एक राष्ट्र एक चुनाव के संभावित लाभों के बावजूद, आलोचकों ने लोकतांत्रिक भावना, स्थानीय चिंताओं पर राष्ट्रीय मुद्दों के प्रभुत्व तथा संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता के बारे में चिंता व्यक्त की है। एक राष्ट्र एक चुनाव भारत में विभिन्न राज्यों की अद्वितीय राजनीतिक गतिशीलता और क्षेत्रीय हितों को कमजोर कर सकता है, क्योंकि यह एक समान चुनाव चक्र को बढ़ावा देता है। यह अलग-अलग राज्यों के विविध मुद्दों और आकांक्षाओं को नजरअंदाज कर सकता है, जिससे उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की उपेक्षा हो सकती है। समकालिक चुनावों के साथ, एक जोखिम है कि राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय चिंताओं पर हावी हो जाएँगे। स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान और चर्चा नहीं हो सकती है, क्योंकि राजनेता राष्ट्रीय स्तर के प्रचार और एजेंडे पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
भाजपा लगातार लोकतान्त्रिक तरीके से काम करने वाली संस्थाओं में बदलाव करने का काम कर रही है। ऐसी संस्थाओं में अपने लोगों की नियुक्ति कर, अपने तरीके से चला रही है। 'एक देश, एक चुनाव' की अवधारणा भाजपा के शासनकाल की उपज है। यह व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही अथवा तानाशाही को ही जन्म देगी। इस व्यवस्था के लागू होते ही देश में चौतरफा अराजकता का माहौल पैदा होने में देर नहीं लगेगी।
समिति की सर्वसम्मत राय है कि एक साथ चुनाव कराया जाए। समिति एक साथ लोकसभा और राज्य के चुनाव करने के पक्ष में है। इसके बाद 100 दिनों के भीतर ही स्थानीय निकाय चुनाव की भी बात कही है। एक राष्ट्र एक चुनाव पर बनी उच्च स्तरीय समिति 2 दिसंबर 2023 को गठित की गई थी, जिसने 191 दिनों तक लगातार काम किया।
उन्होंने पूछा कि “यदि चुनाव एक ही समय पर होते हैं, तो इससे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राज्य विधानसभाओं को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करना होगा और यह भारतीय संविधान के खिलाफ होगा। अगर केंद्र सरकार अपना बहुमत खो देती है, तो क्या वे सभी राज्य विधानसभाओं को भंग कर देंगे और पूरे भारत में एक साथ चुनाव कराएंगे? अगर उन राज्यों में ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जहां राज्य सरकार गिर जाती है, तो क्या केंद्र सरकार में सत्ता में बैठे लोग चुनाव कराने के लिए आगे आएंगे? क्या इससे अधिक हास्यास्पद कुछ और है? सिर्फ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव ही नहीं क्या स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ कराना संभव है?”