आरएसएस हमेशा से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता था। सत्ता में आने के बाद वर्ष 2014 से एक हो लक्ष्य साधने का काम कार रहा है। इधर महाकुंभ का आयोजन के बाद धर्म सेना के जरिए संतों का संगठन देश को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करने की तैयारियों में जुट चुका है! आखिर जिस देश की सत्ता पर हिंदुत्ववादियों की बहुत ही मज़बूत पकड़ है, उस देश में साधु-संतों को धर्म-सेना की कोई जरूरत हो सकती है! बहरहाल यहाँ सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है कि सामने न तो कोई चुनाव है और न ही तानाशाही हिंदुत्ववादी सत्ता को कोई खतरा, फिर साधु-संत गुलामी के प्रतीकों के खिलाफ अभूतपूर्व माहौल पैदा करने के साथ गाँव-गाँव हिन्दू राष्ट्र का संविधान पहुंचाने, हस्ताक्षर अभियान चलाने, धर्म-सेना खड़ा करने के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लायक तरह-तरह की गतिविधियाँ चलाने में नए सिरे क्यों मुस्तैद हो गए हैं?
महाकुंभ को लेकर सरकार का यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है कि अब तक 35 करोड़ लोग पहुंचे हैं। लेकिन इतना तो सही है कि इस कुंभ का भी जिस प्रकार नफरत फैलाने और ध्रुवीकरण करने की राजनीति के लिए उपयोग किया गया है, यदि सरकारी दावे के आधा, 15 करोड़ भी इस कुंभ में पहुंचे हों, तो सरकारी खर्च प्रति व्यक्ति औसतन 500 रूपये बैठता है और किसी भी तीर्थ यात्री को स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने के लिए यह राशि कम नहीं होती। कहीं ऐसा तो नहीं कि महाकुंभ में 50 करोड़ तीर्थयात्रियों के पहुंचने का दावा, जिसकी किसी भी तरह से पुष्टि नहीं होती, इस भारी भरकम आबंटन में सेंधमारी करने की सुनियोजित साजिश है?
एक सौ चौवालिस वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ 'हादसों का कुंभ' बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से 'गुडबाय-टाटा' कहने की जरूरत है।