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नवउदारवाद और सामाजिक न्याय के बीच संघर्ष में कुचले गए सामाजिक स्वप्न

जब कभी इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा तो सबसे दिलचस्प अध्याय वह होगा जिसमें आर्थिक उदारवाद के स्वरूप और सामाजिक न्याय के आंदोलन की दो परस्पर विरोधी धाराओं के समानांतर चलने का विवरण दिया जाएगा। 1990 के दशक में ही इन दोनों धाराओं ने गति पकड़ी। भारतीय संसद में लिए जा रहे निर्णयों के […]

जब कभी इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा तो सबसे दिलचस्प अध्याय वह होगा जिसमें आर्थिक उदारवाद के स्वरूप और सामाजिक न्याय के आंदोलन की दो परस्पर विरोधी धाराओं के समानांतर चलने का विवरण दिया जाएगा।

1990 के दशक में ही इन दोनों धाराओं ने गति पकड़ी। भारतीय संसद में लिए जा रहे निर्णयों के अनुसार बाजार को खोलने, सरकारी कंपनियों के निजीकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य में निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने आदि की ओर कदम बढ़ाए जाने लगे।  उधर, उसी दौरान मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लेकर जिन विवादों ने जन्म लिया उन्होंने सामाजिक न्याय के आंदोलन को बेहद मजबूत आधार दिया।

दक्षिण भारत के मुकाबले हिन्दी पट्टी में सामाजिक न्याय के आंदोलन ने राजनीतिक शक्ति देर से हासिल की, लेकिन जब एक बार ये शक्तियां मजबूत हुईं तो फिर इन्होंने क्षेत्र का राजनीतिक और सामाजिक समीकरण हमेशा के लिए बदल दिया।

अब, भारतीय राजनीति का अंतर्विरोध खुल कर सामने आने लगा। एक बड़ी आबादी संसाधनों और अवसरों में वाजिब हिस्सेदारी की मांग को लेकर जागरूक हुई। अक्सर उन्होंने आंदोलनों की राह भी पकड़ी। उधर, देश की आर्थिक नीतियां इस राह चल चुकी थी जिनमें राष्ट्रीय संसाधनों के निजीकरण की वकालत करते वित्त मंत्रियों और सरकार के अन्य आर्थिक सलाहकारों की जमात खड़ी थी।

नई राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों के उभार का सैद्धांतिक आधार इन नई आर्थिक नीतियों के विरोध की धुरी पर टिका था, लेकिन दिलचस्प यह कि न सामाजिक न्याय का आंदोलन रुका, न आर्थिक उदारीकरण का कारवां थमा।

90 के दशक के अखबारों में दो तरह के लेख खूब छपा करते थे। पहली कोटि ऐसे लेखों की थी जिनमें आर्थिक विशेषज्ञ यह बताया करते थे कि बदलती दुनिया के साथ कदमताल करने के लिए, विकास के मानकों पर देश को स्थापित करने के लिए बाजार का खुलना, सार्वजनिक क्षेत्र का सिकुड़ना और निजीकरण का विस्तार होना कितना जरूरी है। इन लेखों में बताया जाता था कि देश की बढ़ती आबादी की शिक्षा और स्वास्थ्य जरूरतों को हासिल करने के लिए इन क्षेत्रों में निजी निवेश का अनुपात बढ़ना कितना जरूरी है।

दूसरी कोटि के लेख हमें बताते थे कि सामाजिक न्याय की अवधारणा अवसरों की समानता के बिना बेमानी है और इसके लिए सरकारी नौकरियों में वंचित तबकों के लिए आरक्षण, राष्ट्रीय संसाधनों के लाभों के वितरण में आबादी के अनुपात में सम्यक संतुलन, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश में बढ़ोतरी आदि पर ध्यान देना ही होगा। ये लेख हमें बताते थे कि निजीकरण वंचितों के लिए अवसरों के द्वार बंद करेगा, सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में आनुपातिक रूप से घटता सरकारी निवेश अंततः हाशिये पर के लोगों के लिये अभिशाप साबित होगा। इस कोटि के विचारक चेतावनी देते थे कि जिन नीतियों पर सरकार चल रही है वे देश में आर्थिक असमानता को भयानक रूप से बढ़ाने वाली साबित होंगी और पूंजी का संकेंद्रण अनेक सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं को जन्म देगा। इन लेखों में यह सवाल प्रमुखता से उठाया जाता था कि रोजगार देने वाले सरकारी संस्थानों का निजीकरण आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों के लिए नौकरियों के अवसर छीन लेगा क्योंकि यह अधिकार सिर्फ सरकारी क्षेत्र में ही हासिल है, निजी क्षेत्र में नहीं।

बावजूद इन बहसों के, सरकारी कंपनियों के निजीकरण का सिलसिला भी आगे बढ़ता गया और इधर सामाजिक न्याय के नाम पर अस्तित्व में आई राजनीतिक शक्तियों का प्रभाव भी बढ़ता गया। भारतीय राजनीति ने अपने लचीलेपन से इन दोनों परस्पर विरोधी धाराओं को आत्मसात कर लिया।

राजनीति अंतर्विरोधों के बीच से रास्ता निकालने का भी नाम है। हमने देखा कि आर्थिक सुधारों के नाम पर निजीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीतिक शक्तियों के साथ सामाजिक न्याय के राजनीतिक प्रतिनिधियों का सामंजस्य नई-नई सरकारों के रूप में सामने आया। कभी कम तो कभी अधिक दिनों तक राज करने वाली इन तमाम सरकारों ने वंचितों के हितों की बातें तो बहुत की, लेकिन आर्थिक उदारीकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को जाहिर करने में वे कभी पीछे नहीं हटे। जो पार्टियां विपक्ष में होती थी वे संसद में इनसे जुड़े विधेयकों के पारित होने के समय खूब हो हल्ला मचाती थी और जब स्वयं सरकार में आती थी तो फिर उसी रास्ते चलना शुरू कर देती थी।

सोवियत विघटन के बाद यूरोपीय देशों के समर्थन से हासिल अमेरिकी एकछत्रता ने कमोबेश पूरी दुनिया को नीतियों के मामले में विकल्पहीनता की स्थिति में ला खड़ा किया। भारत, जो कि बहुत बड़ा बाजार था और संसाधनों के मामले में भी समृद्ध था, इन प्रभावों से अछूता नहीं रहा। आरोप लगने लगे कि भारत की आर्थिक नीतियां वैश्विक वित्तीय शक्तियों के दबावों से बन रही हैं और इनमें हाशिये पर के विशाल वंचित समुदाय के साथ छल किया जा रहा है।

यह वैचारिक द्वंद्व गहरा तब हो पाता जब सामाजिक न्याय के आंदोलन से जन्मी पार्टियां अपनी वैचारिकता को लेकर प्रतिबद्ध होतीं और अपने समर्थन आधार के हितों की खातिर किसी भी संघर्ष के लिए तैयार रहतीं।

किंतु, सामाजिक न्याय का नारा तब भोथरा होने लगा जब इससे प्रेरित अधिकतर राजनीतिक दल कबीलाई कुनबों में बदलने लगे। इस कुनबापरस्ती ने इन राजनीतिक दलों के वैचारिक तेज का हरण कर लिया और वे नवउदारवादी शक्तियों के सामने पराजित मुद्रा में नजर आने लगे

यही वह दौर था जब राजनीति में कारपोरेट का हस्तक्षेप तेजी से बढ़ना शुरू हुआ और चुनाव बेतहाशा महंगे होने लगे। अब एक एक प्रत्याशी एक एक चुनाव में करोड़ों खर्च करने को तत्पर था। बड़ी राजनीतिक पार्टियां, जिनके पीछे कारपोरेट प्रभुओं की जमात खड़ी थी, इन महंगे चुनावों को अफोर्ड करने की स्थिति में हमेशा रहीं क्योंकि ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से वैध-अवैध तरीके से उन तक अकूत धन पहुंचता रहा, लेकिन कुनबों में नेतृत्व को कैद कर चुकी सामाजिक न्याय का दम भरने वाली पार्टियों के पास आमदनी के ऐसे विकल्प उपलब्ध नहीं थे। नतीजा, सरकार में रहते उन्होंने अपने लिए चुनावी फंड का निर्माण करने के लिए जिन रास्तों का चयन किया वे काल क्रमानुसार उन पर भारी पड़ने लगे। फंड निर्माण की इस प्रक्रिया में उनसे फाइलों में अनेक भूलें हुईं जिसका परिणाम उनके कानूनी शिकंजे में फंसने के रूप में सामने आने लगा।

अब, ऐसे नेताओं पर दर्जनों केस चलने लगे जो सार्वजनिक सभाओं में या राजनीतिक फैसलों में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर निजीकरण का विरोध करते थे या सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ आग उगलते थे।

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यद्यपि, उनका समर्थन आधार बदस्तूर कायम रहा लेकिन अदालतों का चक्कर लगाते ऐसे नेताओं के चरित्र बल में ह्रास हुआ और वे नैतिक आधार पर संदेहों के घेरे में आने लगे। कारपोरेट परस्त मीडिया, जिस पर अधिकतर ऊंची जातियों के पत्रकार ही हावी थे, ने उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को खूब उछालना शुरू किया।

नैतिक आभामंडल के क्षरण और कुनबा परस्ती ने सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाने वाले नेताओं को वैचारिक रूप से खोखला बना दिया और अब उनके लिए उनके राजनीतिक-सामाजिक आदर्शों से अधिक महत्वपूर्ण सत्ता पाना या उसमें बना रहना हो गया।

बदतर यह कि पिछड़ी और दलित जातियों में हर जाति और उपजाति के अपने अपने नेता सामने आने लगे और इस माहौल में जिस राजनीतिक संस्कृति का विकास हुआ उसमें हर नेता के साथ अपने खास जातीय समर्थकों का वोट बैंक आ गया। अब ऐसे नेता अपने छोटे-बड़े वोट बैंक के बल पर हर चुनाव में राजनीतिक मोल भाव करने लगे जिसका अंतिम और वास्तविक लक्ष्य अपने समर्थन आधार का हित नहीं, बल्कि अपने कुनबे और समर्थक सिपहसालारों के लिए पद हासिल करना रह गया।

जैसे जैसे आर्थिक सुधारों का कारवां आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे बाजार की शक्तियों के राजनीतिक प्रभावों में वृद्धि होती गई।

अब, सामाजिक न्याय के इन राजनीतिक योद्धाओं के पास न इतना नैतिक बल था, न वैसी राजनीतिक पूंजी, न वैसा मजबूत वैचारिक आधार जिसके बल पर वे बाजार की शक्तियों के सर्वग्रासी चरित्र की नकारात्मकताओं से मुकाबला कर सकते। नतीजा, बाजार ने बड़ी-बड़ी सरकारी कंपनियों को निगलना शुरू किया। विकास की प्राथमिकताएं कारपोरेट हितैषी बन गईं और वंचित समुदाय हाई वे के किनारे चाय की दुकान खोल कर, ढाबों में नौकरी हासिल कर विकास के स्वागत में तालियां बजाने को विवश होने लगा।

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नई सदी का पहला दशक बीतते-बीतते निजी स्कूल सरकारी स्कूलों को अर्थहीन और नाकारा साबित करते शहरों ही नहीं, कस्बों और सुदूर गांवों तक छा गए। अब, रिक्शा चलाने वालों से लेकर दिहाड़ी कमाने शहरों में पलायन करने वालों में भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को लालसा जगी और गरीब लोग भी अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर भविष्य के सपनों में अपनी वर्तमान निराशा को ढंकने लगा। यद्यपि, इनमें से अधिकतर बच्चे छात्रवृत्ति या अन्य प्रोत्साहनों के लिए सरकारी स्कूलों में भी नामांकित होते रहे।

सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा का कोई अंत नहीं रहा क्योंकि सरकारें विकास और आमदनी के अनुपात में इनमें निवेश बढ़ाने को तत्पर नहीं हुई। अब, निर्धनों की जमात भी निजी चिकित्सा तंत्र की लूट का शिकार होने को विवश थी।

इधर, राजनीति अपनी चाल से आगे बढ़ती रही। केंद्र की राजनीति में किसी ऐसी शक्ति के काबिज होने की संभावना क्षीण हो गई जो आर्थिक सुधारों को मानवीय स्वरूप देने की बात करे। जाति आधारित छोटी पार्टियों के कुछ नेता कभी इधर तो कभी उधर जा कर सत्ता में अपनी भागीदारी की तलाश करते रहे, जबकि सामाजिक न्याय को अपनी मूल सैद्धांतिकी मानने वाली बड़ी पार्टियों के नेता कानूनी पचड़ों में पड़ कर निस्तेज होने लगे।

1990 के दशक में ही, जब मंडल आंदोलन अपने उरूज़ पर था, कमंडलवादी शक्तियों ने भी अपना खेल दिखाना शुरू किया। जल्दी ही वे मजबूत हुए और केंद्रीय राजनीति में उनका प्रभाव बढ़ने लगा। उन्होंने सामाजिक न्याय की पार्टियों के मुकाबले हिन्दी पट्टी के सवर्णों को आकर्षित किया। बिहार, यूपी आदि में मध्यमार्गी पार्टियां मैदान खाली करती गई और सवर्णों के बीच नए राजनीतिक नायकों का उदय होने लगा।

स्वभावतः कमंडलधारी शक्तियां नवउदारवादी अभियान की सहयात्री बन गई और तब, कारपोरेट के पैसों और षड्यंत्रों के बल पर उन्होंने चुनावों का स्वरूप ही बदल दिया। अब वे देश के बड़े भूभाग पर अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम कर चुके थे। कुछेक वर्षों की अपनी गठबंधन सरकार के बाद अगला एक दशक लगा उन्हें अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में।

कारपोरेट के पैसे और षड्यंत्रों के साथ ही देश की राजनीति में व्याप्त हो चुके वैचारिक खोखलेपन ने नवउदारवाद के एक नए ध्वजवाहक को सत्ता तक पहुंचा दिया। यह नया ध्वजवाहक इस बात की घोषणा करने में तनिक भी नहीं हिचका कि वह “भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना देगा।”

इस नए नायक के लिए सांप्रदायिकता और लोकतांत्रिक राजनीति का घालमेल एक चुना हुआ रास्ता था। पुनरुत्थानवादी शक्तियों का नैसर्गिक स्वभाव होता है कि वे अतीत की अतार्किक व्याख्या करते हुए उसे स्वर्णिम करार देते हैं और लोगों को बताते हैं कि वे जल्दी ही फिर उन्हें उनके सुदूर पूर्वजों की तरह ही विश्वगुरु और दुनिया की अग्रणी सभ्यता का गौरव दिलवाएंगे

ताज्जुब यह कि सांप्रदायिकता को अपना हथियार बना कर राजनीति करने वाली शक्तियों ने बड़ी ही आसानी से सामाजिक न्याय की राजनीति में आ चुकी दरारों को पहचाना और उनके अंतर्विरोधों का लाभ उठा कर, उनके ही वोटों में बड़ी सेंध लगा कर उन्हें चुनावी राजनीति में बुरी तरह पटक दिया।

तब भी, नवउदारवादी शक्तियों और सामाजिक न्याय के सिद्धांतकारों का वैचारिक संघर्ष चलता रहा, चल रहा है। अंतर यह आया कि इसे मुद्दा बना कर राजनीति में उतरे कई नेताओं की कलई उतर चुकी। यद्यपि, उनके वोट बैंक कमोबेश उनके साथ ही रहे।

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उत्तर भारत की सबसे तेजस्विनी दलित नेता सत्ता पर काबिज सामाजिक न्याय विरोधी शक्तियों के षड्यंत्रों के सामने बेबस सी नजर आ रही हैं क्योंकि, जैसा कि माना जाता है, उनकी फाइलें कभी भी खोली जा सकती हैं। एक प्रखर युवा दलित नेता खुद को निजीकरण के ध्वजवाहक का हनुमान बताते कभी नहीं थकता। हाशिए पर की दर्जनों जातियों के अनगिनत नेता कभी इस पाले तो कभी उस पाले जाने में और इस हेतु बेहतर ‘डील’ पाने में कतई लज्जा का अनुभव नहीं करते।

निजीकरण का सिलसिला आगे बढ़ा तो कभी थमा ही नहीं। सरकारी नौकरियों के सिकुड़ते अवसरों के बीच सामाजिक न्याय के योद्धाओं ने निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा उठाया, लेकिन यह अपने समर्थकों को भरमाने के सिवा कुछ और साबित नहीं हो सका। न वे घटती सरकारी नौकरियों के खिलाफ मजबूत आवाज उठा सके न बढ़ते निजी क्षेत्र में वंचितों के लिए अवसरों की जोरदार वकालत कर सके। वैचारिक और नैतिक पराजय को शब्दों के मुलम्मे से ढकने की कला प्रायः हर राजनेता सीख लेता है। इन्होंने भी सीख लिया।

सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट्स आर्थिक असमानता और पूंजी के संकेंद्रण के बढ़ते ही जाने के बारे में बताती रहती हैं, सरकारी में अवसर नहीं और निजी क्षेत्र के लायक बन नहीं पा रहे, तो युवाओं का तबका भयानक बेरोजगारी का शिकार है। इनमें हर जाति, हर धर्म के युवा हैं।

न जाने कितने सामाजिक स्वप्न नवउदारवाद के पैरों तले रौंदे जा चुके। अब तो उन सपनों की चर्चा भी नहीं होती। मसलन…समान शिक्षा प्रणाली, सार्वजनिक सुविधाओं पर खास ध्यान और बेहतर निवेश आदि।

लेकिन, राजनीति चल रही है। इसने अपने लचीलेपन से सबको आत्मसात कर लिया है। सत्ता-संरचना की नीतियों और नीयत से विकास की मुख्य धारा से बाहर हैं तो वे जो हाशिए पर के 80  करोड़ लोग हैं, जो जिंदगी को जिंदगी की तरह नहीं, एक जद्दोजहद की तरह जी रहे हैं। लेकिन, कुछ खास तबकों को छोड़ कर बेफिक्र कोई नहीं हो सकता। यह संकट सबको अपनी जद में लेगा। ले भी रहा है।

इस लेख में प्रयुक्त पेंटिंग पाब्लो पिकासो की विश्वप्रसिद्ध चित्र शृंखला से ली गई हैं।
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