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ग्राउंड रिपोर्ट

बैकलॉग भर्ती कर आरक्षित वर्ग के कोटे को पूरा क्यों नहीं कर रही सरकार

केंद्रीय मंत्रालयों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित पदों को भरने में ढिलाई बरती जा रही है। कई विभागों में बैकलॉग आरक्षित रिक्तियों की संख्या काफी अधिक बढ़ गई है। केंद्रीय गृह मंत्रालय में एससी के लिए 6393 पद रिजर्व थे, जिनमें से महज 1108 पद भरे गए हैं। […]

केंद्रीय मंत्रालयों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित पदों को भरने में ढिलाई बरती जा रही है। कई विभागों में बैकलॉग आरक्षित रिक्तियों की संख्या काफी अधिक बढ़ गई है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय में एससी के लिए 6393 पद रिजर्व थे, जिनमें से महज 1108 पद भरे गए हैं। एसटी के 3524 रिक्त पदों में से 466 पद भरे गए हैं। ओबीसी के लिए रिज़र्व 6610 पदों में से केवल 717 पद भरे गए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि केंद्र में बैकलॉग आरक्षित पदों पर नजर रखने के लिए सरकार के पास कोई एजेंसी भी नहीं है।

एससी, एसटी और ओबीसी के पदों को भरने में रक्षा व गृह मंत्रालय भी पिछड़ गए हैं। एक जनवरी 2021 की स्थिति के अनुसार, डिफेंस में ‘एससी’ उम्मीदवारों के लिए 1848 पद खाली थे, इनमें से केवल 45 पद ही भरे गए। एसटी के लिए रिक्त पदों की संख्या 1189 थी, महज 22 पद भरे गए। ओबीसी के लिए 3986 पद रिजर्व थे, जिनमें से केवल 98 पद भरे गए हैं।

आखिर इसकी क्या वजह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की सिर्फ एससी, एसटी और ओबीसी की ही सीटें खाली हैं, जबकि अनारक्षित वर्ग की एक भी सीट खाली नहीं है? ऐसा कैसे संभव है कि उच्च शिक्षा के प्रसार के बावजूद आरक्षित वर्ग की सीटें खाली रह जाएं? क्या इन पदों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते हैं?

केन्द्र सरकार के दस मंत्रालयों/ विभागों में सर्वाधिक पद रिक्त पड़े हैं। कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति की 112वीं रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। इस समिति के चेयरमैन राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी हैं। उन्होंने पिछले दिनों संसद में इस रिपोर्ट को पेश किया था। कमेटी में लोकसभा व राज्यसभा के 31 सदस्य शामिल थे। हालांकि केंद्र सरकार में दस मंत्रालयों/ विभागों में एससी, एसटी और ओबीसी के बैकलॉग आरक्षण की निगरानी करने की जिम्मेदारी डीओपीटी को सौंपी गई है। इन मंत्रालयों/ विभागों में गृह, रक्षा, रक्षा उत्पादन, रेलवे, वित्तीय सेवाएं, शिक्षा, आवास एवं शहरी मामले, परमाणु ऊर्जा, राजस्व और डाक महकमा शामिल है। ऐसा कोई मंत्रालय/ विभाग नहीं, जहां सभी पद भरे गए हों।

केंद्रीय गृह मंत्रालय में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पदों का बैकलॉग 4450, अनुसूचित जनजाति का 2821 और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 5479 पद खाली पड़े थे। रक्षा में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पदों का बैकलॉग 1803, अनुसूचित जनजाति का 1167 और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 3888 पद खाली पड़े थे। रेलवे में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पदों का बैकलॉग 4445, अनुसूचित जनजाति का बैकलॉग 4405 था और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 5403 पद खाली पड़े थे। राजस्व विभाग में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पदों का बैकलॉग 2762, अनुसूचित जनजाति का 2000 और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 1465 पद खाली पड़े थे। आरक्षित बैकलॉग पर नजर रखने के लिए नहीं कोई नोडल एजेंसी है। संसदीय स्थायी समिति ने यह बात नोट की है कि केंद्र सरकार में ऐसी कोई नोडल एजेंसी नहीं है, जो आरक्षित पदों के बैकलॉग पर नजर रख सके। समिति ने सिफारिश किया है कि सरकार डीओपीटी को नोडल एजेंसी के तौर पर नामित करे। समिति ने 106वीं और 108वीं रिपोर्ट में भी यह सिफारिश की थी कि संबंधित मंत्रालय और विभाग अपने डैशबोर्ड पर बैकलॉग रिक्तियों का डाटा प्रदर्शित करें। कब कितनी वैकेंसी भरी गई, कितनी बची है और कब तक भरी जाएंगी, यह जानकारी भी डैशबोर्ड पर होनी चाहिए। मौजूदा संसदीय स्थायी समिति ने यह सिफारिश भी की है कि डीओपीटी खुद अपना एक डैशबोर्ड बनाए। उस पर यह जानकारी रहे कि किस मंत्रालय में कितनी बैकलॉग रिक्तियां हैं। उस डैशबोर्ड को नियमित तौर पर अपडेट किया जाना आवश्यक है।

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केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग के पद खाली क्यों हैं?

यह बार-बार दोहराई जाने वाली लाइन है कि आजादी के 75 साल बाद भी वंचित तबके को उसका संवैधानिक हक नहीं मिल पाया है। लेकिन भारतीय समाज की यही हकीकत है। यहां संसाधनों से लेकर सरकारी पदों पर वंचित वर्गों को आज तक उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व (आरक्षण की व्यवस्था) नहीं मिल पाया है। यह बात राज्य सभा में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के जवाब से भी साबित हो रही है।

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कितना है  बैकलॉग?

संसद के बजट सत्र में राज्यसभा में सपा व कांग्रेस के ओबीसी कुछ राज्यसभा सांसदों ने उच्चतर शिक्षा विभाग से केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्तियों का ब्यौरा मांगा था। अपने अतारांकित प्रश्न (संख्या 2596) में उन्होंने पूछा-

  1. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की श्रेणीवार संख्या कितनीकितनी है?
  2. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की श्रेणीवार बैकलॉग रिक्तियां कितनी-कितनी है?
  3. देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में चयन समिति द्वारा ‘योग्य नहीं पाए जाने वाले’ शिक्षक उम्मीदवारों का पदवार और श्रेणीवार ब्यौरा क्या है?
  4. क्या विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आरक्षण सूची (रिजर्वेशन रोस्टर) दिखाया जा रहा है?
  5. क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों सहित देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में रोस्टर रजिस्टर में आरक्षण से जुड़ी गड़बड़ी पाई गई हैं?

आरक्षित वर्ग के पद ही खाली क्यों?

सांसदों के इन सवालों का जवाब केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने दिया। राज्यसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक, एक जनवरी, 2021 तक देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के 18 हजार 408 पद स्वीकृत थे। इनमें से 10 हजार 236 पद अनारक्षित वर्ग के और बाकी के पद विभिन्न श्रेणियों में आरक्षित हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में पदों और उसमें लागू आरक्षण का ब्यौरा दिया है।

लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में बैकलॉग रिक्तियों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। जहां अनारक्षित वर्ग (जिसे सामान्य श्रेणी लिखा गया है) में एक भी सीट खाली नहीं है, वहीं आरक्षित वर्ग में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सैकड़ों सीटें खाली चल रही हैं। इतना ही नहीं, आर्थिक आधार पर कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित सीटें और विकलांग वर्ग के लिए आरक्षित सीटें भरी हैं।

आखिर इसकी क्या वजह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की सिर्फ एससी, एसटी और ओबीसी की ही सीटें खाली हैं, जबकि अनारक्षित वर्ग की एक भी सीट खाली नहीं है? ऐसा कैसे संभव है कि उच्च शिक्षा के प्रसार के बावजूद आरक्षित वर्ग की सीटें खाली रह जाएं? क्या इन पदों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते हैं?

अक्सर यह देखा गया है कि एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग की सीटें यह कहकर खाली छोड़ दी जाती हैं कि योग्य उम्मीदवार नहीं मिला है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि केंद्र सरकार के पास इससे जुड़ा आंकड़ा नहीं है। अपने जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने बताया कि देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की चयन समितियों द्वारा ‘अऩुपयुक्त पाए गए’ शिक्षक उम्मीदवारों का ब्यौरा केंद्रीय रूप से नहीं रखा जाता है। इसका मतलब तो यह भी है कि सरकार के पास इस बात की जानकारी नहीं है कि क्यों आरक्षित वर्ग की सीटें खाली रह जाती हैं? और जब सरकार को समस्या का पता ही नहीं है तो उसका समाधान कैसे करेगी? अगर यह समस्या दूर नहीं हुई तो सरकारी संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग की बैकलॉग की समस्या का तो कोई अंत ही नहीं है।

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उपनाम के आधार पर जातिगत भेदभाव की समस्या

सरकारी सेवाओं के लिए चयन में जातिगत भेदभाव होने की बात किसी से छिपी नहीं हैं। हाल ही में दलित इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के शोध विंग ने अपनी रिपोर्ट में अभ्यर्थियों के नाम छिपाने की सिफारिश की है। उसका कहना है कि इससे उम्मीदवारों को ज्यादा बराबरी का मौका मिल पाएगा। इसका मतलब है कि उपनाम से जाति का पता चल जाता है और इसका सीधा खामियाजा आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को उठाना पड़ता है। हिन्दी पट्टी के राज्यों में आरक्षित वर्ग अभ्यर्थियों की उपनाम कद आधार पर जाति की पहचान आसानी से हो जाती है। क्या यही समस्या केंद्रीय विश्वविद्यालयों के स्तर पर शिक्षकों की नियुक्तियों की भी है?

आरक्षण लागू करने में पारदर्शिता की भी कमी

राज्य सभा में सांसदों ने रोस्टर से जुड़ा सवाल भी पूछा था। इसके जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने बताया, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों सहित सभी विश्वविद्यालयों को समय-समय पर निर्देश जारी किए हैं कि वे कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग, भारत सरकार की ओर से निर्देश के अनुसार आरक्षण रोस्टर को अपनी वेबसाइट पर लगाएं और नियमित रूप से अपडेट करें।’ लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय या दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों की वेबसाइट देखने पर ऐसी कोई सूचना दिखाई नहीं देती है। इस बारे में जब उम्मीदवारों से बात की गई तो नाम न जाहिर करने पर एक शिक्षक ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ऑफिस में रोस्टर होता है, लेकिन वेबसाइट पर नहीं होता है। ऐसा न होने की वजह पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि रोस्टर सामने आते ही लोग अपने हक के लिए संघर्ष शुरू कर देंगे। कुल मिलाकर पारदर्शिता का अभाव आरक्षण को लागू करने के दावे पर सवाल खड़े कर रहा है।

लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय पिछड़ा दलित विकास महासंघ के राष्ट्रीय महासचिव हैं।

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