इनके पास न घर है न मुकम्मल पहचान पत्र

सूरज देव प्रसाद

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पेट में भूख की आग लिये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते, जीवन जीने की जिजीविषा के बीच चोरी करना, भीख मांगना, बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी करना, यहां तक कि शरीर बेचने जैसे कार्य करना इनकी नियति बन गई है। यह सच है कि यह सब करना बुरी बात है, परंतु जिस व्यवस्था में इस काम को किए बिना जीवन ही नहीं जिया जा सके, ऐसी व्यवस्था का होना सबसे बुरी बात है। इसलिये भूख मिटाने के लिये यह सब करना और यह सब करके भूख मिटाना विमुक्त व घुमंतू जनजातियों के परंपरागत लक्षण बन गये हैं। आधिकारिक रूप से 2008 में जहां इनकी जनसंख्या 11 करोड़ थी, 12 साल बाद यह लगभग 20 करोड़ तक पहुंच गई है।

   क्या आप हममें से कोई ऐसा है जो यह कल्पना कर सकता है कि अपने ही देश में 20 करोड़ ऐसे भी लोग हैं जिनका जीवन कलंकित है, जिनके पास घर नहीं है, रोजगार नहीं है, शिक्षा से वंचित ये ताउम्र यहाँ से वहाँ भागते या भगाये जाते हैं, जिन्हें पुलिस और तथाकथित सभ्य समाज के लोग जन्मजात अपराधी समझते हैं, देश, समाज के हाशिए पर रहते जिनकी पहचान कहीं खो गई है। आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते पूरे देश में बिखरे पड़े हैं, जिन्हें हम अपने आस-पास रोज देखते हैं, कभी बंदर-भालू नचाते, सांप का खेल दिखाते, सड़कों-चैराहों पर इनके छोटे-छोटे बच्चे कलाबाजियाँ दिखाते या ‘शनि का डोल’ लिये भीख मांगते। यही नहीं पेट की आग बुझाने के लिए इनकी स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति का पेशा अपनाए, सरकार की तमाम योजनाओं के लाभ से महरूम जिनके पास न राशनकार्ड है, न जाति प्रमाण पत्र और न मुकम्मल पहचान पत्र। असल में सूरत विहीन इन लगभग 20 करोड़ लोगों को हम विमुक्त, घुमन्तूं व अर्द्ध-घुमन्तू जनजातियों के नाम से जानते हैं।

वंचितों के बीच सबसे वंचित इन हाशिए के लोगों का दर्द सुनने वाला आज कोई नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर न तो इनका कोई सर्वमान्य नेता है, किसानों की भांति न तो इनका कोई संगठन है जो दिल्ली का घेराव कर अपनी बात मनवा सकें और न ही ये लोग वर्तमान पूंजीवादी युग में जीने का कोई तिकडमी हुनर जानते हैं। और तो और अपने आपको सभ्य कहने वाले मुख्यधारा के लोग भी इन्हें अपना नहीं मानते। तथाकथित अपराधियों का जीवन जीने के लिए अभिशप्त ये लोग पुलिस-प्रशासन की निगाह में सबसे ऊपर हैं। देश के कोने-कोने में फैले, नगरों-महानगरों के हाशिए पर लटके ये लोग न तो अनुसूचित जाति में आते हैं, न अनुसूचित जनजाति में और न ही अन्य पिछड़ा वर्ग में, लेकिन भारत सरकार ने इन्हें इन

आजादी से पूर्व अंग्रेजो की मार सहते और आजादी के बाद वर्तमान व्यवस्था की जलालतें सहते वे आज भी दुत्कारे जा रहे हैं, आपमानित किये जा रहे हैं। विमुक्त, घुमन्तू जनजातियां कल जहाँ थीं, वहीं खड़ी किसी नए आयोग के गठन का इंतजार कर रही है अथवा किसी राजनीतिक चमत्कार की आशा में कलाबाजियाँ खाते, पेट की भूख मिटाते विकास के विपरीत दिशा में बढ़ते जा रहे हैं। उनका मानना है कि यदि दुनिया गोल है, एक गांव है तो विपरीत दिशा में चलते हुये भी हम कहीं न कहीं इसी धरती पर टकराएंगे जरूर और वहां भी यही सवाल दोहराये जाएंगे कि तुम्हारे विकास का दूसरा पहलू कौन है? हमें छोड़कर क्या तुम अपनी मुकम्मल तस्वीर दुनिया को दिखा पाओगे? सोचता हूँ- तब हम क्या उत्तर देंगे?

 

तीनों ही श्रेणियों में बांट रखा है। इन्हें जाति, जनजाति के स्थान पर समुदाय विशेष कहना ज्यादा उचित है। सांसी, पारधी, कंजर, नट-संपेरा, बहेलिया, ओड, सिंधी, गोंड, बहुरूपी, धिकारो आदि-आदि। इनकी सूची बहुत लम्बी है। पूरे देश में करीब 150 विमुक्त समुदाय हैं और 1500 घुमन्तू व अर्द्ध -घुमन्तू समुदाय जैसे नट, संपेरा, मदारी, वन गुज्जर, कलंदर, डोंबारी, गोंघली इत्यादि। इनमें से 97 प्रतिशत विमुक्त समुदीय और 84 प्रतिशत घुमन्तू समुदाय अनुसूचित जाति, जनजाति अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग में चिन्हित हैं। लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि एक ही समुदाय को भिन्न राज्यों में सरकार ने अलग-अलग वर्गों में बांट रखा है। उदाहरण के लिए बेरड समुदाय को लें- यह समुदाय एक तरफ जहाँ दिल्ली, आध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति की सूची में हैं, वहीं दूसरी ओर कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार में अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया है। इसी प्रकार बंजारा समुदाय है जो दिल्ली और कर्नाटक में तो अनुसूचित जाति है लेकिन आध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार में अनुसूचित जनजाति। यह नाकाफी साबित हुआ तो उत्तर प्रदेश ने इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल कर लिया। यह सच है कि इनका वर्तमान जीवन बिखरा हुआ और कलंकित है, लेकिन अग्रेजों के भारत आने से पहले इनका अतीत ऐसा नहीं था।

राजा-रजवाड़ों के काल में जब सड़कों और रेलों का जाल नहीं बिछा था, जब जंगल-पहाड़ों पर कानूनी पहरा नहीं था, सभ्य समाज इतना संकीर्ण और खांचों में नहीं बंटा था, तब उनका जीवन गौरवशाली सभ्यता का वाहक, पारम्परिक ज्ञान का अक्षय स्रोत, राजा-रजवाड़ों के सेनाओं के वीर सैनिक और भारत के व्यापार की एकमात्र धुरी थे। इनका काफिला जिसे तांडा कहते हैं, दिन-रात पूरे देश में घोड़ों, बैलों, खच्चरों के साथ घूम-घूम कर नमक, मसाले, अनाज और ऐसी ही अनेक जरूरी चीजें हमारे द्वार तक पहुंचाते थे। पेड़ -पौधों, जड़ी-बूटियों के पारखी ये नामी वैद्य हुआ करते थे। अंग्रेजों के काल में राजाओं की ओर से इस समुदाय के अनेक वीरों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं। अंग्रेजों के खिलाफ कई विद्रोहों में हिस्सा लिया। महाराणा प्रताप के वंशज भील और गड़िया लोहारों ने अनेक कुर्बानियाँ दी। बहुत से विद्वान सांसी शब्द की उत्पत्ति साहसी से मानते हैं। सन् 1857 के विद्रोह में इस समुदाय के लोगों ने कोल-संथालों और दूसरे लोगों के साथ मिलकर अंग्रेजों को नाको चने चबवाये लेकिन गदर की असफलता के बाद अंग्रेजों का दमन का जो चक्र चला उससे यह समुदाय आज तक मुक्त नहीं हो पाया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेजों से पहले इनका अतीत गौरवशाली और जीवन समृद्ध था। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ अंग्रेज भारत में आए। धीरे-धीरे राजा-रजवाड़े का युग समाप्त होने लगा तो उसके सैनिक, कलाकार, गुप्तचर आदि भी बेकार होने लगे। रेल के आगमन और सड़कों के विकास के साथ ही इनका व्यापार सिमटने लगा। बाद में कानून बनाकर जंगल-पहाड़ों को भी सरकार ने ले लिया। घुमन्तू प्रवृति और मुख्यधारा के लोगों से अलग रहन-सहन के कारण अंग्रेज इन्हें शंका की दृष्टि से देखते थे। गदर के समय और उसके बाद यह शंका और भी बढ़ती गई। इस प्रकार पूरे हिन्दुस्तान में सैकड़ों जनजातीच समूह अंग्रेजों के शक के घेरे में आयी। इन्हें नियंत्रित करने के लिए 1871 में एक कठोर कानून बनाया और ये सदा के लिए अपराधी बन गये। मानव इतिहास में अमानवीय तथा क्रूर समझे जाने वाला यह काला कानून ‘अपराधी जनजाति अधिनियम 1871′ के नाम से जाना जाता है। 1871 का यह काला कानून इनके जीवन में एक ऐसा नासूर बन गया जो सालों-साल बीतते गए और उनका दर्द और गहरा ही होता गया। आज इनके लोग संविधान को नहीं जानते, देश के हुक्मरानों को नहीं पहचानते, बड़े-बुजुर्गों को इंदिरा गांधी की कुछ-कुछ छवि और बातें याद हैं। लेकिन आज दिल्ली के तख्त पर कौन बैठा है, वह अपना है या पराया, इसके बारे में भी खबर नहीं है लेकिन सरकार की तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं से अनभिज्ञ ये जिस भारत में रहते हैं, उनकी सरकार भी इन्हें और इनकी समस्याओं को नहीं जानती। यदि जानती तो इन्हें अब तक झूठे आश्वासन और सिर्फ धोखा नहीं देती और न ही आजादी के झूठे सपने दिखाये जाते। विकास की तीव्र रफ्तार के बीच, दुनिया के ग्लोबल विलेज बन जाने और ज्ञान विज्ञान के असीम तरक्की के बावजूद ये लोग जहाँ ठहरे हुये हैं वहाँ इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है और इन 20 करोड़ लोगों का दर्द सुनने वाला आज कोई नहीं है। इधर एक दशक से विद्वानों और बुद्धिजीवियों के बीच कभी-कभार किसी बहाने से इनका जिक्र आ जाता है लेकिन उनकी विवशता देखिए कि वे भी कुछ नहीं कर पाते। इस तरह से न देश इनका, न सरकार इनकी, न नेता इनके, न प्रशासन इनका। ऊपर से कोढ़ पर खाज ऐसा कि सभ्य समाज भी इनसे दूरी बनाकर ही रहता है और कभी-कभी पुलिस प्रशासन के साथ इन पर हमला जरूर कर देता है। चूंकि ये ग्राम्य व्यवस्था के स्थायी हिस्से नहीं हैं और जंगल, पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी समाज के भी हिस्से नहीं है, उत्पादन व्यवस्था से भी इनका कोई संबंध नहीं इसलिए गांव में घर नहीं, जंगल में खेत नहीं, प्रतिष्ठा वाला कोई व्यवसाय भी नहीं। बच्चों के लिए स्कूल नहीं, न ही युवाओं के लिये कोई रोजगार के साधन। ऐसे हालात में गाँव-गाँव भटकती हुई इन जनजातियों के लिए पिछले 50 वर्षों के पंचायती राज व्यवस्था में भी कोई कानून नहीं बनाया गया। समुदाय के कुछ लोग मजबूरन अपनी अस्तित्व की लडाई लड़ते गैरकानूनी और अनैतिक व्यवस्था में शामिल हो गये। इनके लाखों लोग आज सड़कों के किनारे, गंदी बस्तियों में रह रहे हैं जहाँ कोई मूलभूत सुविधाएँ नहीं है। इनके पास न राशनकार्ड है, न ही जाति प्रमाण पत्रव। गरीबी रेखा के नीचे की सूची में भी इनका नाम शामिल नहीं है। दुर्भाग्य की बात है कि अपनी घुमन्तू प्रवृत्ति के कारण लाखों लोग मतदान के अधिकार का प्रयोग नहीं करते। दरअसल कोई समाज एकजुट होकर बड़ा आंदोलन करता है तो उन्हें अलग से आरक्षण देकर आर्थिक-सामाजिक दृढ़ता प्रदान की जाती है। किसी प्रदेश के किसान एकजुट होकर संसद को घेरते हैं तो देश की राजधानी में कोहराम मच जाता है और सरकार और पक्ष-विपक्ष के बड़े-बड़े नेता आगे-पीछे डोलते हुए किसी नतीजे पर पहुँचने के लिए बाध्य हो जाते हैं। लेकिन विमुक्त, घुमन्तू व अर्द्धघुमन्तु समुदाय पूरे देश मे अनेक विभेदों के बीच बिखरी हुई है। इसलिए उनकी समस्याएँ एक बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाती। उनका कोई राष्ट्रीय सांगठनिक ढाँचा खड़ा नहीं हो पाता जो कालांतर में ‘वोट बैंक’ की तरह इस्तेमाल होने योग्य हो। यही बिखराव इन्हें दशकों से गुमनामी भरी राहों में भटकने को बाध्य करती हैं। न तो ये सांस्कृतिक रूप से एक हैं, न राजनीतिक, न ही सामाजिक रूप से। पेशागत विविधता के साथ-साथ भाषाई तौर पर भी इनमें

देश के हुक्मरान आखिर विकास कर जहाँ भी जाएंगे, भले ही दिल्ली को पेरिस बनाकर दुनिया को चमचमाती दिल्ली दिखाओ लेकिन चमकती सड़कों के किनारे ऊँची अट्टालिकाओं से निकलती नालियों के बगल में, रेल की पटरियों से उठती सड़ांध के बीच, हर एक शहरों के हाशिए पर ये लोग हर एक विकास के समीकरणों को मुंह चिढ़ाते मिल जाएंगे। आजादी से पूर्व अंग्रेजो की मार सहते और आजादी के बाद वर्तमान व्यवस्था की जलालतें सहते वे आज भी दुत्कारे जा रहे हैं, आपमानित किये जा रहे हैं। विमुक्त, घुमन्तू जनजातियां कल जहाँ थीं, वहीं खड़ी किसी नए आयोग के गठन का इंतजार कर रही है अथवा किसी राजनीतिक चमत्कार की आशा में कलाबाजियाँ खाते, पेट की भूख मिटाते विकास के विपरीत दिशा में बढ़ते जा रहे हैं

 

कोई साम्यता नहीं दिखती। देश में न जाने इन समुदायों के कितने लोग हैं जो मुकम्मल अपनी नागरिकता तक सिद्ध नहीं कर सकते। वे परम्परागत पेशे को अपनाए, अपनी सांस्कृतिक लिबास ओढ़े, जहाँ भी काम मिला, ठहर गये। काम करते कई बार खुद आगे बढ़ गये या कई बार मुख्यधारा के लोगों द्वारा अथवा प्रशासनिक तंत्र द्वारा खदेड़ दिये गये। इस क्रम में कई ऐसी समस्याओं से उन्हें रोज रू-ब-रू होना पड़ता है। जो स्थाई निवासियों को कभी महसूस नहीं होता। एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रास्ते में यदि किसी बड़े-बुजुर्ग की मृत्यु हो जाए तो उन्हें अन्तिम संस्कार के लिए कोई भी श्मशान भूमि तक इस्तेमाल करने नहीं देता। एक सी घटनाएँ रोज घटती है। नतीजा वे सिर पर लाश को लेकर कभी यहाँ, कभी वहाँ भटकते रहते हैं। गाँववालों को लगता है कि श्मशान भूमि का इस्तेमाल कर ये लोग यहाँ के स्थाई निवासी होने का दावा ठोंक देंगे। आधुनिक युग में समाज के हित में बनाये गये कानून इन समुदायों के लिए संकट साबित हुये जैसे कि सामाजिक वनीकरण कानून, वन्य-जीव संरक्षण कानून आदि ने इनको चूल्हे की लकड़ी तक के लिए भीख मांगते अथवा चोरी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा। बंदर-भालू नचाना और सांप का खेल दिखाना अपराध हो गया। इसी तरह जंगल में शिकार अथवा नदी-नालों में मछली मारकर जीनेवाली जनजातियाँ दाने-दाने के लिये मोहताज हो गयी। उनके जीने के परंपरागत साधन और हक स्वराज ने छीन लिये। न तो इन्हें जीने के लिये विकल्प दिया गया, न ही संरक्षण के लिये वैकल्पिक उपाय किये गये। वैसे तो इनकी समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लम्बी है जिनमें ऋण ग्रस्तता, अस्थाई कृषि भूमि, स्वास्थ्य, शिक्षा, शराब खोरी, पलायन इत्यादि लेकिन प्रमुख दो समस्याएं है- स्थाई पुनर्वास की और दूसरी इनकी सामुदायिक अस्मिता अर्थात सामाजिक स्वीकृति की। स्थाई पुनर्वास को यदि ईमानदारी से अमली जामा पहनाया जाये तो खुद-ब-खुद बहुत सारी समस्याएं अपने आप दूर हो जाएंगी। स्थाई निवास होने से सबसे पहले उन्हें एक स्थाई पता और पहचान मिलेगा। एक जगह रहने से इनके बच्चों को शिक्षा मिल सकेगी, राशनकार्ड और आय के आधार पर बीपीएल कार्ड भी बन सकता है। फिर सरकार इनके लिए कुछ योजनाएँ बना सकेगी। लेकिन किसी भी तरह के आधुनिक हुनर और कौशल से महरूम तथाकथित अपराधी कही जाने वाली इन विमुक्त जनजातियों का मुख्य आर्थिक स्रोत अनैतिक कार्य और शराब का धंधा रह गया है। ये दोनों जरिए एक तरफ गैर कानूनी है तो दूसरी ओर पुलिस के लिए आमदनी का आकर्षण लेकिन जब कभी भी इनमें से कुछ उत्साही लोग बाहर निकलकर सम्मानजनक पेशा अपनाने की अथवा भूमि खरीदकर स्थाई रूप से बसने की कोशिश की, मुख्यधारा के लोगों के शिकार हुये और मजबूरन उन्हें पारंपरिक कृत्य करना पड़ा।

इस दिशा में 21 सितम्बर 2008 को सरकार की नींद खुली और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट जारी कर संविधान में संशोधन की मांग करते हुये इन जनजातियों को ‘अनुसूचित समुदाय’ मानने और रोजगार में आरक्षण के प्रावधान की बात की। लेकिन नेपथ्य में कुछ ऐसी बातें थी कि सरकार फिर से वर्षों पुराना राग और डफली बजाने लगी कि 97 प्रतिशत विभुक्त जातियां और 84 प्रतिशत घुमन्तू समुदाय पहले से ही अनुसूचित जाति, जनजाति या ओबीसी की सूची में शामिल हैं। एक नई सूची बनाने से अच्छा है उन्हें विकास के फायदे मिले। इसलिए आयोग के सुझाव स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। जाति आधारित जनगणना से विभिन्न समुदायों की वास्तविक स्थिति का पता लगता लेकिन मंत्रालय ने इसे विवादास्पद करार देते हुये जाति आधारित जनगणना को सिरे से खारिज कर दिया। रजिस्ट्रार जनरल ने ओबीसी की संख्या पता लगाने का विरोध किया लेकिन वह भी मानता है कि वमुक्त और घुमन्तुओं की जनसंख्या अवश्य पता करनी चाहिए। जहाँ तक राजनीति में आरक्षण की बात थी, उसे यह कहकर खारिज किया गया कि बड़ी मुश्किल से 30 वर्षों में क्षेत्र का परिसीमन किया गया है। अतः आज के सन्दर्भ में अव्यावहारिक है। अलग राष्ट्रीय आयोग बनाने के सुझाव को मंत्रालय ने यह कहकर खारिज कर दिया कि आयोग ने इन जनजातियों के खिलाफ होनेवाले बड़े पैमाने पर अत्याचारों के प्रमाण नहीं दे सका है। विमुक्त, घुमन्तू समुदायों के लिये यह दुर्भाग्य की बात है कि 20 करोड़ जनसंख्या होने के बावजूद पूरे देश में बिखरे हुये हैं। इसलिए राजनीति के लिए इस संख्या का कोई औचित्य नहीं है।

ढाई वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद प्रस्तुत की गई आयोग की रिपोर्ट को कूड़ेदान में डाल दिया गया। असल में जैसे राजनीति की अपनी समस्याएं और सीमाएं होती हैं, वैसे ही एक नेता और मंत्री के रूप में मीरा कुमार की सीमा बनती थी। यदि वे इस समस्या के प्रति गंभीर होती और कुछ करने की दिशा में पहल करती तो उन दलितों का क्या होता जिसके दम पर वे सत्ता और सरकार में खम ठोक रही हैं। कूड़े में जाना इस रिपोर्ट की पूर्व नियति थी। देश के हुक्मरान आखिर विकास कर जहाँ भी जाएंगे, भले ही दिल्ली को पेरिस बनाकर दुनिया को चमचमाती दिल्ली दिखाओ लेकिन चमकती सड़कों के किनारे ऊँची अट्टालिकाओं से निकलती नालियों के बगल में, रेल की पटरियों से उठती सड़ांध के बीच, हर एक शहरों के हाशिए पर ये लोग हर एक विकास के समीकरणों को मुंह चिढ़ाते मिल जाएंगे। आजादी से पूर्व अंग्रेजो की मार सहते और आजादी के बाद वर्तमान व्यवस्था की जलालतें सहते वे आज भी दुत्कारे जा रहे हैं, आपमानित किये जा रहे हैं। विमुक्त, घुमन्तू जनजातियां कल जहाँ थीं, वहीं खड़ी किसी नए आयोग के गठन का इंतजार कर रही है अथवा किसी राजनीतिक चमत्कार की आशा में कलाबाजियाँ खाते, पेट की भूख मिटाते विकास के विपरीत दिशा में बढ़ते जा रहे हैं। उनका मानना है कि यदि दुनिया गोल है, एक गांव है तो विपरीत दिशा में चलते हुये भी हम कहीं न कहीं इसी धरती पर टकराएंगे जरूर और वहां भी यही सवाल दोहराये जाएंगे कि तुम्हारे विकास का दूसरा पहलू कौन है? हमें छोड़कर क्या तुम अपनी मुकम्मल तस्वीर दुनिया को दिखा पाओगे? सोचता हूँ- तब हम क्या उत्तर देंगे?

सूरज देव प्रसाद मेरठ में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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