विस्थापन का सिनेमा- 2
विस्थापन के शिकार रिफ्युजियों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनाइटेड नेशंस हाई कमीशन फॉर रिफ्यूजीस के सन 2020 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर मे जबरन पलायन के शिकार लोगों की संख्या 82.4 मिलियन है। इन विस्थापित लोगों मे 86% विकसित देशों में, 73% अपने पड़ोसी देशों में शरण लेते हैं। कुल विस्थापितों में 68% केवल पांच देशों (सीरिया, वेनेजुएला, अफगानिस्तान, दक्षिणी सूडान और म्यांमार) से होते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार शरणार्थियों को शरण देने वाले प्रमुख पांच देश टर्की, कोलम्बिया, पाकिस्तान, युगांडा और जर्मनी हैं। युद्ध, एथनिक संघर्ष, सामूहिक नरसंहार और मानवाधिकारों का उल्लंघन जबरन पलायन के प्रमुख कारण हैं। मेरा मानना है कि दुनिया के किसी न किसी हिस्से मे निरंतर कोई न कोई युद्ध चल रहा होता है। इन लड़ाइयों के बीच लाखों बच्चे अपने घरों से दूर निर्वासन में पैदा हुए हैं, यह बहुत बड़ी त्रासदी है। इसलिए बड़े स्तर पर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है कि दुनिया में संघर्ष, युद्ध और हिंसा बंद हो। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिफ्यूजी एजेंसी ने वर्ष 2020 के अंत तक पाया है कि दुनिया भर से आठ करोड़ से ज्यादा लोग युद्ध, हिंसा, जलवायु संबंधी समस्याओं के कारण बाध्यकारी पलायन करने को मजबूर हैं। इसे एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था ने an epic failure of humanity अर्थात बाध्यकारी पलायन मानवता के समक्ष एक चुनौती की तरह खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के रिफ्यूजी मामलों के कमिश्नर ने बाध्यकारी पलायन के बारे में कहा है कि Behind each number is a person forced from their home and a story of displacement, dispossession, and suffering- लोगों को जबरन अपना घर छोड़कर कही और जाना पड़े, यह बहुत कष्टदायी बात है।
यह भी पढ़ें…
संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘ग्लोबल ट्रेंड्स इन फोर्स्ड डिसप्लेसमेंट’ की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि सुरक्षा और मूलभूत सम्मान की तलाश में जो लोग अपने घर छोड़कर जबरन पलायन कर गए हैं उन आठ करोड़ लोगों में से 42 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 वर्ष से कम है। सन 2018 से 2020 के बीच लगभग 10 लाख बच्चे रिफ्यूजी के रूप में पैदा हुए हैं। एक नयी रिपोर्ट के अनुसार सन 2020 में 2.64 करोड़ लोग रिफ्यूजी के रूप में रहे थे, उनमें से दो-तिहाई लोग जो अपने देश छोड़कर पलायित हुए वे कुल पांच देशों (सीरिया, वेनुजुएला, अफगानिस्तान, साउथ सूडान, और म्यांमार) के निवासी थे। इनमें से कुछ लोग अपने देश के अंदर (इंटर्नली डिस्प्लेस्ड) ही विस्थापित हुए हैं जबकि कुछ लोग अपने देश से बाहर दूसरे देशों को। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ऐसा समय आया है जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अपने मूलनिवास से जबरन पलायित होना पड़ रहा है। विश्व में शांति और सद्भाव कायम कर युद्ध टालने के लिए बनाई गई अन्तराष्ट्रीय संस्थाएं अपने मकसद में असफल साबित हो रही हैं। दुनिया के कई समाजों और देशों पर आज यह सबसे बड़ा दबाव है कि पलायित लोगों की समस्याओं का समाधान हो और मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के लिए मूलभूत सुविधाओं तक उनकी पहुँच सुनिश्चित हो सके।
यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज (UNHCR) ने 18 जून, 2015 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि दुनिया की आबादी में प्रत्येक 122 आदमी में से एक आदमी शरणार्थी है या होने की तलाश में है। वैश्विक स्तर पर जबरन पलायन की तेज गति के कारण अब शरणार्थियों की संख्या ने पहले के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। इसका सबसे पहला कारण सीरिया में युद्ध का होना रहा है। यह संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी संस्था का अध्ययन है कि जबरन पलायित होकर शरणार्थी बनने वाले लोगों मे लगभग आधी संख्या बच्चों की है। विस्थापित लोगों के सहयोग के लिए दुनिया के देशों को सहयोग हेतु आगे आना चाहिए लेकिन ऐसा सहयोग और सद्भाव कम मिल पा रहा है। आंतरिक कलह और गृहयुद्ध के कारण सीरिया और सोमालिया से सर्वाधिक लोग विस्थापित हुए हैं। जबरन विस्थापित लोगों मे से 51 प्रतिशत लोग यूरोप के, मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के 19 प्रतिशत, सब-सहारन अफ्रीका से 17 प्रतिशत, एशिया से 31 प्रतिशत, अमेरिका से 12 प्रतिशत लोगों का योगदान है। इस क्षेत्र से हुए पलायन पर कुछ फिल्में बनी हैं जो निम्न प्रकार हैं –
विश्व सिनेमा ने विस्थापन और पलायन पर यादगार फ़िल्में दी हैं
बारान (2001) ईरान के प्रख्यात निर्देशक माजिद मजीदी ने ईरान में बसे अफगानिस्तानी शरणार्थियों की समस्या पर इस फिल्म का निर्माण किया है। ईरान की राजधानी तेहरान की एक निर्माणधीन बिल्डिंग में काम करने वाले किशोर लड़के लतीफ़ के मजदूरों में चाय और भोजन बांटने के दृश्य से फिल्म की शुरुआत होती है। उस साइट का सुपरवाइज़र मेमार है। लतीफ़ और अन्य मजदूरों के बीच आए दिन झगड़े होते रहते हैं। काम करने वाले मजदूरों में से ज्यादातर ईरान के अलग-अलग हिस्सों से हैं और खासकर अजरबेजान से हैं। अफगानिस्तान से पलायित होकर आए शरणार्थी भी उस निर्माणाधीन भवन पर काम करते हैं लेकिन पासपोर्ट और पहचान पत्र न होने के कारण उन्हें अवैध माना जाता है। श्रम विभाग के इंस्पेक्टर जब भी छापा मारते हैं इन अवैध मजदूरों को छुपना पड़ता है अन्यथा उनके मालिक और सुपरवाइज़र को दंडित होना पड़ सकता है। काम करते हुए एक दिन एक अफगानी मजदूर नजफ का पैर टूट जाता है। उसका दोस्त सुल्तान के 14 वर्षीय बेटे रहमत को काम पर लाता है। ठेकेदार रहमत को काम पर रख तो लेता है लेकिन उसके कम उम्र के कारण काम से हटा भी देता है। लतीफ़ के झगड़ालू स्वभाव के कारण मेमार उसे भी काम से हटा देता है और उसकी जगह रहमत को काम दे देता है। लतीफ़ अपना काम खोने और रहमत को दिए जाने के कारण उससे ईर्ष्या रखने लगता है और उसे नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है। लतीफ़, रहमत पर उसके काम पर आने-जाने पर खुफिया नजर रखने लगता है। इसी दौरान एक दिन उसे पता चल जाता है कि रहमत लड़का नहीं लड़की है जब वह चुपके से उसे बाल संवारते हुए देख लेता है। यह ज्ञात होने के बाद लतीफ़, रहमत के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने लगता है और धीरे-धीरे प्यार कर बैठता है। रहमत अपने रोजगार जाने, बीमार पिता और परिवार की चुनौतियों के कारण आरंभ मे कुछ भी रीएक्ट नहीं करता लेकिन बाद मे इशारों में और अपने कार्यों से प्रत्युत्तर देना शुरू करता है।
निर्माण स्थल ही फिल्म के सभी क्रियाकलापों का केंद्र बिन्दु है। एक दिन उस जगह श्रम इंस्पेक्टर का छापा पड़ता है और वे लोग रहमत के पीछे पड़ जाते हैं। लतीफ़ बीच में आकर उसे न केवल बचाता है बल्कि खुद पकड़ा जाता है। निर्माण स्थल का मैनेजर मेमार पेनाल्टी देकर लतीफ़ को इस शर्त पर छुड़ाता है कि वह सभी बाहरी और अवैध मजदूरों को अपने यहाँ काम से हटा देगा। मेमार एक रहमदिल इंसान है वह नजफ का पैर टूटने पर उसके बच्चे को काम देता है। अफगानी शरणार्थियों को काम देता है और लेबर विभाग से बचाता भी है। निर्माणधीन बिल्डिंग के बालू, सीमेंट, शोर और पसीने के बीच भी दो मजदूर बच्चों के बीच प्यार की कोमल भावना जन्म लेती है।
लेबर इंस्पेक्टर के छापे के बाद रहमत काम पर आना छोड़ देता है और उसकी अनुपस्थिति लतीफ़ को बेचैन करती है। वह रहमत का पता लगाने के लिए रिफ्यूजी कैंप की तरफ जाता है। वहाँ एक कब्रितान के पास लतीफ़ एक महिला की वेशभूषा में रहमत को देखता है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और रहमत वह जगह छोड़कर चली जाती है। अगले दिन लतीफ़ खोजते हुए यह पाता है कि रहमत नदी के किनारे दूसरे कार्यस्थल बेमन से अन्य महिलाओं के समूह के साथ काम कर रही है जो भारी पत्थर ढोने का काम है। लतीफ़ और रहमत के बीच महत्वपूर्ण कड़ी सोलतान है जो रहमत के पिता नजफ का दोस्त है। लतीफ़ किसी भी तरह रहमत और उसके बीमार पिता की मदद करना चाहता है। सोलतान के माध्यम से वह अपने मजदूरी के रुपये रहमत के पास भेजता रहता है। प्यार ईर्ष्या को मोहब्बत में बदल सकता है, द्वेष रखने वाले आदमी को एक रहमदिल इंसान में बदल सकता है।
एक उत्कृष्ट साहित्यिक और सिनेमाई कृति का यही योगदान होता है कि वह इंसान और समाज को संवेदनशील व बेहतर बनाए। एक दिन सुल्तान और लतीफ़ मस्जिद पर मिलने का वादा कर लौटते हैं लेकिन वहाँ अगले दिन केवल नजफ मिलता है जो लतीफ़ को सुल्तान के अफगानिस्तान लौट जाने की बात बताता है। लतीफ़ के दिए हुए पैसे सुल्तान जब नजफ को देना चाहता है तो वह लेने से मन कर देता है और अपने साथ अफगानिस्तान ले जाने की सलाह देता है ताकि उसे जरूरत पर काम आए। रहमत की एक झलक पाने के लिए किसी ने किसी बहाने लतीफ़ अफगानियों के टेंट की तरफ जाता रहता है। वहीं उसे पता चलता है कि रहमत का असली नाम बारान है और उसके पिता भी वापस अफगानिस्तान जाना चाहते हैं क्योंकि उनके परिवार मे कुछ गंभीर समस्याएं आ रही हैं। जबरन पलायन के शिकार होकर रोजगार की तलाश में ईरान आए अफगानियों की अनगिनत मुश्किलें हैं उनके छोटे बच्चों (14 साल की रहमत उर्फ बारान) तक को भारी पत्थर उठाने जैसे काम करने पड़ते हैं। लतीफ़, नजफ और उसकी बेटी बारान की मदद करना चाहता है। रहमत अपने ठेकेदार मेमार से अपने बकाया मजदूरी के पैसे मांगता है जो बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। बारान की मदद के लिए वह अपना आइडेंटिटी कार्ड भी बेच देता है। मेमार के नाम के बहाने से लतीफ़ अपने पैसे नजफ को देता है ताकि वे वापस अफगानिस्तान जा सकें। नजफ अपने वतन जाने के लिए जीप पर अपना सामान लोड कर रहा होता है उस समय लतीफ़ और बारान आमने-सामने होते हैं और एक-दूसरे के लिए प्रेम की भावनाएं इशारों-इशारों में प्रकट करते हैं। उस समय बारिश हो रही थी, बारान शब्द का मतलब बारिश होती है। बारिश से गीली हुई जमीन में बारान के जूते फंस जाते हैं। लतीफ उन जूतों को मिट्टी से निकाल कर बारान के पैरों में पहनाता है। जीप बारान को लेकर चली जाती है। लतीफ़ बारिश के बूंदों से जूतों के बने निशान को धुलते हुए देखता है और मुसकराता है। यह फिल्म का अंतिम दृश्य है जुदाई का समय है लेकिन दो प्रेमी दिलों की सहमति के कारण संतुष्टि का भाव है। मुश्किलों के बीच प्यार के पल किस तरह मनोरम दृश्य रचते हैं उसका बेहतरीन उदाहरण है यह फिल्म। माजिद मजीदी ने प्रवास, गरीबी, बेरोजगारी, पहचान की समस्या जैसे मुद्दों को समेटते हुए एक प्रेम कहानी को जिस उदात्तता से परदे पर उतारा है वह महाकाव्यात्मक बना देता है।
अंडर द बॉम्बस (Under the Bombs 2007) युद्ध से प्रभावित लेबनान देश की कहानी है। इस फिल्म को हमने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्ट एण्ड एस्टेथेटिक विभाग के सभागार में सन 2007 में ही देखा था। फिल्म की नायिका जेइना नसरुएडडी (Zeina Nasrueddi- Nada Abu Farhat) एक समृद्ध लेबनानी मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखती है और दुबई में अपने आर्किटेक्ट पति और बेटे करीम के साथ रहती है। वैवाहिक जीवन मे कुछ समस्याएं आने पर वह अपने बेटे को अपनी बहन माहा के पास लेबनान में भेज देती है। सन 2006 मे जब लेबनान युद्ध शुरू हुआ था और जेइना टर्की से होते हुए बेरूत की यात्रा करती है ताकि वह अपने बेटे तक पहुँच सके। वह एक लेबनानी क्रिश्चियन टैक्सी ड्राइवर टोनी (जार्ज खब्बाज) को किराये पर लेती है ताकि वह दक्षिणी लेबनान पहुँच सके। अपने बेटे करीम और बहन माहा की खोज के क्रम में जेइना और जार्ज दोनों युद्ध से तहस-नहस हुए देश को देखते हैं और एक-दूसरे की निजी ज़िंदगी के बारे में भी जानते हैं। टैक्सी ड्राइवर टोनी जार्ज यह बताता है कि उसका भाई दक्षिणी लेबनान में रहता था लेकिन अभी वह निर्वासन (exile) पर इजराइल में रहता है। इस फिल्म को ध्यान से देखिए उसके एक-एक दृश्य को पढ़िए जिससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध एक देश के नागरिकों के जीवन में किस कदर तबाही लाता है। युद्ध के कारण देश के नागरिकों को पड़ोसी देशों मे पनाह लेनी पड़ती है जहां उनके कोई अधिकार नहीं होते बस उपकार और दया मिलती है।
दुनिया ने नादिया मुराद और यजिदी धार्मिक समुदाय के बारे मे तब जाना जब उन्हें सन 2018 में नोबेल पुरस्कार मिला। उनके संघर्षमय जीवन पर आलेक्जेंडरिया बंबाक ने ऑन हर शोल्डर्स (2018) नाम से एक डाक्यूमेंट्री बनाई। सन 2014 में आईएसआईएस के आतंकवादियों ने नादिया (19 वर्ष) के गाँव के सभी लोगों का अपहरण करके आदमियों और बूढ़ी औरतों का सामूहिक कत्ल कर दिया, क्योंकि वे इस्लाम कबूलने को तैयार नहीं थे। बच्चियों और नौजवान लड़कियों को सेक्स स्लेव बनाने के लिए अपने साथ सीरिया तक ले गए। यह फिल्म नादिया के सेक्स स्लेव बनाने वाले लोगों के चंगुल से भागने और उत्पीड़न के शिकार अपने याजीदी समुदाय के लोगों को न्याय और कनाडा जैसे देशों में शरण दिलाने के लिए किए गए प्रयासों और आंदोलनों पर केंद्रित है। इस क्रम में नादिया ने बर्लिन, न्यूयॉर्क और कनाडा की यात्राएं की। वे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और पत्रकारों से मिलीं और अपने व अपने समुदाय के साथ हुए भयानक हिंसा तथा शोषण को हर मंच पर उठाया। इस वृतचित्र में बराक ओबामा, बान की-मून, मुराद इसमाइल, साइमन मोनसेबीयन, मिशेल रेमपेल बोरीस वरजेसनेवसकई, अहमद खुदीदा बुरजूस, अमल कलूनी और लुईस मोरेनो, ऑकम्पो को भी शामिल किया गया है।
एक 19 साल की लड़की का अपहरण करके उसे सेक्स स्लेव बना दिया जाता है जिससे आईएसआईएस के आतंकवादी बार-बार रेप करते हैं, जबरन धर्म परिवर्तन कराते हैं। वह किसी तरह एक भले आदमी के परिवार की मदद से अपने लोगों के बीच पहुँचती है। अपने शोषण की कहानी को विश्वस्तर के मंचों तक ले जाती है। वह अपने आत्मकथा द लास्ट गर्ल के अंतिम पंक्तियों में कामना करती हैं कि जैसी यातना भरा दर्दनाक जीवन उन्हें जीना पड़ा किसी और लड़की को न जीना पड़े।
every Yazidi wants ISIS prosecuted for genocide, …I wanted to look the men who raped me in the eye and see them brought to justice. More than anything else, I said, I want to be the last girl in the world with a story like mine- Murad (2017:306)
जबरन पलायन और उसके परिणाम
जबरन प्रवास एक कटु सच्चाई है। दुनिया भर के अल्पसंख्यक और कमजोर समुदायों को नृजातीय भिन्नताओं के कारण हुए संघर्ष और हिंसा के कारण अपनी मातृभूमि से पलायन करना पड़ता है। भारत में वर्ष 2022 में बनी हिन्दी फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने कश्मीरी पंडितों के जबरन पलायन के मुद्दे को उठाया। धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत बने भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के कारण दो समुदायों में अक्सर टकराव की स्थितियाँ बनती हैं। यहाँ यह जिक्र करना समीचीन होगा कि म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमान पलायित होकर बांग्लादेश और भारत के कई प्रदेशो में बस चुके हैं। श्रीलंका से श्रीलंकन तमिल लोग पलायित कर तमिलनाडु में बसे हैं। तमिलनाडु में बसे रोहिंग्या और श्रीलंकन तमिल समुदायों के जीवन पर राधाकृष्णन, एमिली डे विट और बन्डर्स ने पाक्षिक पत्रिका फ्रन्टलाइन में 8 अप्रैल, 2022 को एक रिपोर्ट लिखी है। वे लिखते हैं कि इन दोनों समुदायों ने बहुत हद तक स्थानीय स्तर पर अपने को एकीकृत कर लिया है और जीवन की मूलभूत जरूरतों तक उनकी पहुँच है। स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इतना अवश्य है कि वे राज्य सरकार से आपनी जरूरतों के लिए आवेदन या शिकायत नहीं कर सकते तथा राजनीतिक जीवन में भाग नहीं ले सकते। अपने देश से मजबूरी में जबरन प्रवासित होकर किसी अन्य देश में बसने का यही दुखद पक्ष है कि वहाँ आपको अधिकार नहीं मिलते बल्कि दया व उपकार के भाव से कुछ सुविधायें मिलती हैं। प्रवासियों की समस्याओं का समाधान निकालना नीति निर्माताओं के लिए भी आसान नहीं होता।
अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…
विश्व के अबतक के ज्ञात इतिहास में समुदायों के बीच आपसी घृणा और हिंसा के प्रमाण मिलते है। हिंसा और अत्याचार के कारण कमजोर समुदायों को पलायित होने को बाध्य होना पड़ता है। वर्तमान हालात देखकर हम यह उम्मीद नहीं लगा सकते कि यह सब भविष्य में बंद भी हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावित लोगों के मदद का प्रयास अपने निर्धारित प्रोटोकाल के तहत करती हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं होते। एजर और स्ट्रांग (2008) ने प्रवासी समुदायों के एकीकरण का एक चार सूत्रीय फार्मूला प्रस्तुत किया था जो इस प्रकार है: 1. रोजगार, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुँच 2. नागरिकता और अधिकार 3. समुदाय के भीतर स्थित समूहों के बीच आपसे जुड़ाव 4. भाषा, संस्कृति और स्थानीय पर्यावरण जैसे संरचनात्मक बाधाओं से मुक्ति। अपने जड़ों से दूर रहने वाले प्रवासी समुदायों को स्थानीय समुदाय के साथ जोड़ने और एकीकृत करने के लिए इस मॉडल द्वारा सुझाए गए उपाय महत्वपूर्ण हैं।
Reference
Francais (2015) Worldwide displacement hits all-time high as war and persecution increase, in unhcr.org on 18 June 2015.
Ghosh, Bhanupriya and Sarkar, Bhaskar (1995) the cinema of displacement: towards a politically motivated poetics, in film criticism fall/winter 1995-96, vol. 20, No. ½ special double issue on new film theory, pp102-113.
Gurnah, Abdulrazak (1994) Paradise, The New Press, New York.
महत्वपूर्ण, सुविचारित और जरूरी आलेख। बधाई राकेश कबीर जी।
बहुत ही बढ़िया लेख ,
शायद प्राकृतिक असन्तुलन भी एक बहुत बड़ा कारण है।
बधाई हो,
विश्व की गंभीरतम समस्याओं में से एक पलायन/प्रवसन पर केंद्रित गंभीर और पठनीय आलेख। राकेश जी आपने बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
फिल्म की कहानियों का चित्रण इतनी बारीकी से आपने किया है जरूर आप ने फिल्म देखी होगी कहानियों के पीछे का दर्द सुनकर दिल कहां पड़ता है।
कभी मजहबी तो कभी राष्ट्रीय स्वार्थ के हितों के कारण कुछ वर्ग व संप्रदाय विशेष को बड़ी यातना सहनी पड़ती है।
ऐसा लगता नहीं कि हम लोग 21वी सदी में जी रहे हैं ।
यह सब फिल्में हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम लोग वास्तविक रुप से मनुष्यता के पायदान पर आगे बढ़ रहे हैं या फिसल रहे हैं।
फिल्म की कहानियों का चित्रण इतनी बारीकी से आपने किया है जरूर आप ने फिल्म देखी होगी कहानियों के पीछे का दर्द सुनकर दिल कहां पड़ता है।
कभी मजहबी तो कभी राष्ट्रीय स्वार्थ के हितों के कारण कुछ वर्ग व संप्रदाय विशेष को बड़ी यातना सहनी पड़ती है।
ऐसा लगता नहीं कि हम लोग 21वी सदी में जी रहे हैं ।
यह सब फिल्में हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम लोग वास्तविक रुप से मनुष्यता के पायदान पर आगे बढ़ रहे हैं या फिसल रहे हैं।
निर्वसन वास्तव में मानवता पर एक कलंक जैसा है,
अनेक अमानवीय कृत्यों व्यवहारों के कारण पलायन हो रहा है। यह लेख उसी से रूबरू करा रहा है।
गम्भीर और जरूरी विश्लेषण।
पलायन के वजह से उत्पन्न हुई मानवीय त्रासदी का चित्रण वैश्विक सिनेमा के माध्यम से समझना काफी दिलचस्प है, युद्ध हिंसा आतंकवाद के वजह से उपजी परिस्थितियों , की वजह से दुनिया भर में लगातार चल रहे पलायन एवं उससे उत्पन्न हुई भावनात्मक एवं मानवीय त्रासदी के बारे में सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण विश्लेषण किया गया है
अविस्मरणीय…….बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
???????