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वह साहित्य अभी लिखा जाना बाकी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे

समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती-अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटसएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है।

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