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ग्राउंड रिपोर्ट

आखिर क्यों सामने आ रही हैं भारतीय जीवन बीमा निगम की अनियमितताएँ

भारतीय जीवन बीमा निगम के अभिकर्ताओं के बीच सूचनाओं को छिपाने को लेकर कई तरह की गलतफहमियाँ सामने आने का मामला सामने आने लगा है। दूसरी तरफ अभिकर्ताओं के ऊपर प्रबंधन द्वारा कई तरह के दबाव और शोषण का भी मामला लंबे समय से उठ रहा है। इसको लेकर पिछले दिनों अभिकर्ताओं ने आंदोलन भी किया। आल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स असोसियेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना है कि प्रबंधन न केवल अभिकर्ताओं के हितों पर कुठाराघात कर रहा है बल्कि वह अपने रिकॉर्ड भी नहीं रख रहा है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं में भी प्रबंधन ने यह कहा है।

दो ही दिन पहले बनारस के एक पॉलिसीधारक ने एक जीवन बीमा एजेंट के खिलाफ फेसबुक पर लिखना शुरू किया उसने मुझे ठगा है। उसकी वाल पर जो भी कमेन्ट करता वह उससे कहता कि आप अपना स्टटमेंट चेक कीजिये। कुछ और समय बीतने पर उस पॉलिसीधारक ने एक और पोस्ट लिखी कि जब उसने अपनी पॉलिसी बीच में सरेंडर की तब उसे आधे से भी कम रुपये मिले। इस बार भी कमेन्ट करनेवालों ने कहा कि इस बारे में आपके एजेंट ने आपको अंधेरे में रखा।

यूं तो यह मामूली बात है लेकिन बीमा एजेन्टों की स्थिति को देखते हुये इसे मामूली बात नहीं कहा जा सकता। खासतौर से तब जब एजेन्टों और प्रबंधन के बीच कई तरह के अंतर्विरोध उभरे हों और इनका विश्लेषण करने पर कई ऐसी बातें सामने आती हैं जो इसे असामान्य बनाती हैं।

बीमा एक बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसमें घोटालों की कमी नहीं है। दूसरे व्यवसायों की तरह वह भी प्रचारों पर टिका है और कोई भी प्रचार उपभोक्ता की जेब पर ही भारी पड़ता है। आज भारतीय जीवन बीमा निगम बहुत सुदृढ़ संस्थान बन चुका है जिसमें सीधे अट्ठाइस करोड़ से अधिक पॉलिसीधारक जुड़े हैं। इस प्रकार उसके अकाउंट में पॉलिसीधारकों का लाखों करोड़ रुपये सुरक्षित हैं। ज़ाहिर इतनी ताकत रखनेवाला कोई भी संस्थान तानाशाही रवैये से मुक्त नहीं हो सकता। वह अपने पूरे तंत्र के साथ हर तरह के दंद-फंद का उपयोग करके अपनी तरफ उठती अंगुलियों की दिशा मोड या उन्हें तोड़ सकता है। पॉलिसीधारकों और बीमा एजेन्टों के बीच के अंतर्विरोध दरअसल इन्हीं स्थितियों में उभरे और मजबूत होते रहे हैं।

बीच में पॉलिसी सरेंडर करने की दशा में उपभोक्ता को उसके द्वारा जमा किए गए प्रीमियम का पूरा पैसा नहीं मिलता। कुछ वर्षों पहले तो दो-तीन साल के बाद सरेंडर करने पर एक पैसा भी वापस नहीं मिलता था। लेकिन बाद में इसमें बदलाव हुआ और तीन साल या उससे अधिक समय पर पॉलिसी सरेंडर करने पर कुछ पैसे वापस करने का प्रावधान किया गया। ऊपर जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह ऐसा ही उदाहरण है।

इस पर ऑल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस एल ठाकुर कहते हैं कि ‘यह तो बहुत मामूली बात है। अगर आप वास्तविकता जानना चाहेंगे तो भारतीय जीवन बीमा निगम की ऐसी-ऐसी कहानियाँ सामने आएंगी कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे।’ वह कहते हैं कि ‘जीवन बीमा निगम का रवैया न अपने उपभोक्ताओं के प्रति ठीक रहा है न एजेंट्स के प्रति। मैं तो कहता हूँ इन्हीं दोनों की कमाई पर आज जीवन बीमा निगम एक तानाशाह की तरह व्यवहार कर रहा है।’

ठाकुर का कहना है कि ‘भारतीय जीवन बीमा निगम में अभिकर्ताओं का मान-सम्मान और भविष्य सुरक्षित नहीं है।  95% अभिकर्ता किसी तरह से अपना जीवन बसर करते हैं और भारतीय जीवन बीमा निगम में अपमानजनक व्यवहार झेलते हुये काम करते हैं। प्रबंधन अभिकर्ताओं का शोषण करके फूल-फल रहा है।’

ठाकुर ऐसी कई बातों के बारे में बताते हैं कि अभिकर्ता जो नई पॉलिसी करते हैं उनमें छूट देनी पड़ती है। यह उनकी मजबूरी है। असल में आज एक चलन यह बन गया है कि पॉलिसीधारक को प्रोत्साहित करने के लिए गिफ्ट देना पड़ता है लेकिन सवाल उठता है कि इसके लिए प्रेरित कौम करता है? क्या अभिकर्ता यह जानता था कि मार्केट में ऐसा भी होता है?’

मार्केट में ऐसी सिचुएशन पैदा करने वाले कोई और नहीं प्रबंधन के लोग एवं उनके दलाल हैं जो पॉलिसीधारक को लालच देकर बीमा कराने के लिए प्रेरित करते हैं। ज़ाहिर ऐसे में बहुत सी जरूरी बातों की तरफ पॉलिसीधारक का ध्यान ही नहीं जा पाता। आज यह व्यवस्था अभिकर्ताओं के लिए नासूर बन कर खड़ी है।’

फिलहाल अभिकर्ताओं के हितों को लेकर असहयोग आंदोलन चला रहे ठाकुर पूछते हैं- ‘कौन सा ऐसा विभाग है जहां पर कि अधिकारियों के वेतन को पारदर्शी किया जाता है और मिलने वाले सुविधाओं के बारे में बताया जाता है। लेकिन एक बड़े षड्यंत्र के अंतर्गत अभिकर्ताओं के कमीशन को पारदर्शी करने का सर्कुलर बनाया गया।  ऐसा क्यों? यह हमारी निजता का मामला है। इसे पारदर्शी करने के लिए हमें विवश क्यों किया जाता है?’

हालाँकि इस विषय में कई अभिकर्ताओं से बातचीत करने पर उनका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला। इसके बावजूद बीमा निगम प्रबंधन के द्वारा कसी जा रही नकेल को लेकर वे अंदर से आक्रोशित हैं। शायद यह उनके भीतर प्रबंधन का डर है।

ठाकुर कहते हैं कि ‘ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर भी अभिकर्ता गूंगा बना हुआ है इसका बहुत अफसोस है। इस समय उसका बोलना बहुत जरूरी है। क्योंकि उसकी चुप्पी उसके प्रति अन्याय को और गहरा करेगी और इसका परिणाम हर हाल में बुरा होगा।’

वह बताते हैं कि ‘किसी भी शाखा में पॉलिसीधारकों एवं अभिकर्ताओं को बैठने के लिए कोई समुचित व्यवस्था तक नहीं है। पॉलिसीधारक और अभिकर्ता को एक गिलास पानी देने वाला चपरासी भी ब्रांच में नहीं है। क्या आप जानते हैं एक चपरासी से लेकर क्लर्क तक अभिकर्ताओं को अभिवादन करने वाला नहीं है? क्या आप जानते हैं किसी भी तरह का एडवांस के लिए इनको अधिकारियों की जी हुज़ूरी करनी होती है? क्या आप जानते हैं क्लब सदस्यता के मानक को पूरा करने के बावजूद निश्चित टारगेट पूरा न करने पर क्लब सदस्यता से वंचित भी किया जाता है? क्या आप जानते हैं की पॉलिसी में छोटी-छोटी गलती के आधार पर मृत्यु दावा में अभिकर्ताओं को निलंबित और बर्खास्त कर दिया जाता है। उनका कमीशन जब्त करने का काला कानून भी है, जिसका इस्तेमाल करके प्रबंधन भय का वातावरण बनाता है। क्या आप जानते हैं पालिसी धारकों की छोटी छोटी गलतियों के कारण किस्त जब्त कर ली जाती है?’

ठाकुर प्रबंधन की तानाशाही की अनेक बातों का ज़िक्र करते हैं। वह कहते हैं कि ‘अभिकर्ताओं को दस्तावेजों में तमाम त्रुटियां करने के लिए लाचार किया जाता है। गलत मार्केटिंग के आधार पर पॉलिसी बेचने के लिए उनको  प्रोत्साहित किया जाता है। पॉलिसीधारक के बोनस और अभिकर्ताओं के कमीशन की कटौती करते हुए अधिकारी अपनी सुविधाओं को सदैव बढ़ाते रहते हैं। प्रथम श्रेणी के अधिकारी से लेकर और चपरासी तक सुरक्षा कवच में होता हैं लेकिन अभिकर्ताओं के लिए कोई गारंटी नहीं जबकि पालिसीधारक  और अभिकर्ता की भूमिका के आधार पर इनकी सारी योजनाएं होती हैं।’

आज प्रबंधन ने अपने आपको उस स्थिति में स्थापित कर लिया है कि वह गलत नियमों के आधार पर संविधान और कानून को दर किनारे करते हुए अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए अभिकर्ता का शोषण करता है लेकिन अभिकर्ता उफ़ तक नहीं कर पाते। पूरे देश के अंदर अभिकर्ताओं का संगठन नहीं है जो कि प्रबंधन के दमनकारी और शोषणकारी नीतियों का विरोध कर सके। ऐसे में अभिकर्ता की दशा में सुधार कैसे होगा?’

ठाकुर कहते हैं कि ऑल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स एसोसिएशन के लिए यह बहुत ही गंभीर और चिंतनीय विषय है। यह संगठन अभिकर्ताओं के लिए सुरक्षा और वेतन भोगियों के समान सुविधाओं के लिए लड़ रहा है।  वह इस बात के लिए वचन बद्ध है कि भारतीय जीवन बीमा निगम की कुल संपत्तियों में पालिसीधारकों एवं अभिकर्ताओं की हिस्सेदारी मिले।’

अभी भी जारी है असहयोग आंदोलन

एस एल ठाकुर कहते हैं कि अभिकर्ताओं का अनवरत असहयोग आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन पिछले वर्ष अक्तूबर में जीवन बीमा निगम में हुये बदलावों की पृष्ठभूमि में शुरू हुआ है। ठाकुर कहते हैं कि ‘भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता अधिनियम 1972 भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता (संशोधन) अधिनियम 2017 अभिकर्ताओं के हितों के अनुकूल नहीं हैं।’

ठाकुर ने आरोप लगाया कि 31 अगस्त 2021 को कूटरचित नियमावली का एक सर्कुलर जारी किया गया जिसमें अभिकर्ताओं की अभिव्यक्ति की संवैधानिक आज़ादी पर हमला करते हुये किसी भी शोषण, अत्याचार, अन्याय और दमन के विरोध में आवाज उठाने पर उनकी बर्खास्तगी और कमीशन की जब्ती का प्रावधान लाया गया।

गौरतलब है कि 1 अक्तूबर 2024 को लाये गए नियमों में पॉलिसीधारकों के पॉलिसी ऋण का ब्याज बढ़ा दिया गया और बोनस घटा दिया गया। सबसे छोटी पॉलिसी के बीमाधन की सीमा एक लाख से बढ़ा कर सीधे दो लाख कर दी गई। इस निर्णय से बड़े पैमाने पर पॉलिसीधारक प्रभावित हुये। कुछ अभिकर्ताओं का कहना है कि इससे  बीमा के प्रति लोगों की सामान्य रुचि न केवल घटी बल्कि उपभोक्ताओं पर पहले से चल रही पॉलिसियों का दबाव भी बढ़ गया।

बीमा योग्य आयु पहले पचपन वर्ष थी जिसे घटा कर पचास वर्ष कर दिया गया जिसका सीधा असर यह हुआ कि बहुत सारे पॉलिसी धारक उम्र की अर्हता को खोने लगे और पॉलिसी करने के प्रति उनकी रुचि में गुणात्मक कमी आई। इन तमाम सारी बातों के अलावा अभिकर्ताओं के कमीशन को भी कम कर दिया गया।

आंकड़े के अनुसार पूरे देश में 28 करोड़ पॉलिसी धारक और 14 लाख अभिकर्ता हैं। अभिकर्ताओं का कहना है कि इन नियमों का हमारे व्यवसाय ही नहीं पूरे बीमा जगत पर नकारात्मक असर पड़ना तय है।

आरटीआई में पता लगी हैं कई तरह की अनियमितताएँ

एस एल ठाकुर ने बताया कि ‘हमने भारतीय जीवन बीमा निगम में आरटीआई के माध्यम से यह जवाब मांगा कि पिछले पाँच वर्षों में किए गए मृत्यु दावों और उसके निस्तारण के बारे बताया जाय लेकिन जो जवाब मिला उससे हम सन्न रह गए। विभाग के पास इसका कोई आंकड़ा ही नहीं है।’

उन्होंने कहा कि ‘भारतीय टीम बीमा निगम मंडल कार्यालय वाराणसी के भ्रष्ट प्रबंधन के एक नहीं कई उदाहरण हैं। इसका एक जीता-जागता सबूत सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत मांगी गई सूचना के आधार पर मालूम हुआ कि 1 अप्रैल 2012 से 31 मार्च 2013 तक बिजनेस प्रमोशन मीटिंग हेतु बजट की व्यवस्था 24 लाख रुपये की हुई थी लेकिन खर्च केवल 4,64,000 किया गया। शेष 19,36,000 कहां गया इसका कोई प्रमाण कार्यालय में उपलब्ध नहीं है।’

प्रबंधन का दावा था कि 1515 अभिकर्ताओं की मीटिंग हुई। लेकिन यह मीटिंग कहां हुई? कब हुई? उपस्थित अभिकर्ताओं का कोई हस्ताक्षर या प्रमाणित आधार नहीं है। इससे ज़ाहिर होता है कि भ्रष्ट प्रबंधन कैसे लूटता है?’

ठाकुर कहते हैं कि यह सूचना भी मंडल स्तर पर मौजूद प्रथम जन सूचना अधिकारी ने नहीं दिया। न ही मंडल स्तर पर कार्यरत प्रथम अपीलीय अधिकारी ने दिया। तब सूचना आयोग दिल्ली को अपील की गई। इसके बाद कमिश्नरी वाराणसी में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई हुई। माननीय आयोग ने फटकार लगाते हुए दी गई सूचना को निरस्त करते हुए सही सूचना देने का आदेश निर्गत किया। यह है आलम है। ऐसे में भ्रष्ट प्रबंधन को भष्ट कहना कहां से गलत है?’

उनका कहना है कि प्रबंधन के मनमानी और निरंकुशता से अभिकर्ताओं और पॉलिसीधारकों के बीच कई तरह के अविश्वास, गतिरोध और गलतफहमियाँ पैदा हो रही हैं। यह किसी भी रूप में जीवन बीमा निगम के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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