देश भर के बीमा अभिकर्ता आंदोलन पर हैं। उनका कहना है की जीवन बीमा अभिकर्ता अधिनियम 1972 भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता (संशोधन) अधिनियम 2017 अभिकर्ताओं के हितों के अनुकूल नहीं हैं। ये दोनों अधिनियम अभिकर्ताओं के अधिकारों को खत्म करने और उनके दमन का रास्ता साफ करने के औज़ार हैं। उनका कहना है कि 1 अक्तूबर 2024 को लाये गए निर्णय में निगम ने कई ऐसे नियम लागू किए जो अभिकर्ताओं और पालिसीधारकों दोनों के लिए खतरनाक हैं। अभिकर्ता संगठनों द्वारा इसका विरोध किया गया लेकिन प्रबंधन ने उनकी कोई बात नहीं मानी। अंततः 24 मार्च से वे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए।
भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विशद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ।
भारत में पॉल्ट्री फ़ार्मिंग का तेजी से फैलता कारोबार है। अब इसमें अनेक बड़ी कंपनियाँ शामिल हैं जिनका हजारों करोड़ का सालाना टर्नओवर है लेकिन मुर्गी उत्पादक अब उनके बंधुआ होकर रह गए हैं। बाज़ार में डेढ़-दो सौ रुपये बिकनेवाला चिकन पॉल्ट्री फार्म से मात्र आठ रुपये किलो लिया जाता है। अब मुर्गी उत्पादक स्वतंत्र इकाई नहीं हैं। कड़े अनुबंध शर्तों पर वे कंपनियों के चूजे और चारे लेकर अपनी मेहनत से उन्हें पालते हैं और कंपनी तैयार माल उठा लेती है। मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकारी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? पूर्वांचल के पॉल्ट्री उद्योग पर अपर्णा की रिपोर्ट।
सरकार नहरों के जीर्णोद्धार, मरम्मत के साथ-साथ नहरों के दोनों पटरियों पर सुगम आवागमन व्यवस्था की खातिर सड़क बनाने पर जोर दे रही है। दूसरी ओर बलिया जिले के बांसडीह तहसील क्षेत्र के सुखपुरा से सावन सिकड़िया, अपायल गांव तक जाने वाली महज पांच किलोमीटर दूरी की नहर की पटरी उपेक्षा का दंश झेलते हुए वीरान बनी हुई है। मानो वह इलाके के मानचित्र से बाहर हो चली है। जबकि इस नहर की पटरी वाली सड़क से कई गांवों के लोगों का आवागमन होता रहा है। यूं कहें कि यह लोगों की जीवन रेखा रही है। दिन हो या रात, पैदल सहित वाहनों का भी आवागमन होता रहा है, लेकिन ईट का खड़ंजा जो तकरीबन तीन दशक पहले बिछाया गया था (जिसके अंश कहीं कहीं दिखाई दे जाते हैं) उखड़ने के साथ ही अपना वजूद खो चुका है। सड़क का वजूद गुम हुआ तो उसका स्थान धीरे-धीरे जंगली झाड़ियों ने ले लिया। झाड़ियों के आगोश में नहर की पटरी ही गुम हो गई।
किसी ज़माने में चुनार के चीनी मिट्टी के बर्तनों की धाक बहुत दूर-दूर तक थी लेकिन आज वह अंतिम साँस ले रहा है। यहाँ के ज़्यादातर व्यवसायी खुर्जा से माल मंगाकर कर बेचते हैं। चुनार पॉटरी उद्योग के खत्म होने के पीछे एक अदद आधुनिक भट्ठी है जो बरसों की मांग के बावजूद नहीं लगाई जा सकी। नौकरशाही की अपनी अलबेली चाल है और व्यवसायियों की अपनी आर्थिक सीमाएं हैं। इन्हीं स्थितियों के कारण महज़ तीन-चार करोड़ की लागत वाली भट्ठी नहीं बन पाई जबकि भारत सरकार पूर्वांचल के विकास के लिए हजारों करोड़ की योजनाएँ घोषित कर चुकी है। एक भट्ठी के अभाव ने एक शहर की कारोबारी पहचान और हजारों लोगों की आजीविका छीन ली है। चुनार से लौटकर अपर्णा की रिपोर्ट
सरकार योजनाएँ लाती है और इसके लिए करोड़ों रुपए का बजट पास करती है। योजना की घोषणा के बाद लगता है कि अब सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी लेकिन तंत्र में बैठे लोग योजनाओं से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की जुगत लगाते हैं। ऊपर तो भ्रष्टाचार है ही नीचे वाले जो सीधे जनता से जुड़े होते हैं, वे भी गरीब मजदूर जनता को साफ-साफ ठगने का काम करते हैं। योगी सरकार का दावा है कि हर रोज 40 हजार नए नल में पानी की आपूर्ति हो रही है, गाँव में नल तो लगे हुए हैं लेकिन अधिकाशत: नलों में पानी की जगह हवा निकल रही और जो दावे की पोल खोल रही है। वाराणसी के नहवानीपुर नट बस्ती से अपर्णा की ग्राउंड रिपोर्ट
जौनपुर की धरोहरें केवल इतिहास का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वे एक जीवंत संस्कृति का प्रतीक भी हैं। अगर इन स्थलों को सहेजने और प्रचारित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं, तो यह शहर न केवल अपनी पहचान बचा सकता है, बल्कि पर्यटन के माध्यम से विकास की नई कहानी भी लिख सकता है। जौनपुर शहर की पहचान जिन ऐतिहासिक धरोहरों से होती है, वे देखरेख के अभाव में लगातार खंडहर में तब्दील हो रही हैं। लगभग 600 साल पुरानी इस विरासत होने के बावजूद यह स्थान पर्यटन स्थल के रूप में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है। पढ़िए आनंद देव की ग्राउंड रिपोर्ट
देश भर के बीमा अभिकर्ता आंदोलन पर हैं। उनका कहना है की जीवन बीमा अभिकर्ता अधिनियम 1972 भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता (संशोधन) अधिनियम 2017 अभिकर्ताओं के हितों के अनुकूल नहीं हैं। ये दोनों अधिनियम अभिकर्ताओं के अधिकारों को खत्म करने और उनके दमन का रास्ता साफ करने के औज़ार हैं। उनका कहना है कि 1 अक्तूबर 2024 को लाये गए निर्णय में निगम ने कई ऐसे नियम लागू किए जो अभिकर्ताओं और पालिसीधारकों दोनों के लिए खतरनाक हैं। अभिकर्ता संगठनों द्वारा इसका विरोध किया गया लेकिन प्रबंधन ने उनकी कोई बात नहीं मानी। अंततः 24 मार्च से वे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए।
विगत दिनों कृषि संकट के साथ ही दूसरे ज्वलंत मुद्दों पर बरगढ़ में राज्य भर से भारी संख्या में आए किसानों की महापंचायत हुई। महापंचायत में आए किसान नेताओं ने किसानों से अपने अधिकारों और आत्मरक्षा के लिए बड़े संघर्ष के लिए तैयार रहने का आह्वान किया है।
फिल्म छावा प्रदर्शित होने के बाद औरंगजेब को कब्र से निकालकर पुन: मारने की साजिश में सांप्रदायिक दंगों को हथियार बनाया जा रहा है। सवाल न भी उठाया जाए तब भी सभी जानते हैं कि इस साजिश को योजनाबद्ध तरीके से करने में किसका हाथ है। संघी हिंदू राष्ट्र का सपना देखते हुए इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत कर युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। यही कारण है कि युवा साहस के साथ गुंडागर्दी करने में सबसे आगे हैं। इस तरह की स्थिति सोचने को विवश करती है कि आखिर यह देश कहाँ पहुँच गया है?
खराब कानून गरीब लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, क्योंकि वे पुलिस और छोटी अदालतों की शक्ति के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। भारतीय न्यायिक व्यवस्था में न्याय प्रणाली का लंबे समय तक अटके रहने के कारण ध्वस्त होती नज़र आ रही हैं। साथ ही अपराधों की परिभाषा में स्पष्टता नहीं होना, सजा में असमानता, पीड़ितों को उपेक्षित करने के कारण विश्वसीनयता में कमी आई है। लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर हाल ही में घोषित जनविश्वास विधेयक 2, जिसके बाद जल्द ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जनविश्वास 3 विधेयक पेश किए जाने पर क्या बदलाव होंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा।
वर्ष 2014 के बाद भारत की धर्ननिरपेक्षता पर लगातार हमला हुआ है। देश में हिंदुत्ववादी विचारधारा ने लगातार सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश की है। रोजाना एक-दो खबरें सुनाई दे रही हैं। केवल पुलिस-प्रशासन ही नहीं बल्कि जनप्रतिनिधि भी गैर जिम्मेदाराना बयान दे आग भड़का रहे हैं।
गाजीपुर जिले के कासिमबाद-नोनहरा इलाके में स्थित एक गाँव क़यामपुर छावनी के लोगों ने अपने गाँव से गुजरनेवाली मंगई नदी पर पुल का निर्माण शुरू कर दिया है। इसमें खास बात यह है कि लोगों ने जनसहयोग से इतना बड़ा कम शुरू किया है और काफी हद तक काम पूरा कर दिया है। आसपास के गांवों के लोगों के अलावा जिले के अन्य इलाकों से भी उन्हें सहयोग मिल रहा है। हालांकि वे लंबे समय तक पुल की मांग करते रहे लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहे। जनप्रतिनिधियों ने दशकों तक उन्हें गच्चा दिया। अंततः लोगों ने स्वयं ही यह बीड़ा उठाया। पिछले साल फरवरी में शुरू हुआ काम आधे से अधिक पूरा हो चला है। यह लोगों के सहयोग, समर्पण और सामाजिक नवाचार की एक अनूठी मिसाल बन गया गया है। अपर्णा की रिपोर्ट।
उड़ान ट्रस्ट इंडिया और नट समुदाय संघर्ष समिति बेलवा वाराणसी समाज उत्थान सेवा समिति के संयुक्त तत्वावधान में विमुक्त घुमंतु खानाबदोश समुदाय के लिए महिला मुक्ति दिवस पर विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
वयोवृद्ध बिरहा गायक बाला राजभर के एक साक्षात्कार से बौखलाए पूर्व एमएलसी और समाजवादी पार्टी के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष काशीनाथ यादव अपने चेले सुरेन्द्र यादव और उनके गुंडों के साथ बाला जी के गाँव गए और उन्हें जातिसूचक गालियाँ दी और धमकाया। बाला जी के पुत्र रमेश प्रसाद राजभर ने फोन से इसकी सूचना दी। वह डरे हुये हैं। काशीनाथ का गैंग कभी भी उन पर हमला कर सकता है। इस घटना से बिरहा जगत में भारी आक्रोश है। लोगों का कहना है कि काशीनाथ यादव के व्यवहार से हम सभी आहत हैं। अगर उन्होंने गलत किया है तो उन्हें अविलंब बालाजी से माफी मांगनी चाहिए। इस घटना से अखिलेश यादव द्वारा चलाये जा रहे पीडीए आंदोलन को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर भर्ती में हुई अनियमितता की खबर कोई पहली खबर नहीं है बल्कि ऐसी खबरें सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार सामने आ रही हैं। एनएफएस हो या आरक्षण का मामला हो, इनसे संबंधित गड़बड़ियाँ जानबूझकर की जा रही हैं क्योंकि संस्थानों में ऊंचे पदों पर बैठे लोग सरकार की कठपुतलियाँ हैं। सरकार की मंशा ही है कि पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलित समाज के युवा योग्य होने के बाद भी बेरोजगार रहें, वे मुख्यधारा में शामिल न हो सकें, इसके लिए उन्हें अयोग्य ठहराने का एक उपाय है कि गड़बड़ियाँ कर उन्हें वंचित कर दिया जाए।
भोजपुरी बिरहा के प्रसिद्ध गायक श्यामदेव प्रजापति नहीं रहे। पाँच फरवरी की भोर में हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। वह न केवल इस दौर के एक महत्वपूर्ण गायक थे बल्कि अपने प्रयासों से बिरह की कई विभूतियों की विरासत को सँजोने में अग्रणी भी रहे हैं। उनके जीवन और गायकी को याद कर रहे हैं कवि रामचरण वियोगी।
भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विशद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ।
डॉ नेने वडोदरा के एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और कट्टर सावरकराइट थे। नब्बे के दशक में डॉ सुरेश खैरनार एक शाम उनके बुलावे पर खाना खाने गए। उस समय राम मंदिर कि गतिविधियाँ तेज हो रही थीं। ज़ाहिर है बातचीत के केंद्र में वही था। उस समय डॉ नेने ने कहा कि राम के नाम पर हमें केंद्र की सत्ता चाहिए। पढ़िये यह दिलचस्प बातचीत जिसको हिन्दी में रांची के वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट श्रीनिवास ने प्रस्तुत किया है।
जिस पार्टी के पास आम जनता के असली मुद्दों से टकराने का साहस नहीं होता, वह ऐसे ही मुद्दों पर सुर्खियां बटोरने के काम में लगी रहती है, चाहे उसके परिणाम देश के लिए कितने ही खतरनाक क्यों न हो! औरंगजेब के बाद अकबर, बाबर और अब तुगलक को निशाने पर साधा है, क्योंकि संघ की स्थापना हिंदुत्व और सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी, इसमें अब इनका राजनैतिक दल भाजपा बढ़ चढ़कर काम कर इतिहास बदलने का काम कर रहा है।
हिन्दुत्ववादी राजनीति का हमारे उत्सवों पर पड़ा प्रभाव उस राजनीति के बारे में बहुत कुछ कहता है। जिस प्रकार इनमें से कुछ त्योहारों को हथियार बना लिया गया है, यह शर्मनाक है। हिंदू राष्ट्रवादियों का एक छोटा सा समूह भी धार्मिक जुलूस होने का दावा करते हुए अल्पसंख्यकों की बस्तियों से जाने की जिद कर सकता है। राजनैतिक और गाली-गलौज भरे नारे लगाकर और हिंसक गाने और संगीत बजाकर वह कोशिश करता है कि वहां के निवासी युवक भड़क जाएं और उन पर एकाध पत्थर फेकें। इसके आगे का काम सरकार करती है।
आज़ एलेन मस्क व डोनाल्ड ट्रम्प का तेवर किसी ताकत का नही बल्कि कमजोरी का प्रदर्शन है। आज़ अमेरिकी पूंजी अपने सारे लोकतांत्रिक खोल उतार फेंकना इसी लिए चाह रही है। 80 के दशक में अपनाए गए वैश्वीकरण की नीतियों को, जो खुद सामराजी पूंजी ने अपने लिए ही बनाए थे, उन नीतियों को और उनसे जुड़े वैश्विक संस्थाओं को भी बर्दाश्त करने की स्थिति नही रह गई है, तथाकथित ग्लोबलाइजेशन को एक बार फिर से नये तरह के डी ग्लोबलाइजेशन में बदला जा रहा है।
भारत में फासीवाद के लक्षणों को उभर रहा हैं जैसे स्वर्णिम अतीत, अखंड भारत की अभिलाषा, अल्पसंख्यकों को देश का शत्रु करार देकर निशाना बनाना, अधिनायकवाद, बड़े उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना, अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार और सामाजिक चिंतन पर हावी होना तेजी से बढ़ रहा है।
संभल में हालिया महीनों की घटनाएँ एक डरावने माहौल का संकेत कर रही हैं। सरकार, न्यायालय व प्रशासन की मदद से हिन्दुत्ववादी ताकतों ने यहां फिलहाल तनाव व भय का माहौल तो निर्मित कर दिया है। कई मुस्लिम घर छोड़ कर चले गए हैं कि उन्हें मुकदमे में न फंसा दिया जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ही लोगों के खिलाफ साजिश कर रही है। न्यायालय पक्षपात कर रहा है या उपासना स्थल अधिनियम 1991 की भावना का सम्मान करने को तैयार नहीं है तो दूसरी तरफ पुलिस-प्रशासन पूरी तरह से सत्तारूढ़ दल की राजनीति का औजार बना हुआ है। संभल की घटनाओं के बहाने योगी सरकार के रवैये पर एक तब्सरा।
क्या औरंगजेब हिंदू विरोधी था? कोई यह कह सकता है कि औरंगजेब न तो अकबर था और न ही दारा शिकोह। वह रूढ़िवादी था और एक स्तर पर हिंदुओं और इस्लाम के गैर सुन्नी संप्रदायों का स्वागत नहीं करता था। दूसरे स्तर पर वह गठबंधनों का मास्टर था क्योंकि उसके प्रशासन में कई हिंदू अधिकारी थे।
संविधान के विरुद्ध किए गए फैसलों के लिए 12 दिसंबर को सुनवाई हुई और सुनवाई के दौरान CJI संजीव खन्ना को आदेश दिया गया कि जब तक मोदी सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आता, तब तक कोई सुनवाई नहीं होगी, कोई कार्रवाई नहीं होगी, कोई नई याचिका नहीं डाली जाएगी। लेकिन केंद्र सरकार ने संविधान को ताक में रखते हुए आज तक कोई जवाब नहीं दिया। सवाल यह उठता है कि क्या मोदी सरकार न्यायपालिका से ऊपर है?
लोहे के बर्तन बनाना लोहार समुदाय के लिए केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का प्रतीक है। लेकिन बदलते समय के साथ उनके लिए रोज़ी रोटी चलाना मुश्किल होता जा रहा है। नयी तकनीक, सस्ते विकल्प और बदलते उपभोक्ता व्यवहार ने उनके पारंपरिक काम को संकट में डाल दिया है।
नेफेड और राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता फेडरेशन (एनसीसीसीसी) बता रहा है कि सरकार के गोदाम में केवल 14.5 लाख टन दाल ही बची है, जो कि न्यूनतम आवश्यकता का केवल 40% ही है। इसमें तुअर दाल 35000 टन, उड़द 9000 टन, चना दाल 97000 टन ही है, जिसे लोग खाने में सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। इन दालों की जगह दूसरी दाल के इस्तेमाल के बारे में सोचें, तो मसूर दाल का स्टॉक भी केवल पांच लाख टन का ही बचा है। भारत के संभावित दाल संकट पर संजय पराते।
विकासशील देशों को यह देखना होगा कि विकास प्रभावशीलता और कार्यसाधकता सर्वोपरि रहे। सीएसओ पार्टनरशिप फॉर डेवलपमेंट इफेक्टिवनेस (सीपीडीई) की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सालों में यह सर्वविदित हो गया था कि पारंपरिक दाता एजेंसियाँ अपने वायदों पर अधिक समय तक खड़ी नहीं उतर सकती।
मोदी सरकार घरेलू अर्थव्यवस्था में मांग पैदा कर रोजगार का संकट दूर करने तथा अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के प्रति गंभीर होती, तो केंद्र सरकार में लाखों खाली पड़े पदों को भरने की घोषणा करती, मनरेगा के बजट आबंटन में पर्याप्त वृद्धि के साथ मजदूरी और काम के दिनों की संख्या को बढ़ाती, शहरी गरीबों के लिए रोजगार गारंटी की घोषणा करती, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए सम्मानपूर्ण आजीविका के लायक न्यूनतम वेतन/मजदूरी की घोषणा करती, किसानों को सी-2 लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने और कर्ज़माफी की घोषणा करती और मजदूरों को बंधुआ दासता में धकेलने वाली श्रम संहिताओं को वापस लेने आदि की घोषणा करती। लेकिन बजट 2025 में ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई है।
हर वर्ष के मार्च महीने में देश का आम बजट प्रस्तुत किया जाता है। बड़े जोर शोर से तैयारी होती है लेकिन बजट प्रस्तुत होने के बाद आम जनता के लिए कुछ ख़ास नहीं होता लेकिन न समझने वाला भी बजट में जिक्र की गई बातों का ऐसे बख़ानता है कि बस उसे सब कुछ समझ आ गया है और इस बजट से उसे बहुत फायदा होने वाला है। पढ़िए, मनीष शर्मा का बजट 2025 पर एक विश्लेषणपरक आलेख।
विद्यालय में बच्चों की पढ़ाई में रुचि पैदा हो इसके लिए अध्यापकों का पूरा ध्यान दिया जाना जरूरी है। लेकिन होता यह है कि सरकारी विद्यालयों में अध्यापकों को पढ़ाने के अलावा अन्य प्रशासनिक कामों की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है और उसे करने का दबाव बनाया जाता है, जिसकी वजह से अध्यापक काम पूरा करने के लिए बच्चों को दिये जाने वाले समय से कटौती करता है। सरकार को अन्य प्रशासनिक कामों से पूरी तरह मुक्त रखना होगा ताकि बच्चे बच्चे सीखने की उम्र में रुचि के साथ सीख सकें।
ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षिक संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए एक ठोस रणनीति पर अमल करने की जरूरत है। जिसमें बुनियादी ढांचा और सुविधाएं उपलब्ध कराना अहम हैं। इनमें क्लास रूम की सुविधा उपलब्ध कराना, उचित स्वच्छता सुविधाओं को मुहैया कराना, शौचालय विशेष रूप से लड़कियों के लिए, साथ ही बिजली और पीने का साफ पानी मुख्य रूप से शामिल है।
अनेक बड़ी और अच्छी सरकारी योजनाओं से आज भी देश के कई गाँव वंचित हैं क्योंकि वहाँ तक कोई आधारभूत सुविधा नही पहुँच पा रही है, जिसके लिए राजस्थान में आयोजित हुए तीन दिवसीय 'राइजिंग राजस्थान ग्लोबल इंवेस्टमेंट समिट 2024' में 30 ट्रिलियन निवेश से संबंधित एमओयू पर हस्ताक्षर हुए। सवाल यह उठता है कि क्या इसके बाद क्या सुविधाएं गांवों तक पहुँच पायेंगी।
देश की सत्ता पर बैठे मुखिया पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आते हैं, वे सभी देश को चलाने में सक्षम और योग्य हैं क्योंकि सभी आरएसएस से जुड़े हुए हैं। ये सभी देश को चलाने की योग्यता रखते हैं, चाहे इनकी शैक्षणिक योग्यता जो भी हो लेकिन पिछड़े समाज का उच्च शिक्षा प्राप्त एक भी उम्मीदवार शैक्षणिक संस्थानों में नियुक्ति के योग्य नहीं पाया जाता। जबकि संविधान में पिछड़े समाज के लिए विशेष अवसर के तहत ही आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन जब उस अवसर के तहत चयन की बारी आती है तब उसका NFS करके उस अवसर की ही हत्या कर दी जाती है। इससे एक बात सामने आती है कि यह संस्थान जाति और ब्राह्मणवाद का खुला खेल खेलता हुआ NFS का खेल खेलते हुए पिछड़ी जातियों के युवाओं के भविष्य को दांव पर लगा रहा है। संविधान में पिछड़े समाज के लिए विशेष अवसर के तहत ही आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन जब उस अवसर के तहत चयन की बारी आती है, तब NFS कर उस अवसर की ही हत्या कर दी जाती है।
वर्ष 2014 के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक ताकतों के साथ भगवाकरण की राजनीति ने जोर पकड़ा है। देश के बड़े विवि से लेकर विद्यालयों तक में इसका असर देखने को मिल रहा है। इन संस्थानों में नियुक्ति से लेकर पाठ्यक्रम तक का खुल कर भगवाकरण किया जा रहा है। जो इस रंग में नहीं रंगे उन्हें देशद्रोही और अर्बन नक्सली कह जेल में डाल दिया गया। यही स्थिति पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाला इलाहाबाद केन्द्रीय विवि की है, जहां 27 नवंबर को होने वाले दीक्षांत समारोह में विवि की रेक्टर माननीया आनंदी बेन पटेल को आमंत्रित न कर सांप्रदायिक बयान देने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया है। जिसका सभी छात्र दल विरोध कर रहे हैं।
अक्सर गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया के अंतर्गत दवाओं के किसी बैच के सैंपल या नमूने की जाँच की जाती है कि उसमें कोई मिलावट न हो, दवाओं में ऐक्टिव फार्मास्यूटिकल एजेंट की मात्रा सही हो, आदि। परंतु गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में प्रायः यह जांच नहीं होती कि दवाओं की जैव समतुल्यता और स्थिरता, विभिन्न मौसम तापमान और नमी में भी सही रहती है या नहीं। गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में यह भी पुष्टि की जानी चाहिए कि दवाएं जैव समतुल्य और स्थिर रहें।
'सबका साथ सबका विकास' यह बात कहने सुनने में अच्छी लगती है लेकिन देश के अनेक हिस्से ऐसे हैं, जहाँ बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है, जिसमें ग्रामीण इलाके के साथ ही शहरों से लगी हुई स्लम बस्तियां भी हैं, जहाँ रहने वाली महिलायें और बच्चे लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। इसे देखते हुए लोगों का कहना है कि सामाजिक संस्थाएं और कार्यकर्ता अपने सामूहिक प्रयास से उन बस्तियों की बुनियादी समस्यायों से निजात दिलवा सकते हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार की अनेक योजनायें यहाँ सफल क्यों नहीं हो पाती हैं।
दुनिया भर में स्वास्थ्य और दवाओं को लेकर नए नए अनुसंधान जरूर हो रहे हैं लेकिन घटिया और नकली दवाओं के कारण अनेक बीमारियाँ लाइलाज हो रही हैं। साथ ही दवा प्रतिरोधक रोग से अधिक रोगी इलाज के अभाव में मर रहे हैं। यह खतरा केवल मनुष्यों के जीवन पर ही नहीं है बल्कि मवेशियों और पशुधन पर भी बढ़ा है। वैसे भी देर हो चुकी है लेकिन सतर्कता फिर भी जरूरी है।
औसत उम्र में वृद्धि होने के बाद देश में बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन सामाजिकता में लगातार कमी आई है, जिसकी वजह से बुजुर्गों में अकेलेपन की समस्या बढ़ गई है। इस बढ़ती हुई समस्या के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सामाजिक संपर्क के लिए एक आयोग की स्थापना तीन वर्षों के लिए की है। स्वास्थ्य संगठन की चिंता वाजिब है लेकिन सवाल यह उठता है कि इस तरह की सामाजिकता से क्या हल निकल पायेगा या यह केवल खानापूर्ति ही साबित होगा।
हम सभी जानते हैं कि गर्भ में पलने वाले बच्चे का लिंग निश्चित करने में यानी कि वह बेटा होगा या बेटी, यह एक्स और वाई क्रोमोसोम में रहने वाले जींस पर निर्भर करता है। पुरुषों में वाई क्रोमोसोम धीरे-धीरे घट रहा है। स्पष्ट रूप से कहें तो पुरुष के वीर्य से वाई क्रोमोसोम गायब हो रहा है। जिस समय यह गुणसूत्र शुक्राणु से पूरी तरह गायब हो जाएगा तो उसके बाद दुनिया की कोई भी स्त्री पुत्र को जन्म नहीं दे सकेगी। डिलीवरी मात्र बेटियों की होगी।
किसी जमाने में 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी फिल्मों ने ढहते हुये सामंतवाद का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिससे लगता था कि अब यह बीते जमाने की बात होने वाला है। हालाँकि इसके पीछे उनकी डूबती हुई अर्थव्यवस्था सबसे प्रमुख कारण था। चीजें और स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। ऐसा लगता था कि अब कमानेवाला खाएगा और लूटनेवाला जाएगा लेकिन हाल के दशकों में इसे मुड़कर देखने की जरूरत आ पड़ी है। मेहनतकश समुदायों के लिए स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती गई हैं। देश में मजदूर विरोधी कानून लगातार बने और अधिकारों का संघर्ष धूमिल होने लगा। इसके बरक्स राजनीति और अर्थव्यवस्था में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ मजबूत होता गया। जातिवादी सामाजिक सोपान पर जिन जातियों को ढहते हुये सामंतवाद के साथ ध्वस्त होते जाने का अनुमान था उन्होंने अपनी सामाजिक एकता को फिर से मजबूत कर लिया और पैसे कमाने के नए-नए ढर्रों में अपने-आप को ढाल लिया। सरकारी और गैर सरकारी ठेकों और विभिन्न एजेंसियों के हासिल करने से मजबूत हुई अर्थव्यवस्था ने उन्हें राजनीतिक ताकत हासिल करने को प्रेरित किया और इस प्रकार अपराध और राजनीति का एक दबंग रूप सामने आया। ज़ाहिर है इसका असर सिनेमा में भी व्यापक रूप से हुआ और पर्दे पर जातीय दंभ और हेकड़ी की एक भाषा ही हावी होती गई। भूमंडलीकरण के बाद इसमें पर्याप्त इजाफा हुआ। प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे हिन्दी प्रदेश के निर्देशकों की फिल्मों में दिखाई गई जातीय प्रस्थिति, भाषा और कार्य-व्यापार चाहे जितने मौलिक और रचनात्मक बताए जा रहे हों लेकिन इनके निहितार्थों पर ठहर कर सोचना जरूरी है। जाति के मसले पर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर के लंबे लेख की अंतिम और समापन कड़ी।
हिन्दी सिनेमा में जाति का सवाल बहुत पुराना है लेकिन उसे हल करने के लिए जिस शिद्दत और संवेदना की जरूरत थी वह नहीं थी लिहाजा या तो एकांगी चित्रण होता रहा अथवा फ़िल्मकार इससे मुंह चुराते रहे। हालिया वर्षों में दलित परिवारों से निकले फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दलित चित्रण का व्याकरण बदल दिया है। अब वे नए ढंग के मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने दलित जीवन की घिसी-पिटी परिपाटी को तोड़कर अधिकारबोध और स्वाभिमान से भरे हुये नायकों को पर्दे पर उतारा है। जाने-माने कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर ने पा रंजीत और नागराज मंजुले की फिल्मों के आधार पर इसकी गहरी छानबीन की है। साथ में नायकत्व की अवधारणा और सामान्य जीवन के अंतर्विरोधों को भी समझने का प्रयास किया है।
जाति व्यवस्था के बारे में इतिहास में कई व्याख्याएँ मौजूद हैं। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जाति भारतीय समाज की एक अनूठी संस्था है और दुनिया में इसका संगठन सबसे अलग है। जाति ने ऊंच और नीच के आधार पर सम्पूर्ण समाज का एक सीढ़ीगत वर्गीकरण स्थापित कर रखा है। दूसरी अवधारणाओं में व्यवसाय के आधार पर जाति के विभाजन को देखा जाता है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। चाहे कितना भी आधुनिक संदर्भ बनाया जाय लेकिन उसकी पृष्ठभूमि की गहरी छानबीन करने पर उसकी बुनियाद जाति व्यवस्था में ही मिलती है। इसलिए जाति व्यवस्था को हमेशा दो पहलुओं से देखने पर अधिक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है कि कैसे एक ही व्यवस्था एक ही देश और समाज में दो भिन्न स्तरों पर काम करती रही है। एक पहलू तो यह कि जो वर्ग जाति व्यवस्था के सभी लाभ (आय के स्रोत, संपत्ति और सामाजिक सम्मान) ले रहा है, उसके मुक़ाबले एक दूसरा बड़ा वर्ग है जो जाति व्यवस्था के कारण हर प्रकार की हानियों (श्रम का अवमूल्यन, निर्धनता और अपमान) को सदियों से झेल रहा है। यहाँ तक कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर भी वह हमेशा कमजोर रहा है और अपने नायकों की जगह अपने उत्पीड़कों को सम्मान देने को अभिशप्त रहा है। कहना चाहिए कि जाति व्यवस्था ने सामाजिक अन्याय पैदा किया। जाति व्यवस्था में भरोसा रखनेवाला हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में सामाजिक अन्याय का पोषक है। लेकिन इस अन्याय को वह धर्म-अध्यात्म और मिथकों की चासनी में लपेटकर बड़े पैमाने पर परोसता रहा है। इसलिए भारत के बड़े जनसमूह का प्रायः एकतरफा व्याख्याओं की जाल में फंसना स्वाभाविक है। साहित्य, कला, रंगकर्म और सिनेमा ने भी इसे एक मोहक भुलावे में ही रचा और प्रसारित किया। यह सब सामाजिक न्याय के विरुद्ध सामाजिक अन्यायवादियों का एक बड़ा एजेंडा रहा है। भारतीय सिनेमा में जाति के सवाल को लेकर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर का विचारोत्तेजक विश्लेषण।
व्यक्तियों आए वस्तुओं के प्रति अवधारणाओं ने निर्माण में सिनेमा की सबसे सशक्त भूमिका रही है। सिनेमा अगर मृत्यु के लिए जलते हुये दीये के बुझ जाने का रूपक इस्तेमाल करता तो ज़्यादातर भारतीय दर्शक भी बुझते दीये को एक अनिष्ट के रूप में देखता। सिनेमा ने सांप को दूध पिलाया तब से आज तक यह अवधारणा चली आ रही है। विकलांगों के प्रति सिनेमा और समाज का रवैया स्पष्ट रूप से संवेदनहीन रहा है लेकिन दुनिया की अनेक फिल्मों ने विकलांगों के चित्रण में अद्भुत संवेदनशीलता का परिचय दिया है। इस लेख में डॉ राकेश कबीर ने दृष्टिबाधितों पर बने सिनेमा के भीतर उनके चित्रण के क्रमिक विकास का विषद अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह लेख फिल्मों के बहाने दुनिया भर के वास्तविक व्यक्तियों के साथ ही उन संस्थाओं पर भी बात करता है जो दृष्टिबाधितों के लिए एक बेहतर और सुंदर संसार बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
राजकपूर और गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा के किशोर काल में ही कसे हुए सम्पादन के साथ विविध विषयों पर मनोरंजक एवं संदेशपरक फिल्में बनाई जिनकी कद्र आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करते हैं। आज भी नयी पीढ़ी के फिल्मकार गुरुदत्त जैसे लिजेंड की क्लासिक फिल्मों से सीखते हैं अपनी फिल्में बनाते हैं।
भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विशद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ।
डॉ नेने वडोदरा के एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और कट्टर सावरकराइट थे। नब्बे के दशक में डॉ सुरेश खैरनार एक शाम उनके बुलावे पर खाना खाने गए। उस समय राम मंदिर कि गतिविधियाँ तेज हो रही थीं। ज़ाहिर है बातचीत के केंद्र में वही था। उस समय डॉ नेने ने कहा कि राम के नाम पर हमें केंद्र की सत्ता चाहिए। पढ़िये यह दिलचस्प बातचीत जिसको हिन्दी में रांची के वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट श्रीनिवास ने प्रस्तुत किया है।
जिस पार्टी के पास आम जनता के असली मुद्दों से टकराने का साहस नहीं होता, वह ऐसे ही मुद्दों पर सुर्खियां बटोरने के काम में लगी रहती है, चाहे उसके परिणाम देश के लिए कितने ही खतरनाक क्यों न हो! औरंगजेब के बाद अकबर, बाबर और अब तुगलक को निशाने पर साधा है, क्योंकि संघ की स्थापना हिंदुत्व और सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी, इसमें अब इनका राजनैतिक दल भाजपा बढ़ चढ़कर काम कर इतिहास बदलने का काम कर रहा है।
हिन्दुत्ववादी राजनीति का हमारे उत्सवों पर पड़ा प्रभाव उस राजनीति के बारे में बहुत कुछ कहता है। जिस प्रकार इनमें से कुछ त्योहारों को हथियार बना लिया गया है, यह शर्मनाक है। हिंदू राष्ट्रवादियों का एक छोटा सा समूह भी धार्मिक जुलूस होने का दावा करते हुए अल्पसंख्यकों की बस्तियों से जाने की जिद कर सकता है। राजनैतिक और गाली-गलौज भरे नारे लगाकर और हिंसक गाने और संगीत बजाकर वह कोशिश करता है कि वहां के निवासी युवक भड़क जाएं और उन पर एकाध पत्थर फेकें। इसके आगे का काम सरकार करती है।
हर साल आठ मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है। यूं तो यह एक महत्वपूर्ण दिन है लेकिन इसका अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग होता है। अखबार प्रायः विभिन्न क्षेत्रों में सफल महिलाओं की तस्वीरें और विवरण छापकर और कुछ विज्ञापन जुटाकर इसे मना लेते हैं। अमूमन पुरुष इसके प्रति मज़ाकिया वाक्य लिखते हैं और कुछ लोग अपने भीतर की हिपोक्रेसी का परिचय देते हुये बधाई और शुभकामनाओं से फेसबुक को पाट देते हैं। लेकिन वास्तव में यह दिन हमें उन हालात की ओर नज़र डालने को प्रेरित करता है जिनमें पूरी दुनिया की महिलाएं फिलहाल जी रही हैं। भारत जैसे देश में जहां अभी भी महिलाओं के ऊपर जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता के कई-कई जुए नाधे गए हैं, के साथ ही अतिरिक्त बाकी दुनिया की महिलाओं की स्थितियाँ बहुत भयावह हैं। फिलिस्तीन, सीरिया और रोहिंग्या समुदाय की स्त्रियों की कतार में मणिपुर की महिलाओं की त्रासदी को भी देखा जाना चाहिए। स्त्री उत्पीड़न के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आ रही है बल्कि उनके खिलाफ अपराध की नई-नई विधियाँ सामने आ रही हैं। आठ मार्च इन सब पर ठहर कर सोचने का दिन है क्योंकि सोच ही मनुष्य को मन के भीतर उतरने का रास्ता देती है। और तभी यह समझा जा सकता है कि आखिर आठ मार्च की प्रासंगिकता क्या है। जाने-माने बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार ने अपने अनुभवों के आधार पर इस दिन को इसी ज़िम्मेदारी के तहत याद किया है।