आज दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार कर सके। जिनमें संभावना थी, वे अब शासकों के दलाल में रूप में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। इससे निश्चय ही ही बहुजनों के आजादी की लड़ाई प्रभावित होगी। लेकिन नेतृत्व की कमी को यदि बहुजन बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट चाहें तो दूर कर सकते हैं। इसके लिए उन्हे अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा।