उमेश जोगई ने बताया कि शिवाला में जो वर्कशॉप था वह भी जोगई के नाम से ही था लेकिन टैग लाइन थी–क्रिएटिविटी द मैटर और जब आज से चार माह पहले अपना वर्कशॉप और शोरूम यहाँ लेकर आये तो टैग लाइन बदली–इनोवेशन विद ट्रेडिशन, क्योंकि पुराने चीजों की ओर हम फिर लौटना चाहते हैं। प्लास्टिक के आ जाने से लकड़ी की चीजें विलुप्त हो गईं। यहाँ तक कि हाथ से झलने वाला लकड़ी का पंखा और रसोई में पानी भरने की गगरी तक प्लास्टिक की आ चुकी है।
कितनी मजदूरी मिलती है? कुछ सेकंड रुकने के बाद बहुत धीरे से बताया 60/- रोज का मिलता है। जिस दिन नहीं आती हूँ या छुट्टी होती है उस दिन का पैसा नहीं मिलता है। जो काम बताया जाता है, उस काम को करती हूँ। 60/- जिसमें एक समय का खाना भी नहीं मिलता, वह इनकी मजदूरी है। लेकिन पेट भरना है तो खाना किसे याद आता है, पेट तो दो पाव रोटी और चाय से भी भर जाता है।