Thursday, March 28, 2024
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सैकड़ों मील दूर से पत्ते तोड़कर लाते हैं ये मुसहर परिवार

पान खाने के शौकीनों को पान एक पत्ते में बांधकर देते हैं, लेकिन पान चबाने वालों ने शायद ही कभी सोचा हो कि पान बांधने वाला यह पत्ता आता कहाँ से और कैसे है? आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले तक शादी-मरनी-भोज-भंडारे जैसे किसी आयोजन में पंगत बिठाई जाती थी तब हरे-हरे पत्तलों पर परोस कर […]

पान खाने के शौकीनों को पान एक पत्ते में बांधकर देते हैं, लेकिन पान चबाने वालों ने शायद ही कभी सोचा हो कि पान बांधने वाला यह पत्ता आता कहाँ से और कैसे है? आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले तक शादी-मरनी-भोज-भंडारे जैसे किसी आयोजन में पंगत बिठाई जाती थी तब हरे-हरे पत्तलों पर परोस कर खिलाया जाता था। कागज़ की प्लेटें आने के पहले चाट के ठेलों पर छोले-चाट और गोलगप्पे आदि हरे-हरे दोने में ही दी जाते थे लेकिन अब इनकी जगह फाइबर और कागज़ की चीजों ने ले ली है। तो फिर इन्हें बनाने वाले लोग कहाँ गए और उनका जीवन किस हाल में चल रहा है यह जानने के लिए मैंने जब बनारस के शायर अलकबीर से बात की तो उन्होंने कहा – ‘इन लोगों की हालत तो वही मेहनत मजदूरी वाली है। आज भी भटक रहे हैं। दोने-पत्तल तो बहुत कम हो गए लेकिन अभी पनहारे यानी पनवाड़ी इनके ग्राहक हैं।’

अलकबीर ने बताया कि ‘जिस तरह मिठाईवाले और चाटवाले अब दोनों का इस्तेमाल नहीं करते उससे बड़े पैमाने पर मुसहर समुदाय की रोजी-रोटी प्रभावित हुई है। लेकिन पानवालों के यहाँ उनकी खपत है क्योंकि पत्ते में बंधा हुआ पान सम्मान की नज़र से देखा जाता है। लगता है कि यह अच्छे पनवाड़ी के यहाँ का पान है। लेकिन वही पान अगर कागज़ या प्लास्टिक में बंधा हो तो फूहड़ और खराब माना जाता है। चाहे वह कितना ही बढ़िया पान क्यों न हो लेकिन उसको सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है।’

सजे हुए बहुला के पत्ते

मैंने बनारस में बहुत से लोगों को महुए के पत्ते पर कत्था-सुपारी-ज़र्दा चाटते देखा है। फूल-माला बेचनेवाले भी महुए के पत्ते में बांधकर देते हैं। हालांकि अब पत्तों की खपत कम होती जा रही है इसलिए स्वाभाविक है कि इस काम से जुड़ा समुदाय आजीविका के संकटों से जूझ रहा हो। इसी क्रम में मैंने मुसहर समुदाय के इन लोगों के बारे में जानने का निश्चय किया।

“अभी भी यह समुदाय आज की मुख्यधारा से कोसों दूर है। शिक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं। इसलिए बच्चे कम उम्र में ही माँ-बाप का हाथ बंटाने लगते हैं। भू-बंदोबस्ती न होने से इनके पास खेती की कोई ज़मीन नहीं है। आमतौर यह धारणा बन गई है कि यह समुदाय मुफ्त का राशन पाकर अपने में मस्त है जबकि यह न केवल अर्धसत्य है बल्कि मुसहर समुदाय की श्रमशक्ति के प्रति अपमानजनक नज़रिये का परिचायक भी है। यह समुदाय कड़ी मेहनत के बावजूद पिछड़े और उपेक्षित उत्पादन पद्धति पर आश्रित है। इन्हें कोई आर्थिक संरक्षण नहीं मिलता है।” 

अगली शाम अलकबीर जी के साथ बनारस के बहुत पुराने मोहल्ले काली महाल की संकरी गलियों और भीड़ को पार करते हुए मैं पान दरीबा पहुंचे। अलकबीर ने ही बताया कि इन लोगों के पास जाने का संबसे अच्छा समय शाम का ही होता है क्योंकि इनका बाजार सुबह लगता है और इस कारण ये सुबह बहुत व्यस्त रहते हैं। दोपहर से शाम तक ये बहुला की पत्तियों की छंटाई कर उनका बंडल बनाते हैं यानी सुबह के बाजार की तैयारी करते हैं। काली महाल शुरू होते ही संकरी गली के दोनों ओर बहुला की पत्तियों के ढेर में से गड्डी बांधते हुए मुसहर समुदाय के अनेक परिवार दिखाई दिए, जिनमें स्त्री-पुरुष और साथ में बच्चे भी थे।

ये सभी बच्चे 6-7 वर्ष के रहे होंगे, जिन्हें काम के दौरान अकेले घर पर नहीं छोड़ा जा सकता था। सभी लोग थके-मांदे, उनींदे से लग रहे थे क्योंकि तीन-चार दिन जंगलों में पत्ता तोड़ने के बाद ट्रेन से उतरकर सीधे इस बाजार में पहुंचे थे। इनका न कोई खाने का ठिकाना है न सोने और आराम करने का। एक दिन में जब सारे बंडल बिक जाते हैं तब ये अपने-अपने ठिकाने पर पहुंचते हैं और तीन-चार दिन ठहर कर फिर झाझा (बिहार) सिंगरौली, कटनी, जबलपुर(मध्य प्रदेश) और मानिकपुर (उत्तर प्रदेश) के जंगलों में पहुँच जाते हैं।

शाम को तैयारी के बाद सुबह के बाजार के इंतजार में ..

इन लोगों के पास पहुंचकर जब उनसे बातचीत शुरू की तो थाना मिर्जामुराद (वाराणसी) के शिवरामपुर गाँव की रीना ने सबसे पहले यही पूछा कि ‘क्यों बातचीत कर रही हैं? पुलिस वालों की तरफ से आईं हैं क्या आप?’

मैंने पूछा – ‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं?’ तो उसने बताया कि ‘ऐसे ही कई लोग कुछ दिन पहले आए थे और हम लोगों से बातचीत की और फिर हमारे कुछ लोगों को थाने बुलाकर बिठा लिया था और बाद में पिटाई भी की, बिना कोई कारण बताए।’

मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से आने का कारण बताते हुए अपना परिचय दिया। इसी तरह सबसे बातें करते हुए जब महराजगंज के जवाही की मातुलदेवी के पास पहुंचे तो उन्होंने भी पहला ही प्रश्न किया — ‘क्या पुलिस से पकड़वाने आए हैं आप लोग?’

“ग्राम फुलटन, गंगापुर, थाना रोहनिया की मोना अकेली हैं और अपने साथियों के साथ सिंगरौली के जंगल में जाकर पत्ते तोड़कर लाने का काम कितने वर्षों से कर रही हैं, उन्हें याद भी नहीं। वे गाँव में चलने वाले मनरेगा में काम मिलने पर वहीं मजदूरी का काम भी करती हैं लेकिन जब काम नहीं चलता तो पेट भरने के लिए पत्ते तोड़कर बेचने का काम भी करती हैं। उन्होंने बताया अभी बारिश है और मनरेगा में काम नहीं चल रहा है इसीलिए इस काम में लगी हुई हैं।” 

स्पष्ट है कि आम जनता के मन में पुलिस-प्रशासन के प्रति कितना खौफ है। उनके सामने आने पर ये खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। बहरहाल वहाँ सड़क के किनारे एक तरफ लाइन से बहुला की पत्तियों के ढेर लेकर मुसहर समुदाय के अनेक परिवार बंडल बनाने के काम में मसरूफ़ थे। सभी थके हुए, बेतरतीब दिखाई दे रहे थे क्योंकि बहुला के पत्तों को तोड़ने के लिए तीन-चार दिन जंगलों में भटकते हुए अपना काम किया और अब ढोकर यहाँ ले आए।

सेवापुरी की सुलेखा, जिनके दो बच्चे हैं, अपने डेढ़ साल के दुबले-पतले बच्चे को पत्ता तोड़ने जाते समय साथ ले जाती हैं। बहुला की पत्तियां तोड़ने के लिए कटनी के आसपास के जंगलों में ट्रेन से जाती हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि जाकर पत्ता तोड़कर लाना और उनका पचपन-पचपन पत्तियों की सौ गड्डियाँ बनानी होती है जिनके एक सौ पचपन रुपये मिलते हैं। हालांकि दाम हमेशा एक जैसे नहीं रहते बल्कि उनमें उतार-चढ़ाव होता रहता है। सोना-चांदी या थोक सब्जियों के बाजार जैसा ही दाम रोज तय किया जाता है। रोज सुबह बाजार खुलने पर पत्तियों का दाम तय किया जाता है। अधिक आवक होने पर दाम कम मिलता है और यदि आवक कम है ठीक-ठाक दाम मिल जाते हैं।

पचपन-पचपन का बना हुआ बंडल

ओमप्रकाश और रीना पति-पत्नी हैं। वे आमने-सामने बैठकर पत्तियों को गिनकर छाँट रहे थे। पच्चीस वर्षों से वे यही काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि आसपास के बहुला के पत्तों का जंगल नहीं के बराबर हैं। इसीलिए ट्रेन से 8 दिन में एक बार मानिकपुर, कटनी, जबलपुर और सिंगरौली में से किसी एक जगह जाते हैं। ट्रेन में जाते समय किसी भी तरह की कोई टिकट नहीं कटवाते हैं और चालू डिब्बे में दरवाजे के पास बैठकर चले जाते हैं और काम हो जाने पर उसी तरह वापस या जाते हैं। वैसे तो कोई पैसा नहीं लगता लेकिन कभी-कभी ट्रेन के पुलिस वाले परेशान करते हैं और जबरन वसूली कर जाते हैं।

बहुला पत्तियों के बंडल बनाते समय बतियाते हुए ओमप्रकाश और रीना कि कब सारा बिके और घर जाएँ ..

बलिराम, राजा तालाब थाना के कुरौना निवासी हैं, अनपढ़ हैं। मां-बाप नहीं है और पाँच बहनें और तीन भाई हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियों का जिक्र करते हुए बताते हैं कि ‘झाझा के जंगलों में मैं और मेरे चार साथी हफ्ते में एक बार जाते हैं और दो-तीन दिन में पत्ते तोड़कर ले आते हैं। बिक जाने के बाद फिर जंगलों का रुख करते हैं।’

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कहाँ है ऐसा गाँव जहाँ न स्कूल है न पीने को पानी

मैंने बलिराम से पूछा कि ‘कैसे जाते हो झाझा?’ तो उन्होंने तपाक से कहा कि योगी सरकार हमसे टिकट नहीं लेती। हम बिना टिकट ही ट्रेन में चढ़कर झाझा पहुँच जाते हैं। जबकि सभी चालू डिब्बे में चढ़कर नीचे बैठकर बिना टिकट ही जाते हैं।’ हालांकि बिना टिकट चालू डिब्बे में ये हमेशा से जाते रहे हैं लेकिन जिस तरह बीजेपी ने मुफ़्त दी जाने वाली सुविधाओं का प्रचार किया है तो बलिराम  को ट्रेन में बिना टिकट जाना भी योगी सरकार की देन लग रही है इसने योगी सरकार के टिकट नहीं लेने का ही जिक्र किया।

हालाँकि यह उनका अपना भावावेग था क्योंकि मुसहर समुदाय को टिकट लेने की कभी बाध्यता नहीं रही। समाज के सबसे वंचित हिस्से के रूप में रेलवे ने वर्षों से उन्हें यह छूट दे रखा है। चालू डिब्बे में कभी टीटी उनसे टिकट नहीं मांग सकता। यहाँ तक कि भीड़-भाड़ न रहने पर वे स्लीपर में भी बेखटक यात्रा कर लेते हैं।

उम्मीद की नजरें ..

ग्राम फुलटन, गंगापुर, थाना रोहनिया की मोना अकेली हैं और अपने साथियों के साथ सिंगरौली के जंगल में जाकर पत्ते तोड़कर लाने का काम कितने वर्षों से कर रही हैं, उन्हें याद भी नहीं। वे गाँव में चलने वाले मनरेगा में काम मिलने पर वहीं मजदूरी का काम भी करती हैं लेकिन जब काम नहीं चलता तो पेट भरने के लिए पत्ते तोड़कर बेचने का काम भी करती हैं। उन्होंने बताया अभी बारिश है और मनरेगा में काम नहीं चल रहा है इसीलिए इस काम में लगी हुई हैं। 700-800 की बिक्री होती है और बिकने के बाद दो-तीन दिन आराम कर फिर जंगल की तरफ जाती हैं।

गाँव बरनी मनभावती के राजेश और उनकी पत्नी रीमा साथ थे। रीमा चेहरा ढ़ाककर आराम कर रही थीं और राजेश पत्तों को सहेजने का काम कर रहे थे। वे बहुत खुशमिजाज़ और हंसमुख लगे। इतनी मेहनत और दौड़-भाग के बाद भी ज़िंदगी के प्रति सकारात्मक रवैय्या दिख रहा था। पास पहुंचकर बात करने पर रीमा भी उठकर बैठ गईं। देखने पर उनका चेहरा बहुत थका हुआ दिखाई पड़ रहा था। पूछने पर बताया कि इस काम-धंधे में कहाँ आराम। बैठकर ट्रेन से जाइए, पत्ते तोड़िए और ले आइए। बाहर रहना,खाना और सोने की वजह से थकान हो जाती है।

ज़िंदगी की जद्दोजहद के बीच गाँव बरनी मनभावती के राजेश और उनकी पत्नी रीमा बंडल बिकने के इंतजार में

‘कितने की बिक्री हो जाती है?’ पूछने पर बताया कि ‘3200 रुपए के पत्ते बिक जाते हैं। इतनी मेहनत करने पर सही तरीके से काम हुआ तो हफ्ते भर का 3200 रुपये।’ मेरे यह कहने पर कि 3200 रुपए तो बहुत नहीं होते उन्होंने कहा – ‘हाँ बहुत तो नहीं होते लेकिन अब यह काम बदल भी नहीं सकते क्योंकि बाप-दादाओं को भी यही काम करते देखा है। हमको तो कोई और काम नहीं आता है और न ही अनुभव है।

मातुलदेवी, जिन्होंने पहले मिलते ही तपाक से कहा था कि ‘आप पुलिस वाली हैं क्या? आपको उन लोगों ने भेजा है?’ तो मुझे उत्सुकता हुई कि वे किन लोगों की बातचीत कर रही हैं? इस तरह बात करने का मैंने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘इसी तरह आकर बात कर, जानकारी हासिलकर, पकड़कर मारपीट करते हैं।’ मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘हमारे साथ तो ऐसा नहीं हुआ है लेकिन मेरी जानकारी में ऐसा कई बार हुआ है। इसीलिए सतर्क रहना जरूरी है।’

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फासिस्ट और बुलडोजरवादी सरकार में दलित की जान की कीमत

उनके अनुभव और डर को मैंने अच्छी तरह समझ लिया क्योंकि पूरे देश में ऐसा माहौल बना हुआ है कि जब जिसे चाहे बिना कारण बताए या झूठा आरोप लगाते हुए पुलिस पकड़कर ले जा रही है। लेकिन परिचय पाने पर सहज हो उन्होंने बात की और बताया कि सिंगरौली और मोड़वा जाकर पत्ते तोड़कर लाते हैं। तीन बच्चे हैं। एक स्कूल जाता है। साथ में एक बच्चा था जो वहीं खेल रहा था। घर पर बच्चे को दादी-दादा के पास छोड़कर बाहर काम पर निकलते हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें मिला है, यह पूछने पर उन्होंने बताया प्रधानमंत्री आवास में नौ बाई दस का एक कमरा मिला है, जहां वे रहना नहीं चाहते क्योंकि हमेशा प्रकृति के करीब खुली जगह में रहे हैं तो छोटे और बंद कमरे में दम घुटता है।

मातुलादेवी अपने पति और बच्चे के साथ

सभी लोगों के पास राशन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर आईडी है। सरकारी राशन के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि राशन मिलता तो है लेकिन एक महीने मिलेगा तो एक महीने नहीं मिलता। कारण पूछने पर गुस्से में बताया कि उनका मन। ज्यादा कुछ कहने पर राशन दुकान वाला हड़का देता है। ज्यादा पूछ भी नहीं सकते, हर जगह गरीबों की मुसीबत है। ऐसा सुनने के बाद मुझे भी लगा, सच है। जबकि सभी को संवैधानिक रूप से बराबरी का अधिकार मिला हुआ है लेकिन केवल किताबों में।

अभी भी यह समुदाय आज की मुख्यधारा से कोसों दूर है। शिक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं। इसलिए बच्चे कम उम्र में ही माँ-बाप का हाथ बंटाने लगते हैं। भू-बंदोबस्ती न होने से इनके पास खेती की कोई ज़मीन नहीं है। आमतौर यह धारणा बन गई है कि यह समुदाय मुफ्त का राशन पाकर अपने में मस्त है जबकि यह न केवल अर्धसत्य है बल्कि मुसहर समुदाय की श्रमशक्ति के प्रति अपमानजनक नज़रिये का परिचायक भी है। यह समुदाय कड़ी मेहनत के बावजूद पिछड़े और उपेक्षित उत्पादन पद्धति पर आश्रित है। इन्हें कोई आर्थिक संरक्षण नहीं मिलता है।

इनको मुख्यधारा में ले आने के लिए व्यापक शिक्षा और प्रशिक्षण की जरूरत है ताकि ये आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल हो सकें। अभी भी ये सरकारी योजनाओं के रहमोकरम पर रखे जा रहे हैं जबकि इन्हें आरक्षण और भागीदारी का उचित लाभ मिलना चाहिए। माना जाता है कि ये लोग पढ़े-लिखे नहीं होते जिस कारण इनको नौकरियाँ नहीं मिलतीं लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सरकारी नौकरी ही भागीदारी का एकमात्र आधार है अथवा खेती, कारोबार और छोटी दुकानों के माध्यम से इन्हें इनका हिस्सा मिलना चाहिए। पान दरीबा में इन्हें कोई भी छोटी सी जगह एलाट नहीं की गई इसलिए ये लोग न जाने कब से फुटपाथ पर ही अपना कारोबार कर रहे हैं।

मातुलादेवी को सरकार पर भरोसा नहीं

जब मैंने मातुलदेवी से पूछा कि क्या पान दरीबा में आपकी अपनी कोई अपनी दुकान नहीं होनी चाहिए? इस पर वे फीकी हंसी हँसते हुये बोलीं – ‘कौन देगा दुकान? सरकार ने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं।’ उन्हें किसी भी प्रकार के लोन की कोई सुविधा नहीं है कि वे अपने कामों को और आगे बढ़ा सकें।

उत्तर प्रदेश में मुसहर समुदाय बहुला, पलाश, तेंदू और महुए के पत्ते तोड़ने, वनोपज इकट्ठा करने, लकड़ियाँ काटने, मेहनत मजदूरी करने जैसे काम ही करता है। इसी में पूरी तरह उनका जीवन खप रहा है। रोटी-कपड़ा जुटाने की जद्दोजहद में जुटा यह समुदाय भविष्य के क्या सपने देख सकता है यह जानने की संवेदना अभी भी हमारे समाज और राजनीति में नहीं है।

साथ में अलकबीर। 

अपर्णा
अपर्णा रंगकर्मी और गाँव के लोग की संस्थापक कार्यकारी संपादक हैं।

6 COMMENTS

  1. अब तक जितना भी इतिहास जाना जा सका है, मुसहर समुदाय वे आरंभिक भारतीय लोगों के अवशेष हैं, जो लाखों साल पहले इथियोपिया से भारत आए थे। बाद के आए हुए समुदायों ने असली भारतीयों से सब कुछ छीन लिया है। ज़रूरत है, बिना किन्तु-परन्तु किए देशभर के मुसहर समुदाय के एक-एक सदस्य को कम से कम पचास साल तक शिक्षा, स्वास्थ्य, सुखद आवास उपलब्ध कराने की।

  2. गहन और वस्तुपरक रिपोर्टिंग। मुसहरों की हृदय विदारक दशा और दिशा को पढ़/जानकर यही सवाल मन में चुभता रहता है कि इनके जीवन में विकास का उजाला कभी आएगा भी या फिर अंधेरा ही नियति सदैव बना रहेगा और ये दुखी -पीड़ित यही महसूस कर सवाल पूछने वालों पर ही महाकवि निराला जी की पंक्तियां उधार लेते हुए यह प्रश्न उछालेंगे कि, “दुख ही जीवन की व्यथा रही/क्या कहूं आज जो नहीं कही।” अपर्णा जी और गांव के लोग टीम को समाज के सबसे वंचित एवं साधनहीन समुदाय की यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत करने के सराहनीय उपक्रम के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

  3. बहुत अच्छा लगा मैंम लेख पढ़कर इसमें मुझे जानकारी हुई कि कहां-कहां बनारस में मुसर बस्ती है। हमारा प्रयास लगातार मुसहर बस्ती के बच्चों को खोज कर उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करना जारी है जारी रहेगा। आप हमारे सामाजिक कार्य की वीडियो यूट्यूब में MANOJ YADAV SOCIAL WORKER लिख कर देख सकते हैं। MY ALL N.9451044285

  4. रीयल कवर स्टोरी
    ♥जीओ और जीने दो ♥
    कृपया youtube पर भी कवर करिये।
    इस समय लोग देखने और सुनने के आदी हो गये।

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