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जुबीन गर्ग : लोक का दुलारा और अपना कलाकार जिसे भूल पाना असंभव है

जुबीन गर्ग को गए हुए 23 दिन बीत गए हैं। आज भी आसाम के किसी भी हिस्से में चले जाइए, हर तरफ़ बस जुबीन ही मौजूद हैं। उनकी याद में तमाम कार्यक्रम हो रहे हैं और उनको श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है। सोनापुर में उनकी समाधि पर कामाख्या मंदिर के बाद सबसे ज़्यादा लोग इकट्ठा हो रहे हैं और मुझे लगता है कि कुछ महीनों में ही यह एक तीर्थस्थल जैसा बन जाएगा। सचमुच यह प्यार, यह भावना अकल्पनीय है और नेपाल, भूटान तथा बांग्लादेश में भी लोग दर्द में डूबे हुए हैं। हम लोगों ने उनकी याद में पासीघाट, अरुणाचल प्रदेश, में भी पेड़ लगाए और वहाँ के लोगों ने इसमें बढ़कर भाग लिया। स्थानीय लोग तो मानते ही नहीं हैं कि ऐसा हुआ है, कहीं कहीं पोस्टर पर उनकी जन्मतिथि तो लिखी है लेकिन उसके बाद अंतिम तिथि की जगह हमेशा के लिए लिखा है। पढ़िये गुवाहटी से विनय कुमार का आँखों देखा हाल ..

कला अक्सर जगह, समय और किसी भी सीमा से परे होती है और उसे दुनिया के हर कोने में पसंद किया जाता है और कुछ इसी तरह कलाकार भी हर सीमा से परे होते हैं। कोई गायक लोगों का बहुत प्यार पाता है, कोई संगीतकार भी लोगों का बहुत प्यार पाता है, कोई अगर अभिनेता है तो वह भी जनमानस में छा जाता है, कोई निर्देशक भी लोगों के दिल में जगह बना लेता है, समाज के लिए काम करनेवाला भी लोगों का चहेता होता है, अपनी मिट्टी से जुड़ा व्यक्ति भी लोगों के दिल पर राज करता है। लेकिन अगर कोई इंसान अपने अंदर यह सब कुछ समाहित किये हो तो आप कल्पना ही कर सकते हैं कि उसके लिए लोगों की क्या भावनाएँ होंगी, लोग कितनी मुहब्बत उस व्यक्ति से करते होंगे। इस अनुभव से मैं पिछले तीन दिन से गुजर रहा हूँ जो शायद आज तक मैंने न देखा था और न सोचा था।

अठारह सितंबर को ऐसे ही एक खबर पर नजर गयी थी कि असम के सबसे चहेते संगीतकार जुबिन गर्ग सिंगापुर में एक कार्यक्रम करने वाले हैं तो मैंने सिंगापुर के अपने कलीग को बताया कि इस कार्यक्रम को जरूर देखना। अगले दिन दोपहर लगभग तीन बजे मेरे पास कुछ स्थानीय नाट्य दल के लोग एक नाटक के बारे में बात करने आये और आते ही सबसे पहले जो खबर दी, उसे सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। उन्होंने जुबिन गर्ग उर्फ़ जुबिन दा के गुजर जाने की खबर सुनाई तो एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि यह खबर सच हो सकती है। अगले कुछ मिनट हम सब सिर्फ उनके बारे में ही बात करते रहे और माहौल एकदम भारी हो गया। उसके तुरंत बाद सभी स्टाफ ने उनके लिए दो मिनट का मौन रखा और उनके उतरे हुए चेहरे बता रहे थे कि जुबिन दा उनके लिए क्या थे।

ईमानदारी से अगर कहूं तो इस समय के पहले मैं यह तो जानता था कि जुबिन गर्ग असम ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर के लिए संगीत का सबसे चमकता चेहरा हैं जिसे लोग बिहू या दुर्गा पूजा के समय जरूर सामने से सुनते हैं लेकिन उनके लिए इतनी जबरदस्त दीवानगी और पागलपन यहाँ के लोगों में है, यह पिछले तीन दिनों में पता चला। उस दिन श्रद्धांजलि अर्पित करने के थोड़ी देर बाद ही एक कलीग, जो बढ़िया गिटार बजाता है और गाता भी है, लगभग रोते हुए मेरे पास आया और बोला कि वह काम करने की हालत में नहीं है और घर जाना चाहता है तो मैंने कहा कि चले जाओ। फिर जिसे देखो वही बस जुबिन गर्ग के बारे में ही बात कर रहा था और ऑफिस में गूंजने वाली हंसी गायब हो चुकी थी। शाम के सात बजे जब हम घर जाने के लिए निकले तो गली में एक जगह लोग जुबिन दा की तस्वीर लगाकर कर फूल माला चढ़ाये हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे. उसके बाद जैसे ही मैं सड़क पर आया, एक दुकान के सामने वाली जगह पर बड़ा सा मेज लगाकर लोग जुबिन दा को श्रद्धांजलि दे रहे थे और बहुत से लड़के और लड़कियों को मैंने वहाँ रोते हुए देखा। अब मुझे लगने लगा था कि जुबिन सिर्फ संगीतकार नहीं थे बल्कि लोगों के दिलों की धड़कन थे जिनके जाने का गम हर तरफ दिखाई पड़ रहा था। हमारी कॉलोनी के सामने वाले माल के सामने भी जुबिन की बड़ी तस्वीर पर लोग श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे थे और हमारी बिल्डिंग में भी लोगों ने मोमबत्तियां जला रखी थीं। हर चेहरा गम में डूबा था और ऐसा लग रहा था जैसे उनके घर का ही कोई सदस्य उनको छोड़कर चला गया हो। घर पहुँचते पहुँचते मेरे दिल पर भी भारीपन छाने लगा और मुझे भी लगने लगा मानो मेरा भी कोई अपना बिछड़ गया हो। उस रात और अगले सुबह मैंने जुबिन गर्ग के तमाम असमी गाने, हिंदी गाने और तमाम इंटरव्यू यू ट्यूब पर देखे और जिस गाने को मैंने कई बार सुना वह गाना ‘मायाबिनी’ था।

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अगले दिन जब मैं ऑफिस पहुंचा तो रास्ते की सभी दुकाने बंद थीं और सड़क पर सन्नाटा पसरा था, गाड़ियां बहुत कम थीं और यह अहसास हो गया कि लोग गम में डूबे हुए हैं। ऑफिस के कलीग्स ने बताया कि जो गाना आपने कई बार सुना है, जुबिन दा ने उसी गाने को उनके नहीं रहने पर सबको बजाने के लिए कहा था और तब से रविवार तक, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, हर तरफ लोग रोते हुए भी यही गाना गा रहे हैं, म्यूजिक सिस्टम पर भी यही गाना बज रहा है और ऐसा लग रहा है कि जुबिन दा मुस्कुराते हुए सबके सामने यह गाना गा रहे हैं। हमारे ऑफिस में अधिकांश लोगों के चेहरे ग़मगीन थे, कुछ के चेहरे बता रहे थे कि कल से उन्होंने जुबिन दा को याद करके कितनी बार रोया है और जब फिर एक बार उनकी तस्वीर लगाकर सबने बारी बारी से श्रद्धांजलि दी तो कई लोग रो पड़े। दोपहर होते होते पता चला कि सभी कार्यालय बंद हो गए हैं और लोग अपने प्रिय संगीतकार को याद करने के लिए सड़कों पर निकल आये हैं। पूरे रास्ते भर लोगों का हुजूम, सड़क पर गाड़ियों पर उनकी बड़ी-बड़ी तस्वीर लगाए घूम रहा है और हर तरफ उनके गाये गाने बज रहे हैं। श्रद्धांजलि देने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थीं और सभी तरह के व्यावसायिक वाहन, प्रतिष्ठान बंद थे. बैंक की शाखाएं भी बंद हो गयीं थीं और ऐसा लगता था मानो शहर में चारो तरफ बस जुबिन दा ही नजर आ रहे हैं।

गुवाहाटी से सटे मेघालय के तुरा में 18 नवम्बर, 1972 को जुबिन का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो मूलतः असम का था और उनके पिता वैसे तो मजिस्ट्रेट थे लेकिन उनके परिवार में गीत-संगीत का माहौल था. उनके पिता मोहिनी मोहन बरठाकुर नौकरी के साथ साथ कविता और गीत भी लिखते थे और उनकी स्वर्गीय माँ इला बरठाकुर एक गायिका थीं। अब ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चे में गीत संगीत कैसे नहीं पैठ बनाएगा, और वही हुआ जुबिन और उनकी छोटी बहन के साथ, दोनों संगीत में आगे बढ़ने लगे. उनकी बहन जंकी बरठाकुर भी एक बेहतरीन गायिका और अभिनेत्री थीं और अगले कुछ दशकों में दोनों भाई-बहन असम के संगीत पर पूरी तरह छाने के लिए तैयार थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था और सन 2002 में एक सड़क दुर्घटना में उनकी बहन जंकी बरठाकुर की असामयिक मृत्यु हो गयी, यह जुबिन के लिए बहुत बड़ा सदमा था और इससे उबरना उनके लिए आसान नहीं था. बाद में जुबिन ने अपनी बहन जंकी बरठाकुर की याद में एक अल्बम ‘शिशु’ निकाला।

पता नहीं क्यों इतने लोकप्रिय लोग इतनी जल्दी इस फानी दुनियाँ को छोड़ देते हैं, कितने ही बेहतरीन गायक बहुत जल्दी चले गए। मिसाल के तौर पर मुकेश, किशोर कुमार, के के इत्यादि हिन्दुस्तान से थे तो विदेशों से भी ऐसे उदाहरण हैं. इसी में अब जुबिन दा भी शामिल हो गए जब सिर्फ 52 वर्ष की उम्र में  हम सब को छोड़कर चले गए। जुबिन का नाम उनके माता-पिता ने ख्यात संगीतकार जुबिन मेहता के नाम पर जुबिन रखा। आगे चलकर उन्होंने अपना सरनेम भी बरठाकुर से बदलकर गर्ग कर लिया जो उनके गोत्र से जुड़ा था। इसके चलते उनकी पहचान शायद एक आम भारतीय की हो गयी और लोगों ने हिन्दुस्तान के हर कोने में उनको अपनाया। मैं गुवाहाटी में हूँ इसलिए मुझे लग रहा है कि उनका जाना असम के लिए शायद हाल के वर्षों में सबसे बड़ा हादसा है, जिससे उबर पाना यहाँ के लोगों के लिए आसान नहीं है लेकिन सच तो यह भी है कि सिर्फ असम ही नहीं, पूरे पूर्वोत्तर के लिए यह सबसे बड़ी छति है और पूरे भारत के संगीतप्रेमी उनके जाने से स्तब्ध हैं।

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शुरुआती दौर में तो लगभग हर कलाकार जमीन से जुड़ा रहता है लेकिन जैसे-जैसे प्रसिद्धि मिलती है, वह लोगों से दूर होता जाता है। ऐसे में अगर कोई कलाकार इतनी शोहरत पाने के बाद भी अगर लोगों से उसी तरह से जुड़ा रहता है जैसे पहले था, तो वह लोगों के दिल में घर बना लेता है। जुबिन गर्ग ऐसे ही कलाकार थे जिन्होंने इतनी शोहरत के बाद भी जमीन को नहीं छोड़ा और उन्होंने शायद इसीलिए मायानगरी मुंबई में बसने से इंकार कर दिया कि वह लोगों से कट जाएंगे। हर साल दुर्गा पूजा और बिहू में जुबिन दा के गानों का इन्तजार पूरा असम करता था और उनके बिना इसकी कल्पना करना भी लोगों को बेहद कठिन लग रहा है। पिछले साल भी उन्होंने बिहू पर गाने गाये थे और उनके गाने के लिए लोगों में दीवानगी से बढ़कर प्यार था। असम में रहते समय कहीं भी चले जाना, लोगों के बीच में बैठकर बातचीत करना, सड़क के किनारे कहीं पर भी कुछ खा लेना और किसी भी प्रशंसक को शायद ही कभी तस्वीर इत्यादि के लिए मना करना उनको सबका चहेता बनाकर रखता था। सबसे बड़ी चीज जो थीं वह पैसे के लिए बिलकुल परवाह नहीं करने की उनकी आदत. उनके पास जो भी मदद मांगने चला गया, उसकी बिना सोचे मदद करना और जो भी पैसा कमाना, उसे लोगों पर खर्च करना ही उनको सबसे अलग बनाता था।

जुबिन गर्ग सिर्फ संगीत के चलते ही लोगों में इतने लोकप्रिय नहीं थे बल्कि वह समाज के लिए भी उतनी ही शिद्दत से सोचते थे। लोगों की हरसंभव मदद करना, किसी भी गलत बात के खिलाफ आवाज उठाना और अपनी बात बिना लागलपेट कहना उनको लोगों से जोड़ता था। अपने इंटरव्यू में उन्होंने कई बार कहा था कि वह राजनेता नहीं है लेकिन समाजसेवी हैं, वह सिस्टम को बदलना चाहते हैं जिससे इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके, संविधान में भी परिवर्तन चाहते हैं जिससे लोगों को उनका हक़ मिल सके। एक बार एक चैनल पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि जब आसाम में बाढ़ आयी थीं तो आप लोग कहाँ थे, यहाँ क्यों नहीं आये। मतलब कोई भी बात सीधे किसी के सामने कहने में उनको कोई दिक्कत नहीं थीं। सीएए विरोधी प्रदर्शन में भी उन्होंने खुलकर भाग लिया और उनके चलते अपार भीड़ इकठ्ठा होती थीं। और सिर्फ कहना ही नहीं, लोगों के लिए करना भी दर्शाता था कि उनकी कथनी और करनी में कोई फ़र्क़ नहीं था और इसीलिए यहाँ पर उनको भगवान की तरह का दर्जा मिला हुआ है और युवा संगीत प्रेमियों के लिए वह दिल की धड़कन थे।

सिर्फ गायक ही नहीं, जुबिन दा गीत भी लिखते थे और उनके लिखे गानों में दिल और दिमाग का जबरदस्त संगम था। इसी वजह से उनके लिखे गीत लोगों के दिल में असर करते थे और लोग पागलपन की हद तक उनको चाहते थे। उनके द्वारा लिखा गया ‘मयाबिनी’ इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि उनके लिखे गीतों में कितनी गहराई और अर्थ हुआ करते थे. इसके साथ साथ कई असमिया फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया था और कई फ़िल्में बनायीं भी थीं। भारत रत्न भूपेन हजारिका के बाद निःसंदेह जुबिन असम के सबसे बड़े रत्न थे और यह भी एक संयोग ही है कि जब असम भूपेन हजारिका की जन्म शताब्दी मना रहा है उसी समय जुबिन भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए हैं। उनके जो भी कार्यक्रम पूर्वोत्तर में होते थे उसमें अनगिनत लोग आते थे और अक्सर उनके साथ-साथ वहाँ मौजूद लोग भी उनके गाने गाते थे। जनमानस में ऐसी लोकप्रियता और ऐसा जुड़ाव बिरले ही देखने को मिलता है।

जुबिन ने लगभग 40 भाषाओँ में गाने गाये और ऐसा बताया जाता है की उन्होंने लगभग 36000 गाने गाये हैं. एक रात में 36 गाने रिकॉर्ड करने का रिकॉर्ड भी उनके नाम है और यह कल्पनातीत उपलब्धि है।  वह 12 वाद्य यंत्र बजा लेते थे जिसमें ढोल, ड्रम, गिटार और हारमोनियम शामिल हैं और उनको तमाम पुरस्कार मिले जिसमें बेस्ट प्ले बैक सिंगर, म्यूजिक डायरेक्टर इत्यादि शामिल हैं. ‘या अली और दिल तू ही बता’ से उनको हिंदी पट्टी में पहचान मिली और उसके बाद पूरा भारत उनको पहचानने लगा। परिवार में उनकी पत्नी गरिमा हैं।

जब उनका पार्थिव शरीर सिंगापुर से दिल्ली होते हुए गुवाहाटी लाया गया, जिस दिन उनके न रहने की खबर मिली तब से पूरा आसाम अपने दिल के तारे के लिए पूरी रात नहीं सोया है, उनके दर्शन के लिए गुवाहाटी स्टेडियम में पूरा आसाम मौजूद रहा और सड़क पर चारो तरफ लोग अपने हाथ में जुबिन दा का फोटो लेकर रो भी रहे थे और उनके गाने भी गा रहे थे. मैंने इसके पहले अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास में नेल्सन मंडेला की मृत्यु के बाद जिस तरह से वहाँ के लोगों को अपने दिवंगत नेता को याद करते देखा था, कमोबेश यही स्थिति मुझे पिछले तीन दिन से नजर आ रही है।

 राज्य सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित कर दिया है और इस दरम्यान अधिकांश संस्थान और कार्यक्रम बंद रहेंगे। जुबिन दा के परिवार ने कह दिया है कि जैसा लोग कहेंगे, उसी जगह और उसी तरह से उनकी अंत्येष्टि होगी। जिस तरह से जुबिन दा अपने आप को जाति धर्म से ऊपर रखते थे, उसी तरह से इस समय पूरे असम के सभी धर्म और जाति के लोग उनके लिए शोक मना रहे हैं लेकिन इस बार दुर्गा पूजा और बिहू हर बार से अलग होगी क्योंकि पूर्वोत्तर के लाडले जुबिन दा नहीं होंगे लेकिन वह अपने गीतों, गानों में हमेशा लोगों के दिलों में मौजूद रहेंगे और मेरे साथ साथ पूरा असम यही कह रहा है कि आपको इतनी जल्दी नहीं जाना था जुबिन दा, हम आपको हमेशा मिस करेंगे और आप हमारे दिलों में रहेंगे।

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