Sunday, March 30, 2025
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पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

संजय पराते

लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

शहीद भगत सिंह : साम्राज्यवाद के नए दौर में बढ़ती जा रही प्रासंगिकता

भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विशद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ।

औरंगजेब पर हमला : एक सुनियोजित सांप्रदायिक एजेंडा जो नपुंसक फासिस्ट ताकतों को कुछ देर तक बहादुर बना सकता है

फिल्म छावा प्रदर्शित होने के बाद औरंगजेब को कब्र से निकालकर पुन: मारने की साजिश में सांप्रदायिक दंगों को हथियार बनाया जा रहा है। सवाल न भी उठाया जाए तब भी सभी जानते हैं कि इस साजिश को योजनाबद्ध तरीके से करने में किसका हाथ है। संघी हिंदू राष्ट्र का सपना देखते हुए इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत कर युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। यही कारण है कि युवा साहस के साथ गुंडागर्दी करने में सबसे आगे हैं। इस तरह की स्थिति सोचने को विवश करती है कि आखिर यह देश कहाँ पहुँच गया है?

भाजपा की आगामी इतिहास परियोजना : तुगलक.. तुगलक.. तुगलक.. तुगलक….

जिस पार्टी के पास आम जनता के असली मुद्दों से टकराने का साहस नहीं होता, वह ऐसे ही मुद्दों पर सुर्खियां बटोरने के काम में लगी रहती है, चाहे उसके परिणाम देश के लिए कितने ही खतरनाक क्यों न हो! औरंगजेब के बाद अकबर, बाबर और अब तुगलक को निशाने पर साधा है, क्योंकि संघ की स्थापना हिंदुत्व और सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी, इसमें अब इनका राजनैतिक दल भाजपा बढ़ चढ़कर काम कर इतिहास बदलने का काम कर रहा है।

दाल देख और दाल का पानी देख!

नेफेड और राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता फेडरेशन (एनसीसीसीसी) बता रहा है कि सरकार के गोदाम में केवल 14.5 लाख टन दाल ही बची है, जो कि न्यूनतम आवश्यकता का केवल 40% ही है। इसमें तुअर दाल 35000 टन, उड़द 9000 टन, चना दाल 97000 टन ही है, जिसे लोग खाने में सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। इन दालों की जगह दूसरी दाल के इस्तेमाल के बारे में सोचें, तो मसूर दाल का स्टॉक भी केवल पांच लाख टन का ही बचा है। भारत के संभावित दाल संकट पर संजय पराते।

बस्तर में लोकतन्त्र कुचलने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों एक हैं : रघु मीडियामी की गिरफ़्तारी से उठते सवाल

रघु मीडियामी की वकील शालिनी गेरा का कहना है कि बस्तर के जन आंदोलनों को कुचलने के लिए ही रघु की फर्जी केस में गिरफ्तारी की गई है, क्योंकि जिन प्रतिबंधित 2000 रूपये के नोटों को रखने और प्रतिबंधित माओवादी संगठनों को धन वितरित करने के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया है, संबंधित एफआईआर में भी उसका कोई जिक्र नहीं है। उल्लेखनीय है कि इसके पहले भी सरजू टेकाम और सुनीता पोटाई नामक मंच के दो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा चुका है, जो बस्तर में संसाधनों की लूट के खिलाफ जारी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।

छत्तीसगढ़ स्थानीय निकाय चुनाव : क्या कांग्रेस ने पहले से हार स्वीकार कर ली थी?

छत्तीसगढ़ स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा ने बाजी मारी है। हालांकि उसकी इस जीत से किसी को भी आश्चर्य नहीं है। कांग्रेस की हार को लेकर भी लोगों में कोई चिंता नहीं दिखती। शायद कांग्रेस को भी इसका दुख नहीं है, क्योंकि वह दिखावे के लिए और हारने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी। लेकिन जो लोग संघ-भाजपा के रूप में देश पर मंडरा रहे खतरे को जानते-समझते हैं, उन्हें इस बात का दुख अवश्य है कि पिछले एक साल में कांग्रेस का जनाधार और कमजोर हुआ है और जिन सीटों पर विधानसभा चुनाव में उसे बढ़त हासिल थी, उन क्षेत्रों के नगर निकायों में भी उसने अपनी बढ़त खो दी है।

महाकुंभ 2025 : गंगा की गंदगी से ऊपर राजनीतिक अवसरवाद के आँकड़े

महाकुंभ को लेकर सरकार का यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है कि अब तक 35 करोड़ लोग पहुंचे हैं। लेकिन इतना तो सही है कि इस कुंभ का भी जिस प्रकार नफरत फैलाने और ध्रुवीकरण करने की राजनीति के लिए उपयोग किया गया है, यदि सरकारी दावे के आधा, 15 करोड़ भी इस कुंभ में पहुंचे हों, तो सरकारी खर्च प्रति व्यक्ति औसतन 500 रूपये बैठता है और किसी भी तीर्थ यात्री को स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने के लिए यह राशि कम नहीं होती। कहीं ऐसा तो नहीं कि महाकुंभ में 50 करोड़ तीर्थयात्रियों के पहुंचने का दावा, जिसकी किसी भी तरह से पुष्टि नहीं होती, इस भारी भरकम आबंटन में सेंधमारी करने की सुनियोजित साजिश है?

आदिवासी हमेशा से ही सरकार और कॉरपोरेट के निशाने पर रहे हैं

पूरे देश के आदिवासी आज कॉरपोरेट के निशाने पर है और इन्हें भाजपा सरकार का पूरा समर्थन-संरक्षण हासिल हैं। सरकारों की इस कॉर्पोरेटपरस्ती के खिलाफ आम जनता के सभी तबकों की लामबंदी सुनिश्चित करनी होगी और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए एक व्यापक संघर्ष छेड़ना होगा।

हिंदू राष्ट्र-पथ वाया प्रयाग-कुंभ : इस महामारी का इलाज क्या है?

एक सौ चौवालिस वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ 'हादसों का कुंभ' बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से 'गुडबाय-टाटा' कहने की जरूरत है।

दिल्ली चुनाव : एक मिथक का अंत और एक त्रासदी का और बड़ा होना

लोकसभा चुनाव के राज्यवार नतीजों के विश्लेषण से यह भी स्पष्ट था कि भाजपा को हराने के लिए राज्यों के स्तर पर संगठित विपक्ष को एकजुट रणनीति बनानी होगी। लोकसभा चुनाव के बाद जहां ऐसा कर पाए, वहां भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सफल रहे। दिल्ली चुनाव के नतीजों से फिर साफ हो गया है कि जहां कहीं इस समझदारी का उल्लंघन होगा, भाजपा की राह आसान होगी।

बजट 2025 : मध्यम वर्ग को बचत का सपना देकर अपनी झोली भरने की जुगत

मोदी सरकार घरेलू अर्थव्यवस्था में मांग पैदा कर रोजगार का संकट दूर करने तथा अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के प्रति गंभीर होती, तो केंद्र सरकार में लाखों खाली पड़े पदों को भरने की घोषणा करती, मनरेगा के बजट आबंटन में पर्याप्त वृद्धि के साथ मजदूरी और काम के दिनों की संख्या को बढ़ाती, शहरी गरीबों के लिए रोजगार गारंटी की घोषणा करती, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए सम्मानपूर्ण आजीविका के लायक न्यूनतम वेतन/मजदूरी की घोषणा करती, किसानों को सी-2 लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने और कर्ज़माफी की घोषणा करती और मजदूरों को बंधुआ दासता में धकेलने वाली श्रम संहिताओं को वापस लेने आदि की घोषणा करती। लेकिन बजट 2025 में ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई है।

कॉर्पोरेट बस्तर के सेप्टिक टैंक में दफ्न ‘लोकतंत्र’

'कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट' के अनुसार, 2005-24 के बीच जिन देशों में सबसे ज्यादा पत्रकार मारे गए हैं, उनमें भारत का स्थान 7वां है। 2014 से अब तक हमारे देश में 28 पत्रकार मारे गए हैं। वर्ष 2025 में हत्यारों का पहला शिकार पत्रकार मुकेश चंद्राकर बना। न्यूयॉर्क स्थित एक संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में मई 2019 से अगस्त 2021 तक मोदी राज के 28 महीनों में पत्रकारों पर 256 हमले हुए हैं, याने हर महीने 9 से ज्यादा और हर तीन दिनों में कम से कम एक। पिछले 10 सालों में 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के पैमाने पर भारत 35 अंक नीचे गिर चुका है और आज वैश्विक प्रेस सूचकांक में हमारा स्थान 180 देशों में 142वें से फिसलकर 159वें पर आ गया है।

किसान रहे ठनठनगोपाल : सरकारी खरीद और समर्थन मूल्य की कोई गारंटी नहीं

किसानों को लाभकारी मूल्य पर अपनी फसल बेचने की सहूलियत देने के लिए कृषि उपज मंडियों का निर्माण किया गया था, जिसका उद्देश्य था कि घोषित समर्थन मूल्य से कम पर यहां किसानों के फसल की खरीदी नहीं होगी। लेकिन अब देश में ऐसी कोई भी मंडी नहीं है, जहां इस बात की गारंटी हो। अनाज व्यापारियों को मंडियों से ही खरीदने की बाध्यता खत्म कर दिए जाने के बाद अब ये मंडियां बीमार हो गई है। इस तरह किसानों को न तो खरीद की, न समर्थन मूल्य की और न ही वितरण व्यवस्था की कोई गारंटी प्राप्त है। किसान लगातार परेशान हैं और आत्महत्या जैसा घातक कदम उठाने को मजबूर हैं।

छत्तीसगढ़ में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ घृणा : खतरनाक रूप ले रहे हैं संघ-भाजपा के कारनामे

भाजपा की नीतियों को ही सरकार की नीतियों के रूप में दिमाग में बैठाने की कोशिशों का नतीजा यह है कि पुलिस और प्रशासन के विभिन्न हलकों में भाजपा की नीतियों का अंधानुकरण करने और पार्टी नेताओं तथा हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं की इच्छानुसार काम करने की प्रवृत्ति पैदा हुई है। बिलासपुर की घटना में पुलिस और सरकार का रूख यही बताता है कि संविधान के मूल्यों और उसकी भावना को खत्म करने और अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए कानून को तोड़ने-मरोड़ने का काम ऊंचे स्तर से ही जोर-शोर से जारी है।

संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठ के अपने ही दावे को भाजपा ने हाईकोर्ट में नकारा

झारखण्ड में भाजपा लगातार बांग्लादेशी घुसपैठिये, लैंड जिहाद, लव जिहाद आदि के नाम पर साम्प्रदायिकता व झूठ फैला रही है। इसका बहुत ही खुला एजेंडा है झारखंड में हिंदुओं, मुस्लिमों और आदिवासियों के बीच सांप्रदायिक विभाजन करके, उनमें दरार पैदा करके चुनावी वैतरणी पार करना। अपने इसी दुष्प्रचार को विश्वसनीय बनाने के लिए अब भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन को इस काम में लगा दिया है। लेकिन झारखण्ड की जनता इन सारे सांप्रदायिक खेल को समझ रही है इसलिए लोकसभा चुनाव से शुरू हुआ भाजपा की हार का सिलसिला झारखंड में रुकने वाला नहीं है।

छत्तीसगढ़ में किफायती व्यवस्था के नाम पर शिक्षा के विनाश पर तुली सरकार

भाजपा पिछले 10 वर्षों से लगातार शिक्षा पर हमला कर रही है। देश के बड़े और स्थापित विवि उसके निशाने पर रहे हैं लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों से भाजपा शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर भी नजर गड़ाए हुए है। जुलाई में स्कूल खुलने पर उत्तर प्रदेश में बेसिक शिक्षा के अंतर्गत आने वाले अध्यापक निशाने पर थे। अब छतीसगढ़ में भाजपा की सरकार आ जाने के बाद नए स्कूल भवन बनाने, पुरानों का जीर्णोद्धार करने और शिक्षकों की भर्ती करने के बजाय भाजपा सरकार द्वारा युक्तियुक्तकरण के नाम पर स्कूलों को बंद करने और शिक्षकों का तबादला करने का अभियान चलाया जा रहा है। जबकि यहाँ प्राथमिक विद्यालयों में अनेक चुनौतियाँ हैं, जिनसे निपटना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन यह उसे खत्म करने की साजिश में लगे हुए हैं। 

बुद्धदेव भट्टाचार्य : हाशिए के समाजों का भरोसेमंद नेता

कॉमरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य ग्यारह वर्ष तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक मेहनतकश मजदूर से ज्यादा कुछ नही समझा। अपने जीवन को मेहनतकशों के जीवन का ही हिस्सा मानते थे, मेहनतकशों की जीवन संस्कृति ही उनकी संस्कृति थी।

मजदूरों की आवाज के लिए बना ट्रेड यूनियन, आज फासीवाद के दौर में खुद संघर्ष कर रहा है

मार्क्स का नारा था - दुनिया के मजदूरों एक हो। इस नारे की सबसे बड़ी पूंजीवादी आलोचना यही है कि हमारे देश में मजदूर जब किसी एक संगठन के नीचे नहीं हैं, तो दुनिया के मजदूर कैसे एक होंगे? लेकिन मार्क्स के इस नारे का अर्थ मजदूरों के किसी एक संगठन के नीचे एकत्रित होने का नहीं है। इस नारे का वास्तविक अर्थ यही है कि दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवाद के खिलाफ और अपने-अपने देशों के भीतर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में मजदूर एकजुट हों। आज भारत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की तानाशाही की जकड़ में है, कॉर्पोरेट और हिंदुत्व के गठबंधन ने देश की अस्मिता को दांव पर लगा दिया है, संवैधानिक संस्थाएं चरमरा रही है और एक फासीवादी तानाशाही का खतरा देश के दरवाजे पर खड़ा है।

छत्तीसगढ़: राष्ट्रवाद की चाशनी में लिपटा कॉर्पोरेटपरस्त और चुनावी जुमलेबाजी वाले बजट में किसानों-मजदूरों के लिए कुछ नहीं

असल में मोदी गारंटी के नाम पर जितनी भी लोक-लुभावन घोषणाएं बजट में की गई हैं, उनका असली उद्देश्य आम जनता को फायदा पहुंचाना नहीं, केवल चुनावी लाभ बंटोरना है। इसलिए इन योजनाओं में पात्रता के नाम पर ऐसी शर्तें थोपी जा रही हैं, जिससे अधिक से अधिक लोग इन योजनाओं के दायरे से ही बाहर हो जाए।

छत्तीसगढ़ में जमीनों पर जबरदस्ती कब्जे हेतु आदिवासी निशाने पर

विकास के नाम पर आज पूरे देश में किसान और आदिवासियों की जमीनों पर सरकार की नज़रें हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें सभी का विकास मॉडल किसान और आदिवासियों को उनकी जमीनों से विस्थापित कर  गुजरता है। उनके द्वारा किये जा रहे शांतिपूर्ण विरोध से सरकार इतनी डरी हुई है कि आन्दोलनकारियों को उत्पीड़ित कर डरा रही है।