भूमि अधिग्रहण अधिनियम कहता है कि बिना उचित सहमति और उचित मुआवज़े के सार्वजनिक या औद्योगिक उद्देश्यों के लिए भूमि नहीं ली जा सकती, लेकिन गारे के ग्रामीणों को अपनी भूमि और संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए शक्तिशाली कंपनियों के खिलाफ लड़ाई में अकेला छोड़ दिया गया है। पढ़िए राजेश त्रिपाठी की तमनार से ग्राउंड रिपोर्ट
रायगढ़ जिले के तमनार और घरघोड़ा ब्लॉक में कोयले की अनेक खदानें हैं। उन कोयला संसाधनों पर सैकड़ों गाँव बसे हुए हैं। लगातार खनन के लिए लोगों का विस्थापन कंपनी अपनी शर्तों पर कर रही है। गाँव के विस्थापन का मतलब गाँव का नक्शे से खत्म हो जाना और विस्थापित व्यक्ति के लिए यह एक तरीके से मौत है। जिसे अपनी जमीन से विस्थापित कर दिया जाता है, संबंध उस जगह से उसका भावनात्मक जुड़ाव और रिश्ता होता है।
जहां भी कोई नई परियोजना शुरू होती है वहाँ इनकी निगाह सबसे पहले जाती है और परियोजना का काम शुरू होने से पहले ही वे मुआवज़े और मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी तय कर चुके होते हैं। इस बार सामुदायिक वन अधिकार पर रिपोर्टिंग के लिए जब मैं तमनार गई तो कई गाँव के खेतों में बने शेड, बाउंड्री और तालाब देख कर जिज्ञासा हुई कि अचानक ये चीजें इतनी बड़ी संख्या में कैसे बन गईं?
हर घर, पेड़-पौधे, सड़क के किनारे स्थित दुकानों पर कोयले की परत बिछी दिखती है, यहाँ तक कि सड़क की धूल भी कोयले के चूरे से काली हो गई है। यहाँ प्रकृति में हरियाली नहीं करियाली दिखाई देती है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है। कोयला खनन और भूमि अधिग्रहण को लेकर यहाँ पिछले बीस वर्षों से लगातार विरोध और आंदोलन चल रहा है। यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है, लोगों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि हमारे कोयला संसाधनों पर पूँजीपतियों का अधिकार क्यों?
सविता रथ का परिवार काफी पढ़ा-लिखा और नौकरीपेशा रहा है लेकिन सविता सरकारी नौकरी छोड रायगढ़ जिले के आदिवासीबहुल इलाके में पूँजीपतियों के खिलाफ डटकर लड़ाई लड़ रही हैं।