Thursday, March 28, 2024
होमसंस्कृतिदलितों को ‘हरिजन’ कहकर दिव्यता में उलझानेवाले उनके सिर उठाते ही दमन...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

दलितों को ‘हरिजन’ कहकर दिव्यता में उलझानेवाले उनके सिर उठाते ही दमन करते हैं

दूसरा और अंतिम हिस्सा ज़िंदगी की गहराई किताबों से नहीं अनुभव की आँखों से नापी जाती है। जो आँखें जूते के अंदर घुसे आदमी को नाप लेती हैं, ज़िंदगी को सही से वे आँखें ही नाप सकती हैं। अर्थात ज़िंदगी की गहराई को नापने का ज्ञान जूते की गहराई नापने में समाया हुआ है। ज़िंदगी […]

दूसरा और अंतिम हिस्सा

ज़िंदगी की गहराई किताबों से नहीं अनुभव की आँखों से नापी जाती है। जो आँखें जूते के अंदर घुसे आदमी को नाप लेती हैं, ज़िंदगी को सही से वे आँखें ही नाप सकती हैं। अर्थात ज़िंदगी की गहराई को नापने का ज्ञान जूते की गहराई नापने में समाया हुआ है। ज़िंदगी बाहर का यथार्थ बाहर से दिखायी नहीं देता, ज़िंदगी के अंदर उसकी गहराई में उतारने से उसका पता चलाता है, जैसे मोचीराम अपनी आँखों से जूतों के अंदर उतरता है और उनका यथार्थ जान लेता है। जो ज़िंदगी को किताब से नापता है और ख़ून के किसी कमजात मौक़े पर कायर बन जाता है, वही आदमी मोचीराम को शायर बताकर उसे ज़िंदगी के यथार्थ से भरमा सकता है। लेकिन मोचीराम को यथार्थ में शायर बनने के लिए शिक्षा प्राप्त नहीं करने देगा, उसके मार्ग में अवरोध पैदा करेगा। ’मोचीराम’ कविता का मोची कहता है, ’और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है/ मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है/ जोअसलियत और अनुभव के बीच/ खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है/ वह बड़ी आसानी से कह सकता है/ कि यार! तू मोची नहीं,शायर है।’12 (मोचीराम)।

[bs-quote quote=”निम्न जातीय चर्मकारों को उनके नाम से नहीं हमेशा जाति से जानते, पहचानते, बुलाते आए ’किसी कमजात मौक़े के कायर’ लोग उनके लिए अपने गांधी बाबा के दिए हुए ‘हरिजन’ शब्द का उच्चारण करने में भी अपना अपमान समझते हैं। उनको चमार या मोची कहने में जो उच्चता, श्रेष्ठता और अभिमान का भाव होता था, ‘हरिजन’ कहने में वह नहीं होता है। उन्हें वह ‘हरिजन’ शब्द भी सम्माजनक प्रतीत होता है, जिसे स्वयं दलित लोग अपने लिए अपमानजनक मानते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मोचीराम को ऐसे लोगों की बहुत गहरी और सूक्ष्म पहचान है। वह इनकी तमाम अनैतिकताओं और कुटिलताओं को भी पहचानता है। उसकी खुली और अनुभवी आँखें देखती हैं कि रामनामी चादर ओढ़कर उसकी आड़ में कितने कुकर्म, कितने अनाचार और कितनी अनैतिकताएँ सहजता से की जाती हैं। और इस तरह रामनामी ओढ़कर वे केवल अपनी रोज़ी ही नहीं कमाते अपितु, सम्मान भी अर्जित करते हैं। रामनामी की आड़ में धंधा करने वाला यह वर्ग मानवीय चेतना और मूल्यों से सर्वथा शून्य तथा असमानता और शोषणमूलक समाज-व्यवस्था का ज़बरदस्त पोषक है। ऊपर से जितना भद्र है अंदर से उतना ही कुटिल है। रामनामी शोषण के इस तंत्र को मोचीराम पहचानता है, तभी वह ऐसे लोगों पर यह टिप्पणी करता है, ’और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे/ अगर सही तर्क नहीं है/ तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की/ दलाली करके रोज़ी कमाने में/ कोई फर्क नहीं है।’13 (मोचीराम)।

ये ही वे लोग हैं जो चर्मकारों, दलितों को ‘हरिजन’ कहकर एक ओर उनको दिव्यता और आध्यात्म की भूल-भुलइयां में उलझाते हैं और दूसरी ओर तनिक सम्मान से सिर उठाते ही उन पर हिंसा और दमन करता है। निम्न जातीय चर्मकारों को उनके नाम से नहीं हमेशा जाति से जानते, पहचानते, बुलाते आए ’किसी कमजात मौक़े के कायर’ लोग उनके लिए अपने गांधी बाबा के दिए हुए ‘हरिजन’ शब्द का उच्चारण करने में भी अपना अपमान समझते हैं। उनको चमार या मोची कहने में जो उच्चता, श्रेष्ठता और अभिमान का भाव होता था, ‘हरिजन’ कहने में वह नहीं होता है। उन्हें वह ‘हरिजन’ शब्द भी सम्माजनक प्रतीत होता है, जिसे स्वयं दलित लोग अपने लिए अपमानजनक मानते हैं। अदम गोंडवी की प्रसिद्ध कविता ‘चमारों की गली’ में इसकी अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है-

‘दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर/ देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया/ कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो/ सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।’14

(अदम गोंडवी, चमारों की गली )

यही चेतना बेलछी में दलितों की सामूहिक हत्या का आधार बनती है और देश भर में बेलछी को दोहराती है। और यह संदेश देती है कि दलितों को स्वतंत्रता, स्वाभिमान और स्वावलंबन के साथ जीने का अधिकार नहीं है।

[bs-quote quote=”जब स्वातंत्र्योत्तर काल में, देश भर में दलितों में शिक्षा और स्वाभिमान के प्रति जागरूकता बढ़ रही थी, तब मोचीराम के अंदर ऐसी कोई जागरूकता क्यों नहीं दिखायी देती है? उसकी आँखों और चेतना में बेहतर भविष्य का कोई सपना क्यों नहीं है? वह अपनी मौजूदा स्थिति के साथ समझौता करता हुआ ही क्यों दिखायी देता है? धूमिल से बरसों पहले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने निम्न जातीय लोगों में शिक्षा के प्रति उत्साह और उसकी आवश्यकता को समझ लिया था” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

धूमिल का मोचीराम ज़िंदा रहने का सही तर्क चाहता है, और यह तर्क निरीह, निर्दोषों के दमन और हिंसा को नकारता है, उसका प्रबल प्रतिकार करता है। बाबा नागार्जुन की चर्चित कविता ‘हरिजनगाथा’ ज़िंदा रहने के इसी तर्क पर खड़ी है, जिसमें वह कहते हैं, ‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/ एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं—/ तेरह के तेरह अभागे—/ अकिंचन मनुपुत्र/ ज़िन्दा झोंक दिये गए हों/ प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में/ साधन सम्पन्न ऊँची जातियों वाले/ सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !/ ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…।’15 (हरिजन गाथा,)

मोचीराम आज का रैदास है। वह हर जूते की अकड़, दुर्गंध और मैल से भली-भाँति परिचित है, लेकिन चाहकर भी इस मैल और दुर्गंध से मुक्त नहीं हो पाता है। पेट की भूख उसे यह सब करने को विवश करती है। यह विवशता मोचीराम का बहुत बड़ा दर्द है। और यह दर्द उसे बेबस ही नहीं बनाता, निरंतर कसमसाता, उबालता और खदबदाता भी है। जब-तब उसके अंदर का उबाल और खदबदाहट बाहर भी निकलती है। ‘विवशता से व्याकुल हो/ अपने मन को मसोसता है/ अपनी भूख और बेबसी को/ कोसता है, औरईर्ष्या, ग्लानि और क्षोभ से भरकर/ व्यस्था के जूते में/ आक्रोश की कील/ ठोक देता है!’16 (जयप्रकाश कर्दम, गूँगा नहीं था मैं, पृष्ठ-58)। उसका यह आक्रोश जूते के अंदर घुसकर उस व्यवस्था से लड़ता और प्रतिकार करता है, जिसने उसे इस स्थिति में धकेला है। उसका आक्रोश इस बात का सूचक है कि वह अपने इस वर्तमान को भविष्य में नहीं जाने देगा, उसके भविष्य का नया वर्तमान होगा। उसका आक्रोश भविष्य के सपने बन रहा है। इस पर टिप्पणी करते हुए कँवल भारती कहते हैं, ‘यहाँ पुन: धूमिल की कविता उल्लेखनीय हो जाती है। उनकी कविता में मोचीराम जूते में इसलिए कील ठोक देता है, क्योंकि जूते का मालिक उसे कम मज़दूरी देता है। वहाँ वह पूरी तरह पेशेवर है। आक्रोश भी है पर वह व्यवस्था पर नहीं है। दलित कवि की कविता में रैदास व्यवस्था की जूती में कील ठोकता है, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि वह उसे अपने वर्ग के लिए एक क्रूर व्यवस्था मानता है। यहाँ जाति चेतना भी है और वर्ग चेतना भी।’17 (दलित कविता: नवें दशक के बाद, पृष्ठ-233)

[bs-quote quote=”धूमिल की इस कविता में मोचीराम नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व का शिकार है। जूते के मालिक को जूते का सच न बताने का जो काम वह करता है, वह अपने मन और चेतना से नहीं करता, पेट की भूख और आसपास के माहौल का प्रभाव उससे यह सब कराता है। तभी तो इस काम को वह ‘बड़ी मुश्किल से निबाहता है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अपने राजनीतिक निहितार्थ आरोपित करने की कोशिश

जिस तरह घोड़े के मुँह में लोहे की लगाम हैं, मोचीराम के हाथों में पकड़ी रांपी उसके गले की फाँस है। लोहे का स्वाद और रांपी का दर्द एक जैसा है। जिसे घोड़ा जानता है और मोचीराम जानता है, कोई लोहार या जूते की मरम्मत करवाने वाला आदमी नहीं जान सकता। जो बात धूमिल ने घोड़े के बारे में लिखी है कि ‘लोहे का स्वाद/ लोहार से मत पूछो/ घोड़े से पूछो/ जिसके मुंह में लगाम है’18 (धूमिल की अंतिम कविता), वही बात मोचीराम पर लागू होती है कि रांपी चलाने का दर्द क्या होता है उसकी अनुभूति केवल मोचीराम को ही होती है। वह रांपी चलाता जूते पर है लेकिन वह चीरती उसके कलेजे को है

रैदास ..

मोचीराम जूतों की मरम्मत करने के अपने काम में पेशेवर है क्योंकि देश की स्वाधीनता के पश्चात भले ही उसके जीवन में उन्नति और विकास की अन्य कोई खिड़की नहीं खुली हो, उसे इतनी राहत अवश्य मिल गयी है कि वह अपना मुँह खोल सकता है और अन्य लोगों की तरह शिक्षित होने और उनके जैसा जीवन जीने के सपने देख सकता है। स्वतंत्रता के बाद निम्न जातियों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे ख़ुद भूखे नंगे रहकर भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेज रहे हैं। यह निराशाजनक है कि धूमिल के मोचीराम अथवा अन्य किसी भी कविता के किसी निम्न जातीय पात्र में शिक्षा के प्रति उत्साह और आग दिखायी नहीं देती है। व्यावहारिक जीवन में यह देखा गया है कि अध्यात्म, क्रांति की आग अथवा चेतना को ठंडा कर देता है। मोचीराम नैतिकता और सिद्धांतों की बात करता है और जूते की मरम्मत करवाने वाले से मुँह खोलकर अपने काम की वाजिब मज़दूरी नहीं माँग पाता है। जबकि अदम गोंडवी साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि धर्म और नैतिकता का समाज में कोई मूल्य नहीं है। ग़रीबों को नैतिकता के खूँटे से बंधकर नहीं रहना चाहिए। क्योंकि नैतिकता और उसूलों से पेट नहीं भरता है, यथा-’चोरी न करें, झूठ न बोलें तो क्या करें/ चूल्हे पे क्या उसूल पकाएँगे शाम को।’19 मोचीराम यह बात क्यों नहीं समझ रहा है, वह क्यों नैतिकता और उसूलों में बँधा है। ‘ज़िन्दा रहने के पीछे/ अगर सही तर्क नहीं है/ तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की/ दलाली करके रोज़ी कमाने में/ कोई फर्क नहीं है’ मोचीराम का यह कथन या अवधारणा उसके अंदर नैतिक मूल्यों की गहरी पैठ की ओर इंगित करती है। जब जूते की मरम्मत करवाने वाले वर्ग के अंदर नैतिकता और ईमानदारी नहीं है, तो मोचीराम पर ही नैतिकता और मूल्यों का बोझ क्यों है? वह भी अपने काम की ठोककर मज़दूरी क्यों नहीं लेता? और जो उसे सही मज़दूरी नहीं देता है उनसे सही मज़दूरी क्यों नहीं माँगता है?

[bs-quote quote=”धूमिल के मोचीराम में शिक्षा के प्रति जागृति और उत्साह का अभाव है। धोबी, पासी, चमार, तेली आदि निम्न जातियों के लोग अपनी ज़िंदगी के अंधेरे का ताला खोलने को आतुर हैं। यह ताला शिक्षा से ही खुलेगा, इसलिए उनमें शिक्षा का प्रसार, अन्य जाति और वर्गों से अधिक आवश्यक है। डॉ अम्बेडकर द्वारा संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिए जाने तथा स्वयं पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी के तहत अनेक कॉलेज और छात्रावासों की स्थापना द्वारा निम्न वर्गों को शिक्षा की राह दिखाने के फलस्वरूप उनमें शिक्षा के प्रति ज़बरदस्त उत्साह पैदा हुआ, जो बहुत स्वाभाविक था। निराला जी ने निम्न जातियों में आ रही परिवर्तन की इस लहर को पहचाना था। किंतु, धूमिल परिवर्तन की इस लहर से अपरिचित अथवा अनभिज्ञ दिखायी देते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

धूमिल की यह कविता मोचीराम के माध्यम से दलित समाज की सामाजिक-आर्थिक दशा को चित्रित करती है। कविता बताती है कि मोचीराम पेशेवर मोची है अर्थात यह उसका जातिगत पेशा है और इस पेशे में वह कुशल है। कौशल के साथ-साथ कुछ व्यावसायिक होशियारियाँ भी उसमें आ गयी हैं। अत्यंत कटे-फटे, जगह-जगह चकतियों से भरे और लगभग पहनने योग्य नहीं रह गए जूते को देखकर मोचीराम के मन में आता है कि वह उस जूते के मालिक को सही से बता दे कि यह जूता अब उपयोग के लायक नहीं रह गया है। इसकी मरम्मत पर पैसा ख़र्च करना व्यर्थ है। किंतु पेशेवर चेतना उसकी नैतिक चेतना को दबा देती है और वह ऐसा नहीं कह पाता है। ’बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’/ मैं कहना चाहता हूँ/ मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है/ मैं महसूस करता हूँ-भीतर से/ एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो/ अपनी जाति पर थूकते हो।’/ आप यकीन करें,उस समय/ मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ/ और पेशे में पड़े हुये आदमी को/ बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।’20 मोचीराम के अंदर एक मनुष्य है जो जूते के मालिक का नुक़सान नहीं चाहता। उसकी यही मानवीय चेतना ही उसे प्रेरित करती है कि वह जूते के मालिक को जूते के बारे में सही सुझाव दे। किंतु ऐसा करके वह अपना एक ग्राहक कम करेगा और अपनी मज़दूरी खोएगा। यह व्यावहारिक दृष्टि उसे व्यवसाय से मिलती है। व्यवसाय यही सिखाता है कि दुकान में आए ग्राहक को, किसी भी तरह अपना सामान बेचा जाए। हर संभव कोशिश की जाए कि सामान ख़रीदे बिना वह दुकान से न जाए। इसी में दुकानदार का फ़ायदा है। इसके लिए ख़राब सामान को भी अच्छा बताना है। ख़राब सामान को ख़राब बताने से ग्राहक उसे नहीं ख़रीदेगा और इसका नुक़सान दुकानदार को होगा। अच्छा पेशेवर दुकानदार वही है जो ख़राब सामान को भी अच्छा बताकर ग्राहक को बेच दे और मुनाफ़ा कमाए। ‘और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी/ अपने पेशे से छूटकर/ भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है।’21 बाज़ार में रहते हुए मोचीराम भी बाज़ार की इस व्यावसायिकता को समझता है और इसके प्रभाव से ही वह जूते के मालिक से जूते का सच नहीं बताता और उसकी संभव मरम्मत करके दे देता है। मेहनत और ईमानदारी निम्न जातियों का चरित्र रहा है। बाज़ार की व्यावसायिकता ने उनके जातीय चरित्र को भी कहीं न कहीं प्रभावित किया है। किंतु इसे उनके चारित्रिक पतन के रूप में नहीं, अपितु समाज में व्याप्त झूठ, धोखा, चोरी, बेईमानी आदि के प्रभाव के रूप में ही देखा जा सकता है। धूमिल की इस कविता में मोचीराम नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व का शिकार है। जूते के मालिक को जूते का सच न बताने का जो काम वह करता है, वह अपने मन और चेतना से नहीं करता, पेट की भूख और आसपास के माहौल का प्रभाव उससे यह सब कराता है। तभी तो इस काम को वह ‘बड़ी मुश्किल से निबाहता है।

दूसरा प्रश्न यह है कि जब स्वातंत्र्योत्तर काल में, देश भर में दलितों में शिक्षा और स्वाभिमान के प्रति जागरूकता बढ़ रही थी, तब मोचीराम के अंदर ऐसी कोई जागरूकता क्यों नहीं दिखायी देती है? उसकी आँखों और चेतना में बेहतर भविष्य का कोई सपना क्यों नहीं है? वह अपनी मौजूदा स्थिति के साथ समझौता करता हुआ ही क्यों दिखायी देता है? धूमिल से बरसों पहले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने निम्न जातीय लोगों में शिक्षा के प्रति उत्साह और उसकी आवश्यकता को समझ लिया था, तभी उन्होंने अपनी एक कविता में इन वर्गों का आह्वान करते हुए कहा था, ’जल्द -जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ!/ आज अमीरों की हवेली/ किसानों की होगी पाठशाला,/ धोबी, पासी, चमार, तेली/ खोलेंगे अंधरे का ताला,एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|’ (सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ!———)।’22 लेकिन धूमिल के मोचीराम में शिक्षा के प्रति जागृति और उत्साह का अभाव है। धोबी, पासी, चमार, तेली आदि निम्न जातियों के लोग अपनी ज़िंदगी के अंधेरे का ताला खोलने को आतुर हैं। यह ताला शिक्षा से ही खुलेगा, इसलिए उनमें शिक्षा का प्रसार, अन्य जाति और वर्गों से अधिक आवश्यक है। डॉ अम्बेडकर द्वारा संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिए जाने तथा स्वयं पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी के तहत अनेक कॉलेज और छात्रावासों की स्थापना द्वारा निम्न वर्गों को शिक्षा की राह दिखाने के फलस्वरूप उनमें शिक्षा के प्रति ज़बरदस्त उत्साह पैदा हुआ, जो बहुत स्वाभाविक था। निराला जी ने निम्न जातियों में आ रही परिवर्तन की इस लहर को पहचाना था। किंतु, धूमिल परिवर्तन की इस लहर से अपरिचित अथवा अनभिज्ञ दिखायी देते हैं।

एक ब्राह्मण का दूसरा रूप

धूमिल अपनी एक अन्य कविता में मोची का दूसरा रूप प्रस्तुत करते हैं, जो मोचीराम से बिलकुल उलट है। मोचीराम को, जूते की मरम्मत की सही मज़दूरी न देकर कुछ सिक्के उछालकर और सही मज़दूरी माँगने पर चार बातें सुनाकर, डाँट-डपटकर चला जाता है और मोचीराम कुछ नहीं कह पाता। जबकि दूसरी कविता का मोची किसी देहाती आदमी से मीठा बोलकर, उसके ना-ना कहने के बावजूद पहले उसके जूते में मामूली सी मरम्मत करता है और बाद में उससे डपटकर पैसा वसूल करता है। ‘सहानुभूति और प्यार/ अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये/ एक आदमी दूसरे को,अकेले–अँधेरे में ले जाता है और/ उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है/ ठीक उस मोची की तरह जो चौक से/ गुजरते हुये देहाती को/ प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर/ रबर के तल्ले में/ लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ/ ठोंक देता है और उसके नहीं-नहीं के बावजूद डपटकर पैसा वसूलता है।’23 (धूमिल, सहानुभूति और प्यार, पृष्ठ-)

इस कविता के अनुसार मोची देहाती आदमी को जूते की मरम्मत के नाम पर ठगता है, और उससे डपटकर पैसा वसूल कर लेता है। यह संभव है कि वह देहाती आदमी के जूते की ठीक से मरम्मत नहीं करे अथवा उससे मामूली मरम्मत के ज़्यादा पैसे माँगे। किंतु मोची कभी किसी आदमी से डपटकर पैसे वसूल नहीं कर सकता। मोची किसी देहाती आदमी के साथ भी ऐसा तभी कर सकता है यदि वह देहाती आदमी भी कोई निम्नजातीय हो, उच्च जातीय व्यक्ति के साथ नहीं।  मोची द्वारा किसी आदमी से डपटकर पैसे वसूल करने का यह चित्रण यथार्थ से दूर है। कोई ब्राह्मण हाथ देखकर सुनहरा भविष्य बताने के नाम पर अथवा गले में साँप लटकाए कोई व्यक्ति साँप का भय दिखाकर अवश्य किसी देहाती अथवा साधारण आदमी को ठग सकता है, किंतु मोची का काम करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह की संभावना नहीं है।

संदर्भ:

  1. वही
  2. वही
  3. अदम गोंडवी, चमारों की गली,
  4. बाबा नागार्जुन, हरिजनगाथा,
  5. जयप्रकाश कर्दम, गूँगा नहीं था मैं, पृष्ठ-५८
  6. दलित कविता: नवें दशक के बाद, पृष्ठ-२३३
  7. धूमिल, अंतिम कविता, ———
  8. अदम गोंडवी, चमारों की गली,
  9. धूमिल, मोचीराम,
  10. वही
  11. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, कविता डॉट काम
  12. धूमिल, सहानुभूति और प्यार,

 

गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें