Thursday, March 28, 2024
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इस देश काे ऐसे बनाया जा रहा है कंगाल (डायरी 13 दिसंबर, 2021) 

कभी-कभी बचपन बहुत याद आता है। वजह यह कि रुपये-पैसे की कोई चिंता नहीं होती थी। आज के जैसे नहीं कि जितना भी अर्जन हो, कम ही पड़ता है। बचपन में ऐसा नहीं था। तब जब मैं सरस्वती ज्ञान निकेतन, ब्रहम्पुर (अपने गांव) में नर्सरी का छात्र था, मां से कभी चार आना मिलता तो […]

कभी-कभी बचपन बहुत याद आता है। वजह यह कि रुपये-पैसे की कोई चिंता नहीं होती थी। आज के जैसे नहीं कि जितना भी अर्जन हो, कम ही पड़ता है। बचपन में ऐसा नहीं था। तब जब मैं सरस्वती ज्ञान निकेतन, ब्रहम्पुर (अपने गांव) में नर्सरी का छात्र था, मां से कभी चार आना मिलता तो कभी आठ आना। एक रुपैया का सिक्का तो बहुत मुश्किल से और वह भी तब जब पापा को वेतन मिलता और उनका मूड ठीक रहता था। उनकी धोकड़ी (जेब) में जो भी सिक्का होता, वे हमारे हवाले कर देते। उन दिनों एक रुपये का नोट भी खूब चलन में रहता था। मुझे सिक्का से अधिक नोट अच्छा लगता था। दो रुपए के नोटों से वास्ता तब पड़ा जब नक्षत्र मालाकार हाईस्कूल, बेऊर, पटना का छात्र बना।

नोटों में दो जानकारियां अच्छी लगती थीं। एक तो यह कि उसमें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की ओर से अच्छे ग्राफिक्स होते थे और दूसरी यह कि उसमें लिखा होता था– मैं धारक को दो रुपये अदा करने का वचन देता हूं। और इसके नीचे आरबीआई के गर्वनर का हस्ताक्षर होता था।

तब मैं यह सोचता था कि यह लिखा क्या गया है और क्यों लिखा गया है। एक बार इस सवाल ने बहुत परेशान किया तो मैथ पढ़ानेवाले अपने शिक्षक अजीत सर से पूछा। उन्होंने कहा कि आरबीआई ही रुपए और सिक्कों का असली मालिक है। मालिक का मतलब क्या? फिर यह कि यह लिखने की आवश्यकता क्यों है कि ‘मैं धारक को दो रुपये अदा करने का वचन देता हूं’?

जवाब नहीं मिला। रहते-सहते यह सवाल भी जेहन से गायब हो गया। पत्रकारिता के प्रारंभिक दौर में यह सवाल एक बार फिर जेहन में तब आया जब पटना से प्रकाशित दैनिक आज के स्थानीय संपादक दीपक पांडे सर ने मुझे वित्त विभाग मेरे बीट में शामिल कर दिया। तब मैं विधान मंडल की कार्यवाहियों की रिपोर्टिंग भी करता था। उन दिनों ही वर्ष 2011 में बजट सत्र के दौरान बजट की रिपोर्टिंग के दौरान यह बात समझ में आयी कि बिहार सरकार को रुपया आता कहां से है और जाता कहां है। योजना मद और गैर-योजना मद में व्यय का मतलब क्या है? योजना आकार की परिभाषा क्या है और इसके राजनीतिक मायने क्या हैं?

तब जब इन बातों से मेरा परिचय हो रहा था तब सवाल जेहन में फिर आया कि नोटों पर ऐसा क्यों लिखा होता है कि– ‘मैं धारक को दो रुपये अदा करने का वचन देता हूं’। इस बार जवाब खुद तलाशा और आरबीआई की अस्तियाें के बारे में जानकारी मिली। फिर तो अर्थव्यवस्था की रहस्यमयी दुनिया से मेरा परिचय हुआ। मुद्रास्फीति की दर, रेपो दर और सकल घरेलू उत्पाद आदि भी तब बहुत दिलचस्प थे।

खैर, बीते दिनों नोटों पर वचन देने संबंधी बात लिखे जाने का सवाल मेरे बेटे ने पूछा। अब उसकी उम्र छह साल की है तो उसे सीधे-सीधे समझाना बहुत मुश्किल है। लेकिन जवाब नहीं देता तो वह निराश हो जाता और यह मुमकिन था कि वह सवाल पूछना ही छोड़ देता। जबकि मैं तो उसके अंदर अनंत सवालों को देखना चाहता हूं। तो मैंने उसे कागज पर पांच रुपए का सामान देने संबंधी बात लिखकर एक दुकानदार के पास भेजा। उस दुकानदार ने कागज देखकर मेरे बेटे को पांच रुपए के मूल्य का मनचाहा सामान दे दिया।

[bs-quote quote=”मैं बैंकों से संबंधित एक कानून को देख रहा हूं। यह कानून 1960 में बना था। तब यह तय किया गया था कि भारत सरकार बैंकों में जमा जनता की संपत्तियों की गारंटी सुनिश्चित करेगी। लेकिन तब शायद इसकी सीमा 60 हजार रुपए थी। इस अधिकतम सीमा को अब बढ़ाकर 5 लाख रुपए कर दी गयी है। नरेंद मोदी सरकार का दावा है कि इसके पहले यह सीमा केवल एक लाख रुपए थी। कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस संबंध में बयान दिया है कि भारत में हर अब हर जमाकर्ता की संपत्ति सुरक्षित है। बैंकों के दिवालिया होने पर भारत सरकार अधिकतम पांच लाख रुपए की गारंटी लेगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

वह जब लौटकर आया तो मैंने कहा कि जैसे मैं उसका पिता हूं और उसका सारा खर्च वहन करता हूं और मेरे लिखे कागज के आधार पर उसने पांच रुपए का सामान उस दुकानदार से खरीदा है, वैसे ही भारत सरकार की संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया है। वह भी यही करता है। वह एक नियामक संस्थान है।

अब आज के मुद्दे की बात। मैं बैंकों से संबंधित एक कानून को देख रहा हूं। यह कानून 1960 में बना था। तब यह तय किया गया था कि भारत सरकार बैंकों में जमा जनता की संपत्तियों की गारंटी सुनिश्चित करेगी। लेकिन तब शायद इसकी सीमा 60 हजार रुपए थी। इस अधिकतम सीमा को अब बढ़ाकर 5 लाख रुपए कर दी गयी है। नरेंद मोदी सरकार का दावा है कि इसके पहले यह सीमा केवल एक लाख रुपए थी। कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस संबंध में बयान दिया है कि भारत में हर अब हर जमाकर्ता की संपत्ति सुरक्षित है। बैंकों के दिवालिया होने पर भारत सरकार अधिकतम पांच लाख रुपए की गारंटी लेगी।

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मतलब यह कि आप चाहें तो बैंकों में चाहे कितनी भी धनराशि जमा कर लें, सरकार आपको पांच लाख से अधिक की गारंटी नहीं दे सकती है। अब यह आपकी किस्मत पर निर्भर करता है कि आप जिस बैंक में अपनी गाढ़ी कमाई की बचत जमा करते हैं, वह बरकरार रहती है या फिर कंगाल हो जाएंगे।

यह एक अलग तरह का आर्थिक सामंतवाद है। एक तो दलित-बहुजन जिनकी आबादी में हिस्सेदान अनुमानित तौर पर 85 फीसदी है, बैंकों के प्रति उनकी समझदारी बढ़ी है। वे अपनी मेहनत की कमाई बैंकों में रखना अधिक सुरक्षित मानते हैं। यह इसलिए कि जीवन के हर क्षेत्र में ये शोषित हस्तक्षेप कर रहे हैं और उनके पास भी वित्त की पहुंच हुई है, बैंकों में जमाराशि के विरुद्ध अदायगी की सीमा को कम कर दिया है।

मुझे लगता है कि ऐसा केवल और केवल दलित-बहुजनों के कारण ही किया गया है। वर्ना यदि वे अर्थ से दूर होते तो नरेंद्र मोदी हुकूमत को ऐसा करने की जरूरत ही नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे यह पहले थी। दूसरी वजह यह कि इन दिनों भारतीय वित्त संस्थाएं अपना साख खोती जा रही हैं। यह बाजार पर खास वर्ग के कब्जे की अघोषित नीतियों का परिणाम है। लेकिन कमाल यह कि नरेंद्र मोदी इसे भी अपनी कामयाबी के रूप में प्रचाारित करते फिर रहे हैं।

सचमुच नरेंद्र मोदी इस देश के लोगों को बेवकूफ ही समझते हैं।

एक खबर और है जो कि नरेंद्र मोदी के बयानों के ठीक उलट है। वित्त मंत्रालय ने यह तय किया है कि वह अब बैंकों को कोई सहायता प्रदान नहीं करेगी। बैंकों को कहा गया है कि वह अपना खर्च चलाने के लिए अपनी परिसंपत्तियों का विनिवेश करें। विनिवेश करें मतलब बेचें। और कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब यह भी कि स्वयं सरकार के खजाने में कमी होती जा रही है। अब यह कमी प्राकृतिक कमी नहीं है।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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