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सहना

सहना को सरकारी सुविधा, हलकू अब भी कांप रहा है

प्रेमचंद का साहित्य आज भी कम प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि उस समय में और आज के समय में समस्याओं का स्वरूप बेशक बदल गया हो लेकिन समस्याएँ समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि कुछ समस्याएँ और गहरी हो गई हैं। ग्रामीण व शहरी बेरोज़गारी, बिना लाभ की खेती, दलितों व ग़रीबों का आर्थिक शोषण व उत्पीड़न, ऊँच-नीच व छूआछूत, अकर्मण्यता, अंधविश्वास व धार्मिक पाखण्ड, रिश्वतख़ोरी व भ्रष्टाचार आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। ग़रीबी का स्वरूप बदल गया है लेकिन ग़रीबी नहीं। खेतिहर किसान मज़दूर में बदल गया है। कुछ समस्याएँ ऐसी भी हैं जिनका स्वरूप तक नहीं बदला है।

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