हर साल आठ मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है। यूं तो यह एक महत्वपूर्ण दिन है लेकिन इसका अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग होता है। अखबार प्रायः विभिन्न क्षेत्रों में सफल महिलाओं की तस्वीरें और विवरण छापकर और कुछ विज्ञापन जुटाकर इसे मना लेते हैं। अमूमन पुरुष इसके प्रति मज़ाकिया वाक्य लिखते हैं और कुछ लोग अपने भीतर की हिपोक्रेसी का परिचय देते हुये बधाई और शुभकामनाओं से फेसबुक को पाट देते हैं। लेकिन वास्तव में यह दिन हमें उन हालात की ओर नज़र डालने को प्रेरित करता है जिनमें पूरी दुनिया की महिलाएं फिलहाल जी रही हैं। भारत जैसे देश में जहां अभी भी महिलाओं के ऊपर जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता के कई-कई जुए नाधे गए हैं, के साथ ही अतिरिक्त बाकी दुनिया की महिलाओं की स्थितियाँ बहुत भयावह हैं। फिलिस्तीन, सीरिया और रोहिंग्या समुदाय की स्त्रियों की कतार में मणिपुर की महिलाओं की त्रासदी को भी देखा जाना चाहिए। स्त्री उत्पीड़न के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आ रही है बल्कि उनके खिलाफ अपराध की नई-नई विधियाँ सामने आ रही हैं। आठ मार्च इन सब पर ठहर कर सोचने का दिन है क्योंकि सोच ही मनुष्य को मन के भीतर उतरने का रास्ता देती है। और तभी यह समझा जा सकता है कि आखिर आठ मार्च की प्रासंगिकता क्या है। जाने-माने बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार ने अपने अनुभवों के आधार पर इस दिन को इसी ज़िम्मेदारी के तहत याद किया है।