Monday, June 9, 2025
Monday, June 9, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिसाहित्यराजनीति की कूटनीति में असहज एक संवेदनशील व्यक्तित्व

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

राजनीति की कूटनीति में असहज एक संवेदनशील व्यक्तित्व

विश्वनाथ प्रताप सिंह जिन्हें अधिकांश लोग वीपी सिंह के नाम से जानते  हैं,  वह 7 अगस्त 1990 के बाद से भारत के उन चुनिंदा राजनेताओं में से एक रहे हैं, जिन्हें यहां के ‘संभ्रांत’ समाज ने सबसे अधिक गालियां दीं। उनके निधन के लगभग 12 वर्षों के बाद भी इस समाज ने उन्हें माफ नहीं किया हालांकि […]

विश्वनाथ प्रताप सिंह जिन्हें अधिकांश लोग वीपी सिंह के नाम से जानते  हैं,  वह 7 अगस्त 1990 के बाद से भारत के उन चुनिंदा राजनेताओं में से एक रहे हैं, जिन्हें यहां के ‘संभ्रांत’ समाज ने सबसे अधिक गालियां दीं। उनके निधन के लगभग 12 वर्षों के बाद भी इस समाज ने उन्हें माफ नहीं किया हालांकि इससे पहले उन्हें मिस्टर क्लीन कहा जाता था और काशी के ब्राह्मणों ने तो उन्हें ‘राजर्षि’ की उपाधि से सम्मानित किया था। 7 अगस्त 1990 को संसद में मंडल आयोग की रिपोर्ट की स्वीकृति के बाद से ही राजनीतिक टिप्पणीकारों ने उन्हें नायक से खलनायक बना दिया और फिर उन्हें भुलाने के पूरे प्रयास किए। उनके केवल उस हिस्से को याद रखा जो उनके लिहाज से ‘जातिवादी’ था। यह कोई आश्चर्य नहीं है कि मंडल आंदोलन के दौरान उत्तर भारत की सड़कों पर पैदा हुई ‘अराजकता’ के अलावा कुछ भी याद नहीं था लेकिन उस अराजकता को मीडिया ने देश पर ‘अत्याचार’ और ‘अन्याय’ बताया। विश्वनाथ प्रताप भारत के सबसे बड़े ‘जातिवादी’ हो गए जिन्होंने एक ‘सेक्युलर देश  में  ‘जाति’ का सवाल खड़ा करके ‘भोली-भाली’ सवर्ण आबादी का सबसे बड़ा नुकसान कर दिया। लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि सवर्ण या सवर्ण नेता, बुद्धिजीवी और राय बनाने वालों ने तो वीपी को ‘मंडल-पाप’ के लिए जिम्मेदार माना और इससे लाभान्वित होने वाले ओबीसी नेताओं ने न तो उनकी परवाह  की और न ही उनको इसके लिए कोई क्रेडिट दिया। आश्चर्य की बात तो यह है कि मण्डल के 30 वर्षों बाद भी बाकी सभी नेता इसका क्रेडिट ले रहे हैं लेकिन वी पी सिंह को ये क्रेडिट देने के लिए तैयार नहीं है। जिसके फलस्वरूप उनकी राजनीति संभवतः खत्म ही हो गई। एक कार्यक्रम में वीपी सिंह ने कहा कि मैंने अपना पैर भले ही तुड़वा लिया लेकिन मैं गोल करने में कामयाब हो गया। अब सभी राजनीतिक दलों को मंडल-मंडल का जाप करना होगा।

वीपी सिंह की सादगी और ईमानदारी एक शक्तिशाली हथियार थी, लेकिन यह उनकी कमजोरी भी थी और यही कारण है कि 30 साल बाद कार्यान्वयन का श्रेय उनके चतुर मित्रों ने स्वयं ले लिया लेकिन उन्हें आज तक नहीं दिया। उनमें बहुत से तो ऐसे थे जो वास्तव में उस महत्वपूर्ण समय में उनसे अलग हो गए थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के समय शरद यादव और रामविलास पासवान वीपी सिंह के दो सबसे मजबूत सहयोगी थे। देवीलाल,  जो उनके उपप्रधानमंत्री थे, को उन्हें इसे लागू करने का सुझाव दिया। इस पुस्तक में दो ऐसे दृष्टांत हैं जो इसकी पुष्टि करते हैं कि वीपी इसके लिए कितने तैयार थे।

उनके अभिन्न मित्र सोमप्रकाश ने बातचीत में बताया कि मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए वीपी सिंह ने चौधरी देवीलाल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई क्योंकि यह जनता दल के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा था,  लेकिन महीनों गुजर जाने के बाद भी समिति की कोई एक बैठक भी नहीं हो पाई थी। इसका मुख्य कारण यह था कि जाट मण्डल आयोग की सिफारिशों में पिछड़े वर्ग में शामिल नहीं किए गए थे।  इसलिए इस रिपोर्ट के सिलसिले मे देवीलाल को कोई बहुत दिलचस्पी नहीं थी। मार्च 1990 तक जब इस कमेटी ने कोई काम नहीं किया तो वीपी ने रामविलास पासवान से बातचीत कर इस बात को आगे बढ़ाने का काम करने को कहा। नेता लोग तो अपनी राजनीतिक स्थितियों के अनुसार बात करते हैं लेकिन मण्डल सिफारिशों के लागू होने के सबसे बड़े गवाह थे पीएस कृष्णन, जो उस समय केन्द्रीय समाज कल्याण मंत्रालय के सचिव थे और आरक्षण और दलितों के अधिकारों के प्रश्न पर काम करने वाले लोगों में सबसे विश्वसनीय व्यक्ति थे। वह बताते हैं कि उन्हें पता था कि इस सरकार का कार्यकाल बहुत लंबा नहीं होने वाला इसलिए उन्होंने 1 मई 1990 को कैबिनेट के लिए नोट में यह बात रखी थी कि इसके लिए केवल एक शासनादेश की आवश्यकता है, संसद जाने की जरूरत नहीं है।

[bs-quote quote=”दरअसल यदि वी पी सिंह जैसे लोगों की वैचारिक राजनीति विफल हो जाती है तो किसी भी सरकार में दूसरे समाजों के लिए काम करने वाले व्यक्ति नहीं मिलेंगे, क्योंकि ऐसी स्थिति में आपको केवल अपनी बिरादरी का ही सवाल उठाना है। आज राजनीति उसमें बदल चुकी है और नतीजा है अस्मिताओं के नाम पर जातियों के कुछ स्वयंभू नेताओं की भरमार, जो एक बार राजनीति में स्थापित होने के बाद अपने परिवारों को ही स्थापित कर रहे हैं। जब वीपी सिंह की राजनीति असफल होती है तो आदित्यनाथ जैसे लोग चलने लगते हैं क्योंकि वे अपने-अपने समाजों के हित करें या न करें लेकिन ऐसी इमेज तो क्रिऐट कर ही देते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन बड़े अधिकारियों ने शायद इस पर सहमति व्यक्त नहीं की, फिर भी यह नोट वीपी सिंह के पास पहुँच गया और उन्होंने तुरंत ही राज्यों को इस संदर्भ में लिख दिया। हालांकि मण्डल लागू करने का आधिकारिक फैसला 2 अगस्त 1990 को लिया गया। कृष्णन कहते हैं कि 16 नवंबर 1992 को जब सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी वाले केस में मण्डल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के केंद्र सरकार के निर्णय को संवैधानिक तौर पर सही माना तो वीपी सिंह ने उन्हें फोन करके बताया यदि मैं अभी मर भी गया तो मैं अपने जीवन से संतुष्ट होकर मरूँगा। कृष्णन कहते हैं – वह वैचारिक तौर पर बहुत निष्ठावान थे जो आज के दौर के नेताओं में तो बहुत कम देखने को मिलती है।

हममें से जो वीपी सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद से उनकी राजनीति का अनुसरण कर रहे हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि वह एक गैरपरंपरागत राजनेता थे और उनमें निश्चित रूप से ‘आदर्शवाद’ और ‘शिष्टता’ की भावना थी लेकिन इसकी भी कई लोगों ने आलोचना की थी। कई दिग्गज उन पर पाखंडी होने का आरोप लगाते थे तो बहुतों के लिए वह एक ‘अवसरवादी’ थे, जिन्होंने ओबीसी के ‘नेता’ बनने के लिए ‘मंडल आयोग’ का इस्तेमाल किया जबकि अन्य ने सोचा कि वह अपने विरोधियों के साथ चले गए हैं और वोट की राजनीति के लिए अपने समुदाय के हितों की अनदेखी कर रहे हैं। बामसेफ और बसपा के आख्यान में भी, मंडल आयोग की रिपोर्ट को पार्टी के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम द्वारा बनाए गए दबाव के कारण लागू किया गया था। सवर्णों में से कई के लिए वह एक नकली राजपूत थे और जयचंद की संतान  थे जिसने भारत में ‘मुगल’ शासन लाने के लिए अपनी ही जाति के योद्धा को धोखा दिया। इसलिए भी वीपी सिंह के बारे में जानना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इतने वर्षों के सार्वजनिक जीवन में बेदाग होने के बावजूद उन्हें अभी भी एक बहुत गलत व्यक्ति समझा गया, जिन्हें न तो अपने जीवनकाल में और न ही उनकी मृत्यु के बाद उनका हक मिला।

सीमा मुस्तफा की पुस्तक द लोनली प्रॉफेट और रामबहादुर राय द्वारा उनके साथ साक्षात्कार पर आधारित किताब मंज़िल से ज्यादा सफर

सार्वजनिक हस्तियों, विशेषकर राजनीतिक नेताओं को उनके एक कार्य से नहीं आंका जा सकता क्योंकि कई लोग इसे पसंद करेंगे और कई अन्य इससे असहमत हो सकते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति की विचारधारा को उसके सम्पूर्ण जीवन के कार्य और पृष्ठभूमि से समझना महत्वपूर्ण है। वीपी सिंह एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके पास वह जनता नहीं थी जो उन्हें याद कर सके हालांकि यही जनता उनके लिए राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर हैं के नारे लगाती थी। मंडल के लिए ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवियों ने उनका तिरस्कार किया क्योंकि उन्होंने अपने समाज के साथ ‘धोखा’ दिया और ओबीसी दलितों के लिए वे मान्य नहीं थे क्योंकि वह उनकी बिरादरी से नहीं थे इसलिए उन्हें उल्लेख के लायक नहीं माना गया। उनके पास उनके सिद्धांतों या विचारों को आगे करने या उनको याद करने के लिए कोई पार्टी या संस्था भी नहीं थी। अनुभवी पत्रकार सीमा मुस्तफा की द लोनली प्रॉफेट और रामबहादुर राय द्वारा उनके साथ साक्षात्कार पर आधारित मंज़िल से ज्यादा सफर दोनों किताबें वीपी सिंह के सम्पूर्ण सामाजिक राजनीतिक व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं करतीं।  

देबाशीष मुखर्जी की किताब द डिसरप्टर वीपी सिंह पर लिखी गई अभी तक की सबसे प्रभावशाली पुस्तक है। इससे यह महसूस होता है कि वीपी सिंह का प्रधानमंत्री का कार्यकाल बहुत छोटा था लेकिन 1980 से लेकर 2008 तक वह भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजनेताओ में से एक थे और उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता था।

[bs-quote quote=”वी पी सूचना के अधिकार के अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सक्रिय भागीदार थे। एक कार्यकर्ता के रूप में, मैंने कुछ कार्यक्रमों में भाग लिया जिनमें वह अतिथि थे और पूरे दिन चर्चाओं में बैठ रहे। झुग्गीवासियों के अधिकारों के लिए उनका काम अनुकरणीय है। मैं उनको अपने छात्र जीवन से देख-सुन रहा था। वह अनिवार्य रूप से एक बहुत ही सरल व्यक्ति थे जो बिना किसी ‘सुरक्षा’ या ताम-झाम के, बिना किसी अहंकार के लोगों से मिलना-जुलना पसंद करते थे। अक्सर ऐसे उच्च पदों पर आसीन नेताओं के साथ-साथ उनकी सुरक्षा और प्रोटोकॉल रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा होता है लेकिन वी पी ने उन्हें पूरी तरह से खत्म कर दिया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

वीपी सिंह पर अक्सर उनकी आलोचनाओं में ‘महत्वाकांक्षी’ और ‘अवसरवादी’ होने का आरोप लगाया गया है, लेकिन समीक्षा के तहत पुस्तक का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने से आपको उस व्यक्ति का जीवन न केवल आकर्षक लगता है अपितु प्रेरणादायी भी है, जो सत्ता के लिए राजनीति में नहीं था। अक्सर उनकी वैचारिकी को लेकर प्रश्न होते थे जैसे वह केवल एक राजनेता थे लेकिन हकीकत यह है कि 31 जुलाई 1955 को वीपी सिंह छात्रों और युवाओं के अन्तर्राष्ट्रीय उत्सव में भाग लेने पोलैंड की राजधानी वारसा गए।  यह कार्यक्रम लोकतान्त्रिक युवाओं के अन्तराष्ट्रीय फेडरेशन ने किया था जो कम्युनिस्ट पार्टी का ही एक संगठन था। सर्वोदयी लोगों के साथ उनके संबंध बहुत अच्छे थे और बाद में अम्बेडकरवादियों से भी उनके संबंध बेहतर हुए। दलित पैंथर के संस्थापकों – राजा ढाले और जे वी पँवार,  ने मेरे साथ बातचीत में उन्हें बहुत सम्मानपूर्वक याद किया ।

यह पुस्तक एक ऐसे व्यक्ति के जीवन में झाँकने का प्रयास है जो न केवल एक परिपक्व राजनेता था, बल्कि एक अत्यंत संवेदनशील प्रतिभा, एक कवि और एक कलाकार भी था। यूपीए के गठन के दौरान भी ऐसी स्थिति आई जब समूचा विपक्ष उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहता था लेकिन वीपी सिंह ने इसको भांप लिया और वह अपने घर से ही गायब हो गए। उस दिन वह रिंग रोड के चक्कर काटते रहे और एक पारिवारिक मित्र के यहां चले गए और सिक्युरिटी को बता दिया कि लोगों को इसकी जानकारी न देना। नतीजा यह हुआ कि उनकी अनिच्छा ने विपक्षी नेताओं को इस पद के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवगौड़ा को चुनने के लिए मजबूर किया।

लोग विभिन्न मुद्दों पर राजनीति में बहस पैदा करने और उन्हें तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने में वीपी सिंह के भारी योगदान की

 उपेक्षा करते हैं। उन्हें केवल मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने वाले उनके बहुत से अन्य महत्वपूर्ण योगदान को भूल जाते हैं। उनके लिए मंडल आयोग जनता दल पार्टी के घोषणापत्र के अनुरूप पूरा करने की प्रतिबद्धता थी। ऐसे कई अन्य मुद्दे हैं जो इस पुस्तक में भी उस तरीके से नहीं आए हैं जैसे आने चाहिए थे। जैसे बाबा साहेब अम्बेडकर और नेल्सन मंडेला को भारतरत्न देना, अनुसूचित जाति से बौद्ध धर्मांतरितों को आरक्षण देना जो अम्बेडकरवादियों के लिए एक अत्यंत भावनात्मक मुद्दा था। भारत के प्रधानमंत्री के रूप में इस्तीफे के बाद, वीपी ने सरकार द्वारा मंडल रिपोर्ट को व्यावहारिक रूप से लागू करने के लिए देश भर में यात्रा की क्योंकि सरकारें उसे लागू करने के लिए राजी नहीं थी। सिवाय तमिलनाडु की डीएमके सरकार के, अन्य राज्यों और नेताओ ने तो मण्डल का नाम लेने में समय लगाया। आखिर में 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने उनके मण्डल फैसले को संवैधानिक तौर पर वैध करार दिया।

बाद में वीपी ने दिल्ली के झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों के लिए संघर्ष किया और मनरेगा और सूचना अधिकार आंदोलन से भी जुड़े। भारत के राष्ट्रपति के रूप में डॉ केआर नारायणन को प्रस्तावित करने वाले पहले व्यक्ति वी पी ही थे और एक बार उन्होंने कह दिया तो सभी पार्टियों को उस बात को मानना पड़ा।

[bs-quote quote=”वीपी सिंह की राजनीति एक नखलिस्तान की तरह थी जिनकी मुख्य ताकत उनकी ईमानदारी और सरलता थी। उनकी वैचारिक राजनीति उन्हें कहीं नहीं ले गई क्योंकि न तो ओबीसी ने उन्हें अपना नेता स्वीकार किया और न ही राजपूतों ने उन्हे अपना माना, जिन्होंने अपने ‘मंडल-पाप’ उनसे विश्वासघात किया। अन्ना हज़ारे के ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने कभी भी उनका नाम नहीं लिया जबकि देश के इतिहास में वह अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने ऊंचे पदों पर हुए भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया और उसके लिए कुर्सी को भी ठोकर मार दी। तब भी सवर्णों को यह पसंद नहीं था क्योंकि अन्ना की टीम के अधिकांश सदस्य आरक्षण विरोधी थे। वी पी शायद एकमात्र राजनीतिक नेता हैं जिनके परिवार को राजनीति में आने का विशेषाधिकार नहीं मिला।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि वी पी सिंह के जीवनचक्र को कैद करना कठिन था, लेकिन इस पुस्तक के लेखक ने उन क्षणों को विस्तृत तौर पर दस्तावेजीकृत और कालानुक्रमिक रूप से चित्रित किया है जो अभी तक लोगों की नजर से बाहर था। वी पी सूचना के अधिकार के अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सक्रिय भागीदार थे। एक कार्यकर्ता के रूप में, मैंने कुछ कार्यक्रमों में भाग लिया जिनमें वह अतिथि थे और पूरे दिन चर्चाओं में बैठ रहे। झुग्गीवासियों के अधिकारों के लिए उनका काम अनुकरणीय है। मैं उनको अपने छात्र जीवन से देख-सुन रहा था। वह अनिवार्य रूप से एक बहुत ही सरल व्यक्ति थे जो बिना किसी ‘सुरक्षा’ या ताम-झाम के, बिना किसी अहंकार के लोगों से मिलना-जुलना पसंद करते थे। अक्सर ऐसे उच्च पदों पर आसीन नेताओं के साथ-साथ उनकी सुरक्षा और प्रोटोकॉल रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा होता है लेकिन वी पी ने उन्हें पूरी तरह से खत्म कर दिया था।

वी पी सिंह के जीवन की कहानी के साथ-साथ उनके राजनीतिक हस्तक्षेपों को न केवल और अधिक समझने की आवश्यकता है अपितु उनकी राजनीति के ऊपर शोध भी होने चाहिए। उस समय, जब सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी तेजी से गायब हो रही है और राजनेता समझौतापरस्त हो गए हैं। ऐसे में वीपी सिंह की राजनीति एक नखलिस्तान की तरह थी जिनकी मुख्य ताकत उनकी ईमानदारी और सरलता थी। उनकी वैचारिक राजनीति उन्हें कहीं नहीं ले गई क्योंकि न तो ओबीसी ने उन्हें अपना नेता स्वीकार किया और न ही राजपूतों ने उन्हे अपना माना, जिन्होंने अपने ‘मंडल-पाप’ उनसे विश्वासघात किया। अन्ना हज़ारे के ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने कभी भी उनका नाम नहीं लिया जबकि देश के इतिहास में वह अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने ऊंचे पदों पर हुए भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया और उसके लिए कुर्सी को भी ठोकर मार दी। तब भी सवर्णों को यह पसंद नहीं था क्योंकि अन्ना की टीम के अधिकांश सदस्य आरक्षण विरोधी थे। वी पी शायद एकमात्र राजनीतिक नेता हैं जिनके परिवार को राजनीति में आने का विशेषाधिकार नहीं मिला। उनके नाम पर एक भी सड़क, स्कूल या स्मारक नहीं है। मण्डल से उपजे लोग भी उन्हें याद नहीं करते। हां, बी पी मण्डल को खूब याद करते हैं बिना यह जाने कि यदि वी पी नहीं होते तो मण्डल की रिपोर्ट कहां होती और कौन बी पी मण्डल को याद करता?

यह भी पढ़िए :

सभ्यता पर संकट

दरअसल यदि वी पी सिंह जैसे लोगों की वैचारिक राजनीति विफल हो जाती है तो किसी भी सरकार में दूसरे समाजों के लिए काम करने वाले व्यक्ति नहीं मिलेंगे, क्योंकि ऐसी स्थिति में आपको केवल अपनी बिरादरी का ही सवाल उठाना है। आज राजनीति उसमें बदल चुकी है और नतीजा है अस्मिताओं के नाम पर जातियों के कुछ स्वयंभू नेताओं की भरमार, जो एक बार राजनीति में स्थापित होने के बाद अपने परिवारों को ही स्थापित कर रहे हैं। जब वीपी सिंह की राजनीति असफल होती है तो आदित्यनाथ जैसे लोग चलने लगते हैं क्योंकि वे अपने-अपने समाजों के हित करें या न करें लेकिन ऐसी इमेज तो क्रिऐट कर ही देते हैं। अब राजनीति अपनी अपनी जातियों के ‘हितों’ तक सीमित रह गई है जिसमें हाशिए या कम संख्या वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। मंडलोपरांत राजनीति में क्या कभी कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने की संभावनाए थीं?

पत्रकार देबाशीष मुखर्जी ने वी पी सिंह पर बहुत शिद्दत और मेहनत से काम किया है और इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।  हम आशा करते हैं कि उनका यह काम विद्वानों, राजनीतिक विश्लेषकों को वी पी सिंह की वैचारिक धारणाओं और राजनीति के बारे में और अधिक जानने के लिए प्रेरित करेगा ताकि विश्वविद्यालयों में उनकी राजनीति के ऊपर अधिक शोध हो।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment