Saturday, July 27, 2024

डॉ. राकेश कबीर

सिनेमा : ‘प्यासा’ से ‘राॅक स्टार’ तक स्वतंत्र लेखकों और कलाकारों का वजूद

गुरूदत्त साहब ने अपनी फिल्म प्यासा से उठाया था वे आज भी अनुत्तरित हैं। रचनाकारों, मसिजीवियों को छले जाने के काम सरे बाजार हो रहा है।

सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम बनाया तो महिलाओं की दुर्दशा और जीवटता को भी दिखाया

सिनेमा बनाने वाले सिनेमा के विषय समाज से उठाते हैं भले ही उसका ट्रीटमेंट वे कैसे भी करें। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड इधर युद्ध आधारित सिनेमा का चलन बढ़ा है। यह जरूर है कि विदेशी फिल्मों में भारत जैसे देशभक्ति का बखान नहीं दिखाया जाता। इधर महिला सैनिकों के जुनून पर भी अनेक फिल्में बनी। पढ़िये डॉ राकेश कबीर का यह आलेख

सिनेमा में लड़ती हुई औरत केवल देह नहीं रही है

दुनिया के हर हिस्से में पुरुषों द्वारा स्त्रियॉं का शोषण किया जाता है, उनका उत्पीड़न किया जाता है। वे केवल स्त्री को उपभोग की एक देह के अलावा कुछ नहीं समझते। पितृसत्ता समाज में अधिकतर पुरुष दंभ का शिकार होते हुए संवेदनहीन होते हैं। समाज की यही सच्चाई दुनिया भर के सिनेमा में सामने आई है, जिसमें स्त्रियॉं उनसे मुक़ाबला करते हुए जीत हासिल की हैं।

अमेरिकी रंगभेद के खिलाफ़ चिकानो सिनेमा और ग्रेगरी नावा की फिल्में

अमेरिका में रहने वाले कुल आप्रवासियों में 24 प्रतिशत के लगभग मेक्सिकन लोग रहते हैं जो कि सबसे बड़ा अप्रवासी समूह है। सन 2019 में लगभग 11 मिलियन मेक्सिको में पैदा हुए व्यक्ति अमेरिका में रहते थे। मेक्सिको के अप्रवासियों की संख्या लगातार घटने के बावजूद अभी भी इनकी संख्या बहुत बड़ी है। अप्रवासी होने के कारण अमरीका में रहने वाले मेक्सिकन हॉलिवुड में उपेक्षित होकर अपने जीवन, संस्कृति और सच्चाइयों पर फिल्में बनाईं और खुद को स्थापित किया। 

भारतीय समाज में फैला जातिवाद यहाँ के सिनेमा के मौलिक चरित्रों में ठूँस-ठूँस कर दिखाया जाता है

पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां जातिवाद का घोर बोलबाला है। इसका प्रभाव समाज की हर संस्कृति और कला में देखने को मिलता है। भारतीय सिनेमा चाहे जिस भाषा में बनी हो वहाँ के चरित्रों में जाति और धर्म को केंद्र में रखा जाता है। आज का सिनेमाई यथार्थ यही है कि नायक या नायिका जो भी कुछ बेहतर परिवर्तन लाने की कोशिश करते दिखेंगे, देशहित में विदेशों से अच्छा कैरियर छोडकर वापस आयंगे या समाज में कुछ भी सकारात्मक घटित हो रहा होगा तो फिल्मों में उन चरित्रों को निभाने वाले नायक-नायिका के टाइटल साफ़ तौर पर उनकी जातीय पृष्ठभूमि को बताते हैं।

सामाजिक व्यवस्था, शोषण और दमन ने जिन लोगों को बीहड़ में जाने को मजबूर कर बागी बनाया   

जब तक इन निर्जन-दूरस्थ स्थानों पर बसे कमजोर समुदाय के लोगों के साथ अन्याय और अत्याचार होता रहेगा बीहड़ों और जंगलों में बाग़ी पैदा होते रहेंगे। सरकार की उपस्थिति, अन्याय अपमान और अत्याचार से संरक्षण, सरकारी योजनाओं का लाभ, नौकरी और रोजगार में हिस्सेदारी जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सुनिश्चित कराकर ही लोगों के मन में कानून के प्रति सम्मान पैदा किया जा सकता है। लोकतंत्र की सभी संस्थाए जैसे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपनी पहुंच के साथ-साथ भरोसा पैदा करके इन क्षेत्रों में बसे लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने और बागी होने से रोक सकती हैं।

सिनेमा : प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं..

तीसरी दुनिया के गरीब देशों से महिलाओं का विकसित देशों के लिए प्रवास करना मानवीय इतिहास की बड़ी घटना है। प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं क्योंकि वे कहीं भी जाएं अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उनके साथ शोषण, अपमान और भेदभाव जारी रहता है।

Cinema : बॉलीवुड में भद्रजनों के खेल क्रिकेट का ग्लैमर

क्रिकेट भद्रजनों का खेल था। इसमें कई दिनों तक आराम से चलने वाला टेस्ट मैच-समानांतर सिनेमा की तरह था। पचास ओवर का मैच कमर्शियल सिनेमा की तरह है तो टवेंटी-टवेंटी फार्मेट ओटीटी प्लेटफार्म वाले सिनेमा की तरह है। समय की कमी है और पैसा भी ज्यादा कमाना है, ज्यादा खेल ज्यादा खिलाड़ी ने सबकी उम्मीद बढ़ा दी है

साहब, बीवी और गुलाम : ढहते हुए सामन्तवाद की दास्तान

सब कुछ बिक जाता है, हवेली की रौनक चली जाती है और एक दिन उसे तोड़ने की नौबत आती है। साहब मर चुके हैं, बीवी की हत्या हो चुकी है और ग़ुलाम सुपरवाइजर बनकर हवेली तोड़ने का काम करा रहा है। प्रतीकात्मक रूप से देखें तो यह ज़मींदारी के खात्मे और महाजनी सभ्यता (प्रेमचंद्र) के प्रभावी होते जाने की दास्तान है।