Thursday, March 28, 2024
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भगवा आईटी सेल सिर्फ अहीरों पर ही क्यों पोस्ट लिखता है?

एक यादव आईएएस अधिकारी, जो इतिहासकार भी हैं, द्वारा लिखा गया इस प्रकार का ‘कटु सत्य’ सोशल मीडिया पर वायरल हुआ – मैं ब्राम्हणों का बहुत सम्मान करता हूँ, इसलिए इस सत्य को सभी से साझा करने से, अपने आपको रोक नहीं पाया। ब्राह्मणों ने समाज को तोड़ा नहीं अपितु जोड़ा है। ब्राम्हणों ने विवाह […]

एक यादव आईएएस अधिकारी, जो इतिहासकार भी हैं, द्वारा लिखा गया इस प्रकार का ‘कटु सत्य’ सोशल मीडिया पर वायरल हुआ –

मैं ब्राम्हणों का बहुत सम्मान करता हूँ, इसलिए इस सत्य को सभी से साझा करने से, अपने आपको रोक नहीं पाया।

ब्राह्मणों ने समाज को तोड़ा नहीं अपितु जोड़ा है।

ब्राम्हणों ने विवाह के समय समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलित को जोड़ते हुये अनिवार्य किया कि दलित स्त्री द्वारा बनाये गये चुल्हे पर ही सभी शुभाशुभ कार्य होंगे। इस तरह सबसे पहले दलित को जोड़ा गया…

धोबन के द्वारा दिये गये जल से ही कन्या सुहागन रहेगी, इस तरह धोबी को जोड़ा…

कुम्हार द्वारा दिये गये मिट्टी के कलश पर ही देवताओं के पूजन होंगे यह कहते हुए कुम्हार को जोड़ा…

मुसहर जाति जो वृक्ष के पत्तों से पत्तल/ दोनिया बनाते हैं, यह कहते हुये जोड़ा कि इन्हीं के बनाए गये पत्तल/ दोनियों से देवताओं का पूजन सम्पन्न होंगे…

कहार जो जल भरते थे, यह कहते हुए जोड़ा कि इन्हीं के द्वारा दिये गये जल से देवताओं के पूजन होंगे…

बिश्वकर्मा जो लकड़ी का कार्य करते थे, यह कहते हुये जोड़ा कि इनके द्वारा बनाये गये आसन/ चौकी पर ही बैठकर वर-वधू देवताओं का पूजन करेंगे …

फिर वह हिन्दू जो किन्हीं कारणों से मुसलमान बन गये थे, उन्हें जोड़ते हुये कहा गया कि, इनके द्वारा सिले हुये वस्त्रों (जामे-जोड़े) को ही पहनकर विवाह सम्पन्न होंगे…

फिर उस हिन्दू से मुस्लिम बनीं औरतों को यह कहते हुये जोड़ा गया कि, इनके द्वारा पहनाई गयी चूडियां ही वधू को सौभाग्यवती बनायेगी…

धारीकार जो डाल और मौरी को दुल्हे के सिर पर रखकर द्वारचार कराया जाता है, को यह कहते हुये जोड़ा गया कि इनके द्वारा बनाये गये उपहारों के बिना देवताओं का आशीर्वाद नहीं मिल सकता….

डोम जो गंदगी साफ और मैला ढोने का काम किया करते थे, उन्हें यह कहकर जोड़ा गया कि मरणोंपरांत इनके द्वारा ही प्रथम मुखाग्नि दिया जाएगा…

इस तरह समाज के सभी वर्ग जब आते थे तो, घर कि महिलायें मंगल गीत का गायन करते हुये उनका स्वागत करती हैं और पुरस्कार सहित दक्षिणा देकर बिदा करती थी…

‘ब्राह्मणों का दोष कहाँ है’?…हाँ ‘ब्राह्मणों’ का दोष यही है कि इन्होंने अपने ऊपर लगाये गये निराधार आरोपों का कभी खंडन नहीं किया, जो ब्राह्मणों के अपमान का कारण बन गया। इस तरह जब समाज के हर वर्ग की उपस्थिति हो जाने के बाद ब्राह्मण, नाई से पुछता था कि, क्या सभी वर्गों कि उपस्थिति हो गयी है…?

नाई के हाँ कहने के बाद ही ब्राह्मण मंगल-पाठ प्रारम्भ किया करते हैं।

ब्राह्मणों द्वारा जोड़ने कि इस क्रिया को छोड़वाया, विदेशी मूल के लोगों नें अपभ्रंश किया।

देश में फैले हुये समाज विरोधी साधुओं और ब्राह्मण विरोधी ताकतों का विरोध करना होगा, जो अपनी अज्ञानता को छिपाने के लिये वेद और ब्राह्मण कि निन्दा करतेे हुये पूर्ण भौतिकता का आनन्द ले रहे हैं।…

वस्तुतः हम यादव भी क्षत्रिय ही हैं और हमारा धर्म है, ब्राह्मणों की रक्षा करना और मैं इससे सदा वचनबद्ध हूँ।

अशोक कुमार यादव, इतिहासकार

।। 100% सत्य वचन ना कोई शंका ना कोई संशय ।।

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मुहावरों और कहावतों में जाति

प्रबुद्ध पाठक ऊपर लिखित गद्यांश की भाषा और वर्तनी से एक आईएएस की विद्वत्ता का आकलन कर ही लिए होंगे। एक भी वाक्य शुद्ध नहीं है।

सबसे पहले तो इस लेख पर मैं कैसे और किसको संबोधन करूं यही समझ में नहीं आ रहा है। यह लेख लिखने वाला पहले तो अशोक कुमार यादव, इतिहासकार या आईएएस हो ही नहीं सकता। ऐसी ऊंच-नीच, जातिवादी और गंदी मानसिकता लिए हुए पढ़ा-लिखा आईएएस भी होगा तो भगवा आईटी सेल का ब्राह्मण ही हो सकता है। दूसरा कत्तई नहीं हो सकता है और यह कहना कि,

हम यादव भी क्षत्रिय ही हैं और हमारा धर्म है, ब्राह्मणों की रक्षा करना और मैं इससे सदा वचनबद्ध हूं।  एक  समझदार यादव और वह भी आईएएस के सन्दर्भ में नितांत फ़र्ज़ी दंभ के अलावा कुछ नहीं है।

अरे इतिहासकार जी, शादी सम्पन्न कराने में जब सभी जातियों का साथ रहा तो, यह क्यों नहीं लिखे कि दलित, डोम, मुसहर और सभी जातियां ब्राह्मणों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन भी करती हैं। यह कैसे भूल गए? क्या सामूहिक भोज के बिना शादी सम्पन्न होती है? दूसरी, एक और बात विद्वान आईएएस महोदय! यदि ब्राह्मण, सभी जातियों को शादी के माध्यम से जोड़ता ही था तो वह सभी जातियों, यहां तक कि डोम, मुसहर से, अपनी बहन-बेटियों की शादी भी करता था। यह लिखना कैसे भूल गए?

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एक कहावत है, जहां धुआँ होता है, वहीं आग भी लगती है। मुझे यह समझ में नहीं आता है कि, आज 21वीं सदी के वैज्ञानिक युग में ब्राह्मण यादवों को इतना मूर्ख क्यों समझता है? या कुछ यादव ही सही मायने में मूर्ख हैं! यदि हैं तो यादव समाज को इस पर गम्भीरता से चिन्तन की ज़रुरत है।

सैकड़ों भगवा आईटी सेल से मैसेज सिर्फ यादवों पर ही क्यों लिखे जाते हैं?  

यह आज तक इसलिए हो रहा है कि चतुर ब्राह्मण जानता है कि एक भिखारी सुदामा जब राजा श्रीकृष्ण को मूर्ख बना सकता है, तो आज हम पढ़े-लिखे ब्राह्मण विद्वान यादवों को क्यों नहींं उल्लू बना सकते?

उस समय के राजा श्रीकृष्ण की मूर्खता खासतौर पर झलकती भी है। अपनी प्रजा का ख्याल किए बिना, अपने भिखारी दोस्त को राजपाट का तीसरा हिस्सा दे देना? इतनी भी सोच पैदा नहीं हुई कि भिखारी राजपाट को कैसे सम्हाल पाएगा? कुछ समय के लिए मान लेता हूं, चलिए आपका दोस्त भिखारी था, तो उसे अपने राजदरबार में, उसके लायक काम दे दिए होते। यदि अनपढ़-गंवार था तो खाना बनाने का या बर्तन साफ करने का काम तो कर ही सकता था।

आज भी व्हाट्सएप पर बहुत से मूर्ख अंधभक्त मुझे इन विषयों को लेकर अपशब्द बोलते हैं और पंडितजी को उच्च मानते हुए उनके पांव पड़ते हैं तथा कृष्ण-सुदामा की दोस्ती को पवित्र मानते हैं। असल में यह सब संघ-भाजपा पोषित आईटी सेल का प्रचार है। हिंदी में नरोत्तमदास नामक एक छोटे से कवि की बहुत मामूली पोथी है- सुदामा चरित। इसमें कवि ने अपने समय के राजा को खुश करके दान लेने के लिए एक ऐसी कविता बनाई जिसमें कृष्ण की दानशीलता का बखान किया है ताकि इससे द्रवित होकर राजा नरोत्तमदास जैसे फटीचर को कुछ दे दे। इसके अलावा किसी अन्य किताब में कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

इतिहास बताता है तमाम शासक ऐसे चापलूसों को कुछ न कुछ देते रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि ब्राह्मणों ने कभी परिश्रम का कोई काम नहीं किया है बल्कि समाज के लोगों को उलझाने वाले किस्से-कहानियों में भरमा कर बहुत कुछ ऐंठ लेते रहे हैं। ऐसा ही एक किस्सा उन्होंने कर्ण की दानवीरता का फैलाया कि वह प्रतिदिन सवा मन सोना दान करके ही नाश्ता करता था। विद्वानो! इस पर विचार कीजिये कि सवा मन सोने के हिसाब से एक साल में कितना सोना हुआ? और जब तक कर्ण जीवित रहा तब तक उसने कितना सोना दान दिया? इतना सोना आता कहाँ से था? और इतना सोना जाता किधर था? ब्राह्मणों ने हमेशा अपनी ग़रीबी का रोना रोया है लेकिन हजारों मन सोना दान पाने के बावजूद वे दरिद्र के दरिद्र ही क्यों रहे?

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ब्राह्मण दान लेता है लेकिन दूसरे भीख क्यों पाते हैं?

एक सवाल यह भी उठाना लाज़मी है कि ब्राह्मण जब कहीं भीख मांगने जाता है तो उसे दान और दक्षिणा कहता है लेकिन दूसरों को दान में मिली वस्तुओं को भीख कहता है, जबकि किसी के सामने याचना करनेवाले सभी भिखारी ही हैं। बेशक इसके पीछे कुछ ऐसे कारण हैं जिन्हें जानना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि राजसत्ताएँ शोषण और दमन की नींव पर खड़ी होती थीं और उनके लिए खून-खराबा और षड्यंत्र रोजमर्रा की बात थी लेकिन किसी भी सत्ता का उदय धार्मिक कर्मकांड और पाखंड से कभी नहीं हुआ। विजयी राजा हमेशा बलशाली और क्रूर रहा है। जब वह गद्दी पर बैठता था तब उसके सामने राजसत्ता की पूरी ताकत होती थी।

लेकिन ऐसे लोग जो किसी न किसी रूप में सत्ता पर काबिज होते थे वे आत्ममुग्ध और आत्मश्लाघा से भरे होते थे और उन्हें हमेशा चारणों, भाटों और चापलूसों की ज़रुरत पड़ती थी जो उसका गुणगान कर सकें। इसका एक उदाहरण तो यही है कि सारा का सारा इतिहास ही राजा का बखान करता है। जितने भी महाकाव्य और कथानक-किस्से हैं सब राजाओं के हैं। आज भी हम यही देखते हैं। इस समय मोदी काल में तो सारा मीडिया ही गोदी मीडिया कहा जा रहा है। अपनी तारीफ के लिए आईटी सेल बनाये और चलाये जा रहे हैं। मायावती और अखिलेश जैसे बहुजन नेता केवल उन्हीं से मिलते हैं जो उनके चमचे और चापलूस हों। बहरहाल, ब्राह्मणों ने चापलूसी कर्म को सदियों से अपनी आजीविका का आधार बनाया हुआ है। ऐसी ही चापलूसी करते हुए जब उन्होंने राजाओं का भरोसा जीत लिया तो अपने परिवारों और समाजों के लिए दक्षिणा भाग निर्धारित करवा लिया जो आजतक चला आ रहा है। दक्षिणा ब्राह्मणों की बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत है जो किसी अन्य को नहीं मिल सकता और जिसके दम पर वह आज सारे बहुजन समाज को तहस-नहस कर सकने की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक ताकत रखता है और कर भी रहा है।

भीख को लेकर भी एक कड़वा इतिहास है। भीख शब्द भक्ष यानि खाना और भुक्ष यानी भूख से बना है। यानि भूखे को खाना अनिवार्य है। इस रूप में यह एक ज़रुरी शब्द है लेकिन आगे चलकर यह गर्हित क्यों बन गया इस पर विचार करने की ज़रुरत है। असल में शासकों ने हमेशा उन लोगों को अपने आस-पास रखा है जो प्रबुद्ध हैं। ब्राह्मण ने यह जगह पहले ही हथियाई हुई थी लेकिन बौद्धकाल में जब अधिक मेधावी और वस्तुवादी लोगों का समय आया तो ब्राह्मणों को लगा कि उनका पाखंड खुलते ही उनकी आजीविका का आधार ख़त्म हो सकता है। इतिहास गवाह है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के खिलाफ कितने भयंकर षड्यंत्र किये और लोगों के बीच उनके प्रति घृणा फ़ैलाने के लिए उनको मिलनेवाली सामग्री को भीख कहकर अपमानजनक बना दिया।

यहाँ तक कि अकाल के दिनों में जब जनता भूख से मरने लगती थी और तत्कालीन शासकों से जब वह लगान माफ़ करने और कोषागार से अन्न-वस्त्र देने की दुहाई देती थी तब भी ब्राह्मणों ने लोगों को भिखारी कहकर दुत्कारे जाने की पृष्ठभूमि तैयार की। यहाँ तक कि बहुजनों की भागीदारी के आरक्षण को भी भीख कहकर अपमानित करते रहे हैं। गज़ब कि बात यह है कि सब कुछ के बावजूद उनकी दक्षिणा न केवल सुरक्षित है बल्कि दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है।

यादवों की इन कमजोरियों का ब्राह्मणों ने जमकर फायदा उठाया है। उन्होंने यादवों के साथ हमेशा दुहरा व्यवहार किया है। एक तरफ दूसरों के खिलाफ उन्हें उकसाया है तो दूसरी तरफ उनके खिलाफ दूसरों के मन में विद्वेष भी भरा है। ब्राह्मण जानता है कि इसी तरह एक बड़ी आबादी को भरमाया और उपेक्षित किया है। संघ का एजेंडा भी इसी तरह का दोहरा एजेंडा है।

क्या ब्राह्मणों की नज़र में अहीर मूर्ख हैं?

भारत में जातियों के जीवन और चरित्र को समझना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि सभी जातियाँ अलग-अलग भौगोलिक दायरे में अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ रहती हैं। इसके बावजूद कि जाति-व्यवस्था ने उन्हें कई स्तरों पर रूढ़ बना दिया है। मोटे तौर पर विभाजन जाति से भी ऊपर वर्ण के तहत दीखता है जो वस्तुतः जातियों के समुच्चय का निर्माण करता है और हम साफ़-साफ़ यह देख सकते हैं कि इस तरह अधिकांश गुण-दोष इसी आधार पर परिलक्षित होते हैं। ब्राह्मणों का जाति-विभाजन दो हज़ार से अधिक जातियों में है लेकिन वर्ण के रूप में वे अपने आपको बौद्धिक मानने का भ्रम बनाते हैं। यहाँ तक कि वे अपने को जाति के रूप में नहीं दिखाते बल्कि जाति-समुच्चय के तौर पर वर्ण के रूप में दिखाते हैं। यह उनकी एकता का सबसे बड़ा आधार है। इसको वस्तुगत रूप में देखा जा सकता है कि ब्राह्मण प्रायः किसी भी उत्पादक कार्य में, मसलन हल चलाने, खेत बोने, फसल काटने आदि से दूर ही रखते रखते हैं। यह सब कार्य उनके लिए वर्जित है। ऐसे काम करने वाले ब्राह्मणों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। जाहिर है एक मेहनतकश देश में ऐसी वर्जनाओं के बावजूद सदियों से जीवित रहना, अपने को श्रेष्ठ घोषित किये रहना और अपनी स्थिति को सुरक्षित रखना एक षड्यंत्रकारी कौशल की मांग करता है। बेशक ब्राह्मण इसमें निपुण रहे हैं।

जाति और वर्ण व्यवस्था बाकियों के जिम्मे कोई न कोई शारीरिक काम और कौशल निर्धारित करती है। लेकिन वे ब्राह्मणों के बराबर नहीं मानी जातीं। लेकिन श्रेष्ठताबोध ने उनके भीतर हमेशा एक बेचैनी पैदा की है। लिहाज़ा ज्यादातर जातियाँ अतीतजीवीता का सहारा लेकर अपने आपको क्षत्रिय बनाना चाहती हैं ताकि वे जातिगत स्तर पर सम्मानित महसूस करें। घनघोर परिश्रम के कारण हताश-निराश जातियाँ घूम-फिरकर फिर से जाति-वर्ण व्यवस्था के चंगुल में फंसती रही हैं। ब्राह्मणों ने इस अंतर्विरोध का फायदा हमेशा उठाया है. यादवों के साथ भी यही त्रासदी है।

भारत की आबादी में बड़ी हिस्सेदारी करते हुए भी यादवों के अपने अंतर्विरोध हैं। उनका अतीत और उसके मिथक उन्हें बार-बार वर्तमान चुनौतियों से उखाड़कर अतीतजीवी बनाते हैं जिसकी वजह से वे अपनी राजनीतिक ताकत कभी नहीं पा सके। इसके बावजूद कि वे सहनशील और लड़ाकू हैं तथा भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई में उनका बेमिसाल योगदान है लेकिन सही मायने अपने को आधुनिक और डी-क्लास बनाने में सफल नहीं हो पाए हैं। वे बार-बार अपनी जड़ों को ब्राह्मणवादी पोथों में तलाशते हैं जहाँ उन्हें बहुत ज्यादा गालियाँ दी गई हैं। भले ही कुछ जगहों पर महिमामंडन भी किया गया हो लेकिन उससे आखिर उनके वर्तमान और भविष्य को क्या लाभ हो सकता है।

यादव की इन कमजोरियों का ब्राह्मणों ने जमकर फायदा उठाया है। उन्होंने यादवों के साथ हमेशा दुहरा व्यवहार किया है। एक तरफ दूसरों के खिलाफ उन्हें उकसाया है तो दूसरी तरफ उनके खिलाफ दूसरों के मन में विद्वेष भी भरा है। ब्राह्मण जानता है कि इसी तरह एक बड़ी आबादी को भरमाया और उपेक्षित किया है। संघ का एजेंडा भी इसी तरह का दुहरा है। यादवों के भीतर श्रेष्ठता और साम्प्रदायिकता के बीज बोना और धीरे-धीरे उनके वोट में सेंध लगाना। लेकिन हर पढ़ा-लिखा यादव जानता है कि सामाजिक न्याय और समता-बंधुत्व की राह में संघ कितना बड़ा रोड़ा है।

समझदार, जागरूक यादव बन्धुओ! जब तक यादवों को षड्यंत्र के तहत मूर्ख बनाने वाली कृष्ण-सुदामा की दोस्ती को बीच चौराहे पर जूता नहीं मारोगे तब तक ब्राह्मण आपको मूर्ख ही समझता रहेगा और आप मूर्ख बनते रहेंगे।

लेखक शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं।

शूद्र शिवशंकर सिंह यादव
शूद्र शिवशंकर सिंह यादव MTNL मुम्बई. से सेवानिवृत्त इन्जिनियर हैं। उन्हें ‘संचारश्री’ एवार्ड से सम्मानित हैं। वे ‘गर्व से कहो हम शूद्र हैं’ मिशन के प्रणेता हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘बहुजन चेतना’, ‘मानवीय चेतना’, ‘गर्व से कहो हम शूद्र हैं’, ‘ब्राह्मणवाद का विकल्प शूद्रवाद’ तथा ‘यादगार लम्हे’ शामिल हैं। सोशल मीडिया पर उनके लेख, भाषण और इन्टरव्यू आदि उपलब्ध हैं। वे शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं।गूगल & यूट्यूब @ ‘शूद्र शिवशंकर सिंह यादव’ तथा @ ‘गर्व से कहो हम शूद्र हैं’ और फेसबुक पर ‘शूद्र शिवशंकर सिंह यादव’ के नाम से खोजा जा सकता है।

4 COMMENTS

  1. ये आर्टिकल लेखक महोदय ने अच्छा लिखा तो है लेकिन ज़्यादा तार्किक दिखाने के चक्कर में लिखते लिखते उनकी बहुजन नेताओं के प्रति टिप्पनि ग़ैरज़रूरी और खिसियाहट भरी दिख रही है जिसने एक अच्छे ख़ासे तार्किक लेख का पूरा तारतम्य ही बेस्वाद कर दिया

    • सही कहा आप ने, लेकिन बहुजन नेताओं के कारण ही ऐसे कमेंट बहुजनों पर आज तक जारी है, इसलिए इनपर टिप्पणी भी लाजमी है.

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