दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में एक भारत की सभ्यता भी है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता से पता चलता है कि भारतीय उप महाद्वीप हज़ारों साल पहले न केवल आर्थिक और वैज्ञानिक रूप से विकसित था बल्कि सामाजिक और वैचारिक रूप से भी बहुत समृद्ध था। ज़ाहिर है ऐसे विकसित समाज में सभी को बराबरी का अधिकार रहा होगा। जहां पुरुषों की तरह महिलाओं को भी समान अधिकार प्राप्त रहे होंगे। जहां महिलाओं को पैरों की जूती नहीं समझा जाता होगा बल्कि उन्हें भी सम्मान प्राप्त रहा होगा। उन्हें सभ्यता और संस्कृति के नाम पर घर की चारदीवारियों में कैद करके नहीं रखा जाता रहा होगा।
अब लौटते हैं वर्तमान दौर में। यह वह दौर है जो आर्थिक और वैज्ञानिक रूप से उस सभ्यता से कहीं अधिक विकसित है। आज भारत दुनिया की न केवल विकसित अर्थव्यवस्था वाला देश बन रहा है बल्कि इसके वैज्ञानिकों ने पहले ही प्रयास में चांद के उस हिस्से पर क़दम रख कर इतिहास रच दिया है जहां अमेरिका और रूस के वैज्ञानिक भी कई बार प्रयास करके असफल हो चुके थे। आसमान में अगर इसने मंगल और सूरज तक अपने झंडे गाड़ दिए हैं तो धरती पर यह इतनी तेज़ी से मज़बूत अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है कि आज दुनिया के सभी बड़े निवेशक भारत में निवेश करने के लिए सपने बुनने लगे हैं। यह भारत की मज़बूत छवि का असर है कि अब उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है। ज़ाहिर है दुनिया भर में भारत की इस मज़बूत छवि को बनाने में महिलाओं का भी बराबर का योगदान है। राष्ट्रपति और वैज्ञानिक क्षेत्र से लेकर शिक्षिका तथा स्वयं सहायता समूह की सदस्य के रूप में महिलाओं ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया है और आज तक देती आ रही हैं।
लेकिन इसी भारत की एक दूसरी छवि भी है जो उसके ग्रामीण क्षेत्रों में नज़र आता है। जो न केवल आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है बल्कि सामाजिक और वैचारिक रूप से भी संकुचित नज़र आता है। जहां महिलाओं के आगे बढ़ने से समाज को ताना बाना टूटने का खतरा नज़र आने लगता है। जहां महिलाओं का माहवारी के दिनों में घर में रहना और किचन में जाना तक बुरा समझा जाता है। जहां उसे अपनी ज़िंदगी का फैसला लेने और उसके उच्च शिक्षा ग्रहण करने से समाज के बिगड़ जाने का खतरा उत्पन्न होने लगता है। जी हाँ, मैं यह हड़प्पा या मोहनजोदड़ो सभ्यता की नहीं बल्कि 21वीं सदी के ग्रामीण भारत की बात कर रही हूँ। जहां घर से लेकर बाहर तक किशोरियों और महिलाओं को परंपरा, संस्कृति और रीति रिवाजों की बेड़ियों में जकड़ कर रखा जाता है। जिसे अपनी मर्ज़ी से कपड़े पहनने और घूमने तक की आज़ादी नहीं मिलती है।
ऐसा ही एक ग्रामीण क्षेत्र पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का गनीगांव है। बागेश्वर जिला से करीब 42 किमी दूर और गरुड़ ब्लॉक करीब 17 किमी पर स्थित इस गांव की आबादी लगभग 1646 है। कई अर्थों में यह गांव पिछड़ा हुआ है। जिसमें सबसे अहम महिलाओं और किशोरियों के प्रति समाज की संकुचित सोच है। जहां उन्हें प्रतिदिन कई पाबंदियों से गुजरनी पड़ती है। इस संबंध में गांव की 37 वर्षीय दीपा देवी कहती हैं कि इस गांव की परंपरा है कि जब किसी महिला या किशोरी को माहवारी आती है तो उसे घर से दूर सूरज निकलने से पहले नदी पर जाकर स्नान करना होता है और वहीं उसे अपने कपड़े सुखाने होते हैं। ऐसे में दिसंबर और जनवरी के कड़ाके की ठंड में उन पर क्या बीतती होगी, इसकी कल्पना भी मुश्किल है?
वह बताती हैं कि ठंड में जहां नहाना मुश्किल होता है वहीं वर्षा के दिनों में उन्हें अपने कपड़े को सुखाने में बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वहीं एक और महिला मोहिनी देवी बताती हैं कि गांव के कुछ घर तो ऐसे हैं जहां माहवारी के प्रति इतनी नकारात्मक सोच है कि इस दौरान महिलाओं या किशोरियों को घर में भी प्रवेश नहीं करने दिया जाता है। इन दिनों जबकि किशोरियों को सबसे अधिक देखभाल और अपनों की ज़रूरत होती है, लेकिन उन्हें घर से दूर गाय-भैंस के बीच गौशाला में रहने को मजबूर किया जाता है। जिसकी वजह से कई किशोरियां मानसिक बिमारियों का शिकार हो जाती हैं वहीं गौशाला की गंदगी के कारण उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
वहीं एक अन्य महिला इंद्रा देवी बताती हैं कि इस गांव में यह भी परंपरा है कि कोई भी पत्नी पति से पहले खाना नहीं खा सकती है। चाहे वह कितनी भी बीमार क्यों न हो और डॉक्टर ने समय पर खाना खाने को क्यों न कहा हो? उसे पति के बाद ही खाना खाना होता है। इसका पालन नहीं करने वाली महिला को गलत और परंपरा के विरुद्ध समझा जाता है। इसके लिए उसे न केवल ताने दिए जाते हैं बल्कि समाज में ऐसी महिलाओं को बुरा भी समझा जाता है। यह समाज की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है। वहीं ग्राम प्रधान हेमा देवी कहती हैं कि भले ही पहले की तुलना में अब गनीगांव के लोग अधिक शिक्षित हो गए हैं लेकिन उनकी सोच अभी भी वही पुरानी वाली है। दरअसल समाज शिक्षित ज़रूर हुआ है लेकिन जागरूक नहीं हुआ है। नई पीढ़ी की किशोरियां पढ़ने लगी हैं लेकिन वह भी इस प्रकार की मानसिकता के विरुद्ध ज़ोरदार आवाज़ नहीं उठा पाती हैं। हालांकि समाज इसे मान्यता और परंपरा की दलील देता है। लेकिन उसकी यह दलील किसी भी प्रकार से ठोस और प्रामाणिक नहीं होती है।
याद रहे कि गनीगांव में 85 प्रतिशत साक्षरता दर रिकॉर्ड की गई है। बालिका शिक्षा के मामले में भी इस गांव में पहले की अपेक्षा काफी सुधार आया है। अब लड़कियों की शादी 12वीं पास करने के बाद ही की जाती है। इसका अर्थ यह है कि इस गांव की नई पीढ़ी विशेषकर किशोरियां शिक्षित हो रही हैं। लेकिन इसके बावजूद माहवारी के समय उनके साथ अत्याचार होना, इस बात को दर्शाता है कि पढ़े लिखे समाज पर संकीर्ण सोच वाले आज भी हावी हैं। यही कारण है कि यहां आज भी रस्मों के नाम पर किशोरियों के अधिकारों का हनन होता है। ऐसे में ज़रूरत है कि यहां शिक्षा के साथ साथ जागरूकता की मुहिम भी चलाई जाए। (साभार चरखा फीचर)