मिर्ज़ापुर में पानी की समस्या दिनोदिन विकराल होती जा रही है। चाहे पीने का पानी हो चाहे सिंचाई का पानी संकट सभी पर बढ़ा है। जो नहरें बनी हैं वे प्रायः सूखी रहती हैं जबकि नहर विभाग कहता है कि पानी लगातार छोड़ा जाता है। हर साल नहरों की साफ-सफाई की जाती है। हालाँकि वास्तविकता यह है कि नहरें घास-फूस से भरी और सूखी ही मिलती हैं। यह जिले के लिए एक जटिल समस्या बन गई है जिसके शिकार किसान सिंचाई के लिए पानी को तरस रहे हैं जबकि नहर विभाग का अपना राग है।
किसान कहते हैं कि ‘जब नहर नहीं थी तो खेत की सिंचाई के लिए सोचना पड़ता था। बारिश होने की आस लगी होती थी, और जब बारिश भी नहीं होती थी तो गांव में नहर होने की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। तकरीबन चार-पांच दशक पूर्व हम लोगों ने नहर के लिए अपनी क़ृषि योग्य उपजाऊ जमीन दे दी थी, इस उम्मीद के साथ कि नहर बन जाएगी तो सिंचाई की गंभीर समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। नहर के पानी से किसानों के खेतों में हरियाली बनी रहेंगी। लेकिन क्या कहा जाए सपना ही नहीं टूटा है आस भी निराश हुई है।
मिर्ज़ापुर के सिटी विकासखंड के परवा राजधर गांव निवासी किसानों की नहर को लेकर कहीं गई इन बातों के पीछे छिपी पीड़ा को समझा जा सकता है। किसान कहते हैं कि अक्सर हमारी जरूरत पर हमको पानी नहीं मिल पाता और फसलें सूख जाती हैं। परवा राजधर गांव के एक किसान ने कहा कि ‘हालत वही है कि जाड़ा गए जड़ावर जोबन गए भतार। मतलब हमारे जीवन में नहर के पानी की अहमियत इतनी ही रह गई है।’
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जिले की बहुप्रतीक्षित बाणसागर नहर परियोजना पूर्ण हो चुकी है और यह दावा किया जा रहा है कि इससे 75,309 हेक्टेयर भूमि को अतिरिक्त सिंचाई की सुविधा मिलेगी। लेकिन हकीकत यह है कि जिले के कई ब्लॉकों के किसानों को इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। वे अभी भी पचास साल पहले बनी नहरों पर निर्भर हैं जिनमें पानी आना रामभरोसे है। नहर विभाग ने पानी न आने के पीछे की समस्याओं को पूरी तरह उपेक्षित छोड़ दिया है। वह शायद ही कभी झाँकने आता हो।
सिंचाई के सर्वोत्तम साधनों में शुमार, फिर भी नहरें बनी हैं बदहाल
जिले में नहरों की लंबाई 1419 किलोमीटर व सिंचित क्षेत्रफल एक लाख हेक्टेयर बताया जाता है, जबकि जलाशयों की संख्या 9 बताई जाती है। मिर्जापुर जिले में गंगा नदी के सखौरा पंप कैनाल, नारायनपुर पंप कैनाल के अलावा सिरसी, खजुरी, अदवा, बेलन बलौदा और मेजा बांध इत्यादि के जरिए नहरों से किसानों के खेतों में पानी पहुंचाने की व्यवस्था बनी है। लेकिन तीन-चार दशक पूर्व बने नहरों-माइनरों की मरम्मत और रखरखाव के नाम पर सिर्फ बजट पास होता आया है। ठोस काम नहीं होने से कई दशकों पूर्व बने नहरों की हालत जर्जर हो चुकी है।
नहरों की साफ-सफाई के नाम पर घास-फूस, पेड़-पौधे छीलकर लाखों का वारा-न्यारा कर लिया जाता है, लेकिन खेत तक पानी पहुंचेगा कि नहीं इसे सोचने-समझने की जरूरत नहीं समझी जाती। कुछ ऐसा ही हाल बांध और बंधों का भी है जो सीपेज की समस्या से जूझ रहे हैं। जो पानी किसानों के खेतों में पहुँचना चाहिए वह सीपेज के चलते बेकार में इधर-उधर बह जाता है।
घास काटकर नहरों के सिल्ट सफाई के धन का होता है बंदरबांट
किसानों को नहरों से समय-समय पर सिंचाई के लिए पानी मिलता रहे इसके सिल्ट सफाई के नाम पर हर वर्ष लाखों रुपये खर्च हो जाता है। विभागीय अधिकारी और ठेकेदार सांठ-गांठ कर मालामाल हो रहे हैं। वहीं सिंचाई के अभाव में कहीं किसानों की फसल सूख जाती है, तो कहीं पानी ही नहीं मिल पाता है। सूखीं नहरें किसानों को मुंह चिढ़ाती हुई नज़र आती हैं।
बताया जाता है कि जिले में सूखा पड़ने के कारण नहरों-माइनरों में पानी नहीं आया, लेकिन विभाग ने नहरों की घास छीलकर बजट हजम कर लिया। कई नहरों-माइनरों के झाल और कुलावा क्षतिग्रस्त हो गए हैं। इससे अगर नहर में कभी पानी आया तो भी उससे खेतों की सिंचाई नहीं हो पाती है। उसका पानी इधर-उधर से बहकर बेकार हो जाता है। लेकिन इससे संबंधित विभाग को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। किसानों की माने तो नहरों की सफाई होती भी है तो ठेकेदार मुख्य सड़क के आस-पास घास छिलवा कर, कुछ मिट्टी साफ कर देते हैं, ताकि कोई अधिकारी देखे तो लगे कि माइनरों की सफाई हो गई है। जबकि नहरों के टेल तक इसकी जांच की जाए तो हकीकत सामने आ जाएगी।
नहर के नाम पर जमीन भी गई पर नहर का सुख नहीं मिला
परवा राजधर गांव के विंध्यवासिनी प्रसाद पाण्डेय कहते हैं, ‘नहर में पानी ही नहीं आता है और सफाई भी नहीं होती है। बड़ी नहर में जेसीबी से सफाई होती है लेकिन बाकी स्थानों पर कागजों में होती है।’ वह कहते हैं ‘धान की रोपाई में बारिश साथ न दे तो धान की खेती बेहनउर में ही सूख जाएगी।’
चार-पांच दशक पहले नहर के लिए दी गई खेती की जमीन की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘नहर के नाम पर जमीन भी गई, लेकिन नहर का सुख नहीं मिला है। सखौरा पंप कैनाल (फतहा) से नहर निकलकर नुआंव, सरैया पुल से होते हुए बैदौली, लेडू मझगवां माइनर तक गई हुई है। इनमें से अलग-अलग माइनर निकले हुए हैं। जिनकी सफाई के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों का खेल होता है।’ कई अन्य किसानों ने कहा कि सफाई तो मनरेगा से होनी चाहिए लेकिन जेसीबी मशीन से होती है. कुछेक स्थानों पर सफाई कराकर बाकी नहर को जस-का-तस छोड़ दिया जाता है।
मझगवां, लेडू, परवा राजधर, गुरसंडी, सिनहर, सरैया, मसारी इत्यादि गांवों की हजारों बीघा खेती योग्य भूमि है जिसकी सिंचाई के लिए नहरों माइनरों का जाल बिछाया गया है, पर सिंचाई के समय नहरों में पानी नदारद होने के साथ-साथ बारहों मास नहर में घास फूस और कचरे के ढेर यह बताने के लिए काफी है कि नहरों की सफाई कैसे और किस तरह से होती है। विंध्यवासिनी प्रसाद पाण्डेय की तरह इलाके के अन्य किसान भी नहर से जुड़ी हुई पीड़ा को साझा करते हुए बताते हैं कि ‘गेंहू के खेती के समय काफी दबाव में पानी मिल जाता है, धान की फसल के लिए बरसात के पानी पर आश्रित होना पड़ता है, निजी सिंचाई के साधन और बरसात न हो तो इलाक़े के किसानों के समक्ष सूखे और भूखमरी की समस्या उत्पन्न हो जाए। विश्व बैंक के सहयोग से बने ट्यूबवेल की क्षमता अधिक न होने और बिजली के लो वोल्टेज की समस्या भी किसानों को परेशानी किए रहती है। ऐसे में ट्यूबवेल (नलकूप) भी किसानों को रुलाने का कार्य करते हैं।
विंध्यवासिनी प्रसाद खेती-किसानी से जुड़ी कहावत कहते हैं, ‘तेरह कातिक, तीन असाढ़। यानी असाढ़ में तीन दिन में खेती नहीं किए तो सब बेकार। यही हाल हम लोगों का हुआ है। यह नहर सखौरा पंप कैनाल से निकलकर लेढडू गांव में जाकर यह समाप्त हो जाती है। कई माइनर इससे निकले हुए हैं। लेकिन नहर की सफाई न होने से पानी नहीं आता है। बराबर पानी मिले तो खेतों में हरियाली बनी रहे।
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सरैया गांव के रामनरेश दुबे का कहना है कि ‘पानी चलता है लेकिन नुआंव के बाद इधर पानी ही नहीं आता है। जब सिंचाई की जरूरत होती है तो नहर की सफाई होती है, यह तो भला कुछ बारिश हो गई नहीं तो धान का बेहन भी न पड़ता। देवी प्रसाद मिश्र कहते हैं कि नहर की कभी सफाई नहीं होती, गंगा नहर का पानी कभी इधर आता ही नहीं है। देखिए आपके आंख के सामने नहर है। इसकी क्या दशा हो रखी है।’
भरथरी गाँव के आशीष कुमार दुबे बुझे मन से कहते हैं, ‘फसल कटने को होती है तो नहर में पानी आता है। बेसमय पानी आता है। नहर की सफाई नहीं होती है। नलकूप और निजी साधनों से सिंचाई कर खेती करतें हैं। वरना खेती न होने पाए। जबकि इल्लन का कहना है कि इन नहरों में बहुत पहले से पानी नहीं आता है। गुरसंडी के पास थोड़ी-बहुत नहर सफाई कर लेते हैं यह दिखाने के लिए कि कर्तव्यों की इतिश्री हो जाए और कागजी कोरम भी पूरा हो जाए।
कई किसानों ने नहरों के नाम पर प्रतिवर्ष होने वाले लाखों के खेल की जांच कराने की मांग की है लेकिन उनकी बात पर अभी सुनवाई नहीं हुई है। वे कहते हैं कि इलाके के अधिकांशतः नहरों, माइनरों में घास-फूस उगा है। नहर में पानी नहीं आता गुरसंड़ी के उधर ही पानी रह जाता है। ऐसे में नहरों साफ-सफाई के नाम पर कोरम पूरा करने वाले संबंधित अधिकारियों से लेकर संबंधित ठेकेदार कार्यदायी संस्थाओं को भी कसूरवार ठहराते हुए इनकी जांच कराकर सरकारी धन के दुरुपयोग के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।
गुरसंडी गांव निवासी पत्रकार विष्णु कांत पांडेय कहते हैं कि ‘लघु डाल नहर प्रखंड, मिर्ज़ापुर के अधिकारी समस्याओं के त्वरित निराकरण के बजाय टालमटोल करते हैं। उन्हें खुद नहीं पता होता है कि किस गांव से कौन सी नहर-माइनर गुजरी है।’ इसी से संबंधित एक शिकायत का हवाला देते हुए वह बताते हैं कि ’एक छोटी समस्या के लिए कई चक्कर लगाने पड़ते हैं तब जाकर इस विभाग के अधिकारियों के कानों पर जूं रेंगती है।‘