आज 6 दिसंबर है। आज के दिन डॉ. अंबेडकर का परिनिर्वाण हुआ था। विचारों की एक मशाल से लाखों-करोडो़ं शूद्रों को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिली। आज के दिन विचारों की वह मशाल पार्थिव रूप से बुझ गई लेकिन उसकी रौशनी ने करोड़ों ज़िंदगियों को आलोकित कर दिया है। उनकी परंपरा लगातार बढ़ती जा रही है। मुझे भी डॉ. अंबेडकर से आलोकित होने का सौभाग्य मिला है। मैं आज के अवसर पर एक दो ऐसा ही अनुभव साझा करना उचित समझता हूं।
सन 1985 में एक दिन सुबह उठने के बाद समाचार पत्र में लिखा पाया कि यदि बाबा साहेब की किताब महाराष्ट्र सरकार नहीं छापेगी तो हमलोग राम का पुतला जलाएंगे। यह बात आरपीआई ने प्रतिक्रिया में कालाघोड़ा (मुम्बई) में एक मोर्चे में बाला साहब ठाकरे के विरोध में कहीं थी। सच कहूँ तो इससे मुझे बहुत तकलीफ़ हुई और मैंने तात्कालिक प्रतिक्रिया में कहा कि कौन पागल है, जो भगवान राम का पुतला जलाने की बात कर रहा है। माफी चाहता हूं। उस समय तक मैं हनुमान जी का परम भक्त था और ब्राह्मणी ज्ञान के अनुसार मुझ पर शनि भगवान का दोष होने के कारण हर शनिवार को हनुमान मंदिर में पूजा-अर्चना और दान-दक्षिणा करता था।
मैं उस समय महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) मुंबई में उप मंडल अभियंता के पद पर कार्यरत था। मैंने आफिस में अपने मराठी साथियों से पूछताछ करके कारण मालूम किया। बहुत ही प्रयास के बाद वह विवादित पुस्तक रिडल्स इन हिंदूइज्म पढ़ने को मिली। मंथन किया। परिणाम यह हुआ कि अपने घर में जो हनुमान जी का मंदिर रखा था वह एक कचरे की तरह महसूस होने लगा था और उसे उसकी जगह पर ले जाकर फेंक दिया था। उसी दिन से मैं भगवान नाम के भूत से मुक्त हो गया।
मैंने महसूस किया कि किसी स्वार्थी मूर्ख ब्राह्मण ने मेरे दिलो-दिमाग में अज्ञानता और लालच में भगवान नाम की आस्था को ठूंस दिया था, जिसे इस किताब ने चकनाचूर कर दिया। एक नया जोश, आत्मविश्वास, मनोबल और अपने कर्म पर 100% भरोसा करने का एहसास दिला दिया। एक नयी ताक़त मिली। अपने आपसे तर्कपूर्वक प्रश्न किया। भगवान क्यों चाहिए? क्यों चाहिए?… नहीं चाहिए! नहीं चाहिए!… क्या बिगाड़ लेगा?… क्या बिगड़ जाएगा?… मुझे जीने के लिए मान-सम्मान, रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए, बस!
बाबा साहेब को जानने के बाद उनके विचारों से प्रेरित होकर, शोषित समाज के प्रति समर्पण की भावना जागृत हुई और उनकी किताबों को पढ़ने की भूख बढ़ती गई। बहुत-सी किताबों को पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि अब मैं सामाजिक और साहित्यिक ज्ञान का कुछ पढ़ा-लिखा हूं। परिणाम यह हुआ कि इंजीनियरिंग की नौकरी करते हुए मैंने 1989 में खुद एक किताब हिन्दी में बहुजन चेतना लिखी और प्रकाशित की।
एक और घटना, जो उनकी अहमियत और ताकत का एहसास दिलाती है।
सन 1998 की दिवाली से पहले की बात है। मैं लल्लूभाई पार्क टेलीफोन एक्सचेंज अंधेरी के सरकारी आवास में रहता था। रविवार सुबह दस बजे के आसपास दरवाजे की घंटी बजी। मैंने खुद दरवाजा खोला। करीब 5-6 आशाराम बापू के भक्त, उनके नाम का कलेंडर, घड़ी और कुछ बुकलेट लिए मुझे अपना सदस्य बनाने के लिए खड़े थे। भगवान और आस्था को लेकर बातचीत होने लगी। स्वाभाविक है, तर्क-वितर्क काफी होने लगा। शिष्टाचार के नाते मैंने कहा बाहर डिस्कस करना ठीक नहीं है। आइए, अन्दर बैठ कर चाय-नाश्ता के साथ ढंग से बातचीत हो जाएगी। ठीक है। वे मान गए। मैंने दरवाजा खोला, अभी अन्दर दो ही लोग आए थे कि सबकी नजर सामने दीवाल पर लगे बाबा साहेब आंबेडकर की फोटो पर पड़ गई। अब क्या? सबकी बोलती बंद हो गई। सिर्फ एक-दो लोगों ने खड़े-खड़े पानी पिया होगा और बाकी तो आग्रह करने पर भी बिना पानी पिए ही उलटे पांव लौट गए।
अब मेरी उम्र 72 चल रही है। आज मैं जो भी हूं, इस महापुरुष की ही बदौलत हूं, तथा आज तक धर्मनिरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, भगवानविहीन और ईमानदारी से सन्तुष्ट, पूर्ण और खुशहाल जिन्दगी जी रहा हूं। आप कल्पना कर सकते हैं कि डॉ. अंबेडकर होते तो आज भी मैं कहाँ होता! विश्व रत्न, ज्ञान के प्रतीक, परम पूज्य, बाबासाहेब आंबेडकर के आज परिनिर्वाण दिवस पर उन्हें सत् सत् नमन् एवं विनम्र श्रद्धांजलि!
[…] कैसे डॉ. अंबेडकर ने मेरी जीवनधारा बदली […]
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