Friday, April 19, 2024
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सताये गए लोगों की लंबी चीख है फिल्म ‘जय भीम’ 

कुछ महीने पहले दक्षिण भारत से रिलीज हुई फिल्म जय भीम चर्चा और विवादों के केंद्र में रही। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है कि इस फिल्म का नाम बाबा साहब डॉ अंबेडकर के लिए प्रचलित अभिवादन जय भीम के नाम पर रखा गया है। लेकिन अनेक दलित बुद्धिजीवियों ने इस बात पर अपना […]

कुछ महीने पहले दक्षिण भारत से रिलीज हुई फिल्म जय भीम चर्चा और विवादों के केंद्र में रही। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है कि इस फिल्म का नाम बाबा साहब डॉ अंबेडकर के लिए प्रचलित अभिवादन जय भीम के नाम पर रखा गया है। लेकिन अनेक दलित बुद्धिजीवियों ने इस बात पर अपना विरोध जताया कि यह फिल्म अंबेडकरवादी नहीं है।
लेकिन भारत के ढेरों बुद्धिजीवियों ने इस फिल्म का खुले मन से स्वागत किया। फिल्म रसिकों ने बहुत शिद्दत से उसे देखा और अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं। मुझे इस फिल्म ने बुरी तरह झकझोरा। आदिवासी उत्पीड़न की ऐसी फिल्म जो रीढ़ में कंपन और मन में करुणा पैदा कर देती है। हिंसा से भरे दृश्यों वाली दक्षिण भारतीय अथवा आम मुंबइया फिल्मों के उलट इसमें दिखाई गई हिंसा अलग लग रही थी। मानो सचमुच आदिवासियों के साथ अत्याचार किया जा रहा हो। हो सकता है इसके पीछे फिल्म में सताये जा रहे लोगों में किसी स्टार चेहरे का न होना हो।
बेशक यह फिल्म भी स्टार वैल्यू के कारण चर्चा में आई। तमिल फिल्मों के चर्चित अभिनेता सूर्या शिवकुमार फिल्म के केंद्र में हैं जिन्होंने वकील चंद्रू की भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि चंद्रू मद्रास हाईकोर्ट में न्यायाधीश थे। यह उनके जीवन के उन प्रारम्भिक दिनों की एक सच्ची घटना पर आधारित है, जब वे वकालत करते थे।
फिल्म का मुख्य विचार बंदी-प्रत्यक्षीकरण कानून है। इसी कानून को लेकर पूरा ताना-बाना बुना गया है। बंदी-प्रत्यक्षीकरण एक ऐसा कानून है जिसे फिल्म के सरकारी वकील की भाषा में अदालत का वक्त जाया करने वाला कानून कहा जाता है लेकिन नायक चंद्रू के लिए यह कानून हजारों ऐसी ज़िंदगियों की मुक्ति का माध्यम बन गया जो अवैध तरीके से हिरासत में लिए गए और मार डाले गए लेकिन पुलिस दस्तावेज़ों में उन्हें फ़रार या भगोड़ा घोषित कर दिया गया। इस प्रकार यह फिल्म भारतीय पुलिस व्यवस्था को एक नए ढंग से चिन्हांकित करती है।
सच्ची घटना पर आधारित फिल्म 
जय भीम फिल्म लेखक व निदेशक टी जे ज्ञानवेल द्वारा निर्देशित इरुलर जाति के आदिवासी समुदाय के लोगों पर पुलिस और प्रशासन द्वारा अत्याचार एवं शोषण के मामले पर आधारित है। यह फिल्म 1993 की एक सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें कई आदिवासियों को चोरी के मामले में झूठे मुकदमे में फंसाकर गिरफ्तार किया गया। उसमें से कई लोगों को गायब कर दिया गया। उनकी पुलिस हिरासत में लाठी-डंडों से बहुत पिटाई हुई, उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गई।
उनमें से कुछ लोग बाद में पड़ोसी राज्य की मिले किंतु राजा कन्नू नाम का एक आदिवासी नहीं मिला क्योंकि पुलिस हिरासत में उसे मार दिया गया था। उनकी पत्नी संगई (संगिनी) को भी बहुत मारा-पीटा गया। यह केस मद्रास हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस चंद्रा ने अपनी वकालत के दौरान लड़ा, जिसका फैसला मद्रास हाईकोर्ट से वर्ष 2006 में आया था।
यह एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, इस पर लिखते हुये वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश इसे वास्तविक कथा की पुनर्रचना बताते हैं। यह फिल्म तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को भी खूब पसंद आई। इस फिल्म पर काफी विवाद भी रहा। इसके बावजूद यह फिल्म अपने ढंग की नई फिल्म है, जो पारंपरिक फिल्मों से काफी अलग है।
मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ 
बॉलीवुड परंपरा से विपरीत यह मानवतावादी किस्म की फिल्म है। यह फिल्म गैर-बराबरी और वर्णवादी व्यवस्था के ऊपर करारा तमाचा भी है। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद कई लोग भीतर से बुरी तरह से बौखला और तिलमिला गए। भारतीय जनता पार्टी के नेता अमर प्रसाद रेड्डी गृहमंत्री अमित शाह को टैग करते हुए ट्विटर पर लिखते हैं कि ‘जय भीम फिल्म को फौरन बैन किया जाना चाहिए। मुझे यकीन है कि किसी ने भी इतनी घटिया फिल्म नहीं देखी होगी। जो हमारी पुलिस को खून पीने वाली अत्याचारी के रूप में दिखाती है।’
वहीं प्रसिद्ध पत्रकार दिलीप मंडल बॉलीवुड पर तंज करते हुए इस फिल्म के बारे में लिखते हैं कि ‘अगर जय भीम फिल्म बॉलीवुड में बनती तो टीचर मैडम और वकील चंद्रू का इश्क जरूर होता और दोनों पेड़ के चारों ओर घूम घूमकर नाचते। आखिरी सीन में वकील चंद्रू थाने में घुसकर दो दर्जन पुलिस वालों को अकेले पीटता।’
प्रख्यात अभिनेता कमल हसन ने भी इस फिल्म की जमकर तारीफ की। सोशल मीडिया पर एक बवाल और देखने को मिला। एक गवाह को हिंदी में बोलने पर प्रकाश राज द्वारा उस व्यक्ति को थप्पड़ मारने पर उनकी खूब आलोचना हुई। जिसके जवाब में प्रकाश राज ने स्पष्ट किया कि कि जय भीम फिल्म देखने के बाद, लोगों को आदिवासियों की पीड़ा नहीं दिखी, उनके अन्याय के बारे में नहीं दिखा और न ही उनकी समस्या महसूस हुई लेकिन उन्होंने देखा तो सिर्फ फिल्म में एक थप्पड़। उन्हें बस इतना ही समझ में आया।
आगे उन्होंने कहा कि ‘ऐसे विवादों पर रिएक्ट करने का कोई मतलब नहीं है। कुछ लोगों को थप्पड़ वाले सीन ने परेशान कर दिया है क्योंकि स्क्रीन पर प्रकाश राज था। ऐसे लोग अब से ज्यादा नग्न दिखाई देते हैं, क्योंकि उनकी सोच सामने आ गई है। अगर आदिवासी लोगों का दर्द उन्हें झकझोर नहीं पाया तो ऐसे कट्टरपंथियों पर रियेक्ट करने का कोई मतलब नहीं है’।

फिल्म का एक दृश्य

मंजे हुये अभिनेता, जानदार अभिनय और विकट यथार्थ 
कुछ लोगों को यह फिल्म पसंद क्यों नहीं आई यह तो मुझे नहीं पता किंतु मुझे बहुत पसंद आई। मैं फिल्में बहुत कम देखता हूं लेकिन इस तरह की फिल्म आती है तो उसे कई बार देखता हूं। इस फिल्म में चंद्रू के रूप में सूर्या और संगिनी के रूप में लिजोमोल जोस, शिक्षक मिथ्रा के रूप में राजिशा विजयन, राजकन्नू के रुप में के. मणिकंदन तथा इंस्पेक्टर पेरुमलसामी के रूप में प्रकाश राज का किरदार बहुत शानदार है।
यह फिल्म एक आदिवासी समुदाय के बीच की कथा है जिनके पास वोटर कार्ड तक नहीं है। शिक्षा और रोजगार का कोई  साधन नहीं है। इस फिल्म की शुरुआत मुसहर जनजाति द्वारा चूहे और विषैले सांप पकड़ने से होती है। जो चूहे को पकड़ कर खा जाते हैं और सांप को जंगल में छोड़ आते हैं। इसी से जो कुछ मिल जाता उससे उनका खर्चा चलता।
इसी तरह एक गांव के एक घर में सांप पकड़ने गए एक आदिवासी राजा कन्नू पर गांव के सरपंच की बीवी द्वारा गहने की चोरी का आरोप लगा दिया जाता है, फिर वे लोग उसके ऊपर झूठे झूठे मुकदमे दायर कर पुलिस के हवाले कर देते हैं। चोरी को सुलझाने का दबाव पड़ने पर निर्दोष लोगों की पुलिस द्वारा बेरहमी से पिटाई की जाती है और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं।
इस फिल्म में जेल से छूटे हुए लोगों की जाति पूछकर एक विशेष समुदाय के लोगों को टारगेट किया गया है। तथा उन्हें दूसरे केस में फँसाकर जेल में भर दिया जाता है। अचानक एक दिन पुलिस हिरासत में तीन लोगों के लापता होने की खबर आती है। लापता लोगों में एक की पत्नी गर्भवती है। वह अपने पति को खोजते हुए वकील चंद्रू के पास पहुंच जाती है।
चंद्रू के लिए कानून ही सबसे बड़ा हथियार है। आदिवासियों की हक और अधिकार के लिए चंद्रू सड़क से लेकर अदालत तक लड़ते हुए दिखाई देते हैं। चंद्रू के कानूनी लड़ाई से थाने से लेकर पुलिस महानिदेशक तक के पसीने छूट जाते हैं। पीड़ित को खरीदने की कई बार कोशिश होती है। वकील चंद्रू पर तमाम प्रकार के दबाव बनाये जाते हैं किंतु वकील चंद्रू एक रुपया लिए बिना अपनी लड़ाई जारी रखते हैं।
इसके लिए वे केरल तक छानबीन करने पहुंच जाते हैं। उनके संघर्ष से एमपी को भी अपनी सीट बचाने की चिंता होने लगती है। अंततः चंद्रू कानून के बल पर मुकदमे में जीत हासिल करते हैं। वकील चंद्रू न सिर्फ लेनिन, मार्क्स और अंबेडकरवादी विचारधारा को लेकर चलने वाले हैं बल्कि वे मानवतावाद के सच्चे हिमायती हैं।
इस फिल्म में जोश (संगिनी) का किरदार काफी अहम है। थाने में अपने पति को खाना देने गई जोश के सामने उसके पति की बेरहमी से पिटाई करना, उसे निर्वस्त्र कर देना या तिराहे पर से उसकी बेटी को पुलिस द्वारा उठा लिए जाने पर उसकी चीत्कार, पुलिस द्वारा उसके गाल पर थप्पड़ मारकर मुकदमा वापस लेने की धमकी देना दर्शकों को भीतर तक सिहरा देता है। यहाँ संगिनी आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हुई दिखाई देती है।उसकी हिम्मत और धैर्य को सलाम किया जाना चाहिए।

फिल्म के एक दृश्य में नायक सूर्या शिवकुमार

यह फिल्म आज के परिवेश के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राजा कन्नू की तरह ऐसे अनेक दलित आदिवासी एवं पिछड़े बेगुनाहों को झूठे मुकदमे में फंसा कर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है और उनके साथ अनेक प्रकार की अमानवीय यातनाएं दी जाती है। थानों में ऐसे बहुत से मामले हैं जिनमें गुनाह साबित होने से पहले ही आरोपी की जेल में हत्या कर दी गई। जय भीम फिल्म उनके न्याय और अस्मिता की लड़ाई है।
सवाल फिर भी शेष हैं 
जय भीम की आलोचना केवल भाववादी नज़रिये से उसके साथ न्याय नहीं हो सकता। वह सामाजिक रूप से बहिष्कृत, उपेक्षित, गरीब लेकिन मेहनत करके अच्छे जीवन का सपना देखने वाले लेकिन अपने ऐन पड़ोस के सम्पन्न लोगों की दुरभिसंधियों का शिकार होकर बर्बाद कर दिये जानेवाले समुदाय का सवाल उठाती है। वह सामाजिक व्यवस्था के साथ ही सत्ता-प्रतिष्ठानों के जनविरोधी रवैये को व्यापक दर्शकों के सामने लाती है।
देश की ऐसी बीस करोड़ आबादी के जीवन और सम्मान के सवाल के प्रति साधारण भारतीय मानस की संवेदनहीनता के साथ ही साधन सम्पन्न लोगों के हर धतकर्म और कुकर्म को यह फिल्म हमारे सामने रखती है। मैं कह सकता हूँ कि पूरी फिल्म चारों तरफ फैली भ्रष्ट व्यवस्था के सताये गए लोगों की लंबी चीख है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को देर तक विचलित रख सकती है।

एक दृश्य में सूर्या और रजिशा विजयन

यह हालिया वर्षों में दक्षिण भारत में बनी उन कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों की शृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी है जो जाति व्यवस्था पर करारा तमाचा तो मारती ही है , उस पर गंभीर विमर्श की जरूरत भी पैदा करती है।
इसके साथ ही कह सकता हूँ कि कानून और संविधान पर भरोसा पैदा करने वाली यह फिल्म भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था के बरक्स केवल तीन पुलिस वालों को दंडित करने तक सीमित हो जाती है जबकि सबसे बड़ा अधिकारी विभाग को बदनामी से बचाने के लिए इंसानियत और न्याय से बिलकुल पतित हो जाता है।
कथाकार रामजी यादव इसे ‘अंतर्विरोधों से भरी फिल्म बताते हैं जो एक तरफ वंचितों के संघर्ष के लिए एक व्यक्ति के साहस और सरोकार को मानक बनाती है तो दूसरी तरफ सड़ी-गली सामंती और पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था में  क्रांतिकारी परिवर्तन की वकालत नहीं करती। हृदयविदारक दृश्यों वाली यह फिल्म  इसी सिस्टम को धो-पोंछकर चमकीला बना देती है और अंततः पीड़ित को मुआवजे की फिल्म बनकर रह जाती है।’
दीपक शर्मा युवा कवि-कहानीकार और प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं। 
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