डॉ. राकेश कबीर
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।
सिनेमा
सिनेमा : पर्दे से ज्यादा भयावह है वेश्यावृत्ति की वास्तविक दुनिया
सन 2011 में प्रकाशित (Foundation Scalles) की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सेक्स वर्कर्स की कुल संख्या 42 मिलियन है जो मुख्य रूप से सेंट्रल एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका में पायी जाती है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ सेक्स वर्कर्स की वेबसाइट के अनुसार ‘विश्व में सेक्स वर्कर्स सर्वाधिक संख्या अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, तुर्की, रूस, नाइजीरिया, जर्मनी और भारत में पायी जाती है। वर्तमान में पूरी दुनिया में 52 मिलियन सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें 41.6 मिलियन महिलायें और 10.4 मिलियन पुरुष हैं। ‘दुनिया के कई देश हैं जहाँ वेश्यावृत्ति को क़ानूनी वैधता मिली हुई है और वे सेक्स टूरिज्म के बड़े केंद्र माने जाते हैं। उन देशों की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति का बहुत बड़ा योगदान है। इनमें न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया, बांग्लादेश, बेल्जियम, ब्राज़ील, कनाडा, कोलम्बिया, डेनमार्क, जर्मनी, ग्रीस, नीदरलैंड, स्विटज़रलैंड, मेक्सिको, वेनेजुएला, सियरा लिओन, बोलीविया, पेरू और अन्य कई देश प्रमुख हैं’ (भट्टाचार्या, रोहित 2024)। जिन स्थानों पर वेश्यावृत्ति का धंधा होता है उन्हें कोठा, चकला, वेश्यालय, रेड लाइट एरिया, ब्रॉथेल्स आदि नामों से जाना जाता है। आज के इनफार्मेशन और कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के युग में तमाम वेबसाइट/पोर्टल उपलब्ध हैं जो सेक्स वर्कर्स के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स, कॉलगर्ल, पॉर्न स्टार्स, जिगोलो जैसे नाम और व्यवसाय आज की वैश्वीकृत दुनिया में जाने जाते हैं। अंतर-धार्मिक घृणा के तहत किए गए हमले और औरतों को बंधक बनाकर जबरदस्ती यौन हिंसा का शिकार बनाने की घटनाएँ दुनिया के कई क्षेत्रों में बढती जा रही हैं। सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, अफगानिस्तान और इराक ऐसी हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हैं जहाँ महिलाओं को वेश्यावृत्ति करने को मजबूर किया जाता है। पढ़िये जाने-माने कवि-कथाकार राकेश कबीर का विचारोत्तेजक आलेख।
सिनेमा
फिल्मों में वैसे ही जाति-गौरव बढ़ रहा है जैसे अर्थव्यवस्था और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व
किसी जमाने में 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी फिल्मों ने ढहते हुये सामंतवाद का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिससे लगता था कि अब यह बीते जमाने की बात होने वाला है। हालाँकि इसके पीछे उनकी डूबती हुई अर्थव्यवस्था सबसे प्रमुख कारण था। चीजें और स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। ऐसा लगता था कि अब कमानेवाला खाएगा और लूटनेवाला जाएगा लेकिन हाल के दशकों में इसे मुड़कर देखने की जरूरत आ पड़ी है। मेहनतकश समुदायों के लिए स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती गई हैं। देश में मजदूर विरोधी कानून लगातार बने और अधिकारों का संघर्ष धूमिल होने लगा। इसके बरक्स राजनीति और अर्थव्यवस्था में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ मजबूत होता गया। जातिवादी सामाजिक सोपान पर जिन जातियों को ढहते हुये सामंतवाद के साथ ध्वस्त होते जाने का अनुमान था उन्होंने अपनी सामाजिक एकता को फिर से मजबूत कर लिया और पैसे कमाने के नए-नए ढर्रों में अपने-आप को ढाल लिया। सरकारी और गैर सरकारी ठेकों और विभिन्न एजेंसियों के हासिल करने से मजबूत हुई अर्थव्यवस्था ने उन्हें राजनीतिक ताकत हासिल करने को प्रेरित किया और इस प्रकार अपराध और राजनीति का एक दबंग रूप सामने आया। ज़ाहिर है इसका असर सिनेमा में भी व्यापक रूप से हुआ और पर्दे पर जातीय दंभ और हेकड़ी की एक भाषा ही हावी होती गई। भूमंडलीकरण के बाद इसमें पर्याप्त इजाफा हुआ। प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे हिन्दी प्रदेश के निर्देशकों की फिल्मों में दिखाई गई जातीय प्रस्थिति, भाषा और कार्य-व्यापार चाहे जितने मौलिक और रचनात्मक बताए जा रहे हों लेकिन इनके निहितार्थों पर ठहर कर सोचना जरूरी है। जाति के मसले पर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर के लंबे लेख की अंतिम और समापन कड़ी।
सिनेमा
पा रंजीत और अन्य फ़िल्मकारों का सिनेमा : संवेदना, चेतना और चित्रण में जाति का सवाल
हिन्दी सिनेमा में जाति का सवाल बहुत पुराना है लेकिन उसे हल करने के लिए जिस शिद्दत और संवेदना की जरूरत थी वह नहीं थी लिहाजा या तो एकांगी चित्रण होता रहा अथवा फ़िल्मकार इससे मुंह चुराते रहे। हालिया वर्षों में दलित परिवारों से निकले फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दलित चित्रण का व्याकरण बदल दिया है। अब वे नए ढंग के मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने दलित जीवन की घिसी-पिटी परिपाटी को तोड़कर अधिकारबोध और स्वाभिमान से भरे हुये नायकों को पर्दे पर उतारा है। जाने-माने कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर ने पा रंजीत और नागराज मंजुले की फिल्मों के आधार पर इसकी गहरी छानबीन की है। साथ में नायकत्व की अवधारणा और सामान्य जीवन के अंतर्विरोधों को भी समझने का प्रयास किया है।
सिनेमा
क्या जाति के मुद्दों पर सिनेमा बनानेवालों ने जाति की विनाश की दिशा में कोई काम किया
जाति व्यवस्था के बारे में इतिहास में कई व्याख्याएँ मौजूद हैं। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जाति भारतीय समाज की एक अनूठी संस्था है और दुनिया में इसका संगठन सबसे अलग है। जाति ने ऊंच और नीच के आधार पर सम्पूर्ण समाज का एक सीढ़ीगत वर्गीकरण स्थापित कर रखा है। दूसरी अवधारणाओं में व्यवसाय के आधार पर जाति के विभाजन को देखा जाता है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। चाहे कितना भी आधुनिक संदर्भ बनाया जाय लेकिन उसकी पृष्ठभूमि की गहरी छानबीन करने पर उसकी बुनियाद जाति व्यवस्था में ही मिलती है। इसलिए जाति व्यवस्था को हमेशा दो पहलुओं से देखने पर अधिक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है कि कैसे एक ही व्यवस्था एक ही देश और समाज में दो भिन्न स्तरों पर काम करती रही है। एक पहलू तो यह कि जो वर्ग जाति व्यवस्था के सभी लाभ (आय के स्रोत, संपत्ति और सामाजिक सम्मान) ले रहा है, उसके मुक़ाबले एक दूसरा बड़ा वर्ग है जो जाति व्यवस्था के कारण हर प्रकार की हानियों (श्रम का अवमूल्यन, निर्धनता और अपमान) को सदियों से झेल रहा है। यहाँ तक कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर भी वह हमेशा कमजोर रहा है और अपने नायकों की जगह अपने उत्पीड़कों को सम्मान देने को अभिशप्त रहा है। कहना चाहिए कि जाति व्यवस्था ने सामाजिक अन्याय पैदा किया। जाति व्यवस्था में भरोसा रखनेवाला हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में सामाजिक अन्याय का पोषक है। लेकिन इस अन्याय को वह धर्म-अध्यात्म और मिथकों की चासनी में लपेटकर बड़े पैमाने पर परोसता रहा है। इसलिए भारत के बड़े जनसमूह का प्रायः एकतरफा व्याख्याओं की जाल में फंसना स्वाभाविक है। साहित्य, कला, रंगकर्म और सिनेमा ने भी इसे एक मोहक भुलावे में ही रचा और प्रसारित किया। यह सब सामाजिक न्याय के विरुद्ध सामाजिक अन्यायवादियों का एक बड़ा एजेंडा रहा है। भारतीय सिनेमा में जाति के सवाल को लेकर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर का विचारोत्तेजक विश्लेषण।
लोकल हीरो
नन्द प्रसाद यादव : दृष्टिबाधित होने के बावजूद हार नहीं माना
राकेश सन 1996 में पढ़ने के लिए राजकीय जुबिली इन्टर कॉलेज में पढ़ने गए। वहाँ उन्हें दृष्टिबाधित अध्यापक नन्द प्रसाद यादव (एम. ए., एलएल.बी.) जी से मिलना हुआ। वे राजनीतिशास्त्र-नागरिकशास्त्र के प्रवक्ता थे और हाईस्कूल तक की कक्षाओं में हिन्दी साहित्य का काव्य संकलन पढ़ाते थे। उन्हें काव्य संकलन में संकलित सभी कवियों की कविताएं याद थीं और बड़े मनोयोग से वे अपने छात्रों को पढ़ाते थे।
सिनेमा
सिनेमा में दृष्टिबाधितों का चित्रण : दया का दामन छोड़कर एक संवेदनशील भूमिका की ओर
व्यक्तियों आए वस्तुओं के प्रति अवधारणाओं ने निर्माण में सिनेमा की सबसे सशक्त भूमिका रही है। सिनेमा अगर मृत्यु के लिए जलते हुये दीये के बुझ जाने का रूपक इस्तेमाल करता तो ज़्यादातर भारतीय दर्शक भी बुझते दीये को एक अनिष्ट के रूप में देखता। सिनेमा ने सांप को दूध पिलाया तब से आज तक यह अवधारणा चली आ रही है। विकलांगों के प्रति सिनेमा और समाज का रवैया स्पष्ट रूप से संवेदनहीन रहा है लेकिन दुनिया की अनेक फिल्मों ने विकलांगों के चित्रण में अद्भुत संवेदनशीलता का परिचय दिया है। इस लेख में डॉ राकेश कबीर ने दृष्टिबाधितों पर बने सिनेमा के भीतर उनके चित्रण के क्रमिक विकास का विषद अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह लेख फिल्मों के बहाने दुनिया भर के वास्तविक व्यक्तियों के साथ ही उन संस्थाओं पर भी बात करता है जो दृष्टिबाधितों के लिए एक बेहतर और सुंदर संसार बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
सिनेमा
साहब, बीवी और गुलाम : ढहते हुए सामन्तवाद की दास्तान
राजकपूर और गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा के किशोर काल में ही कसे हुए सम्पादन के साथ विविध विषयों पर मनोरंजक एवं संदेशपरक फिल्में बनाई जिनकी कद्र आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करते हैं। आज भी नयी पीढ़ी के फिल्मकार गुरुदत्त जैसे लिजेंड की क्लासिक फिल्मों से सीखते हैं अपनी फिल्में बनाते हैं।
सिनेमा
पानी की ‘ब्यूटी’ का इस्तेमाल करने वाला सिनेमा पानी के प्रति ड्यूटी’ कब निभाएगा
पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व लिए जल एक अपरिहार्य तत्व है। भारतवर्ष में हजारों नदियां हैं, झील, ताल, तालाब और झरने अपनी खूबसूरती के साथ यत्र-तत्र विद्यमान हैं लेकिन भारतीय सिनेमा में पानी और उससे जुड़े मुद्दों को बहुत कम स्पेस मिला है। हालांकि पानी और सिनेमा का हमेशा से करीबी रिश्ता रहा है लेकिन वह पानी के रोमांटिक पक्ष पर ही ज्यादा केंद्रित रहा है। भारतीय सिनेमा में जब हम हिन्दी भाषा से अलग अन्य भाषाओं के सिनेमा को देखते हैं तो पता चलता है कि सामाजिक और पर्यावरणीय विषयों पर कुछ गंभीर निर्देशकों ने सार्थक फिल्में बनाई हैं। पढ़िए डॉ राकेश कबीर का विश्लेषणपरक लेख
सिनेमा
शताब्दी वर्ष में राजकपूर की याद : सिनेमा के कई छोरों को छूती हुई
भारतीय सिनेमा के इतिहास में शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर की पारिवारिक पृष्ठभूमि भले ही फिल्मी रही हो, लेकिन उन्होंने अपनी जगह स्वयं के संघर्ष से हासिल की। दो राय नहीं कि राजकपूर (1924-1988) हिन्दी सिनेमा के महान अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। उन्नीसवीं सदी के चालीस और पचास के दशक में जब भारतीय सिनेमा आरंभिक दौर में था और देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था, जब आर्थिक और तकनीकी संसाधनों की कमी थी उस दौर में राजकपूर की श्वेत-श्याम फिल्मों में विषय चयन, सम्पादन, गीत-संगीत, संवाद, विचारधारात्मक परिपक्वता जैसे तत्व हमें आश्चर्यचकित करते हैं। भारतीय फिल्मों के इतिहास में उनकी अनेक फिल्में मील का पत्थर हैं। आज उनका शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है लेकिन उनका क्लासिक काम हमेशा याद किया जाता रहेगा।
सिनेमा
दूसरी पीढ़ी के तुर्क-जर्मन फिल्मकार फातिह अकीन ने तुर्की के विस्थापितों का सिनेमा बनाया
फातिह अकीन दूसरी पीढ़ी के तुर्क- जर्मन फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्मों की विषय-वस्तु प्रवासियों के जीवन से जुड़े मुद्दे हैं। फातिह अकीन ने जर्मनी के मेनस्ट्रीम सिनेमा में अपनी अलहदा फिल्म निर्माण शैली से जान फूंकने का काम करने के साथ ही प्रवासी तुर्कों के मुद्दों को भी प्रमुखता देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
सिनेमा
स्मिता पाटिल ने संजीदा सिनेमा को एक नया व्याकरण दिया था
हिंदी फिल्म जगत की आठवें और नवें दशक की अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेत्री स्मिता पाटील के अभिनय कला की विलक्षणताओं, आम भारतीय स्त्री की वास्तविक स्थिति और मनोदशा को रुपायित करती अविस्मरणीय भूमिकाओं, समाज के वंचित तबके, विशेष रूप से महिलाओं के प्रति उनकी गहरी संवेदना आदि को रेखांकित करता/समेटता शोधपरक आलेख पढ़ा। यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा कि वे बहुत कम उम्र में इस दुनिया से विदा हो गईं अन्यथा वे और सैकड़ों फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय से अविस्मरणीय भूमिकाओं को परदे पर साकार करतीं।
संस्कृति
शबाना आज़मी : एक कद्दावर अभिनेत्री जिसकी सामाजिक उपस्थिति भी एक मेयार है
आर्ट फिल्मों के साथ ही व्यावसायिक सिनेमा की बड़ी हिट फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी ने फिल्मों के अलावा देश के राजनीतिक मुद्दों, साम्प्रदायिक मामलों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रखे हैं। कला और समानांतर सिनेमा से लेकर पूर्णतः व्यावसायिक फिल्मों में उन्होंने काम किया, नाम और सफलता अर्जित की और साथ ही सामजिक दायित्वों का निर्वहन भी बखूबी किया है।
सिनेमा
पश्चिम एशिया के देशों में जबरन पलायन और सिनेमा
विश्व के अबतक के ज्ञात इतिहास में समुदायों के बीच आपसी घृणा और हिंसा के प्रमाण मिलते है। हिंसा और अत्याचार के कारण कमजोर समुदायों को पलायित होने को बाध्य होना पड़ता है। वर्तमान हालात देखकर हम यह उम्मीद नहीं लगा सकते कि यह सब भविष्य में बंद भी हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावित लोगों के मदद का प्रयास अपने निर्धारित प्रोटोकाल के तहत करती हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं होते। दुनिया में हर समय कोई न कोई युद्ध चलता रहता है और लोग रेफ्यूजी बनने को मजबूर होते हैं। चूंकि यह समस्या सार्वभौमिक है इसलिए दुनिया के सभी देशों में उनके ऊपर साहित्य और सिनेमा भी रचा गया है।
सिनेमा
हिंदी सिनेमा प्रवासियों का चित्रण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सका है
सिनेमा ने प्रवासी जीवन को सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है। बॉलीवुड बाजारोन्मुखी है, उसको प्रवासियों की वास्तविक समस्याओं से अधिक अपने मुनाफे में दिलचस्पी है। यहाँ जो फिल्में बनी हैं उस पर गौर करें तो पाएंगे उनमें पंजाबी चरित्र ही प्रमुख हैं। वहां शेष भारत वासी लगभग अनुपस्थित ही नजर आएंगे। वहां न तो दक्षिण भारतवंशी दिखेंगे और न ही लाखों पुरबिये गिरमिटिया मजदूरों (हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों) के वंशज। इस लिहाज से हमारा सिनेमा अभी एकांगी और यथार्थ से बहुत दूर ही है।
सिनेमा
सिनेमा किस तरह उठा रहा है युवाओं के मुद्दे
श्रीलंका(2022) और बांग्लादेश (2024) में जब बात हद से आगे बढ़ी और निजाम अपनी जनता से दूर होकर तानाशाही को अपनाने लगा तो युवाओं ने उन्हें सत्ता से उखाड़कर फेंक दिया। हर देश के हुक्मरानों को युवाओं के मुद्दों को विशेष संवेदनशीलता से निस्तारित करना चाहिए अन्यथा जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चल पड़ता है और कोई भी सत्ता उन्हें रोक नहीं सकती। बॉलीवुड की अनेक फिल्मों में युवाओं को समाज और राजनीति के तंत्र के विरोध में लड़ते दिखाया गया है।
सिनेमा
सिनेमा का सांप मनोरंजन और मुनाफे के लिए फुफकारता है
बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड फिल्मों में भी सांपों का प्रस्तुतिकरण पसंदीदा विषय रहा है। गाँव से लेकर शहर तक सांप हर जगह मौजूद भी हैं और उनसे जुड़ी तमाम कहानियां और मान्यताएं लोक में व्याप्त हैं। सिनेमा में इन साँपों को इतना चमत्कारिक दिखाया जाता है कि आम जनता इसे सच मानटी है। नागमणि, इच्छाधारी नाग ये ऐसे विषय है जिन पर हमारे देश में सैकड़ों फिल्मे और टीवी सीरियल बने। कहा जा सकता है कि साँपों से सामना करती जिंदगी डर रोमांच, मनोरंजन, किस्से कहानियों को रोज ही कहती-सुनती और बुनती रहती है।
सिनेमा
कैंपस आधारित बॉलीवुड सिनेमा : छात्रों की समस्याओं और मुद्दों से कोई मतलब नहीं
भारतीय सिनेमा में समाज से उठाए गए विषयों पर अनेक बेहतरीन फिल्में बनी हैं, जो आज भी यादगार हैं। लेकिन रुपहले परदे पर शिक्षा संस्थानों को लेकर कुछ फिल्में निराशा पैदा करती हैं। फिल्म बनाने वाले समाज की वास्तविकता को दरकिनार कर फिल्म हिट करवाने के उद्देश्य से ही सिनेमा बनाते हैं, जिसमें फूहड़ हंसी-मजाक, प्रेम और उथली राजनीति दिखाते है। आज भले ही शिक्षा के स्तर में बदलाव हो चुका है लेकिन इसके बाद भी समाज में साहित्य और सिनेमा की प्रस्तुति ऐसे हो, जिसका सकारात्मक प्रभाव पड़े। सिनेमा में दिखाए गए शिक्षण संस्थानों के बहाने आज की शिक्षा व्यवस्था पर उठाए गए सवाल पर पढ़िए डॉ राकेश कबीर का यह लेख ।
सिनेमा
सिनेमा : ‘प्यासा’ से ‘राॅक स्टार’ तक स्वतंत्र लेखकों और कलाकारों का वजूद
गुरूदत्त साहब ने अपनी फिल्म प्यासा से उठाया था वे आज भी अनुत्तरित हैं। रचनाकारों, मसिजीवियों को छले जाने के काम सरे बाजार हो रहा है।
सिनेमा
सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम बनाया तो महिलाओं की दुर्दशा और जीवटता को भी दिखाया
सिनेमा बनाने वाले सिनेमा के विषय समाज से उठाते हैं भले ही उसका ट्रीटमेंट वे कैसे भी करें। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड इधर युद्ध आधारित सिनेमा का चलन बढ़ा है। यह जरूर है कि विदेशी फिल्मों में भारत जैसे देशभक्ति का बखान नहीं दिखाया जाता। इधर महिला सैनिकों के जुनून पर भी अनेक फिल्में बनी। पढ़िये डॉ राकेश कबीर का यह आलेख
सिनेमा
सिनेमा में लड़ती हुई औरत केवल देह नहीं रही है
दुनिया के हर हिस्से में पुरुषों द्वारा स्त्रियॉं का शोषण किया जाता है, उनका उत्पीड़न किया जाता है। वे केवल स्त्री को उपभोग की एक देह के अलावा कुछ नहीं समझते। पितृसत्ता समाज में अधिकतर पुरुष दंभ का शिकार होते हुए संवेदनहीन होते हैं। समाज की यही सच्चाई दुनिया भर के सिनेमा में सामने आई है, जिसमें स्त्रियॉं उनसे मुक़ाबला करते हुए जीत हासिल की हैं।
सिनेमा
अमेरिकी रंगभेद के खिलाफ़ चिकानो सिनेमा और ग्रेगरी नावा की फिल्में
अमेरिका में रहने वाले कुल आप्रवासियों में 24 प्रतिशत के लगभग मेक्सिकन लोग रहते हैं जो कि सबसे बड़ा अप्रवासी समूह है। सन 2019 में लगभग 11 मिलियन मेक्सिको में पैदा हुए व्यक्ति अमेरिका में रहते थे। मेक्सिको के अप्रवासियों की संख्या लगातार घटने के बावजूद अभी भी इनकी संख्या बहुत बड़ी है। अप्रवासी होने के कारण अमरीका में रहने वाले मेक्सिकन हॉलिवुड में उपेक्षित होकर अपने जीवन, संस्कृति और सच्चाइयों पर फिल्में बनाईं और खुद को स्थापित किया।
सिनेमा
भारतीय समाज में फैला जातिवाद यहाँ के सिनेमा के मौलिक चरित्रों में ठूँस-ठूँस कर दिखाया जाता है
पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां जातिवाद का घोर बोलबाला है। इसका प्रभाव समाज की हर संस्कृति और कला में देखने को मिलता है। भारतीय सिनेमा चाहे जिस भाषा में बनी हो वहाँ के चरित्रों में जाति और धर्म को केंद्र में रखा जाता है। आज का सिनेमाई यथार्थ यही है कि नायक या नायिका जो भी कुछ बेहतर परिवर्तन लाने की कोशिश करते दिखेंगे, देशहित में विदेशों से अच्छा कैरियर छोडकर वापस आयंगे या समाज में कुछ भी सकारात्मक घटित हो रहा होगा तो फिल्मों में उन चरित्रों को निभाने वाले नायक-नायिका के टाइटल साफ़ तौर पर उनकी जातीय पृष्ठभूमि को बताते हैं।
सिनेमा
सामाजिक व्यवस्था, शोषण और दमन ने जिन लोगों को बीहड़ में जाने को मजबूर कर बागी बनाया
जब तक इन निर्जन-दूरस्थ स्थानों पर बसे कमजोर समुदाय के लोगों के साथ अन्याय और अत्याचार होता रहेगा बीहड़ों और जंगलों में बाग़ी पैदा होते रहेंगे। सरकार की उपस्थिति, अन्याय अपमान और अत्याचार से संरक्षण, सरकारी योजनाओं का लाभ, नौकरी और रोजगार में हिस्सेदारी जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सुनिश्चित कराकर ही लोगों के मन में कानून के प्रति सम्मान पैदा किया जा सकता है। लोकतंत्र की सभी संस्थाए जैसे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपनी पहुंच के साथ-साथ भरोसा पैदा करके इन क्षेत्रों में बसे लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने और बागी होने से रोक सकती हैं।
सिनेमा
सिनेमा : प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं..
तीसरी दुनिया के गरीब देशों से महिलाओं का विकसित देशों के लिए प्रवास करना मानवीय इतिहास की बड़ी घटना है। प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं क्योंकि वे कहीं भी जाएं अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उनके साथ शोषण, अपमान और भेदभाव जारी रहता है।
सिनेमा
तौफीक बसर और निर्वासन में तुर्की सिनेमा
जर्मन-टर्किश फिल्मकार तौफीक बसर की फिल्मों की विषयवस्तु के माध्यम से प्रवासी तुर्क समुदाय, उनकी भावनाओं, समस्याओं और अपेक्षाओं को समझने का प्रयास करेंगे। भारत की ही तरह तुर्की एक पुरुष सत्ता प्रधान देश हैं जहाँ महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही है। उनकी भूमिका घर के भीतर सीमित कर उनका शोषण और अपमान सामान्य बात है।
सिनेमा
Cinema : बॉलीवुड में भद्रजनों के खेल क्रिकेट का ग्लैमर
क्रिकेट भद्रजनों का खेल था। इसमें कई दिनों तक आराम से चलने वाला टेस्ट मैच-समानांतर सिनेमा की तरह था। पचास ओवर का मैच कमर्शियल सिनेमा की तरह है तो टवेंटी-टवेंटी फार्मेट ओटीटी प्लेटफार्म वाले सिनेमा की तरह है। समय की कमी है और पैसा भी ज्यादा कमाना है, ज्यादा खेल ज्यादा खिलाड़ी ने सबकी उम्मीद बढ़ा दी है
सिनेमा
आयुष्मान खुराना : एक ऐसा अभिनेता जो हिंदी सिनेमा की परम्परा को तोड़ता है
बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। न केवल अच्छा अभिनय करते हैं बल्कि गाते भी बहुत अच्छा हैं और दर्शक उन्हें पसंद करते हैं। फिल्म समीक्षकों से भी उन्हें अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली हैं। आयुष्मान ने अपनी फिल्मों में स्पर्म डोनर, नपुंसकता, शीघ्र पतन, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर, बॉडी शेम जैसे विषयों पर बुने गए चरित्रों को निभाया। नए क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए रिस्क लेना पड़ता है, आयुष्मान और उनके फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने ऐसे विषयों पर फिल्म बनाकर रिस्क लिए और बड़ी संख्या में दर्शकों के सोचने समझने के स्तर को उच्चीकृत और विस्तृत करने का महत्वपूर्ण काम किया।
सिनेमा
मोहित करने के साथ ही असहमति की भी जगह बनाता है प्रकाश झा का सिनेमा
प्रकाश झा समाज सापेक्ष और सार्थक सिनेमा के सिद्धहस्त रचनाकार रहे हैं। उन्होंने सत्यजीत रे और मुजफ्फर अली की भांति अपने गृह प्रदेश बिहार के ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं पर बेहतरीन फिल्में बनाई और एक बड़े दर्शक वर्ग को प्रभावित और जागरूक करने का काम किया। डाक्यूमेंटरी फिल्मों, धारावाहिकों और फिल्मों जैसी कई विधाओं मे काम करके उन्होंने सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यम को समृद्ध करने का काम किया।
सिनेमा
बॉलीवुड में ऐतिहासिक सिनेमा हमेशा संदिग्ध विषय रहा है
इतिहास में बीते हुए समय में घटित घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत किया जाता है। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखने वाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार इतिहास में सार्वजनिक घटनाओं का विवरण होता है। इसमें व्यक्तिगत जीवन से सम्बंधित घटनाओं का उल्लेख नहीं होता। इसमें वर्णित घटनाओं में क्रमबद्धता होती है तथा इतिहासकार सच्चे वैज्ञानिक की तरह घटनाओं को जैसी घटित हुई है उनकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत करते हैं।
सिनेमा
सिनेमा में जो अफगानिस्तान है वह तालिबान वाला नहीं है
वर्ष 2021 में आई फिल्म द एम्पायर में काबुल की अहम भूमिका है। भारत पर आक्रमण करने वाले ज्यादातर आक्रान्ता अफगानिस्तान से होकर ही दाखिल हुए। अलेक्स रदरफोर्ड (डायना और माइकल प्रेस्टन का संयुक्त उपनाम) ने एम्पायर ऑफ़ मुग़ल’ नाम से 6 हिस्सों में ऐतिहासिक फिक्शन लिखा है। निखिल आडवाणी और मिताक्षरा कुमार ने इस किताब के ऊपर एक वेब सीरिज बनाई है। इस फिल्म में बाबर, हुमायूं, कामरान और उनका मुगल खानदान है जो फरगना, समरकंद और काबुल होते हुए हिन्दुस्तान पर काबिज होते हैं। काबुल को साम्राज्यों का कब्रगाह कहा जाता है। इस फिल्म को देखकर यह विश्वास होने लगता है कि अफगानिस्तान के रास्ते भारत आये बाबर के उत्तराधिकारियों में हुमायूँ, कामरान, दाराशिकोह, बहादुरशाह ज़फर जो भी नरम दिल थे कवि शायर थे, मानवता का सम्मान करते थे रिश्तों को अहमियत देते थे, कमजोर शासक साबित हुए. बादशाह मर जाते हैं बादशाहत जिंदा रहती है। तख़्त का एक शासक होता है उसे बांटकर नहीं चलाया जा सकता। अमेरिकी जा चुके हैं। कट्टर तालिबानी अब बंदूकों के बल पर काबुल पर राज करेंगे।
सिनेमा
खिलाड़ियों का जीवन संघर्ष और सिनेमा के पर्दे पर उनकी छवियाँ
राष्ट्रवाद और देश प्रेम को फ्रेम में रखकर पिछले एक दशक में खेलों पर आधारित कई फिल्मे बॉलीवुड में बनी हैं। बड़े और सफल खिलाड़ियों के जीवन पर आधारित बायोपिक फ़िल्में बनाने का चलन बढ़ा है और ऐसी फिल्मे सफल भी रही हैं। ओलम्पिक खेलों के समय असम की मुक्केबाज लवलीना के गाँव तक जाने वाली सडक को पक्की बनाया जा रहा था। राष्ट्रीय स्तर तक खेल चुके खिलाडियों के गाँव तक जाने की सडकें और अच्छे स्टेडियम का उपलब्ध न होना एक बड़ी बाधा है। कोच और ट्रेनिंग और खान-पान की स्तरीय व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना अपरिहार्य है। प्रतिभावान खिलाड़ी सामने आये इसके लिए केवल जीतने वाले खिलाड़ियों को ही नौकरी और इनाम नहीं मिलने चाहिये बल्कि सभी खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपना समय और कैरियर दाँव पर लगाया होता है।
सिनेमा
जल संकट और सिनेमा : यथार्थ की बहुस्तरीय बनावट को पकड़ने की चुनौती
जलवायु परिवर्तन और उसके नकारात्मक प्रभावों से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। प्रकृति बहुत नाराज है। हिमाचल में पहाड़ सडकों पर गिरकर राहगीरों...
सिनेमा
सिनेमा में सरोगेट मदर : पूँजी और पितृसत्ता के फंदे में औरतों की पीड़ा
फिल्म मिमी में अंग्रेज दम्पति को मेडिकल रिपोर्ट से जब यह पता चलता है कि सरोगेट मदर के पेट में पल रहा बच्चा एबनॉर्मल पैदा होगा तो वे दलाल द्वारा ये मैसेज भेजकर, कि मिमी से बोल दो कि वह बच्चे का एबॉर्शन करा दे, खुद चुपके से अपने देश भाग जाते हैं। दो बच्चे पैदा हो जाने पर एक आस्ट्रेलियन दम्पति ने एक बच्चा सरोगेट के पास ही छोड़ने को लेकर विवाद किया था जिसको लेकर भारतीय संसद में इस विषय पर गम्भीरता से कानून बनाने को लेकर चर्चाएँ हुईं। मातृत्व जैसी प्राकृतिक व्यवस्था पर पूरी तरह इन्सान और तकनीक नियन्त्रण स्थापित नहीं कर सकते लेकिन पैसे देकर कोख किराये पर लेने वाले लोग बेहद स्वार्थी ढंग से व्यवहार करते हैं जिसके कारण गरीब महिलाओं का शोषण बढ़ जाता है।