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सच का आईना दिखाती सोच पत्रिका का प्रवेशांक सफर

नव दलित लेखक संघ (नदलेस) ने अपने गठन (14 सितम्बर, 2021) के समय ही छमाही पत्रिका सोच को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया था। जिसकी परिणति वार्षिक संकलन के रूप में हुई। नदलेस ने अपने इस प्रस्तावित संकल्प को छह माह के तत्पश्चात हासिल करके अम्बेडकरवादी मिशन के प्रति अपनी उत्साहवर्धक प्रतिबद्धता की मिसाल प्रस्तुत […]

नव दलित लेखक संघ (नदलेस) ने अपने गठन (14 सितम्बर, 2021) के समय ही छमाही पत्रिका सोच को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया था। जिसकी परिणति वार्षिक संकलन के रूप में हुई। नदलेस ने अपने इस प्रस्तावित संकल्प को छह माह के तत्पश्चात हासिल करके अम्बेडकरवादी मिशन के प्रति अपनी उत्साहवर्धक प्रतिबद्धता की मिसाल प्रस्तुत की है। सोच पत्रिका के रूप में नदलेस की रचनात्मक प्रस्तुति अत्यन्त प्रसंशनीय एवं प्रेरणीय है। दलित साहित्य पत्रकारिता के इतिहास में अपने इस अवदान के लिए पूर्ण नदलेस परिवार एवं सोच पत्रिका का सम्पादक मण्डल विशेष रूप से डा. अमित धर्मसिंह बधाई के पात्र हैं। संकल्प-पूर्ति के प्रति यह तत्परता सोच पत्रिका-प्रकाशन की निरन्तरता की उम्मीदों को मजबूत करती हैं कि अम्बेडकरवादी पत्रकारिता का यह साहित्यिक सफर अविलम्ब चलता रहेगा तथा अपने समानांतर एक लम्बे साहित्यिक कारवाँ का प्रतिनिधित्व भी करेगा। पत्रकारिता जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम है। भारतीय जनमानस की समस्याओं से अवगत कराना और उनके कारणों का निर्मूलन करना ही उसका मूल दायित्व है। लेकिन भारतीय पत्रकारिता बनाम हिन्दी पत्रकारिता ने अपने उद्भवकाल से ही बहुसंख्यक दलित-बहुजन समाज की पीड़ाओं-समस्याओं से भरे जीवन को सिरे से नदारद बनाए रखा है। दलित पत्रकारिता इसी अवहेलना-उपेक्षा के प्रति आक्रोश, विरोध, संघर्ष की पत्रकारिता है। समाज का केन्द्र व्यक्ति है, व्यक्ति का केन्द्र मस्तिष्क और मस्तिष्क का केन्द्र कार्य सोच है, विचार है। विचार नितान्त काल्पनिक उड़ान नहीं, यथार्थ धरातल पर बौद्धिक सफर का आगाज़ है। विचार की तार्किक बौद्धिकता ही व्यक्ति की पहचान को चिन्हित करती है। यह पहचान ही उसके अस्तित्व एवं अस्मिता का आधार बनती है। सदियों से चली आ रही वर्णवादी व्यवस्था की अलगाववादी मानसिकता बहुसंख्यक दलित-बहुजन समाज को शिक्षा से वंचित करके सोच-विचार से वंचित रखने की षड्यंत्रकारी नीतियों की पैरवी करती आ रही है। आज भी अपनी ऊँच-नीच की रीति-नीति की जंजीरों को मजबूत करने में लगी है। बहुजन समाज की सांस्कृतिक विरासत को मिटाने में जुटी है। सोच पत्रिका उसी सांस्कृतिक विरासत को पहचानने, संरक्षित एवं संवर्धित करने का आह्वान है।

दलित-बहुजन समुदायों को संविधान द्वारा संवैधानिक सुरक्षा मिलने के पश्चात भी स्थितियाँ भयावह बनी हुई हैं। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि संवैधानिक सुरक्षा से पहले उत्पीड़न की स्थितियाँ कितनी भयानक रही होंगी। लेकिन हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में बहुजन समाज पर तत्कालीन समय का स्वर्णों द्वारा किया गया उत्पीड़न साहित्य की किसी भी विधा में अभिव्यक्त नहीं हुआ है और यह स्थितियाँ आज भी बरकरार हैं।

पत्रिका- प्रवेशांक के जनमत सोपान में सम्पादक मण्डल के सदस्यों ने नदलेस तथा सोच पत्रिका-प्रकाशन के उद्देश्य को स्पष्ट किया है तथा अम्बेडकरवादी मिशन के प्रति अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को सुनिश्चित किया है। वर्तमान चाटुकारी पत्रकारिता के दौर में सोच नामक पत्रिका ने निःसंदेह अम्बेडकरवादी मिशन के प्रति दृढ़ संकल्प के साथ दलित पत्रकारिता के इतिहास की श्रृंखला में पदार्पण किया है। संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद दलित-बहुजन समाज आज भी सदियों की समाजिक और आर्थिक विषमताओं से पीड़ित है। सोच पत्रिका एक सजग प्रहरी की भूमिका में पूरे दम-खम के साथ वर्णवादी असमानता के विरोध में पत्रकारिता के मैदान में उतरी है। जातिगत पीड़ाओं-समस्याओं के कारणों पर तार्किक विमर्श चलाकर बहुजन समाज को सचेत, सजग करके मानवीय अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने का सम्बल बनी है। पत्रिका के सम्पादकीय में सम्पादक ने नदलेस सोपान की विचार सामग्री पर विस्तार से चर्चा की है कि गैर दलित लेखकों की तथाकथित दलित चिन्तन ने दलित-बहुजन समाज में आत्मसम्मान युक्त जीवन जीने की कोई वैचारिक चेतना नहीं पैदा की है। अपने आत्मसम्मान के संघर्ष में दलित पत्रकारिता को पूरी मुस्तैदी के साथ प्रयासरत रहना होगा। सम्पादक ने सचेत किया है कि दलित लेखकों की अवसरवादी मानसिकता से ग्रसित रचनात्मकता से भी सजग रहने की विशेष जरूरत है। अम्बेडकरवादी वैचारिकता से किसी भी तरह का समझौता स्वीकार्य नहीं। सोच पत्रिका का प्रवेशांक उसी का ही स्वरूप है।

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सोच पत्रिका के विमर्श सोपान में बजरंग बिहारी, आरजी कुरील, पुष्पा विवेक, डॉ. टेकचंद, शीलबोधि, ईश कुमार गंगानिया, भूपसिंह भारती, दीपक मेवाती आदि लेखकों द्वारा लिखे कुल आठ आलेख हैं। सभी आलेख अम्बेडकरवादी विचारधारा के संवाहक हैं। बजरंग बिहारी अपने लेख मुक्ति आन्दोलनों की पारस्परिकताः किसान आंदोलन और दलित कविता में बताना चाहते हैं कि समसामयिक परिस्थितियों में उद्योगपति समर्थित सरकारी नीतियों तथा दक्षिणपंथी ताकतों के बढ़ते वर्चस्व के कारण देश की आर्थिक स्थितियाँ चरमरा गई हैं। भारत में सदियों से शोषक वर्णवादी व्यवस्था की शिकार दलित-बहुजन समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पहले ही से देश के सबसे निचले पायदान पर रही है। साधनों के अभाव में अधिकतर श्रमजीवी का ही जीवन बसर करते आए हैं। उनपर चरमराती आर्थिक व्यवस्था का यह दुर्दिन संकट कहर बनकर टूटा है। सभी ताकतें किसी भी तरह की भौगोलिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, लिंग, जाति, भाषा आदि भेदभाव को भुलाकर हमेशा अपनी विरोधी आवाजों की एकता और इसकी संभावना तक को ध्वस्त करने के लिए एकजुट रहती हैं। लेखक ने मजदूरों की एकता की ऐतिहासिक पृष्ठठभूमि का विवरण देकर मजदूरों की एकता को ध्वस्त करने वाली ताकतों के विरुद्ध एकजुट होने की हिमायत की है। विगत किसान आन्दोलन की सफलता का संदर्भ देकर सभी शोषण मुक्तिकामी आन्दोलनों को साझे मंच की जरूरत का विचार सुझाया है।

आरजी कुरील ने अपने आलेख लुटता लोकतन्त्र सुलगते सवाल… में आजादी के 75 वर्षों के बाद भी दलितों-बहुजनों की असामाजिक स्थितियों पर आँकड़ेवार ब्यौरा देकर जहां सरकार की नीति और नियत पर सवाल उठाए हैं वहीं बहुसंख्यक बहुजन समाज को संगठित होकर अपने संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा और प्राप्ति के लिए कटिबद्धता से संघर्ष करने का आह्वान किया है। पुष्पा विवेक का आलेख दलित साहित्य में स्त्री लेखन की चुनौतियाँ और मूल्यांकन की समस्या का सवाल दलित साहित्य और पत्रकारिता को आत्ममंथन के लिए विवश करता है। दलित महिलाएँ तिहरे उत्पीड़न की शिकार हैं। दलित महिलाओं की समस्या केवल महिलाओं की समस्या नहीं, पूरे दलित समाज की समस्या है। दलित समाज जातिवाद से मुक्ति की जंग लड़ रहा है। अगर हम जातिवाद की जंग पूर्णरूप से लड़ना और जीतना चाहते हैं तो पूरे दलित समाज को एकजुट होकर लड़ना होगा। दलित पुरुषों को समझना होगा कि हम जिन संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्षरत हैं, वे सब दलित महिलाओं को भी प्राप्त हैं। दलित महिलाओं पर अपने ही समाज में होने वाले अनाचार का स्वतः संज्ञान लेते हुए अपने जातिवाद से मुक्ति के संघर्ष को मजबूत करना होगा। एक गाल से जातिवाद से मुक्ति के लिए मनुवादी ताकतों का विरोध और दलित-बहुजन विशेष संवैधानिक अधिकारों का संघर्ष तथा दूसरे गाल से मनुवादी पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता के हिमायती बनकर अपने ही समाज की महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं चल सकता। एक साथ दो दिशाओं में चलने वाला कभी कहीं नहीं पहुंचता।

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डॉ. टेकचन्द ने अपने लेख में मगहर पत्रिका के दलित बचपन विशेषांक और अमित धर्मसिंह की पुस्तक खेल जो हमने खेले के हवालों से दलित साहित्य में दलित बाल साहित्य की उपेक्षा को उजागर किया है। दलितों का साधनहीन, अभावग्रस्त और संघर्षमय जीवन से दलित बचपन सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। दलित लेखकों की आत्मकथाएँ इसके ज्वलंत साक्ष्य हैं। दलित बचपन को सहज स्वभाविक चंचलता-चपलता और हठधर्मिता के स्थान पर अपनी साधनहीन विरासत से कर्मशीलता और संघर्ष मिला है। इसलिए ऐसा दलित बाल साहित्य लिखा जाए कि यह ही उनके साधन और शक्ति बनकर उनके जीवन का आत्मविश्वास बन जाए। शीलबोधि ने अपने लेख दलित विमर्श से अगला पड़ाव में बहुजन, मूलनिवासी समुदाय के लिए लगभग 50 वर्षों से प्रयोग किया जाने वाले अस्मिताबोधक दलित शब्द के ऐतिहासिक विकासक्रम पर गहन चिन्तन-मनन किया है। महाराष्ट्र के वंचित बहुजन समुदाय के साहित्यकारों ने अपने शुरुआती दौर में अमेरिका के ब्लैक डिसकोर्स की प्रवृत्ति के आधार पर अपने लिखित साहित्य को दलित साहित्य का नाम दिया। निःसन्देह तत्कालीन परिस्थितियों की इस उपलब्धि ने बहुजन-अछूत समुदाय में व्याप्त सोपानिक ऊँच-नीच की दीवार को गिराकर एक साझी अस्मिता को मजबूत किया है और कर रही है। लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपनी विरासत को पहचाने। भारतीय बहुजन-मूल निवासियों की अपनी संस्कृति, इतिहास और दर्शन की समृद्ध परम्परा रही है। वे बहुजन साथियों से अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा से जुड़ने की अपेक्षा करते हैं कि अब किसी अन्य आन्दोलन की प्रवृत्ति के अनुरूप अस्मिताबोधक शब्दों का अनुकरण करने की, ढोने की जरूरत नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति, दर्शन-इतिहास से जुड़कर अपनी खोई अस्मिता को पहचानने की जरूरत है। भावी पीढ़ी को पीड़ा के वितान से निकालकर गौरव की सीढ़ी पर चढ़ाने की जरूरत है। ईश कुमार गंगानिया और भूपसिंह भारती ने अपने लेखों में गुरु रविदास की बेगमपुरा की संकल्पना को क्रमशः सत्ता और समाज परिवर्तन का ब्लूप्रिंट तथा कल्याणकारी राज्य का प्रतिरूप में व्याख्यित किया है। उनकी वाणी का मूलसूत्र स्वतन्त्रता, समता, बंधुता है जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सम्मिलित है लेकिन सत्ताधारियों की बदनीयती का शिकार है। लेखकों ने गुरु रविदास की विलक्षण प्रतिभा, दूरदृष्टि, अदम्य साहस की विस्तार से चर्चा की है। अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गौरवान्वित होने का भाव जगाया है।

कथा सोपान में कुल पाँच कहानियाँ हैं। कहानियों में समसामयिक परिस्थितियों में दलितों पर घटित होने वाले सामाजिक उत्पीड़न को ही कहानियों की विषय-वस्तु बनाया गया है। रत्न कुमार सांभरिया की कहानी मुक्ति मानवाधिकारों के लिए लड़ने में यकीन बनाती है। इस कहानी पर बाबा साहब की यह उक्ति सटीक बैठती है- आप शेर हो जाइए, फिर कोई आपका शोषण नहीं करेगा। कोई आपको चुनौती नहीं देगा। आपको साहसी और निडर होना चाहिए। रत्न कुमार सांभरिया ने मंदिर-महंतों की धर्म और आस्था के नाम पर कर्मकांडी कुचालों का पर्दाफाश किया है। दलितों-बहुजनों को अपने ऊपर हो रहे शोषण से मुक्ति का संदेश दिया है। अनिल बिडनाल की कहानी में स्वर्णों द्वारा दलित दुल्हे को घोड़ी पर बैठने पर मौत के घाट उतारना, शमशान घाट में शव को जलाने न देने की अमानवीय कुकृत्यों पर संवैधानिक जंग लड़ने की बात की गई है। नंदलाल कौशल ने कहानी आम आदमी में आम आदमी की दयनीय आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने के लिए बनाई सरकारी योजनाओं की जमीनी सच्चाई दिखाई है। आम आदमी की दयनीय स्थिति से मुक्ति का रास्ता केवल यही है कि बुद्ध के पंचशील और बाबा साहब अम्बेडकर के शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो के संदेश को व्यवहारिकता से अपने जीवन में पालन करे। राजेश पाल ने अपनी कहानी में दिखाया है कि स्वर्ण समाज किस तरह बहुजन समाज के नत्थु सिंह जैसे युवकों की शिक्षा के प्रति लगन-मेहनत का उपहास उड़ाकर हतोत्साहित करता है तथा सुक्खड़ सिंह जैसे अशिक्षित व्यक्तियों के शोषण की स्थितियों को जन्म देता है। कहानीकार ने ऐसी शोषक प्रवृत्तियों के लिए विरोध की आवाज बुलन्द की है। दलित बहुजनों के प्रति यह उत्पीड़न नया नहीं, सदियों पुराना है।

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दलित-बहुजन समुदायों को संविधान द्वारा संवैधानिक सुरक्षा मिलने के पश्चात भी स्थितियाँ भयावह बनी हुई हैं। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि संवैधानिक सुरक्षा से पहले उत्पीड़न की स्थितियाँ कितनी भयानक रही होंगी। लेकिन हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में बहुजन समाज पर तत्कालीन समय का स्वर्णों द्वारा किया गया उत्पीड़न साहित्य की किसी भी विधा में अभिव्यक्त नहीं हुआ है और यह स्थितियाँ आज भी बरकरार हैं। दलित साहित्य और पत्रकारिता आज पूरी प्रतिबद्धता से बहुजन समाज की पीड़ा-व्यथा को अभिव्यक्त कर रहा है। स्वर्ण साहित्यकार साहित्यिक कला कौशल के नाम पर दलित-बहुजन समाज पर की गई कड़वी-घिनौनी सच्चाइयों को नकारने की कितनी भी कोशिश करले मगर दलित साहित्य और पत्रकारिता में बहुजनों के प्रति सामाजिक उत्पीड़न की यह तल्ख अभिव्यक्ति निःसन्देह भविष्य के ऐतिहासिक दस्तावेज साबित होंगे।

काव्य सोपान पत्रिका का सबसे अधिक सशक्त सोपान है। इसमें सत्रह कवियों- समय सिंह जौल, इंदु रवि, राजेश कुमार बौद्ध, आरएस आघात, रामश्रेष्ठ दीवाना, डॉ. कुसुम वियोगी, रामस्वरूप मीणा, डॉ. प्रिया भारती, रामसूरत भारद्वाज, रिछपाल विद्रोही, हरिकेश गौतम, मोहन लाल सोनल मनहंस, कविता भवालिया, डॉ. विपुल कुमार भवालिया, बाबूलाल तोंदवाल, कुँवर नाजुक, रवि निर्मला सिंह के द्वारा लिखित कुल पचपन कविताएँ संकलित की गई हैं। कविताओं में अपने बहुजन समाज के प्रति होने वाले अन्याय और अत्याचार की समस्या को उठाया है और उन पर सवाल खड़े किए हैं। प्रत्येक कवि समस्याओं के समाधान के रास्ते खोजने की तलाश में है। समस्याओं के प्रति खोखली दया, सहानुभूति, सांत्वना नहीं चाहता, न्याय चाहता है। कवि जौल की पंक्तियाँ- मुझे कैंडल मार्च नहीं चाहिए/ नारों की गूंज नहीं चाहिए/ खून के कतरे का हिसाब चाहिए। कवि अब भोदरे शब्दों की क्रुर राजनीति को जान चुका है। वह शोषण की हर आवाज को सीधे-सीधे चुनौती देने का पक्षधर है- रामसूरत भारद्वाज की काव्य-पंक्तियाँ- मेरी कलम की नोक में/ स्याही नहीं उतरती/ अपितु लहु उतरता है। देश को आजाद हुए पचहत्तर वर्ष बीत चुके लेकिन दलितों के जीवन में गरीबी और लाचारी है। अशिक्षा का अंधकार है। जातीय दुर्भावनाओं की हवाएं इतनी तेज हैं कि जिसकी चपेट मे बेटियां तक हवस का शिकार हैं। यथा- रामश्रेष्ठ की पंक्तियाँ- वो लाशों का व्यापार करता है/ ब्लातकारों का कारोंबार करता है। कहीं नफरत की आग में दुल्हा घोड़ी से उतारकर मारा-पीटा जाता है। कहीं सजीले दलित नौजवान की मूँछों के कारण मौत के घाट उतार दिया जाता है।

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आजाद भारत की संवैधानिक व्यवस्था में भी बहुसंख्यक बहुजन समाज सदियों से चले आ रहे सामाजिक उत्पीड़न को झेल रहा है। ऐसी आजादी को कवि आजादी नहीं मानता। इस संदर्भ में डॉ. कुसुम वियोगी की काव्य-पंक्तियाँ- किसी की झोली में सम्पति/ और मेरे अनेकों बंधु-बांधव खड़े रड़े हैं/ तुम्हारी जातीय चेतना के कटघरे में/ पाने को मुकम्मल आजादी। हरिकेश गौतम लिखते हैं- बगल की बस्ती से कुछ बच्चे/ अधनंगे भूखे, व्याकुल/… सवालों का हल निकलेगा/ सचमुच उस दिन संपूर्ण भारत में/ आजादी का असली सूरज निकलेगा। ऐसी कटु परिस्थितियों से कवि हताश-निराश नहीं है। अपनी आजादी के लिए निरन्तर संघर्षरत हैं। रामस्वरूप मीणा संघर्ष का आह्वान करते हैं- बहुत सो लिए, जाग उठो, ये संविधान भी बोल रहा है।/ स्वरूप सच ये बोल रहा है/ खून आपका खोल रहा है। आजादी माँगने की प्रक्रिया नहीं, अधिकारों के प्रति निरन्तर सजग-सचेत रहकर उसे पाने के लिए संघर्ष करने की प्रक्रिया का प्रतिफल है। कवि सरकारी बहेलियों से सावधान करता है। बाबूलाल तोंदवाल सचेत करते हैं- चटका चहके चमन में, गयी हकीकत भूल/ बैठा घात बहेलिया, ले तरकश में शूल। आरएस आघात ने कविता में सरकारी योजनाओं की शिकार होने के कारण किसान-किसानी की बदहाल स्थिति को व्यक्त किया है। इंदु रवि ने काव्यात्मक शैली में शहीदे आजम भगत सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को बखूबी अभिव्यक्त किया है। राजेश कुमार बौद्ध की कविता अफसोस दलित-बहुजन समाज के पढ़े-लिखे लोगों की आत्मकेन्द्रीयता की भावना पर चिन्ता जाहिर करती है। इनकी कविता प्रेमचंद तथा गांधी के भक्त तथाकथित प्रगतिशील लेखकों की प्रगतिशीलता पर सवाल खड़े करती हैं। मुंशी प्रेमचंद, कर्मचंद गाँधी और डॉ. भीमराव अम्बेडकर तीनों समकाली थे। प्रेमचंद ने अपनी रचनात्मकता में गाँधीवादी विचारधारा को प्रभावात्मक रूप से प्रचारित किया लेकिन डॉ. अम्बेडकर के दलितों-बहुजनों को सामाजिक, राजनैतिक आदि अधिकार दिलाने के लिए चलाए गए आंदोलनों का संकेत मात्र भी जिक्र नहीं किया।

डॉ. अम्बेडकर के कार्यों के प्रति यह उपेक्षा भाव प्रेमचंद की दलित चेतना को प्रश्न चिन्हित करता है। कवि ऐसे किसी भी साहित्य को दलित साहित्य मानने का विरोध करता है जो दलितों में चेतना नहीं, चिन्ता जगाती हो। उनके प्रति केवल दया, सहानुभूति जगाती हो। चेतना का अर्थ है चिन्तन करना, सजग-सचेत करना है। उत्पीड़न की स्थितियों पर सवाल उठाने और उन सवालों को खत्म करने के रास्ते सुझाना है। कवि ने तथाकथित प्रगतिवादी लेखकों की दलित चेतना की षडयंत्रकारी घुसपैठ को उजागर किया है। स्थान सीमा के कारण सभी पचपन कविताओं पर लिख पाना संभव नहीं, जबकि उन पर अभी बहुत कुछ कहा-लिखा जा सकता है। कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें कवियों ने वंचित-बहुजन समाज की पीड़ात्मक स्थितियों का यथार्थ चित्रण किया है जो मनःस्थिति को निर्बल बनाती हैं। इन्हें दलित चेतना की दृष्टि से अभी लम्बा सफर तय करना बाकी है। अगर निर्बल से सबल होना चाहते हैं, निराशा से निकल आशा का दामन थामना चाहते हैं, चिन्ता से निकल चिन्तन की ओर बढ़ना चाहते हैं तो हमें अन्धविश्वास के झमेलों को छोड़कर तार्किक, बौद्धिक बुद्ध धम्म को अपनाना होगा। सुन्दर लेखन के लिए जिस तरह लेखनी को बार-बार तराशा जाना जरूरी है, उसी तरह विचारों को परिमार्जित करने के लिए मस्तिष्क को बौद्धिक खुराक जरूरी है। कवि डॉ. कुसुम वियोगी अपने श्रमणपदों में बौद्ध धम्म अपनाने के लिए आह्वान करते हैं- पंचशील धारण कर लें, ये ही सम्यक ज्ञान/ अष्टांग मार्ग पर चलना सीखो/ ये श्रमण पहचान। समसामयिक परिस्थितियों में बौद्ध धम्म में ही दलित विमर्श से अगले पड़ाव की संभावनाओं का सृजन सुनिश्चित होगा। यही वंचित दलितों की जातीय पीड़ा को मिटाने का सफर है। यही मूलनिवासी हो जाने का सफर है और यही अपनी वास्तविक पहचान का सफर है। सोच पत्रिका अपनी पहचान का संघर्ष सफर निरन्तर जारी रखेगी, इसी उम्मीद के साथ नव दलित लेखक संघ और सोच पत्रिका के समूह सम्पादक-मण्डल को पुनः बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।

नविला सत्यादास सरकारी महेन्द्रा कॉलेज, पटियाला (पंजाब) में स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग की पूर्वाध्यक्ष हैं।

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