मुक्तिबोध को एक ग़ज़लकार की चिट्ठी – 2

आपके ज़माने में एक ऐसा तक़्क़ीपसंद नज़रिया भी राइज था, जिसमें इतनी भी ‘सहूलियत’ बर्दाश्त नहीं की जा पाती थी, जैसा कि नैरेटर बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था । असली सवाल तो ये था कि रमेश की सहूलियतों से भरी इस ‘नयी ज़िंदगी’ की शुरूआत का करिश्मा हुआ कैसे ? इन दो वाक़ियों के … Continue reading मुक्तिबोध को एक ग़ज़लकार की चिट्ठी – 2