उत्तर प्रदेश का शिक्षा विभाग जितना रिकॉर्ड बनाने में दिलचस्पी रखता है उतना शायद किसी और चीज में नहीं। चाहे देव दीपावली के अवसर पर बनारस के घाटों पर प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों से दीया जलवाने का रिकॉर्ड हो चाहे प्रधानमंत्री की रैलियों में भीड़ बढ़ाने का। सारा जिम्मा शिक्षा विभाग अकेले ही उठाता है और रिकॉर्ड लेवल पर उठाता है। एक अध्यापक ने टिप्पणी की है कि ‘पढ़ाने के अलावा सरकार चाहती कि अध्यापकों से सारे काम करवा लिए जाएँ क्योंकि बच्चों को पढ़ाना कोई गंभीर और जरूरी काम नहीं माना जाता है।’
अब एक नए रिकॉर्ड की तैयारी है। स्कूल का नया सत्र शुरू हो चुका है भले ही बेतहाशा गर्मी और लू के चलते अनेक राज्यों में ग्रीष्मकालीन छुट्टियों की समय सीमा बढ़ा दी गई है लेकिन फरमान जारी हो गया है कि पिछले साल के मुक़ाबले इस साल रिकॉर्ड टूट ही जाना चाहिए वरना खैर नहीं। गौरतलब है कि प्राइमरी के अध्यापकों को नए बच्चों के नामांकन का एक टार्गेट दिया गया है जिसके न पूरा होने पर उनका वेतन काटा जाएगा।
अगर देखा जाय तो सरकार लगातार प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति बेहतर करने हेतु विद्यालाओं का कायाकल्प करने पर जोर दे रही है और साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने हेतु नए-नए नियम लागू कर रही है, लेकिन व्यवहारिकता के स्तर पर उन नियमों का विश्लेषण किया जाए तो इसमें अनेक कमियां दिखाई देती हैं। साक्षरता बढ़ाने के लिए सरकार अनेक ऐसी योजनाएं संचालित कर रही है जिनसे प्रेरित होकर अभिभावक अपने बच्चों का विद्यालय में दाखिला करवाएं। इसके बावजूद प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के नामांकन में लगातार कमी आई है।
इधर सरकारी स्कूलों में लगातार बच्चों की संख्या में कमी आने से चिंतित सरकार ने कम होते बच्चों की संख्या का कारण तो नहीं खोजा लेकिन विद्यालयों में बच्चे के संख्या में इजाफा हो इसके लिए उत्तर प्रदेश में ‘प्रवेश उत्सव’ करवाकर नए बच्चों का दाखिला कराने की जिम्मेदारी शिक्षकों को सौंप दी है।
इसका उद्देश्य है कि आगामी महीने 1 जुलाई से जब नया सत्र शुरू हो तो कक्षा एक में पर्याप्त बच्चे पढ़ने आएँ। यह चिंता करना वाज़िब है लेकिन उसका हल शिक्षकों पर दबाव बनाकर निकालना सही नहीं है। क्या शिक्षक जबरन लोगों के बच्चों को विद्यालय ला सकते हैं?
प्रदेश सरकार ने प्राथमिक विद्यालयों में लगातार स्कूल चलो अभियान के साथ मिड डे मील, मुफ़्त में किताबें, यूनिफॉर्म, जूता-मोजा, स्वेटर जैसी योजनाएँ चला रही है। पहले इन सुविधाओं को देने की जिम्मेदारी सरकार की तरफ से प्रधानाध्यापक की थी लेकिन इधर स्कूल खुलने के बाद इसके लिए 1200 रुपए बच्चों के अभिभावकों के खाते में जमा कर दिया जा रहा है लेकिन इसके बाद भी स्कूल में बच्चे नहीं पहुँच रहे हैं। यह बहुत चिंता का विषय है। हम इसी की छानबीन कर रहे हैं।
आंकड़ों के अनुसार कोरोना महामारी के बाद प्रदेश में लगभग 26 हजार स्कूल बंद हो गए। वर्ष 2018 में जहां 163142 विद्यालय थे वहीं कोरोना के बाद सितंबर 2020 में विद्यालयों की संख्या 137068 हो गई। यूडीआईएसई के अनुसार कोरोना के समय ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा नहीं जुटा पाने के कारण हजारों अभिभावकों ने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया।
यूडीआईएसईके अनुसार जहां सरकारी विद्यालयों की संख्या में कमी आई, वहीं प्राइवेट विद्यालाओं की संख्या में इजाफा हुआ है।
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‘प्रवेश उत्सव’ योजना क्या है
बेसिक शिक्षा विभाग ने एक अप्रैल से शुरू हुए नए सत्र में छात्र-छात्राओं का प्रवेश उत्सव प्रारंभ किया है। इस प्रवेश उत्सव का मतलब नए सत्र में नए विद्यार्थियों के प्रवेश से है। सरकारी विद्यालयों में प्रवेश लेने की संख्या में लगातार घटौती होने के प्राथमिक विद्यालय बंद होने की नौबत आ गई है। ऐसे में सरकार ने विद्यालय के शिक्षकों को अपने क्षेत्र के आसपास घर-घर जाकर बच्चों के दाखिले के लिए उनके अभिभावकों को प्रेरित करना है।
इसके लिए हर विद्यालय को टार्गेट दिया गया है कि कम से कम दस बच्चे दाखिला लें। और उनकी उम्र एक अप्रैल से 1 को 6 वर्ष होना जरूरी है। इसके पहले अगस्त माह में 6 वर्ष पूरा करने वाले बच्चों का भी दाखिला लिया जाता था।
अब शिक्षक पढ़ाने पर कम ध्यान देकर बीएसए द्वारा दिए गए टार्गेट को पूरा करने के लिए अधिक मेहनत कर रहे हैं। शिक्षक प्राथमिक सरकारी स्कूलों में स्कूल खुलने पर गाँव, मोहल्ले में जाकर बच्चों के अभिभावकों से मिलकर बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अभिभावक यदि प्रेरित हो गए तो बच्चों को स्कूल भेजते हैं लेकिन कितने दिन भेजेंगे यह निर्भर करता है उनकी रोजी-रोटी पर।
क्या टार्गेट पूरा हो जाने पर सभी बच्चे साक्षर हो सकेंगे? क्या टारगेट पूरा होने पर बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होगा? क्योंकि वर्ष 2020-21 में कुल 74 हजार बच्चों ने प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश लिया था। इनमें ड्रॉपआउट की संख्या 10435 है, जिन्होंने कक्षा 9 में प्रवेश नहीं लिया। कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले कितने छात्र दूसरी या तीसरी कक्षा में ही स्कूल जाना बंद कर दिया। एक दूसरा सवाल यह है कि क्या ड्रॉप आउट हुये बच्चे फिर स्कूल में आ पाते हैं। तो इसका जवाब है नहीं। अभी तक मिले आंकड़ों के अनुसार बनारस जिले में वर्ष 2024 के सत्र में अभी तक प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या मात्र 20 हजार है।
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क्या प्रवेश उत्सव से साक्षरता की दर बढ़ेगी?
सवाल उठता है कि विद्यालयों में बच्चे की संख्या बढ़ाना ही पर्याप्त है या फिर पढ़ाई की गुणवत्ता और बाकी सुविधा भी बढ़नी जरूरी है। बेशक इंफ्रास्ट्रक्चर में कुछ सुधार हुआ लेकिन पढ़ाई के स्तर में जो सुधार होना चाहिए वह नहीं हो पाया। वहीं कुछ विदयालयों में एकल शिक्षण प्रणाली के माध्यम से एक शिक्षक ही सभी कक्षाओं को पढ़ाते हुए बाकी गतिविधियों को संचालित करते हैं, जिससे पढ़ाई प्रभावित होती है।
सरकार को आरटीई के तहत प्राथमिक विद्यायलों में शिक्षक और बच्चों का अनुपात 30:1 और उच्च प्राथमिक में 35:1 का तय करना चाहिए जिससे प्रत्येक बच्चे को पर्याप्त ध्यान और समय दिया जा सकेगा।
साथ ही देखा जा रहा है कि आज की शिक्षा पद्धति रटने वाली हो चुकी है, जिससे कमजोर बच्चे पीछे हो जाते हैं। ऐसे में सुरुचिपूर्ण तरीके से खेल-खेल में पढ़ाया जाए। सैद्धांतिक ज्ञान की बजाय व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर होने वाली पढ़ाई से गुणवत्ता बढ़ती है।
नाम न बताने की शर्त पर एक अध्यापक ने बताया कि नए सत्र में बच्चों के दाखिले के लिए दिए टार्गेट को पूरा नहीं करने वाले विद्यालयों के शिक्षकों का इंक्रीमेंट रोक दिया जाएगा। यह आदेश बीएसए ने लिखित तौर पर तो नहीं दिया है लेकिन मौखिक तौर पर और व्हाट्सअप पर आया है। जो एक तरह से उन पर दबाव बनाने के लिए है।
इस बार पहली कक्षा में 10 बच्चों का टार्गेट दिया गया है, लेकिन इस बार उम्र की गणना अप्रैल माह में छः वर्ष होनी चाहिए। इसके पहले अप्रैल से लेकर अगस्त माह तक छः वर्ष पूरा करने वालों का दाखिला होता था। नए नियम से अगस्त तक छः वर्ष पूरा करने वाले बच्चे का एक साल का नुकसान होगा। मतलब 2 या 3 माह पीछे रह जाने वाले बच्चे का एक साल खराब हो जाएगा।
ऐसे में शिक्षकों ने दबाव में आकर बिना आधार कार्ड बने 5 या साढ़े पाँच वर्ष के बच्चों का दाखिला किया और दाखिले के बाद उनका आधार कार्ड बनवाया। इस वर्ष जो बच्चे छः वर्ष के हुए उनका दाखिला पहले ही हो चुका है। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि अव्यावहारिक आदेश मिलने से काम करने वाला गलत तरीके से काम पूरा करता है।
सवाल यह उठता है कि सरकार कैसे गुणवत्तपूर्ण शिक्षा का मानक तय करे ताकि पढ़ने और पढ़ाने वाले अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकें?