अनुवादक - उषा वैरागकर आठले
लेखिका रंगकर्मी और अनुवादक हैं।
सामाजिक न्याय
महाराष्ट्र में गोंडी बोलने और पिज़्ज़ा खाने की कीमत कैसे चुका रहे हैं आदिवासी
सरकार लगातार आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए बड़ी बड़ी योजनाएं और वादे कर रही है लेकिन महाराष्ट्र में पढ़ने वाले आदिवासी बच्चों के लिए जिस तरह के निर्णय लिए जा रहे हैं, उससे सरकार की मंशा पर सवाल उठना वाजिब है। जबकि संविधान में सभी समुदायों को सभी स्तरों पर, अपनी प्राचीन भाषा हो या आधुनिक खानपान, सबको समान न्याय और अधिकार मिले हुए हैं। महाराष्ट्र के एक आदिवासी गाँव में गोंडी भाषा पढ़ने वाले स्कूल को प्रतिदिन दस हज़ार रुपये जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई है। इसी तरह नासिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के छात्रावास में रहने वाली एक लड़की को पिज़्ज़ा खाने के कारण निलंबित कर दिया गया है। क्या ऐसा करना संविधान के खिलाफ नहीं है? लेखक प्रमोद मुनघाटे ने अपने इस लेख में इन्हीं सवालों को उठाया है।
सामाजिक न्याय
सेवा के नाम पर संस्थाएं संस्थान बन जाती हैं और आदिवासी वहीं रह जाते हैं
राजनैतिक दल और स्वयंसेवी संस्थाएं अक्सर समाज सेवा के नाम पर आदिवासी समाज के लिए किए गए कामों को करने का जिम्मा उठाते हुए इस तरह से बातें करते व श्रेय लेते दिखाई देते हैं कि उन्होंने ही उनके उद्धार का ठेका लिया है। उन्हें यह गुमान रहता है कि उनके द्वारा किए जा रहे कामों से क्रांतिकारी बदलाव आएंगे। जबकि उनका समाज क्या और कैसा बदलाव चाहता है, इस पर उनसे कोई सलाह-मशविरा नहीं लिया जाता। आज भी आदिवासी समाज हाशिये पर है और शिक्षा, स्वास्थ्य व बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन जीने को विवश है। ऐसे में उन समाज सेवी संस्थाओं से सवाल किया जाना जरूरी है कि क्यों वे अपनी योजनाओं को थोपते हैं? आदिवासियों से सलाह लेकर काम क्यों नहीं किया जाता? इन्हीं सवालों को उठाते हुए पढ़िए देवेंद्र गावंडे के मूल मराठी लेख का हिंदीअनुवाद