बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को जो आदेश पारित किया, उसमें कहा गया कि 25 जुलाई तक पूरे राज्य में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (SIR) किया जाएगा, जिसमें डुप्लीकेट, मृत या गैर-नागरिकों के नाम हटाए जाएंगे। इस प्रक्रिया को मात्र 31 दिनों में संपन्न करना है, जो कि सामान्य सूची पुनरीक्षण की तुलना में असाधारण रूप से त्वरित है। यह निर्णय अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता को संदिग्ध बनाता है
छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत नियामक आयोग ने बिजली की दरों में भारी वृद्धि की घोषणा की है। 100 यूनिट तक उपभोग करने वाले लोगों पर, जिनमें से एकल बत्ती कनेक्शन धारी और गरीबी रेखा के नीचे और कम आय वर्ग के लोग शामिल हैं, उन पर 20 पैसे प्रति यूनिट का अतिरिक्त भार डाला गया है। जबकि कृषि क्षेत्र के लिए प्रति यूनिट 50 पैसे वृद्धि की गई है।
रामपुर गांव की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है, बल्कि यह उन लाखों कारीगरों और बुनकरों की कहानी है, जो सरकारी योजनाओं के अधूरे वादों और बाजार की बेरुखी के बीच फंसे हुए हैं। यह समय है कि सरकार और समाज मिलकर इनके सपनों को साकार करने के लिए कदम उठाए। अगर समय रहते इनकी मदद नहीं की गई, तो यह अद्वितीय कला और कौशल हमेशा के लिए खो जाएगा। पढ़िए नाजिश महताब की ग्राउंड रिपोर्ट।
पिछले कई वर्षों से हर घर नल जल योजना की धूम मची हुई है और इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में प्रचारित किया जा रहा है लेकिन वास्तविकता प्रचार के बिलकुल उलट है। लगातार बढ़ते साफ पानी के संकट के मद्देनज़र यह योजना एक मज़ाक बनकर रह गई है। बिहार के लाखों ग्रामीण गंदे और ज़हरीले पानी का इस्तेमाल करने को विवश हैं। गया जिले के बरमा गांव में पानी का कैसा संकट है और सरकार की योजना किस हालत में है इस पर नाज़िश मेहताब की रिपोर्ट।
पिछले कुछ ही वर्षों में अवधी भाषी महिलाओं ने बड़ी संख्या में यूट्यूब पर अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। यह ऐसी महिलाओं की कतार है जो निम्न मध्यवर्गीय और खेतिहर परिवारों से ताल्लुक रखती हैं और घर-गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या के बावजूद अपने गीतों से एक बड़े दर्शक समूह को प्रभावित किया है। इनमें से कई अब पूर्णकालिक और स्टार यूट्यूबर बन चुकी हैं। अपने बचपन में सीखे गीतों को वे बिना साज-बाज के गाती हैं और लाखों की संख्या में देखी-सुनी जाती हैं। यू ट्यूब पर गाना उनके लिए न केवल अपनी आत्माभिव्यक्ति है बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता भी है। इसके लिए उन्होंने कठिन मेहनत किया है। परिवार के भीतर संघर्ष किया है। जौनपुर, आजमगढ़ और अंबेडकर नगर जिलों के सुदूर गांवों की इन महिलाओं पर अपर्णा की यह रिपोर्ट।
भारत में पॉल्ट्री फ़ार्मिंग का तेजी से फैलता कारोबार है। अब इसमें अनेक बड़ी कंपनियाँ शामिल हैं जिनका हजारों करोड़ का सालाना टर्नओवर है लेकिन मुर्गी उत्पादक अब उनके बंधुआ होकर रह गए हैं। बाज़ार में डेढ़-दो सौ रुपये बिकनेवाला चिकन पॉल्ट्री फार्म से मात्र आठ रुपये किलो लिया जाता है। अब मुर्गी उत्पादक स्वतंत्र इकाई नहीं हैं। कड़े अनुबंध शर्तों पर वे कंपनियों के चूजे और चारे लेकर अपनी मेहनत से उन्हें पालते हैं और कंपनी तैयार माल उठा लेती है। मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकारी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? पूर्वांचल के पॉल्ट्री उद्योग पर अपर्णा की रिपोर्ट।
सरकार नहरों के जीर्णोद्धार, मरम्मत के साथ-साथ नहरों के दोनों पटरियों पर सुगम आवागमन व्यवस्था की खातिर सड़क बनाने पर जोर दे रही है। दूसरी ओर बलिया जिले के बांसडीह तहसील क्षेत्र के सुखपुरा से सावन सिकड़िया, अपायल गांव तक जाने वाली महज पांच किलोमीटर दूरी की नहर की पटरी उपेक्षा का दंश झेलते हुए वीरान बनी हुई है। मानो वह इलाके के मानचित्र से बाहर हो चली है। जबकि इस नहर की पटरी वाली सड़क से कई गांवों के लोगों का आवागमन होता रहा है। यूं कहें कि यह लोगों की जीवन रेखा रही है। दिन हो या रात, पैदल सहित वाहनों का भी आवागमन होता रहा है, लेकिन ईट का खड़ंजा जो तकरीबन तीन दशक पहले बिछाया गया था (जिसके अंश कहीं कहीं दिखाई दे जाते हैं) उखड़ने के साथ ही अपना वजूद खो चुका है। सड़क का वजूद गुम हुआ तो उसका स्थान धीरे-धीरे जंगली झाड़ियों ने ले लिया। झाड़ियों के आगोश में नहर की पटरी ही गुम हो गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले द्वारा संविधान बदलने के सियासी बयान को लेकर भारत की राजनीति में एक बार फिर उबाल आ गया है। गुरुवार को दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान दत्तात्रेय होसबाले ने कहा था कि 1976 में आपातकाल के दौरान 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जबरन संविधान में जोड़ा गया था और अब वक्त आ गया है कि इन्हें हटाया जाए। उन्होंने कहा, बाबा साहेब आंबेडकर ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे। आपातकाल में जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, न्याय पालिका पंगु हो गई थी, तब ये शब्द जोड़े गए। इस पर विचार होना चाहिए कि क्या इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए?
हिंदू महासभा भी थी और हिंदू राष्ट्रवादी तत्वों के एक तबके ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी घुसपैठ कर ली थी। जवाहरलाल नेहरू को इसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद के लिए उत्पन्न हुए खतरे का एहसास हो गया था किंतु विभिन्न कारणों से वे इसे जड़ से उखाड़ नहीं पाए, जिनमें से एक था भारत में जमींदारी प्रथा का कायम रहना। यह समाज में बढ़ती धार्मिकता में भी प्रतिबिंबित होता था।
पहलगाम की नृशंस घटना की निंदा करने के लिए हिंदू-मुसलमान दोनों एक साथ आए। इसके बाद भी मुसलमानों के खिलाफ लगातार नफरत फैलाई जा रही है। इस त्रासदी के बाद मुसलमानों के खिलाफ निर्मित नफरत चरम पर है। पहलगाम त्रासदी पर हुई कार्रवाई के बाद देश के प्रधानमंत्री ने विदेश में विभिन्न प्रतिनिधिमंडल भेजकर इस त्रासदी का भारतीय पक्ष बताने का फैसला किया। प्रधानमंत्री को यह क्यों जरूरी लगा? क्या प्रधानमंत्री अपने द्वारा उठाए गए कदम का स्पष्टीकरण देते हुए विदेशी नेताओं की शाबासी लेने के इच्छुक थे?
घरेलू मोर्चे पर मोदी सरकार आजादी के बाद की सबसे ज्यादा असफल सरकार साबित हुई है, जिसने घरेलू समस्याओं को हल करने के बजाए, आम जनता का ध्यान इससे हटाने के लिए हर मौके पर विभाजनकारी नीतियां अपनाई और लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने को अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। देश विरोधी ताकतें भी इसका फायदा उठाने में लगी है, जो पहलगाम में आतंकी हमले से सही साबित होता है।
यदि पहलगाम हमले में पाकिस्तान का हाथ है, तो भारत सरकार की आंख और कान (इंटेलीजेंस) कहां थी, क्या कर रही थी? जैसी कि खबरें छनकर आ रही है कि ऐसी अनहोनी होने की भनक इंटेलीजेंस को थी, उसका सक्रिय न होना या निष्क्रियता की हद तक जाकर ऐसी सूचनाओं को नजरअंदाज करना हमारी इंटेलीजेंस की सक्षमता पर और बड़े सवाल खड़े करता है। इतना ही बड़ा सवाल खड़ा होता है कश्मीर मामले को डील करने में केंद्र सरकार की नीतियों की विफलता पर।
उड़ान ट्रस्ट इंडिया एवं नट समुदाय संघर्ष समिति, बेलवा वाराणसी ने सम्पूर्ण समाधान दिवस के अवसर पर विक्रामपुर मुसहर बस्ती के निवासियों ने एसडीएम पिंडरा को ज्ञापन सौंपकर अपनी दीर्घकालिक मांगों को प्रशासन के समक्ष रखा है।
पिछले दिनों विद्या आश्रम सारनाथ में एक नई शुरुआत हुई - बिरहा में कबीर। लोक विद्या जनांदोलन, गांव के लोग, अगोरा प्रकाशन और रामजी यादव आर्काइव द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में एकमात्र कलाकार बिरहा गायक सतीशचन्द्र यादव थे। मूल रूप से रसड़ा, बलिया के निवासी सतीश अब स्थायी रूप से बनारस में रहते हैं और यहाँ तुलसी निकेतन में शिक्षक हैं। वह नब्बे के दशक में बिरहा में सक्रिय हुये और जल्दी ही अपनी मजबूत पहचान बना ली। विगत वर्षों में उन्होंने सैकड़ों कार्यक्रमों में शिरकत किया। महात्मा बुद्ध की भूमि सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में आयोजित ‘बिरहा में कबीर’ कार्यक्रम को देख-सुनकर यही लगा कि यह विधा अपनी सामाजिक भूमिका को एक नया अंदाज़ और आयाम देने जा रही है।
इग्नस पहल द्वारा ग्रामसभा मधुमखियाँ में आयोजित तीन दिवसीय समर कैम्प का आज सफलतापूर्वक समापन हुआ। यह कैम्प ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान बच्चों को शिक्षा, खेल और रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से सीखने से जोड़े रखने का एक प्रयास था।
भारतीय जीवन बीमा निगम के अभिकर्ताओं के बीच सूचनाओं को छिपाने को लेकर कई तरह की गलतफहमियाँ सामने आने का मामला सामने आने लगा है। दूसरी तरफ अभिकर्ताओं के ऊपर प्रबंधन द्वारा कई तरह के दबाव और शोषण का भी मामला लंबे समय से उठ रहा है। इसको लेकर पिछले दिनों अभिकर्ताओं ने आंदोलन भी किया। आल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स असोसियेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना है कि प्रबंधन न केवल अभिकर्ताओं के हितों पर कुठाराघात कर रहा है बल्कि वह अपने रिकॉर्ड भी नहीं रख रहा है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं में भी प्रबंधन ने यह कहा है।
भारतीय शिक्षा प्रणाली पर हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों के पहले भी आरएसएस के साम्प्रदायिक संस्करण के माध्यम से प्रतिभाओं, एकल संप्रदायों और शैक्षणिक संस्थानों को बढ़ावा दिया जा रहा था। एनसीईआरटी की इतिहास की किताब से कक्षा सात से मुगलकालीन शासकों का पाठ हटाकर कुम्भ मेला का पाठ शामिल किया गया।
आतंकवाद का खात्मा कैसे हो सकता है? स्थानीय लोगों को राज्य के मामलों से दूर रखने का निरंकुश तरीका आतंकवाद से निपटने में सबसे बड़ी बाधा है। सुरक्षा में बार-बार विफल होना, पुलवामा और अब पहलगाम में सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना गहरी चिंता का विषय है।
नेहा राठौर और लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ माद्री ककोटी उर्फ डॉ मेडुसा के ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया। गोदी मीडिया और भाजपा के ट्रोल ने उनके खिलाफ ज़हर उगलना शुरू कर दिया है।न तो नेहा राठौर और न ही माद्री ककोटी ने इस मामले में कोई खेद व्यक्त किया बल्कि नेहा लगातार आलोचना जारी रखे हुये हैं। एक वीडियों में उन्होंने गोदी मीडिया को देश का गद्दार और अपराधी भी कहा।
पहलगाम पर आतंकियों द्वारा किया गया हमला 100% सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जीता-जागता उदाहरण है। पिछले कुछ वर्षों में, सांप्रदायिक तत्वों ने देश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने में सफलता प्राप्त की है। यह पहली बार नहीं हुआ है बल्कि इसके पहले पुलवामा अटैक भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा हिस्सा था। इसी तरह अगस्त 2016 में बुरहान वानी की हत्या के बाद हुए बंद के दौरान दो सप्ताह जम्मू-कश्मीर में रहकर वहाँ की स्थितियों पर लिए गए जायजे के अनुभव साझा कर रहे हैं सुरेश खैरनार।
बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को जो आदेश पारित किया, उसमें कहा गया कि 25 जुलाई तक पूरे राज्य में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (SIR) किया जाएगा, जिसमें डुप्लीकेट, मृत या गैर-नागरिकों के नाम हटाए जाएंगे। इस प्रक्रिया को मात्र 31 दिनों में संपन्न करना है, जो कि सामान्य सूची पुनरीक्षण की तुलना में असाधारण रूप से त्वरित है। यह निर्णय अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता को संदिग्ध बनाता है
आरएसएस/भाजपा की कार्यशैली काफी जटिल है। वो एक-साथ कई विरोधभासी बातें कर सकते हैं और करते हैं। वे छोटे-छोटे कदम उठाकर संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और साथ ही संविधान के मूल्यों और नीतियों का उल्लंघन भी कर रहे हैं। पिछले एक दशक से हम यही देख रहे हैं। होसबोले का बयान एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया है।
इस साल (2025) में जून में देश ने आपातकाल (इमरजेंसी) लागू किए जाने की 50वीं वर्षगांठ मनाई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में 25 जून को देश में आपातकाल लागू किया था। इस दौर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है - किस तरह लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए, हजारों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया और मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया। इस काल को कई दलित नेता काफी अलग नजर से देखते हैं और याद करते हैं कि उसके पिछले दशक में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीविपर्स की समाप्ति जैसे कई बड़े मौलिक फैसले लिए गए थे। इनके बारे में और इनका विश्लेषण करते हुए भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है।
संघी विचारक बार-बार एकात्म मानववाद का बखान करते हैं और भारत के बहुजन समाजों को एक प्रतिगामी इतिहास से जोड़ने की साजिश करते हैं। व्यावहारिक तौर पर यह ब्राम्हणवादी मूल्यों को बढ़ावा देता है और इसके चलते मंदिर (मस्जिदों को ढहाया जाना), पवित्र गाय (लिंचिंग), लव जिहाद और धर्मपरिवर्तन एजेंडे के मुख्य मुद्दे बन गए हैं। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि भारत को पहले मुस्लिम राजाओं और फिर अंग्रेजों ने गुलाम बनाया। यह विचारधारा हिंदू समाज की बहुत सी खराबियों के लिए, खासतौर से मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों को दोषी मानती है। तथ्य यह है कि हिंदू धर्म की बहुत सी कमियां जाति, वर्ण और लिंग आधारित ऊंच-नीच की वजह से हैं जिनका जिक्र हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाले कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।
आज खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है। बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत नियामक आयोग ने बिजली की दरों में भारी वृद्धि की घोषणा की है। 100 यूनिट तक उपभोग करने वाले लोगों पर, जिनमें से एकल बत्ती कनेक्शन धारी और गरीबी रेखा के नीचे और कम आय वर्ग के लोग शामिल हैं, उन पर 20 पैसे प्रति यूनिट का अतिरिक्त भार डाला गया है। जबकि कृषि क्षेत्र के लिए प्रति यूनिट 50 पैसे वृद्धि की गई है।
डोनाल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को अमेरिका की मुक्ति का दिन घोषित किया है। इसी दिन ट्रंप ने पूरी दुनिया के खिलाफ टैरिफ युद्ध छेड़ा है,जो अब तक के बनाए तमाम पूंजीवादी नियमों और बंधनों को तोड़कर केवल अमेरिकी प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा से संचालित होता है। यह प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा न्याय की किसी भी भावना और अवधारणा को कुचलकर आगे बढ़ना चाहती है।
लोहे के बर्तन बनाना लोहार समुदाय के लिए केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का प्रतीक है। लेकिन बदलते समय के साथ उनके लिए रोज़ी रोटी चलाना मुश्किल होता जा रहा है। नयी तकनीक, सस्ते विकल्प और बदलते उपभोक्ता व्यवहार ने उनके पारंपरिक काम को संकट में डाल दिया है।
नेफेड और राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता फेडरेशन (एनसीसीसीसी) बता रहा है कि सरकार के गोदाम में केवल 14.5 लाख टन दाल ही बची है, जो कि न्यूनतम आवश्यकता का केवल 40% ही है। इसमें तुअर दाल 35000 टन, उड़द 9000 टन, चना दाल 97000 टन ही है, जिसे लोग खाने में सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। इन दालों की जगह दूसरी दाल के इस्तेमाल के बारे में सोचें, तो मसूर दाल का स्टॉक भी केवल पांच लाख टन का ही बचा है। भारत के संभावित दाल संकट पर संजय पराते।
विकासशील देशों को यह देखना होगा कि विकास प्रभावशीलता और कार्यसाधकता सर्वोपरि रहे। सीएसओ पार्टनरशिप फॉर डेवलपमेंट इफेक्टिवनेस (सीपीडीई) की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सालों में यह सर्वविदित हो गया था कि पारंपरिक दाता एजेंसियाँ अपने वायदों पर अधिक समय तक खड़ी नहीं उतर सकती।
छत्तीसगढ़ में भाजपा शासन में 4077 विद्यालय बंद किए जा चुके हैं। सरकार शिक्षा के स्तर सुधारने और नई भर्ती करने की बजाए उसे बिगाड़ने का काम कर गाँव के बच्चों को पढ़ाई से वंचित करने की व्यवस्था बना रही है। सदैव से भाजपा की यही रणनीति रही है कि शिक्षा एक खास वर्ग ही हासिल कर पाए। भाजपाशासित प्रदेशों में शिक्षा और शिक्षा नीति में लगातार बदलाव कर तर्क सम्मत पाठ्यक्रमों को हटाकार धार्मिक विषयों को शामिल करने की होड़ लगी है।
असली जातिवाद देखना है तो विश्वविद्यालयों की वर्तमान स्थिति को देखा जा सकता है। जातिवाद के सबसे क्रूर, घिनौने और घिनौने स्थान विश्वविद्यालय बन गए हैं। जहां गले तकभ्रष्टाचार खुले आम हो रहा है। विश्वविद्यालय के मुखिया से लेकर प्रोफेसरों की नियुक्ति अब आरएसएस और भाजपा के इशारे पर हो रही है।
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) द्वारा किए गए सर्वे के आधार पर यह सामने आया कि प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक विद्यालय के बच्चों की बुनियादी साक्षरता और गणितीय कौशल के स्तर मे सुधार के लिए किए जा रहे प्रयास के परिणाम सही दिशा में आते हुए दिखाई दे रहे हैं। हालांकि यह लक्ष्य बहुत सकारात्मक नहीं है लेकिन सुधार होता दिख रहा है। ‘निपुण भारत मिशन’ जिसकी शुरुआत 5 जुलाई 2021 को हुई थी, तय लक्ष्य पाने में अभी बहुत पीछे है लेकिन जो भी हासिल है उसका श्रेय शिक्षकों को दिया जाना चाहिए।
विद्यालय में बच्चों की पढ़ाई में रुचि पैदा हो इसके लिए अध्यापकों का पूरा ध्यान दिया जाना जरूरी है। लेकिन होता यह है कि सरकारी विद्यालयों में अध्यापकों को पढ़ाने के अलावा अन्य प्रशासनिक कामों की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है और उसे करने का दबाव बनाया जाता है, जिसकी वजह से अध्यापक काम पूरा करने के लिए बच्चों को दिये जाने वाले समय से कटौती करता है। सरकार को अन्य प्रशासनिक कामों से पूरी तरह मुक्त रखना होगा ताकि बच्चे बच्चे सीखने की उम्र में रुचि के साथ सीख सकें।
ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षिक संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए एक ठोस रणनीति पर अमल करने की जरूरत है। जिसमें बुनियादी ढांचा और सुविधाएं उपलब्ध कराना अहम हैं। इनमें क्लास रूम की सुविधा उपलब्ध कराना, उचित स्वच्छता सुविधाओं को मुहैया कराना, शौचालय विशेष रूप से लड़कियों के लिए, साथ ही बिजली और पीने का साफ पानी मुख्य रूप से शामिल है।
अमरीकी ट्रम्प सरकार ने अनेक जन स्वास्थ्य संस्थाओं पर हमला बोल दिया है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संगठन हो या अमरीकी सरकार की सीडीसी (रोग नियंत्रण संस्था), आयुर्विज्ञान अनुसंधान हो या विकासशील देशों में अमरीकी पैसे से पोषित स्वास्थ्य या विकास कार्यक्रम - सब खंडित हैं या उन पर खंडित होने का ख़तरा मंडरा रहा है। बीजिंग घोषणापत्र 1995 गर्भपात का अधिकार और कानूनी रूप से बाध्य ‘सीईडीएडबल्यू’ (कन्वेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ़ ऑल फ़ॉर्म्स ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वोमेन) तथा अन्य समझौतों और घोषणाओं में निहित वायदों का हिस्सा है तथा लैंगिक और यौनिक समानता और मानव अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य-5 को प्राप्त करने के लिए भी महत्वपूर्ण है, फिर भी इस पर वैश्विक प्रगति संतोषजनक नहीं है। विश्व स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर शोभा शुक्ला का लेख।
अक्सर गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया के अंतर्गत दवाओं के किसी बैच के सैंपल या नमूने की जाँच की जाती है कि उसमें कोई मिलावट न हो, दवाओं में ऐक्टिव फार्मास्यूटिकल एजेंट की मात्रा सही हो, आदि। परंतु गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में प्रायः यह जांच नहीं होती कि दवाओं की जैव समतुल्यता और स्थिरता, विभिन्न मौसम तापमान और नमी में भी सही रहती है या नहीं। गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में यह भी पुष्टि की जानी चाहिए कि दवाएं जैव समतुल्य और स्थिर रहें।
'सबका साथ सबका विकास' यह बात कहने सुनने में अच्छी लगती है लेकिन देश के अनेक हिस्से ऐसे हैं, जहाँ बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है, जिसमें ग्रामीण इलाके के साथ ही शहरों से लगी हुई स्लम बस्तियां भी हैं, जहाँ रहने वाली महिलायें और बच्चे लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। इसे देखते हुए लोगों का कहना है कि सामाजिक संस्थाएं और कार्यकर्ता अपने सामूहिक प्रयास से उन बस्तियों की बुनियादी समस्यायों से निजात दिलवा सकते हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार की अनेक योजनायें यहाँ सफल क्यों नहीं हो पाती हैं।
दुनिया भर में स्वास्थ्य और दवाओं को लेकर नए नए अनुसंधान जरूर हो रहे हैं लेकिन घटिया और नकली दवाओं के कारण अनेक बीमारियाँ लाइलाज हो रही हैं। साथ ही दवा प्रतिरोधक रोग से अधिक रोगी इलाज के अभाव में मर रहे हैं। यह खतरा केवल मनुष्यों के जीवन पर ही नहीं है बल्कि मवेशियों और पशुधन पर भी बढ़ा है। वैसे भी देर हो चुकी है लेकिन सतर्कता फिर भी जरूरी है।
औसत उम्र में वृद्धि होने के बाद देश में बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन सामाजिकता में लगातार कमी आई है, जिसकी वजह से बुजुर्गों में अकेलेपन की समस्या बढ़ गई है। इस बढ़ती हुई समस्या के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सामाजिक संपर्क के लिए एक आयोग की स्थापना तीन वर्षों के लिए की है। स्वास्थ्य संगठन की चिंता वाजिब है लेकिन सवाल यह उठता है कि इस तरह की सामाजिकता से क्या हल निकल पायेगा या यह केवल खानापूर्ति ही साबित होगा।
लोकविद्या जनांदोलन और गाँव के लोग ने लोकगायन और प्रदर्शनकारी कलाओं के प्रस्तुतिकरण की दिशा में पहला कार्यक्रम सारनाथ में आयोजित किया। कार्यक्रम शृंखला की पहली प्रस्तुति चनैनी गायक केदार यादव ने लोरिकी गाकर दी। हर महीने होने वाला यह आयोजन लोककलाओं के माध्यम से जनता से संवाद बनाने की दिशा में एक प्रयास होगा।
हिन्दी सिनेमा में साठ और सत्तर के दशक में खेती और किसानी के बढ़ते संकटों, बेरोजगारी की विकराल होती समस्या, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, महिलाओं की असुरक्षा और भारतीय समाज में आ रहे अन्य अनेक बदलाओं को मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों में बहुत बारीकी से चित्रित किया। इस तरह मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा में उन्होंने उन विषयों को अपने स्तर पर बरतने का प्रयास किया जो लगभग पीछे छोड़ दिये जा रहे थे। एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में मनोज कुमार ने एक लंबी पारी खेली और अनेक सफल और उल्लेखनीय फिल्में दी। हिन्दी सिनेमा में उनकी एक अलग पहचान है। उन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना में बेशक बहुत से सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों को स्थूल रूप में देखा और चित्रित किया हो लेकिन भारतीय समाज को उन्होंने उसकी बुनियादी उत्पादकता के आधार पर देखा। खासतौर से कृषि समाजों के ऊपर बढ़ते दबावों के मद्देनज़र उनकी फिल्मों को नए सिरे से विश्लेषित किए जाने की जरूरत है। 4 अप्रैल को 87 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। इस मौके पर उन्हें याद कर रहे हैं जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक विद्याभूषण रावत।
सन 2011 में प्रकाशित (Foundation Scalles) की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सेक्स वर्कर्स की कुल संख्या 42 मिलियन है जो मुख्य रूप से सेंट्रल एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका में पायी जाती है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ सेक्स वर्कर्स की वेबसाइट के अनुसार ‘विश्व में सेक्स वर्कर्स सर्वाधिक संख्या अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, तुर्की, रूस, नाइजीरिया, जर्मनी और भारत में पायी जाती है। वर्तमान में पूरी दुनिया में 52 मिलियन सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें 41.6 मिलियन महिलायें और 10.4 मिलियन पुरुष हैं। ‘दुनिया के कई देश हैं जहाँ वेश्यावृत्ति को क़ानूनी वैधता मिली हुई है और वे सेक्स टूरिज्म के बड़े केंद्र माने जाते हैं। उन देशों की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति का बहुत बड़ा योगदान है। इनमें न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया, बांग्लादेश, बेल्जियम, ब्राज़ील, कनाडा, कोलम्बिया, डेनमार्क, जर्मनी, ग्रीस, नीदरलैंड, स्विटज़रलैंड, मेक्सिको, वेनेजुएला, सियरा लिओन, बोलीविया, पेरू और अन्य कई देश प्रमुख हैं’ (भट्टाचार्या, रोहित 2024)। जिन स्थानों पर वेश्यावृत्ति का धंधा होता है उन्हें कोठा, चकला, वेश्यालय, रेड लाइट एरिया, ब्रॉथेल्स आदि नामों से जाना जाता है। आज के इनफार्मेशन और कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के युग में तमाम वेबसाइट/पोर्टल उपलब्ध हैं जो सेक्स वर्कर्स के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स, कॉलगर्ल, पॉर्न स्टार्स, जिगोलो जैसे नाम और व्यवसाय आज की वैश्वीकृत दुनिया में जाने जाते हैं। अंतर-धार्मिक घृणा के तहत किए गए हमले और औरतों को बंधक बनाकर जबरदस्ती यौन हिंसा का शिकार बनाने की घटनाएँ दुनिया के कई क्षेत्रों में बढती जा रही हैं। सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, अफगानिस्तान और इराक ऐसी हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हैं जहाँ महिलाओं को वेश्यावृत्ति करने को मजबूर किया जाता है। पढ़िये जाने-माने कवि-कथाकार राकेश कबीर का विचारोत्तेजक आलेख।
किसी जमाने में 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी फिल्मों ने ढहते हुये सामंतवाद का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिससे लगता था कि अब यह बीते जमाने की बात होने वाला है। हालाँकि इसके पीछे उनकी डूबती हुई अर्थव्यवस्था सबसे प्रमुख कारण था। चीजें और स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। ऐसा लगता था कि अब कमानेवाला खाएगा और लूटनेवाला जाएगा लेकिन हाल के दशकों में इसे मुड़कर देखने की जरूरत आ पड़ी है। मेहनतकश समुदायों के लिए स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती गई हैं। देश में मजदूर विरोधी कानून लगातार बने और अधिकारों का संघर्ष धूमिल होने लगा। इसके बरक्स राजनीति और अर्थव्यवस्था में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ मजबूत होता गया। जातिवादी सामाजिक सोपान पर जिन जातियों को ढहते हुये सामंतवाद के साथ ध्वस्त होते जाने का अनुमान था उन्होंने अपनी सामाजिक एकता को फिर से मजबूत कर लिया और पैसे कमाने के नए-नए ढर्रों में अपने-आप को ढाल लिया। सरकारी और गैर सरकारी ठेकों और विभिन्न एजेंसियों के हासिल करने से मजबूत हुई अर्थव्यवस्था ने उन्हें राजनीतिक ताकत हासिल करने को प्रेरित किया और इस प्रकार अपराध और राजनीति का एक दबंग रूप सामने आया। ज़ाहिर है इसका असर सिनेमा में भी व्यापक रूप से हुआ और पर्दे पर जातीय दंभ और हेकड़ी की एक भाषा ही हावी होती गई। भूमंडलीकरण के बाद इसमें पर्याप्त इजाफा हुआ। प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे हिन्दी प्रदेश के निर्देशकों की फिल्मों में दिखाई गई जातीय प्रस्थिति, भाषा और कार्य-व्यापार चाहे जितने मौलिक और रचनात्मक बताए जा रहे हों लेकिन इनके निहितार्थों पर ठहर कर सोचना जरूरी है। जाति के मसले पर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर के लंबे लेख की अंतिम और समापन कड़ी।
हिन्दी सिनेमा में जाति का सवाल बहुत पुराना है लेकिन उसे हल करने के लिए जिस शिद्दत और संवेदना की जरूरत थी वह नहीं थी लिहाजा या तो एकांगी चित्रण होता रहा अथवा फ़िल्मकार इससे मुंह चुराते रहे। हालिया वर्षों में दलित परिवारों से निकले फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दलित चित्रण का व्याकरण बदल दिया है। अब वे नए ढंग के मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने दलित जीवन की घिसी-पिटी परिपाटी को तोड़कर अधिकारबोध और स्वाभिमान से भरे हुये नायकों को पर्दे पर उतारा है। जाने-माने कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर ने पा रंजीत और नागराज मंजुले की फिल्मों के आधार पर इसकी गहरी छानबीन की है। साथ में नायकत्व की अवधारणा और सामान्य जीवन के अंतर्विरोधों को भी समझने का प्रयास किया है।
भारतीय शिक्षा प्रणाली पर हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों के पहले भी आरएसएस के साम्प्रदायिक संस्करण के माध्यम से प्रतिभाओं, एकल संप्रदायों और शैक्षणिक संस्थानों को बढ़ावा दिया जा रहा था। एनसीईआरटी की इतिहास की किताब से कक्षा सात से मुगलकालीन शासकों का पाठ हटाकर कुम्भ मेला का पाठ शामिल किया गया।
आतंकवाद का खात्मा कैसे हो सकता है? स्थानीय लोगों को राज्य के मामलों से दूर रखने का निरंकुश तरीका आतंकवाद से निपटने में सबसे बड़ी बाधा है। सुरक्षा में बार-बार विफल होना, पुलवामा और अब पहलगाम में सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना गहरी चिंता का विषय है।
नेहा राठौर और लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ माद्री ककोटी उर्फ डॉ मेडुसा के ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया। गोदी मीडिया और भाजपा के ट्रोल ने उनके खिलाफ ज़हर उगलना शुरू कर दिया है।न तो नेहा राठौर और न ही माद्री ककोटी ने इस मामले में कोई खेद व्यक्त किया बल्कि नेहा लगातार आलोचना जारी रखे हुये हैं। एक वीडियों में उन्होंने गोदी मीडिया को देश का गद्दार और अपराधी भी कहा।
पहलगाम पर आतंकियों द्वारा किया गया हमला 100% सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जीता-जागता उदाहरण है। पिछले कुछ वर्षों में, सांप्रदायिक तत्वों ने देश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने में सफलता प्राप्त की है। यह पहली बार नहीं हुआ है बल्कि इसके पहले पुलवामा अटैक भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा हिस्सा था। इसी तरह अगस्त 2016 में बुरहान वानी की हत्या के बाद हुए बंद के दौरान दो सप्ताह जम्मू-कश्मीर में रहकर वहाँ की स्थितियों पर लिए गए जायजे के अनुभव साझा कर रहे हैं सुरेश खैरनार।
आज हम बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की 134 वीं जयंती एक ऐसे समय में मना रहे हैं, जब आंबेडकरवादियों को उस हिन्दू राज का भय बुरी तरह सता रहा है, जिसके खतरे से बचने के लिए बाबा साहब वर्षों पहले आगाह कर गए थे। उन्होंने हिन्दू राज के खतरे से आगाह करते हुए कहा था, ’अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा है। इस पैमाने पर वह लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता है। इसलिए हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’