Thursday, March 28, 2024
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हिंदी सिनेमा प्रवासियों का चित्रण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सका है

मनुष्यों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन करने का लंबा इतिहास रहा है। इसके पीछे अनेक वस्तुगत कारण होते हैं। समाज वैज्ञानिक एन. जयराम प्रवास के बारे में लिखते हैं, ‘एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करना एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति रही है। यह प्रवास अस्थायी-मौसमी, स्थायी, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय भी हो […]

मनुष्यों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन करने का लंबा इतिहास रहा है। इसके पीछे अनेक वस्तुगत कारण होते हैं। समाज वैज्ञानिक एन. जयराम प्रवास के बारे में लिखते हैं, ‘एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करना एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति रही है। यह प्रवास अस्थायी-मौसमी, स्थायी, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय भी हो सकता है। मनुष्यों के प्रवास में लोगों का केवल भौतिक शरीर मात्र गति नहीं करता है बल्कि वे अपने साथ अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों को भी साथ ले जाते हैं, जैसे कि (क) अपनी स्थापित पहचान (ख) धार्मिक विश्वास एवं व्यवहार (ग) परिवार, नातेदारी संगठनों और भोजन सम्बन्धी आदतों को नियमित करने वाले प्रतिमानों और मूल्यों का एक ढांचा एवं (घ) भाषा (जयराम 2004:16)’। इसी कारण भारतीय लोग दुनिया में जहां भी गए अपनी भाषा, वेश-भूषा, खानपान, त्यौहार, धार्मिक पुस्तकें और फ़िल्में सब कुछ साथ ले गए। बौद्धमठ, गुरुद्वारे, मंदिर और मस्जिद सभी तरह के धार्मिक संस्थान भी अपने नए स्थानों पर स्थापित किया। युद्ध और देशों के बंटवारे की स्थिति में बड़े जनसमूह को एक स्थान से दूसरे स्थानों को पलायन करना पड़ता है।

डायस्पोरा एक ग्रीक शब्द है जो यहूदियों के 587 ईसा पूर्व में जेरुसलम के पराजय के बाद बेबीलोन पलायन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ। कोहन (1997) ने लिखा है कि यहूदी, अफ्रीकी, फलिस्तीनी, आर्मेनियन लोगों के पलायन से उपजे सामूहिक सदमे को व्यक्त करने वाला शब्द या अवधारणा है जो अपनी मातृभूमि/घरों से दूर रहते हुए पुनः वापस लौटने के सपने के साथ जीते हैं। ‘डायस्पोरा’ जर्नल के सम्पादक टोलोलयान डायस्पोरा की अवधारणा को कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं, ‘The entire semantic domain that includes words like immigrant, expatriate, refugees, guest workers, exile community, overseas community, ethnic community'(Tololyan 1991:4). अर्थात डायस्पोरा या प्रवासी समुदायों के लिए अप्रवासी, प्रवासी, शरणार्थी, अतिथि कामगार, निर्वासन समुदाय, विदेशी समुदाय, एवं नृजातीय समुदाय जैसे शब्दों का भी प्रयोग होता है। विलियम सैफरोन (1991:83) ने डायस्पोरा की एक आदर्श परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है: ‘Expatriate minority communities, dispersed from an original ‘centre’ to at least two ‘peripheral’ places. They maintain a memory or myth about their original homeland; they believe they are not and perhaps cannot be fully accepted by their host country, and they see the ancestral home as a place of eventual return and a place to maintain or restore’. अर्थात डायस्पोरा ऐसे व्यक्तियों के समुदाय को कहते हैं जो अपने मूलनिवास से दूर दो या अधिक स्थानों पर बिखर गए हों। वे अपने मन में वास्तविक गृह देश की एक याद लिए जीवित रहते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि मेजबान देशों द्वारा उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसीलिए वे अपने पूर्वजों की भूमि को वापसी के लिए देखते रहते हैं जहाँ से उन्हें अपनी पहचान और जुड़ाव महसूस होता है।

 

जल, थल और वायु मार्गों से आवागमन के साधनों की सर्वसुलभता एवं सूचना तकनीक के आधुनिक संसाधनों ने पूरी दुनिया के मानवीय समुदायों को जोड़ने का काम किया है। औद्योगिक क्रांति के बाद कच्चे माल, सस्ते श्रम एवं उत्पादों के लिए नए बाजारों की खोज के क्रम में यूरोप के देशों ने उपनिवेशों की स्थापना की। इसी कारण बड़ी संख्या में भारत से भी लोग ब्रिटिश उपनिवेशों पर श्रमिकों के रूप में गए। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद तथा सन् 1947 में देश के आजाद होने के बाद बड़ी संख्या में उच्च एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोग दुनिया के विभिन्न देशों में गए। आज चीन और ब्रिटेन के बाद तीसरी सबसे बड़ी आबादी प्रवासी भारतीयों की है। विश्व के लगभग 110 देशों में 2.5 करोड़ भारतीय रहते हैं और यह संख्या लगातार बढ़ भी रही है। प्रवासी भारतीयों ने अपने मेजबान देशों में एक विशिष्ट स्थिति प्राप्त किया है और वे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, एवं आर्थिक क्षेत्रों में न केवल मेजबान देशों की मदद कर रहे हैं बल्कि भारत के साथ अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों को भी मजबूत करने में भी सराहनीय योगदान दे रहे हैं।

सिनेमा ने प्रवास की त्रासदी को कई रूपों में देखने का प्रयास किया है 

प्रोफेसर आर.के. जैन (2005:71) भारतीय सिनेमा के वैश्विक विस्तार पर लिखते हैं, ‘भारतीय वाणिज्यिक सिनेमा एक ऐतिहासिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रघटना बन चुका है। विदेशी तत्व, टेक्नोलॉजी, कथानक को अपनाना हो या अफ्रीका, मध्य पूर्व, ग्रीक, टर्की, चीन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया, रूस, और पूर्वी यूरोप में भारतीय फिल्मों का प्रदर्शन सन् 1940 और 1950 के दशक से हो रहा है।’ भारतीयों के साथ विदेशियों द्वारा भी बॉलीवुड फ़िल्में बहुत पसंद की जाती हैं। अब तो कई अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म निर्माता भी भारतीय फिल्मकारों के साथ जॉइंट वेंचर में फ़िल्में बनाकर विश्वभर के सिनेमाघरों में रिलीज करते हैं। प्रवासी भारतीयों के जीवन पर बनने वाली फिल्मों में कुछ फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं जबकि कुछ फिल्में खुद विभिन्न देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय फिल्मकारों द्वारा बनाई गयी हैं। मीरा नैयर, गुरिंदर चड्ढा, दीपा मेहता, नागेश कुकुनूर, गुरिंदर चड्ढा, जगमोहन मूंदड़ा, और कैजाद गुस्ताग जैसे तमाम प्रवासी भारतीय फिल्मकार हैं जो अपने होस्ट देशों में रहकर फिल्मों का निर्माण निर्देशन कर रहे हैं। दोनों तरह के फिल्मों की अंतर्वस्तु के विश्लेषण से यह समझने का प्रयास किया गया है कि अपनी मातृभूमि भारत से बाहर जाकर बसने के बाद उनकी रोजमर्रा की जिंदगी किस तरह व्यतीत होती है। दोनों तरह के फिल्म निर्माताओं की फिल्मों से यह पड़ताल करने की भी कोशिश की गयी है कि कौन सा चित्रण अधिक प्रमाणिक और कौन सा आदर्शवाद पर आधारित है।

डॉ. कोटनीस की अमर कहानी फिल्म

भौगोलिक दायरे को तोड़ता सिनेमा

वी. शांताराम ने सन् 1946 में एक कर्मनिष्ठ डॉ. कोटनीस के जीवन पर डॉ. कोटनीस की अमर कहानी नाम से फिल्म बनायी थी। युद्ध में घायल लोगों का उपचार करने के लिए डॉ. कोटनीस चीन गये थे और वहीं जीवन का बलिदान दे दिया था। विदेशी धरती पर किसी भारतीय के जीवन पर बनी यह पहली फिल्म थी। उसके बाद सन् 1960 के दशक में विदेशी लोकेशंस पर संगम (1964), लव इन टोक्यो (1966), एन इवनिंग इन पेरिस (1967), अराउंड द वर्ल्ड इन एट डालर (1967), पूरब और पश्चिम (1970) देस परदेस (1978), और नाम (1986) फ़िल्में बनी जो प्रवासी भारतीयों और उनके जीवन का चित्रण करती हैं।  नब्बे के दशक में प्रवासी भारतीयों के सिनेमा की नयी लहर आई जिसमे दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), परदेस (1997), जींस (1997), आ अब लौट चलें (1998), प्राउड टू बी इंडियन (2001), ये है जलवा (2001), कभी ख़ुशी कभी ग़म (2001), लीला (2002), कल हो ना हो (2003), लज्जा (2003), सलाम नमस्ते (2005), नमस्ते लन्दन (2006), तारा रम पम (2007), बॉम्बे टू बैंकाक (2008) जैसी कई फ़िल्में बनीं।

प्रवासी भारतीयों के जीवन को चित्रित करने वाली फिल्मों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है जिसके दो कारण हैं एक प्रवासी भारतीयों की संख्या का बढ़ना और दूसरा, दुनियाभर में फैले दर्शकों द्वारा बॉलीवुड सिनेमा को पसंद किया जाना। दुनिया के विभिन्न देशों मे प्रवासी भारतीयों की बढ़ती संख्या और उनके राजनीतिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक महत्व को देखते हुए भारतवर्ष की सरकारों ने भी उन्हें पर्याप्त महत्व देना शुरू कर दिया है। प्रत्येक वर्ष 9 जनवरी को महात्मा गांधी के स्वदेश वापसी के दिन को प्रवासी भारतीय दिवस के रूप में मनाया जाता है जिसका आरम्भ सन् 2003 में हुआ।

बॉलीवुड सिनेमा में एक भारतवादी दृष्टिकोण काम करता रहा है 

प्रवासी भारतीयों के जीवन को चित्रित करने वाली फिल्मों की बात करें तो मनोज कुमार निर्मित पूरब और पश्चिम (मनोज कुमार 1970) का नाम सबसे पहले आता है। भारत और यूरोप के देशों की भिन्न जीवन शैली का तुलनात्मक प्रस्तुतिकरण करते हुए भारतीय जीवन पद्धति, परम्पराओं और मूल्यों को बेहतर साबित करने का एक प्रयास इस फिल्म में दिखता है।  कोई नौजवान आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने भले ही लंदन जाए लेकिन उसे अपने देश के विकास में योगदान देने के लिए स्वदेस वापस लौटकर कार्य करना चाहिए इस फिल्म की विषय वस्तु इसी थीम पर केन्द्रित है। ‘भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात बताता हूँ’ गीत गाने वाले नायक भारत कुमार (मनोज कुमार) को यह बात नागवार गुजरती है कि विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने देश और लोगों को कमतर समझते हुए बुराई करते हैं। इस गीत के माध्यम से नायक भारत अपने देश की गौरवशाली परम्परा और उपलब्धियों का बखान करता है, ‘जीते हैं लोगों ने देश तो क्या, हमने दिलों को जीता है’।

हमारे प्रधानमन्त्री जी भी कहते हैं कि भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध दिया है जो शांति, अहिंसा और सहअस्तित्व का सन्देश देते हैं। पूरब और पश्चिम फिल्म की नायिका प्रीति (सायरा बानो) जब वेस्टर्न कपड़े छोड़कर साड़ी पहनती हैं और सिगरेट शराब पीना छोड़ देती हैं तो एक आदर्श नारी के रूप में दर्शकों के सामने आती हैं। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ (आदित्य चोपड़ा 1995) डायस्पोरा जेनर की मैग्नम ऑप्स फिल्म है। साठ-सत्तर के दशक से लेकर नब्बे के दशक तक कभी-कभार प्रवासी भारतीयों के जीवन पर फ़िल्में बनती रहीं लेकिन ‘डीडीएलजे’ ने इस दिशा में नयी परम्परा की नींव रखी। ब्रोईस और याज्गी (2007:369) प्रवासी सिनेमा की इस यात्रा के बारे में टिप्पणी की है ‘The early 1990s films presented the need for renegotiating the modernity-tradition impasse. This juncture saw a spate of ‘clean’ family films in which the figure of the overseas Indian made a comeback, now presented as the successful wanderer between confidents and cultures, and between modernity and tradition’. नब्बे के सिनेमा में आधुनिकता बनाम परम्परा के डिबेट के स्थान पर आधुनिकता और परम्परा को साथ-साथ लेकर चलने की बात सुझाई गई जो ज्यादा व्यावहारिक और अपीलिंग रही। डीडीएलजे फिल्म ने बताया कि हम दुनिया में कहीं भी जाकर बस जाएँ हमें अपने पारिवारिक मूल्यों का सम्मान करते हुए, माता-पिता की भावनाओं का सम्मान करते हुए शादी-ब्याह  करना व जीवन जीना चाहिए। परिवार, विवाह और नातेदारी के विषयों पर साधिकार लिखने वाली समाजशास्त्री पैट्रीसिया ओबेराय लिखती हैं, ‘DDLJ is a love story portraying Indians settled abroad, which define Indianness with reference to specificities of family life, the institutions of courtship and marriage in particular’.

फिल्म के निर्माता यश चोपड़ा अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि वे इस धारणा को बदलना चाहते हैं कि भारत केवल सपेरों का देश नहीं है। मैं यह बताना चाहता हूँ कि हम भारतीय लोग कैसे सोचते हैं और अपने लोगों से प्यार करते हैं। डीडीएलजे फिल्म के माध्यम से हम बताना चाहते थे कि यदि आपका प्यार सच्चा है तो आपके माता-पिता भी अंततः आपके सम्बन्धों को स्वीकार कर सम्मान देते हैं। बहुत से परिवर्तनों के बाद भी परिवार में महिलाओं और लड़कियों को अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की आजादी आज भी नहीं है। फिल्म की नायिका सिमरन की माँ अपने साथ हुए भेदभाव को अपनी बेटी को स्पष्ट शब्दों में बताते हुए हम फिल्म में देख सकते हैं। एक लड़की के लिए शादी के पहले शुचिता और कौमार्य अनिवार्य भारतीय मूल्य है यह भी इस फिल्म का मजबूत सन्देश है।

 

प्रवासी निगाह से देश का जातिवादी-पूंजीवादी गठजोड़ नहीं दिखता  

स्वदेस (आशुतोष गोवारिकर 2004) का नायक मोहन भार्गव नासा में काम करने वाला इंजीनियर है जो अपनी अध्यापक प्रेमिका के प्रेरणा से वापस अपने वतन वापस लौटकर राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में सहयोग करना चाहता है। गाँव में फैले जातीय भेदभाव-छुआछूत के खिलाफ भी नायक आवाज उठाता है और शिक्षा का प्रसार कर गाँव के लोगों को तार्किक और आधुनिक बनाने का प्रयास करता है। कल हो ना हो (करन जौहर 2003) अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में बसे प्रवासी भारतीयों की कहानी है जिसमे नैना कैथरीन कपूर पटेल की हाइब्रिड आइडेंटिटी को हाईलाइट किया गया है। नैना और रोहित की प्रेम कहानी को अमन माथुर सेटल करते हैं। अमेरिका की बहुलतावादी संस्कृति में कई रंगों एवं कई क्षेत्रों के लोग रहते हैं लेकिन वे अमेरिकन फ्लैग के साथ नाचते-गाते दिखते हैं। इस फिल्म की भाषा हिंगलिश है जिसमें हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, गुजराती सब शामिल हैं और इसमें किसी को कोई समस्या भी नहीं है। बॉलीवुड फिल्मकारों के अतिरिक्त कई प्रवासी भारतीय फिल्मकार बाला राजसेखुरानी, डॉ निखिल कौशिक, कल्पना सिंह, करनशेर सिंह, अंगदपाल, आनंद सिंह, सुरेश सेठ, बिपिन पटेल और तरलोक मलिक आदि हैं। इनके द्वारा बनाई गयी फ़िल्में इस प्रकार हैं- अन्य प्रवासी भारतीय फिल्मकार ए.बी.सी.डी. (के. पटेल 2001), ब्राइड एंड प्रेज्यूडिस (गुरिंदर चड्ढा 2004), प्रोवोक्ड  (जगमोहन मूंधड़ा 2005), नेम सेक (मीरा नैयर 2006), ग्रीन कार्ड फीवर, ब्लैक वाटर (बाला), फ्यूचर (डॉ निखिल), गर्ल विद एन असेंट, डबल नेंटिवस, एनिमा, क्यूबन मिसाइल क्राइसिस, गॉड ब्लेस अमेरिका (कल्पना सिंह)। कल्पना सिंह ने प्रेमचन्द की कहानी ‘कफ़न’ पर भी एक फिल्म बनाई है। इन फिल्मों में मुख्यतःएनआरआई हसबैंड, नस्लभेद और अन्य राजनीतिक समस्याओं को केंद्र में रखकर प्रवासी भारतीय समुदायों के जनजीवन का प्रस्तुतिकरण किया गया है। (झा 2007, कौर 2005)

प्रोवोक्ड (जगमोहन मूंधड़ा 2005) फिल्म किरनजीत अहलूवालिया की आत्मकथा सर्किल ऑफ़ लाइट पर आधारित है। एनआरआई लड़के से शादी करके अपनी बेटी को विदेश में बसने के लिए भेजने के लिए कुछ पंजाबी परिवार बहुत उत्सुक रहते हैं। किरनजीत भी एक ऐसे ही अनजान लड़के से शादी करके ब्रिटेन में बस जाती हैं और दस सालों तक मारपीट शक और शोषण को बर्दाश्त करने के बाद एक दिन उनके हाथों से पति की हत्या हो जाती है। उन्हें जेल हो जाती है लेकिन जल्द ही रिहाई भी होती है। फिल्म के अंत में उनका महत्वपूर्ण कथन है जिस पर हर माँ-बाप को गौर करना चाहिए ‘Women should not bear any violence and oppression practiced against them. It is duty of each mother to implant good habits in their children so that they learn to respect and love the women, not Violence and hate.’  महिलाओं को किसी भी तरह का अत्याचार और हिंसा बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। साथ ही अपने बच्चों को महिलाओं को सम्मान करना सिखाना चाहिए। भूमंडलीकृत विश्व में विभिन्न देशों के निवासी धार्मिक और एथनिक समुदायों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो रहे हैं। प्रवासी भारतीय समुदाय की प्रख्यात फिल्मकार गुरिंदर चड्ढा की फिल्म ब्राइड एंड प्रेज्यूडिस (2004) जेन आस्टिन के उपन्यास प्राइड एंड प्रिज्युडिस पर आधारित है। यह बॉलीवुड स्टाइल की नाच-गाना, संगीत, इमोशन, प्यार और कामेडी वाली फिल्म है जिसमे 21वीं सदी की भारतीय लड़की एक विदेशी दूल्हे (ब्रिटिश, अमेरिकन) की तलाश में है (दुदराह 2006:163)।

जेन आस्टिन के उपन्यास प्राइड एंड प्रिज्युडिस पर आधारित फिल्म

गीतसंगीत में राष्ट्रवाद  केवल भारत में 

गीत, संगीत और नृत्य बॉलीवुड फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा है। प्रवासी भारतीयों का सिनेमा के गाने देशभक्ति, राष्ट्र गौरव, नोस्टेल्जिया, वतन वापसी पर केन्द्रित होते हैं:

भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात बताता हूँ (पूरब और पश्चिम), वतन से चिट्ठी आयी है (नाम), घर आजा परदेशी तेरा देश बुलाये रे (डीडीएलजे), दुल्हन सी सजी धरती…बुलाता है हमें फिर वो चाहत का जहाँ (आ अब लौट चलें), भारत का राष्ट्रगान (कभी ख़ुशी कभी ग़म एवं अन्य फिल्मों में), मैं जहाँ भी रहूँ, मैं कहीं भी हूँ तेरी याद साथ है (नमस्ते लन्दन), आई लव माई इंडिया (परदेस) ये जो देश है तेरा, स्वदेश है तेरा, तुझे है पुकारा, (स्वदेश).

प्रवासियों की देशभक्ति हिंदी सिनेमा और क्रिकेट पर ही ज्यादा छलकती है

प्रवासी भारतीयों पर सिनेमा बनाने की एक लम्बी परम्परा रही है। पिछले तीन दशकों में इस जेनर की फिल्मों की संख्या में वृद्धि हुई है। श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों का मानना है कि दक्षिण एशियाई जनसंख्या के विदेशों में विस्तार के साथ ही मनोरंजक बॉलीवुड फिल्मों का भी विस्तार हुआ है। मई 1998 में बॉलीवुड को उद्योग का दर्जा मिलने के बाद बैंकों और कार्पोरेट सेक्टर से आसानी से फंडिंग मिलने लगी जिसने फिल्मी दुनिया का प्रचार-प्रसार और विस्तार करने में अहम भूमिका निभायी।

यहाँ यह भी बताना समीचीन होगा कि अमेरिका और लन्दन में बसे भारतीयों पर वहां रहने वाले फिल्मकारों ने तथा हिंदी सिनेमा के फिल्मकारों ने फ़िल्में बनाई हैं, जिसमे राष्ट्रवाद, देशभक्ति, वतन वापसी और भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता जैसे मुद्दे प्रमुखता से चित्रित किये जाते रहे हैं। भारतीय लोग दुनिया के सैकड़ों देशों में बसे हैं लेकिन सभी के जीवन और उपलब्धियों पर फ़िल्में नहीं बनती हैं जो एक विचारणीय विषय है। जब प्रवासी भारतीय फिल्म निर्माता जब प्रवासी भारतीय समुदाय पर फ़िल्में बनाते हैं तो हाइब्रिड पहचान और स्टाइल, बहुसंस्कृतिवाद और ट्रांस राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर केन्द्रित करते हैं। उनकी फिल्मों विभिन प्रजातियों, धर्मों के मतावलंबियों के बीच हों वाले वैवाहिक संबंधों और हाइब्रिड पहचान में कोई समस्या नहीं दिखाई देती। वतन वापसी और भारतीय जीवन मूल्यों की श्रेष्ठता स्थापित करना भी उनका उद्देश्य नहीं होता। सिनेमा बॉलीवुड के फिल्मकारों द्वारा निर्मित हो या विदेशों में बसे भारतीय मूल के फिल्मकारों द्वारा वह एक मजबूत माध्यम के रूप में दुनिया भर में फैले भारतीयों को भावनात्मक रूप से जोड़कर एक समुदाय की अवधारणा में बाँधने का काम करता है। हिंदी सिनेमा/ भारतीय सिनेमा विदेशों में बसे भारतीयों के लिए केवल मनोरंजन का साधन मात्र नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत की तरह है जो उनका असली घर है।

सन्दर्भ सूची

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डॉ. राकेश कबीर
डॉ राकेश कबीर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

4 COMMENTS

  1. प्रवासी भारतीयों के जीवन पर बनीं फिल्में उनके वास्तविक जीवन तक पहुँचने का एक जरिया बनीं जो यह दर्शाती हैं कि व्यक्ति का भौगोलिक प्रवास उनके इच्छा और महत्वकांक्षा के विपरीत उस समय की वैश्विक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की परिणति थी। अकल्पित यातनाओं और शोषण को सहकर इन लोगों ने एक खूबसूरत दुनिया जिसे हम आज ‘वैश्विक ग्राम’ कह सकते हैं, की अवधारणा को जन्म दिया। इन लोगों ने उस समय में व्याप्त तमाम वर्जनाओं और रूढ़ियों से संघर्ष करते हुए अपने ‘सामाजिक मूल्यों’ को बचाये रखने की पुरजोर कवायद की है। ऐसी जिजीविषा एक मानव के अंदर ही हो सकती है। मेरी भी एक पसंदीदा विषय पर इस लेख को पढ़कर इसके बारे में और जानने की इच्छा बलवती हो गई है। लेख के लिए सादर साधुवाद।

  2. “हिंदी सिनेमा और प्रवासी भारतीय समाज” थीम पर केंद्रित श्री राकेश कबीर का ताजा और शोधपरक आलेख *हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीय समुदाय हिंदुत्व का प्रतिनिधि है* पढ़ा। राकेश जी ने इस बार भी लीक से हटकर विषय चुना है।

    आज प्रवासी भारतीय दुनिया के कोने कोने में जाकर बसे हैं और अपनी प्रतिभा, मेहनत और व्यावसायिक योग्यताओं की बदौलत वहां के समाज और परिवेश में बखूबी घुल मिल गए हैं और एक ओर जहां उन देशों की उन्नति में हाथ बंटा रहे हैं वहीं दूसरी ओर अपने मूल देशों से भी कम या ज्यादा जुड़े रहकर करोड़ों डॉलर/पौंड भारत भी भेज रहे हैं और हमारी अर्थव्यवस्था के विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। यह हर देश – समाज के प्रवसित समुदाय की स्वाभाविक वृत्ति होती है कि वह अपने मूल देश/राज्य की भाषा, संस्कृति, खान -पान, रीति रिवाजों, लोक स्मृतियों, धार्मिक एवं मिथकीय प्रतीकों आदि को भुला नहीं पाता है और जहां तक संभव हो सके इनसे जुड़ा रहने का प्रयत्न करता है और अपने बच्चों को भी इस थाती से परिचित कराने का यत्न करता रहता है। यह अलग बात है कि उसकी यह कोशिश बहुत कामयाब नहीं हो पाती है।

    बहरहाल, हमारे बॉलीवुड ने प्रवासी भारतीयों को केंद्र में रखकर कई फिल्में बनाई हैं जिसमें देशभक्ति, स्वदेश राग, तथाकथित श्रेष्ठ सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों, परिवार रूपी संस्था के गुणगान आदि की छौंक लगाते हुए टिपिकल बॉलीवुडीय लटकों – झटकों और हिट संगीत का मिश्रण होता है। आपने दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, परदेस, कभी खुशी कभी गम जैसी अनेक फिल्मों के मूल कथानकों का उल्लेख करते हुए इनकी यथेष्ठ मीमांसा की है। अलबत्ता अमेरिका, इंग्लैंड जैसे देशों में बसे भारतीय मूल के कुछ फिल्मकारों यथा – मीरा नायर, गुरिंदर चढ्ढा, डॉ जगमोहन मूंदड़ा, दीपा मेहता, नागेश कुकुनूर आदि ने इस लकीर से बचते हुए गंभीर कथानकों पर साहसपूर्ण फिल्में बनाने का जोखिम उठाया है। हमारा बॉलीवुड मूलतः खाए – पिए – अघाए और पूंजी से संपन्न पंजाबी मूल के फिल्मकारों का ही अखाड़ा है। यह वर्ग हमारे देश की ही ज्वलंत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक समस्याओं/मुद्दों से हमेशा कतराता रहा है और कल्पनालोक में ही विचरण करते हुए भव्य और महंगे सेटों, खूबसूरत विदेशी लोकेशंस, रोमांस और इमोशंस की मीठी चासनी की बदौलत अपनी फिल्में हिट करा ले जाता है। अतः प्रवासी भारतीयों की वास्तविक समस्याओं, उनकी पीड़ाओं, स्मृतियों और मूल्यों के अंतर्द्वंद्व को भला क्यों कर अपनी फिल्मों का कथानक बनाएगा? इस अघाये समूह ने जो फिल्में बनाईं हैं उस पर गौर करें तो पाएंगे उनमें पंजाबी कैरेक्टर ही ज्यादा मिलेंगे यानी शेष भारत वासी अनुपस्थित ही नजर आएंगे। वहां न तो दक्षिण भारतवंशी दिखेंगे और न ही लाखों पुरबिये गिरमिटिया मजदूरों (हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों) के वंशज। इस लिहाज से हमारा सिनेमा अभी एकांगी और यथार्थ से बहुत दूर ही है।

    आपने अपने आलेख में बहुत सी फिल्मों के कथानकों का विश्लेषण कर सही ही निष्कर्ष निकाला है कि “हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीय समुदाय हिंदुत्व का प्रतिनिधि है।” आपका समूचा आलेख आपकी शोधवृत्ति, गहन विश्लेषण और सटीक संदर्भों से परिपूर्ण और पठनीय है।

    आप अपने आलेखों से यह भी साफ संकेत करते हैं कि विश्व सिनेमा के बरक्स हमारा हिंदी सिनेमा सम -सामयिक विषयों/मुद्दों/समस्याओं और नए किंतु समाजोपयोगी कथानाकों से कितना और कितनी गंभीरता से जुड़ा है और करोड़ों सिनेमा प्रेमियों की चेतना और मर्म को छूने की क्या कोशिशें कर रहा है (या नहीं कर रहा है)।

    आपके रोचक आलेख की निम्नलिखित सम्मतियोंं/टिप्पणियों ने विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया है:

    – ” प्रवासी निगाह से देश का जातिवादी – पूंजीवादी गठजोड़ नहीं दिखता।”

    – ” भारतीय लोग दुनिया के सैकड़ों देशों में बसे हैं लेकिन सभी के जीवन और उपलब्धियों पर फिल्में नहीं बनती हैं जो एक विचारणीय विषय है।”

    – प्रवासी भारतीयों के जीवन को चित्रित करनेवाली फिल्मों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है जिसके दो कारण हैं – एक प्रवासी भारतीयों की संख्या का बढ़ना और दूसरा दुनियाभर में फैले दर्शकों द्वारा बॉलीवुड सिनेमा को पसंद किया जाना।”

    – ” सिनेमा बॉलीवुड के फिल्मकारों द्वारा निर्मित हो या विदेशों में बसे भारतीय मूल के फिल्मकारों द्वारा वह एक मजबूत माध्यम के रूप में दुनिया भर में फैले भारतीयों को भावनात्मक रूप से जोड़कर एक समुदाय की अवधारणा में बांधने का काम करता है।”

    इस बढ़िया और पठनीय आलेख को साझा करने के लिए आपको धन्यवाद और शुभकामनाएं।

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  3. मनुष्यो का एक स्थान से स्थान पे पलायन जीविका, सुरक्षा, घुमक्कड़ी,मौशमी स्थायी या अस्थायी तौर पे होता है इसमें केवल भौतिक शरीर मात्र गति नही करता है बल्कि वे अपने साथ अपनी सामाजिक संस्कृत तत्वों को भी साथ ले जाता है जिसमे उनकी स्थापित पहचान , धार्मिक विश्वास, वेश भूषा,खानपान, त्यौहार आदि। इन प्रवाशियो पे 60के दशक से अब तक अनेक बॉलीवुड फिल्मे आई जिसका देश में साथ साथ विदेशो मे भी पसंद किया गया।
    इस बढ़िया और पठनीय आलेख को साझा करने के लिए आपको धन्यवाद और शुभकामनाएं।

  4. “हिंदी सिनेमा प्रवासियों का चित्रण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सका है”  थीम पर केंद्रित राकेश कबीर जी का शोधपरक आलेख एक समसामयिक मुद्दे पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है ।
           प्रवासी भारतीयों के जीवन पर बनी फिल्में उनके वास्तविक जीवन तक पहुँचने का एक जरिया बनती हैं, जो यह दर्शाती हैं कि व्यक्ति का भौगोलिक प्रवास उनके इच्छा और महत्वकांक्षा के विपरीत उस समय की वैश्विक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की परिणति थी। 
           प्रवासी भारतीयों के जीवन को चित्रित करने वाली फिल्मों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है जिसके दो कारण हैं एक प्रवासी भारतीयों की संख्या का बढ़ना और दूसरा, दुनियाभर में फैले दर्शकों द्वारा बॉलीवुड सिनेमा को पसंद किया जाना। दुनिया के विभिन्न देशों मे प्रवासी भारतीयों की बढ़ती संख्या और उनके राजनीतिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक महत्व को देखते हुए भारतवर्ष की सरकारों ने भी उन्हें पर्याप्त महत्व देना शुरू कर दिया है।
         किंतु ज्वलंत प्रश्न यह उठता है कि क्या फ़िल्म जगत ने प्रवासी जीवन को सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है । बॉलीवुड बाजारोन्मुखी है, उसको प्रवासियों की वास्तविक समस्याओं से अधिक अपने मुनाफे में दिलचस्पी है । यहाँ जो फिल्में बनी हैं उस पर गौर करें तो पाएंगे उनमें पंजाबी चरित्र ही प्रमुख हैं । वहां शेष भारत वासी लगभग अनुपस्थित ही नजर आएंगे। वहां न तो दक्षिण भारतवंशी दिखेंगे और न ही लाखों पुरबिये गिरमिटिया मजदूरों (हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों) के वंशज। इस लिहाज से हमारा सिनेमा अभी एकांगी और यथार्थ से बहुत दूर ही है।बहरहाल फिर भी विश्व सिनेमा ने एक मजबूत माध्यम के रूप में दुनिया भर में फैले भारतीयों को भावनात्मक रूप से जोड़कर एक समुदाय की अवधारणा में बांधने का काम अवश्य किया है । लेखक द्वारा संवेदनशील विषय की तार्किक पड़ताल की गयी है, जिसके लिए उनको बहुत बहुत साधुवाद।???

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