कैसे डॉ. अंबेडकर ने मेरी जीवनधारा बदली

मैं लल्लूभाई पार्क टेलीफोन एक्सचेंज अंधेरी के सरकारी आवास में रहता था। रविवार सुबह दस बजे के आसपास दरवाजे की घंटी बजी। मैंने खुद दरवाजा खोला। करीब 5-6 आशाराम बापू के भक्त, उनके नाम का कलेंडर, घड़ी और कुछ बुकलेट लिए मुझे अपना सदस्य बनाने के लिए खड़े थे। भगवान और आस्था को लेकर बातचीत होने लगी। स्वाभाविक है, तर्क-वितर्क काफी होने लगा। शिष्टाचार के नाते मैंने कहा बाहर डिस्कस करना ठीक नहीं है। आइए, अन्दर बैठ कर चाय-नाश्ता के साथ ढंग से बातचीत हो जाएगी। ठीक है। वे मान गए। मैंने दरवाजा खोला, अभी अन्दर दो ही लोग आए थे कि सबकी नजर सामने दीवाल पर लगे बाबा साहेब आंबेडकर की फोटो पर पड़ गई। अब क्या? सबकी बोलती बंद हो गई। सिर्फ एक-दो लोगों ने खड़े-खड़े पानी पिया होगा और बाकी तो आग्रह करने पर भी बिना पानी पिए ही उलटे पांव लौट गए।