबे समय से शास्त्री जी अपनी धर्म पत्नी के चले जाने के बाद काफी एकाकी महसूस कर रहे थे । जैसा कि जीवन में होता है कि महिलाएं घर में रहते हुए भी अपनी उपस्थिति उस तरह से उजागर नहीं करतीं लेकिन जब वे नहीं होतीं तब पता चलता है कि जीवन कितना खाली हो चुका है । निश्चित तौर पर माताजी का चले जाना उनके लिए एक तरह का अंदर से कमजोर करने वाला कष्ट था।”
जाने-माने चिंतक और ग़ज़लकार बी.आर. विप्लवी उन्हें याद करते हुये लिखते हैं –“मुझे याद आता है कि डॉक्टर लाल रत्नाकर की पहल पर हम लोगों ने कुछ अन्य साथियों के सहयोग से पिछले कोरोनावायरस काल के दौरान वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए एक साप्ताहिक कार्यक्रम “बहुजन विमर्श” नाम से शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम में शास्त्री जी हमारे संरक्षक सदस्य थे। हिंदू जाति व्यवस्था के बारे में वे लगातार तीखी आलोचना करते थे। हिंदू धर्म की परंपराओं, रीति-रिवाजों तथा धार्मिक पोंगापंथियों के आडम्बरों का वे बेहिचक पर्दाफाश करते तथा ऐसे रीति-रिवाजों को बहुजन समाज द्वारा त्याग दिए जाने के विचार के वे प्रबल पैरोकार थे। उन्होंने ऐसे कर्म काण्डों के विरोध तथा बहिष्कार के कारण अपने ही घर परिवार का विरोध झेला, किंतु, अडिग रहे।”
शास्त्री जी देश के तमाम शहरों में अपने मिशन को लेकर गए । ‘यादव शक्ति’ के संपादक चंद्रभूषण सिंह यादव ने अपनी यादों को इस रूप में ताज़ा किया है – “1989-90 के दौर में मैं डॉ मनराज शास्त्री जी जुड़ा था। तब मण्डल आंदोलन अपने शबाब पर था। मण्डल आंदोलन के बाद सामाजिक जागृति के अभियान में हम डॉ मनराज शास्त्री जी के साथ हो गए थे और उन्हें मेरे क्रियाकलापों से इतनी प्रसन्नता होती थी कि वे अक्सर कह दिया करते थे कि चन्द्रभूषण के आ जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि हम लोगो के कारवां को ये आगे ले जाने मे कोई कोताही नही बरतेंगे। दिल्ली, लखनऊ, आगरा, हैदराबाद, नांदेड़, पटना सहित देश भर के विभिन्न तरह की वैचारिक गोष्ठियों में डॉ मनराज शास्त्री जी का उद्बोधन बहुत प्रेरणादायी होता था । “यादव शक्ति” में मनुवाद पर उनका लेखन अति मारक होता था। “यादव शक्ति” पत्रिका के तेवर व कलेवर को सजाने-संवारने में डॉ मनराज शास्त्री जी के योगदान को भुलाया नही जा सकता है।”
डॉ मनराज शास्त्री ने कभी न भरी जा सकने वाली जगह छोड़ी है। और ऐसे दायित्व भी अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप गए हैं जिनको निभाए बिना सामाजिक न्याय की मंज़िलें नहीं पाई जा सकतीं ।
(कमलेश यादव युवा कवि हैं और जौनपुर में रहते हैं ।)
अब तक मेरा इस पत्रिका के साथ जो अनुभव रहा है अगर निष्पक्ष कहूँ तो अब तक की पढ़ी गई सारी पत्रिकाओं में सबसे बेहतरीन पत्रिका है जो निष्पक्ष रूप से समाज में फैली असमानता,ग़ैर बराबरी , अशिक्षा ,पाखंडवाद,अन्धविश्वास के साथ ही सामाजिक मुद्दों पर बिना किसी लाग लपट के अपनी बात रखती है ।
गांव के लोग निश्चित तौर पर स्तरीय खबरों का समायोजन कैसे करेगा यह एक बहुत ही जटिल सवाल है क्योंकि भाई राम जी और अपर्णा निश्चित तौर पर बहुत बड़ा कार्य अपने हिस्से में लिए हुए हैं और वेबसाइट इत्यादि पर आने वाली खबरें उनकी सत्यता और निष्पक्षता का मूल्यांकन बहुत ही अनिवार्य अंग होगा अभी मैं दलित विशेषांक पढ़ रहा था डॉ एंन राम का श्री माता प्रसाद जी के बारे में बहुत अच्छा इंटरव्यू छपा है जो बहुत ही प्रेरक और समाजोपयोगी है आपसे आग्रह है कि डॉ मनराज शास्त्री पर भी एक ऐसा ही इंटरव्यू हमारे पास है जिसे मैं सोच रहा हूं कि आपको प्रेषित करूं उसको अपनी वेबसाइट पर लगाइए क्योंकि उन्हें हल्के में लेना निश्चित तौर पर समाज के साथ खिलवाड़ करना है और यह खिलवाड़ व्यवसायिकता संवद्ध मत करिए।
संपादक
गाव के लोग डॉट काम
आपके वेब पोर्टल पर डा मनराज शास्त्री के विषय पर “लोग” कलम में एक आलेख आया है जिसमें मुझे भी उद्धृत किया गया है और मेरे चित्रों का इस्तेमाल किया गया है जो अनुचित ही नहीं आपत्ति जनक है कृपया आप ऐसे उद्धरण को हटाने एवं समुचित संपादन करके ही ऐसे तथ्य ले आएं किसी के बारे में अप्रमाणिक जानकारी और अपुष्ट तत्थ्य प्रकाशित न करें। आप स्वयं में डा शास्त्री जी से वाकिफ रहे हैं वः आपके प्रिंट पत्रिका के सदस्य रहें हैं, उनके बारे में इस तरह का लेख प्रकाशित करते हुए आपने अपने सम्पादकीय कर्तव्य के साथ समझौता करिये लेकिन किसी विद्वान् व्यक्ति के विषय में इतना हल्का आलेख देने से बचिए।
डा लाल रत्नाकर
“डॉक्टर मनराज शास्त्री के न रहने की खबर स्तब्धकारी थी और वह भी कोरोना से । इलाज के लिए वे जौनपुर के सुनीता नर्सिंग होम में भर्ती हुये लेकिन दो दिन बाद डॉ. आरपी यादव ने मुझसे कहा कि यहाँ उनका समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है । इनको बनारस ले जाना चाहिए । बनारस में अस्पताल से उनसे फोन पर बातचीत हुई तो उन्होंने कहा घबराने की कोई बात नहीं है । और जैसी कि उनकी आदत थी वे सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर बात करने लगे । मुझे उनके जीवट और उम्मीद पर बहुत संतोष मिला और लगा कि वे जल्दी ही स्वस्थ होकर जौनपुर लौटेंगे ।”
इस तरह के झूठे उल्लेख करना आम आदमी के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन डॉ शास्त्री को जानते हैं उनके लिए बहुत ही निराशाजनक स्टेटमेंट है।
“डॉक्टर मनराज शास्त्री के न रहने की खबर स्तब्धकारी थी और वह भी कोरोना से । इलाज के लिए वे जौनपुर के सुनीता नर्सिंग होम में भर्ती हुये लेकिन दो दिन बाद डॉ. आरपी यादव ने मुझसे कहा कि यहाँ उनका समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है । इनको बनारस ले जाना चाहिए । बनारस में अस्पताल से उनसे फोन पर बातचीत हुई तो उन्होंने कहा घबराने की कोई बात नहीं है । और जैसी कि उनकी आदत थी वे सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर बात करने लगे । मुझे उनके जीवट और उम्मीद पर बहुत संतोष मिला और लगा कि वे जल्दी ही स्वस्थ होकर जौनपुर लौटेंगे ।”
इस तरह के झूठे उल्लेख करना आम आदमी के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन डॉ शास्त्री को जानते हैं उनके लिए बहुत ही निराशाजनक स्टेटमेंट है।
[…] उन्हें अपने से अधिक समाज की चिंता थी […]
बहुत दिनों के बाद गांव के लोग पढ़ गया।पढ़कर जानकारियां प्राप्त हुईं। इंसान का जीवन अब आसान नहीं रह गाया है।खैर, ऐसी व्यवस्था से ही तो सुधार की गुंजाइशें निकलती हैं।किस तरह से झूठ बोला जा रहा है, सच्चाई क्या है,जुल्म के क्या 2 रूप थे, ये जानने के लिए अब मुख्य मीडिया (एकाध को छोड़कर) पर निर्भरता समाप्त होती जा रही है। सोशल मीडिया में से ही अब सच्चाई सामने आ रही है।या फिर लघु पत्रिकाएं है ये काम बड़ी मुश्किलों के बाद भी जिम्मेदारी संभाल रही हैं। बधाई।अब लघु पत्रिकाओं को आगे आना चाहिए तो चारों ओर सन्नाटा दिख रहा है।समय सबकी पहचान करा देता है