मोदी के अघोषित हिन्दू राज में सवर्णों द्वारा अंजाम दी जा रही घटनाओं से दलित-बहुजन समाज स्तब्ध और मानवता शर्मसार है। लेकिन ऐसी घटनाओं की संख्या रुकने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। ताज़ी घटना ओडिशा के गंजाम जिले की है जहां 23 जून को दो दलित युवक बेटी की शादी के लिए गाय खरीदकर लौट रहे थे। तभी बजरंग दल से जुड़े गौरक्षकों की नजर उन पर पड़ी। उन्होंने 30 हजार रुपये दान देने की मांग की।जब दलित युवकों ने मना किया तो गौरक्षकों ने पशु तस्करी का आरोप लगाकर उन्हें बेरहमी से पीटना शुरू किया और उनका सिर मुड़वाया और गले में कुत्ते की पट्टी पहना कर लगभग दो किलोमीटर तक घुमाया। उन्हें कुत्तों की तरह घास खाने के लिए भी विवश किया गया। यही नहीं, गौरक्षकों ने उनके पास मौजूद 7 हजार रुपये भी छीन लिए और पुलिस में शिकायतत करने पर जान से मारने की धमकी भी दी।
चूँकि गंजाम की घटना उस दलित वर्ग से सम्बंधित थी, जिसके साथ देश का जनमानस रोजाना अमानवीय व्यवहार देखने-सुनने का अभ्यस्त बन चुका है, इसलिए उसे लेकर वैसी चर्चा नहीं हुई। किन्तु, चर्चा में आई उससे दो दिन पूर्व घटित इटावा की घटना, जहाँ 21 जून को यादव जैसी प्रभावशाली पिछड़ी जाति के मुकुट मणि यादव और उनके सहयोगी संत कुमार यादव को भागवत कथा सुनाने के अपराध में ब्राह्मणों ने न केवल पीटा, बल्कि जबरदस्ती उनकी चोटी काटी, नाक रगड़वाया और एक ब्राह्मणी के मूत का उनपर छींटा मारा। यह घटना जंगल में आग की तरह वायरल हो चुकी है।
इटावा कांड पर यादव समाज की प्रतिक्रियाएँ
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने इटावा कांड के पीड़ितों को लखनऊ बुलाकर 51-51 हजार देकर सम्मानित करते हुए कहा, ’भागवत कथा सबके लिए है। जब सब सुन सकते हैं तो सब लोग भागवत कथा बोल भी सकते हैं। जिस दिन पीडीए समाज ने अपनी कथा अलग से कहनी शुरू कर दी, उसी दिन परम्परागत शक्तियों का समाज ढह जायेगा। अभी तक लोग गंगाजल से मंदिर धोते थे, लेकिन अब सिर मुड़वा रहे हैं, पेशाब छिड़क रहे हैं और रात भर पिटाई कर रहे हैं। आखिर ये लोग इतनी ताकत कहाँ से पा रहे हैं? इस तरह की मनोवृति को भाजपा का संरक्षण मिलता रहा है। इन लोगों को लगता है कि कुछ भी करें तो सरकार बचा ही लेगी।
इटावा काण्ड को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया का दौर जारी है। इसके खिलाफ यादवों के कुछ संगठन इटावा मार्च की योजना बना रहे हैं। इस घटना पर यादव समाज के युवा विचारक रंजन यादव का कहना है, ’इटावा की घटना वर्चस्व आधारित है। वे हमेशा यह साबित करना चाहते है कि द्विज ही श्रेष्ठ हैं। संविधान लचीला है। नियम तो यह बने कि जातीय श्रेष्ठता के नाम पर जो हिंसा करें उसे चौराहे पर फांसी दी जाए। जब तक कड़े कानून नहीं होंगे, हमें यह दिन देखना ही पड़ेगा।‘
सामाजिक न्याय को आधार बनाकर निकलने वाली पत्रिका ’ बसावन इण्डिया‘ की टिपण्णी है , ‘संतसिंह यादव जैसे चरवाहा संत, वर्षो पुरानी वर्चस्वादी व्यवस्था को तोड़ रहे हैं जिस पर जाति व वर्ग विशेष का एकाधिकार अभी भी बना हुआ है। यह घटना ‘बौद्धिक सामंती प्रवृत्ति’ का प्रमाण है, जो अब भी ओबीसी समाज की चेतना को दबाने का प्रयास कर रही है! विडंबना यह है कि उत्तर भारत का यादव समाज, जो जनसंख्या के हिसाब से एक बड़ी ताक़त है, अभी भी सामाजिक वैज्ञानिक चेतना और वैचारिक मुक्ति के प्रतीक ललई सिंह यादव और पेरियार जैसे क्रांतिकारी विचारकों से दूर है। यह दूरी उसे धार्मिक पाखंड, कर्मकांड और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व की गिरफ्त में बनाए रखती है! हमें यह समझना होगा कि यह केवल धार्मिक प्रश्न नहीं है, यह सत्ता, ज्ञान और सम्मान के पुनर्वितरण का प्रश्न है। जो धर्म तुम्हें मंदिर में प्रवेश से लेकर वेदपाठ तक में अपवित्र मानता है, जो तुम्हें जन्म के आधार पर अयोग्य ठहराता है, वह धर्म नहीं, बल्कि शोषण की व्यवस्था है! पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज इस ब्राह्मण-धर्म और इसकी वर्णाधारित असमानताओं को नकारें उनकी मुक्ति का मार्ग उस धर्म से होकर नहीं गुजरता जो उन्हें अपमानित करता है, बल्कि फुले, आंबेडकर, पेरियार जैसे विचारकों के मानवीय, समतावादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से होकर गुजरता है! फुले, आंबेडकर, पेरियार ने न केवल इस ब्राह्मणवादी वर्ण अव्यवस्था के शोषण की शिनाख्त की, बल्कि उसके समाधान भी दिए हैं। शिक्षा, आत्म-सम्मान, तार्किकता और बौद्धिक साहस से अब अपने समाज में इस चेतना को फैलाएं, ताकि अगली बार धार्मिक अंधविश्वास, पाखण्ड में डूबे संतसिंह, मुकुटमणि व देविका पटेल जैसे अनेकों बहुजन समाज के लोग धार्मिक मकड़जाल में फंसकर अपमानित न हों, बल्कि समाज को समता, मानवता, सम्मान व मानवीय गरिमा के साथ तार्किकता और बौद्धिकता के साथ जीवन जीने का रास्ता दिखाए!’
मोदी राज में ब्राह्मण-सवर्ण बर्बरता की बाढ़
बहरहाल मोदी के अघोषित हिन्दू राज में ब्राह्मण-सवर्ण बर्बरता की बाढ़ आई हुई है, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं का जीवन नरक बनता जा रहा है। जिस ब्राह्मण-सवर्ण बर्बरता से राष्ट्र त्रस्त है, उसका संपर्क हिन्दू धर्म से है, जिसे मोदी राज में बढ़ावा मिल रहा है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी मशहूर रचना जाति का विनाश में कहा है, ’ऐसा नहीं कि जो हिन्दू दलित- वंचितों पर अत्यचार करते हैं, वे मानसिक रूप से बर्बर और क्रूर हैं। नहीं, वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनका धर्म इसकी शिक्षा और प्रेरणा देता है। यह हिन्दू धर्म निर्मित सोच है, जिसके चलते मोदी की राज्य में एक दलित द्वारा दुकानदार के बच्चे को स्नेह से बेटा कहे जाने पर उसे जान से मार दिया जाता है। हिन्दू धर्म निर्मित यही सोच 23 जून को ओडिशा के गंजाम के गौरक्षकों में प्रभावी रही। इसी सोच ने इटावा में ब्राह्मणों को यादव जैसी प्रभावशाली जाति के कथावाचकों की चोटी काटकर उनपर ब्राह्मणी का मूत छिड़कने के लिए प्रेरित करती है।
इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान द हिन्दू की एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के सीहोर में दो मुसलमानों को पहले निर्मम तरीके से पीटा गया, उसके बाद उन्हें गाय माता का गूह खाने के लिए मजबूर किया गया। बहरहाल, जब-जब हिन्दू धर्म निर्मित सोच का कहर दलित- बहुजनों पर टूटता है, बहुजन बुद्धिजीवी फुले, पेरियार ,आंबेडकर की राह पर चलते हुए धार्मिक पाखंड और अन्धविश्वास से दूर रहने का उपदेश करते हैं। बहुत हुआ तो हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध, मुसलमान, ईसाई बन जाने का सुझाव देते हैं। वे जिनको उपदेश करते हैं वे दुनिया के सर्वाधिक वंचित होते हैं, जिनके जीवन में आर्थिक, शैक्षिक खुशहाली का निहायत ही अभाव है। वे इनको उपदेश करते समय यह भूल जाते हैं कि ऐसे लोगों का एकमेव सहारा ईश्वर होता है और वे ईश्वर के कृपालाभ के चक्कर में ही हिन्दू पण्डे-पुजारियों के शरणागत होते हैं।
इस क्रम में ही उन्हें हिन्दू धर्म के एकाधिकारी वर्ग (ब्राह्मणों) के शोषण और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। बहुजन बुद्धिजीवियों का हिन्दू धर्म से दूरी बनाने का उपदेश, ब्राह्मणों का धार्मिक सेक्टर में एकाधिकार और मजबूत करता है। ऐसे लोग ब्राह्माणों का एकाधिकार ध्वस्त करने का एजेंडा स्थिर नहीं करते। जबकि यह देखते हुए कि लाचार बहुजन अपने जीवन में चमत्कारिक बदलाव के लिए देवालयों का रुख करते रहेंगे, उन्हें धार्मिक सेक्टर में एकाधिकार जमाये ब्राह्मणों के एकाधिकार के ध्वंस के एजेंडे पर काम करना चाहिए था। पर, ऐसा न कर वे ब्राह्मणवाद जैसे अमूर्त मुद्दे के खात्मे में अपनी ऊर्जा ख़त्म करते रहे और ब्राह्मणशाही बरक़रार रही। इस मामले में बहुजन बुद्धिजीवियों ने दो भूलें की। पहली, उन्होंने वर्ण-धर्माधारित हिन्दू धर्म का अर्थशास्त्र समझने का प्रयास नहीं किया और दूसरा, जाति का विनाश में बाबा साहेब डॉ आंबेडकर द्वारा सुझाये गए ब्राह्मणशाही के खात्मे के उपाय का पूरी तरह अनदेखी कर दिया।
हिन्दू धर्म : शक्ति के स्रोतों के बंटवारे का धर्म
विदेशागत आर्यों द्वारा प्रवर्तित वर्ण- व्यवस्था मूलतः शक्ति के स्रोतों–आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक–के बंटवारे की व्यवस्था रही है। इसमें शक्ति के समस्त स्रोत बहुत ही सुपरिकल्पित रूप से चिरकाल के लिए सिर्फ कथित हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से जन्मे ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित किए गए, जबकि उसी भगवान के जघन्य अंग: पैर से जन्मे शुद्रातिशूद्रों को शक्ति के स्रोतों में एक कतरा भी नहीं दिया गया। इनके लिए वितरित हुई सिर्फ तीन उच्च वर्णों की सेवा और वह भी पारिश्रमिक रहित।
वर्ण-व्यवस्था के इस वितरणवादी अर्थशास्त्र के कारण दैविक-सर्वस्वहारा में तब्दील दलित-पिछड़े और महिलाओं के लिए अध्ययन-अध्यापन, सैन्य-वृत्ति, व्यवसाय- वाणिज्यादि, राजनीतिक कर्म अधर्म व दंडनीय अपराध घोषित रहे। किन्तु सर्वाधिक अधर्म व दंडनीय घोषित रहीं धार्मिक गतिविधियां। सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए आध्यात्मानुशीलन इनके लिए पूरी तरह अधर्म व दंडनीय अपराध घोषित रहा। मोक्ष के लिए शुद्रातिशूद्रों के लिए निर्दिष्ट रहीं सिर्फ तीन उच्चतर वर्णों की निष्काम सेवा। वह भी पारिश्रमिक रहित। वहीं आधी आबादी के लिए मोक्ष संधान का निर्देश सिर्फ पति-चरणों में ढूँढने के लिए दिया गया। मानव जाति के समग्र इतिहास में धरती की छाती पर ऐसा कोई समाज वजूद में नहीं आया,जिसमें शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं से युक्त प्रायः 93 प्रतिशत आबादी को ही पूजा-पाठ से महरूम कर ईश्वर कृपालाभ से वंचित किया गया हो। इनमें सबसे शोचनीय स्थिति अछूतों की रही, जिनके लिए मंदिरों में घुस कर ईश्वर के समक्ष अपने दुख-मोचन के लिए पूजा-प्रार्थना करने का रत्ती भर भी अवसर नहीं रहा।
धार्मिक सेक्टर में एकाधिकार के चलते: ब्राह्मणशाही का उभार
बहुजन बुद्धिजीवियों ने इस बात की भी बुरी तरह अनदेखी किया कि डॉ. आंबेडकर के शब्दों में धर्म भी शक्ति का स्रोत है, जिसकी अहमियत आर्थिक शक्ति से जरा भी कम नहीं है। भारत मे बहुत सुपरिकल्पित रूप से आर्थिक शक्ति के बराबर ही धर्म की शक्ति के भोग का अधिकार भी उच्च वर्णों में सबके लिए नहीं, सिर्फ ब्राह्मणों के लिए आरक्षित रहा। ब्राह्मण ही पंडे-पुरोहित बनकर इसके समस्त सुफल का भोग करते रहे। उच्च वर्ण में शामिल क्षत्रिय और वैश्य मोक्ष के लिए पूजा-पाठ तो कर सकते थे, किन्तु ब्राह्मणों की तरह पंडे-पुरोहित (डिवाइन- ब्रोकर) बनकर गगन-स्पर्शी सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ मठ-मंदिरों की अकूत संपदा का भोग नहीं कर सकते थे।
इस्लाम-ईसाई इत्यादि अन्य संगठित धर्मों में कोई भी पौरोहित्य का कोर्स करके मौलवी, फादर बन सकता था, पर हिन्दू धर्म में जन्मसूत्र से यह अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को मिला। अब्राह्मण पूरी तरह अनधिकृत रहे! ध्यान रहे पुरोहितों की स्थिति भक्त और भगवान के बीच मध्यस्थ/दलाल की होती है। इसी स्थिति के कारण पूरी दुनिया में पंडे-पुरोहित, मौलवी और पादरियों की स्थिति ईश्वर- कृपा लाभ के आकांक्षी लोगों के लिए पूज्य हो गई। पौरोहित्य के एकाधिकार के कारण ही ब्राह्मण खुद को भूदेवता घोषित कर दिए और शुद्रातिशूद्र और महिलाएं ही नहीं, क्षत्रिय-वैश्य समुदायों में जन्मे बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार और उद्योगपति तक उनके चरणों लोटने के लिए अभिशप्त रहे।
पौरोहित्य के एकाधिकार से ब्राह्मण इतने शक्तिशाली हो गए कि सत्तर वर्ष के क्षत्रियों तक को दस वर्ष के ब्राह्मण बालक के समक्ष सिर झुकाने के लिए बाध्य होना पड़ा। आर्थिक शक्ति के समतुल्य शक्तिसम्पन्न मंदिरों में पुरोहित वर्ग के एकाधिकार के कारण भारत में ब्राह्मणशाही का उभार हुआ, जिसमें मध्य युग के यूरोप की पोपशाही की भांति ब्राह्मण भारतीय समाज के सुपर पावर बन गए। लेकिन मध्ययुग के पोपशाही के प्रभाव से यूरोप कब का मुक्त हो चुका है पर, भारत में ब्राह्मणशाही अतीत की भांति आज भी प्रबल-प्रताप के साथ क्रियाशील है, खासकर मोदी राज में तो अभूतपूर्व तरीके से प्रभावी है।
भाजपा राज और असरदार हुई : ब्राह्मणशाही
वैसे तो हजारों साल से ब्राह्मण खुद की छवि भूदेवता के रूप में स्थापित सदियों से हिन्दू समाज पर शासन करते रहे,लेकिन भाजपा राज में उनके प्रभाव की कोई सीमा नहीं है। इटावा कांड के बाद इसके कारणों की तफ्तीश करते हुए चर्चित लेखक डॉ. सिद्धार्थ रामू लिखते है,’बाभन-ठाकुर इतने मनबढ़ हो गए हैं कि यूपी की सबसे ताकतवर पिछड़ी जाति (यादव) के व्यक्ति के भगवत कथा कहने पर नाक रगड़वा सकते हैं। जबरदस्ती बाल छिल सकते है, बाभनी के मूत से उसको पवित्र कर सकते हैं – मनबढ़ई का यह नए उभार का स्रोत क्या है?’ स्रोत संधान करते हुए कहते हैं, ’द्विज-सवर्ण दर्शन, विचारधारा, आदर्शों और जीवन-मूल्यों के लोगो का भारत की केन्द्रीय और प्रांतीय सत्ताओं पर कब्ज़ा। संविधान, कानून, संवैधानिक संस्थाओं, मीडिया, पुलिस और अन्य एजेंसियों पर उनका करीब-करीब समग्र नियंत्रण। बहुजन-दलित समुदाय की कहे जाने वाले नेताओं का भाजपा में शामिल होकर उनके दर्शन, विचारधारा और आदर्शों-जीवन मूल्यों के लिए काम करना। भाजपा से बाहर के बहुजन–दलित पार्टियों और नेताओं के एक बड़े हिस्से का भाजपा का सहयोगी बन जाना।
’डॉ. सिद्धार्थ ने ब्राह्मण-सवर्णों के मनबढ़ई का स्रोत भाजपा को ही चिन्हित किया है। दूसरे लोगों की राय भी इससे बहुत भिन्न नहीं नहीं। खुद अखिलेश यादव ने इटावा ब्राह्मणों के मनबढ़ई पर सवाल उठाते कहा है,’आखिर ये लोग इतनी ताकत कहाँ से पा रहे हैं? इस तरह की मनोवृति को भाजपा का संरक्षण मिलता रहा है। इस लोगों को लगता है कि कुछ भी करें तो सरकार बचा ही लेगी।‘ जाहिर है कि भाजपा शासन में ब्राह्मणशाही शिखर पर पहुँच गई है।और यदि संघ का शिशु संगठन भाजपा हिन्दू राष्ट्र की घोषणा के साथ एक बार और केन्द्रीय सत्ता में आ जाती है तो ब्राह्मणशाही पूरी तरह नियंत्रण के बाहर हो जायेगी। ऐसे में ब्राह्मणशाही का खात्मा वर्तमान की सबसे बड़ी जरुरत बन गई है। यदि इसका खात्मा नहीं किया गया तो दलित, आदिवासी, पिछड़ों, अल्पसंख्यको और आधी आबादी का जीवन इस तरह नारकीय हो जायेगा, जिससे उबरने के लिए देश को किसी दैवीय चमत्कार पर निर्भर होना पड़ जायेगा। मानवीय प्रयास द्वारा प्रतिकार असंभव हो जायेगा। ऐसे में समय की मांग को देखते यदि राष्ट्र इस पर धावा बोलने का मन बनता है तो इसके खात्मे के सूत्र के लिए ज्यादा भटकने की जरुरत नहीं पड़ेगी। आज से प्रायः नौ पूर्व दशक स्वयं बाबा साहेब आंबेडकर खुद इसके खात्मे का सटीक सूत्र दे गए हैं।
ब्राहमणशाही के खात्मे पर डॉ. आंबेडकर का सुझाव
डॉ. आंबेडकर ने 1935 में अपनी सर्वोत्तम रचना जाति का विनाश में ब्राह्मणशाही के खात्मे का उपाय सुझाते हुए कहा था, ’हिंदुओं में पुरोहिती के पेशे को अच्छा हो कि समाप्त ही कर दिया जाए, लेकिन यह असंभव प्रतीत होता है। अतः आवश्यक है कि इसे कम से कम वंश-परंपरा से न रहने दिया जाए। कानून के द्वारा ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि वही व्यक्ति पुरोहिताई कर सकेगा, जो राज्य द्वारा निर्धारित परीक्षा पास कर ले। गैर-सनद प्राप्त पुरोहितों द्वारा कराए गए कर्मकांड कानून की दृष्टि में अमान्य होने चाहिए और बिना लाइसेंस पुरोहिताई करना अपराध माना जाना चाहिए।
पुरोहित राज्य का कर्मचारी होना चाहिए और उस पर राज्य का अनुशासन लागू होना चाहिए। आईसीएस अधिकारियों की तरह पुरोहितों की संख्या भी राज्य द्वारा निर्धारित होनी चाहिए। भारत में सभी व्यवसाय विनियर्मित हैं। डॉक्टरों, इंजीनियरों व वकीलों को अपना पेशा आरंभ करने के पहले अपने विषय में दक्षता प्राप्त करनी पड़ती है। इन लोगों को अपने जीवन में न केवल देश के नागरिक व अन्य कानूनों के प्रति पाबंद रहना पड़ता है, वरन अपने विशिष्ट नियम व नैतिकता का पालन भी करना पड़ता है…. हिंदुओं का पुरोहित वर्ग न किसी कानून की बंदिश में है न किसी नैतिकता में बंधा हुआ है। वह केवल अधिकार व सुविधाओं को पहचानता है, कर्तव्य शब्द की उसे कोई कल्पना ही नहीं। वह एक ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है। अतः इस पुरोहित वर्ग को मेरे द्वारा सुझाई गई नीति से कानून बनाकर नियंत्रित किए जाना आवश्यक है। कानून द्वारा इस पेशे का द्वार सबके लिए खोलकर इसे प्रजातान्त्रिक रूप प्रदान कर देगा। ऐसे कानून से निश्चय ही ब्राह्मणशाही समाप्त हो जाएगी। इससे जातिवाद, जो ब्राह्मणवाद की उपज है, समाप्त करने में सहायता मिलेगी।‘
ब्राह्मणशाही के खिलाफ राज्य सरकारों का धावा
भारी संतोष का विषय है कि हाल के वर्षों में बाबा साहेब के सूत्र का अनुसरण करते हुए कई राज्य सरकारें इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाई हैं। 2019 के सितंबर में आंध्र प्रदेश की जगनमोहन रेड्डी सरकार ने मंदिरों में पिछड़ा वर्ग , अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को 50 प्रतिशत और महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया। इसके तहत अब वहां हर बोर्ड ऑफ ट्रस्टी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिए नामित सदस्यों की कुल संख्या (पदेन सदस्यों को छोड़कार) में मे 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई है। इसके अतिरिक्त कुल मनोनीत सदस्यों में से 50 फीसदी महिलाएँ हो गई हैं, जिनमें एससी,एसटी, ओबीसी 50 प्रतिशत कोटे के तहत नामित महिला सदस्य शामिल है।
सन 2019 में अगर आंध्र प्रदेश के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी में वंचित जाति के स्त्री-पुरुषों के लिए आरक्षण लागू हुआ तो 2021 में तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने 36,000 मंदिरों के अर्चक (पुजारियों) की नियुक्ति में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को आरक्षण देने का फैसला करके क्रांति ही कर दिया। तमिलनाडु सरकार के उस निर्णय के पीछे केरल सरकार से मिली प्रेरणा बताया गया था, जहां सदियों की पुरानी परम्परा को तोड़ते हुए वहां की सरकार ने 2017 में मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में गैर-ब्राह्मणों को आरक्षण देने का विरल दृष्टांत स्थापित किया। आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु की भांति राजस्थान की गहलोत सरकार ने भी पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण लागू करने की मिसाल कायम किया। ये चंद दृष्टांत बताते हैं कि यदि अवाम में इच्छाशक्ति हो तो मंदिरों के प्रबंधन से लेकर पुजारियों की नियुक्ति तक में आरक्षण लागू हो सकता है।
इससे कम से कम हिन्दी पट्टी के अखिलेश और तेजस्वी को जरूर प्रेरणा लेते हुए धार्मिक सेक्टर में अवसरों के पुनर्वितरण को मुद्दा बनाने में आगे आना चाहिए। यदि मंदिरों के ट्रस्टी बोर्ड और पुजारियों की नियुक्ति में ठीक से विविधता नीति लागू हो जाय तो धार्मिक सेक्टर में ब्राह्मणों का 100 प्रतिशत वर्चस्व 3-4 प्रतिशत तक सिमित हो जायेगा. इससे शर्तिया तौर पर ब्राह्मणशाही का खात्मा हो जायेगा।