व्यक्तियों आए वस्तुओं के प्रति अवधारणाओं ने निर्माण में सिनेमा की सबसे सशक्त भूमिका रही है। सिनेमा अगर मृत्यु के लिए जलते हुये दीये के बुझ जाने का रूपक इस्तेमाल करता तो ज़्यादातर भारतीय दर्शक भी बुझते दीये को एक अनिष्ट के रूप में देखता। सिनेमा ने सांप को दूध पिलाया तब से आज तक यह अवधारणा चली आ रही है। विकलांगों के प्रति सिनेमा और समाज का रवैया स्पष्ट रूप से संवेदनहीन रहा है लेकिन दुनिया की अनेक फिल्मों ने विकलांगों के चित्रण में अद्भुत संवेदनशीलता का परिचय दिया है। इस लेख में डॉ राकेश कबीर ने दृष्टिबाधितों पर बने सिनेमा के भीतर उनके चित्रण के क्रमिक विकास का विषद अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह लेख फिल्मों के बहाने दुनिया भर के वास्तविक व्यक्तियों के साथ ही उन संस्थाओं पर भी बात करता है जो दृष्टिबाधितों के लिए एक बेहतर और सुंदर संसार बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।