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छतीसगढ़ शिक्षा विभाग : सरकार की गति कुछ और भविष्य की दिशा कोई और

छत्तीसगढ़ में भाजपा शासन में 4077 विद्यालय बंद किए जा चुके हैं। सरकार शिक्षा के स्तर सुधारने और नई भर्ती करने की बजाए उसे बिगाड़ने का काम कर गाँव के बच्चों को पढ़ाई से वंचित करने की व्यवस्था बना रही है। सदैव से भाजपा की यही रणनीति रही है कि शिक्षा एक खास वर्ग ही हासिल कर पाए। भाजपाशासित प्रदेशों में शिक्षा और शिक्षा नीति में लगातार बदलाव कर तर्क सम्मत पाठ्यक्रमों को हटाकार धार्मिक विषयों को शामिल करने की होड़ लगी है।

छत्तीसगढ़ में स्कूली छात्रों के लिए नया शैक्षणिक सत्र 16 जून से शुरू होने जा रहा है। इस सत्र के शुरू होने से पहले ही स्कूली शिक्षा की बदहाली का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 3000 से ज्यादा स्कूलों में प्राचार्य नहीं है और शिक्षकों के 5442 पद, सहायक शिक्षकों के 33178 पद और व्याख्याताओं के 4623 पद रिक्त हैं। सरकार द्वारा संचालित 56333 स्कूलों में से 260 से अधिक स्कूल शिक्षक विहीन है, जबकि 7127 स्कूलों में एक ही शिक्षक है और 3978 प्राइमरी, मिडिल, हाई और हायर सेकंडरी स्कूल एक ही परिसर में संचालित हो रहे हैं। पिछले वर्ष के आंकड़ों से तुलना करें, तो इन सभी आंकड़ों में वृद्धि हुई है, केवल शिक्षक विहीन स्कूलों की संख्या में सिर्फ 40 की गिरावट आई है। पिछले वर्ष शिक्षक विहीन स्कूलों की संख्या 300 थी।
संविधान सरकार को निर्देशित करता है कि स्कूली उम्र के हर बच्चे के लिए उसके रहवास वाले इलाके में शिक्षा का प्रबंध करो। यदि इस निर्देश का पालन करना है, तो नए स्कूल भवनों का निर्माण करना और शिक्षकों के 43243 खाली पदों को भरना किसी भी सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए। लेकिन नई शिक्षा नीति के नाम पर शिक्षा का निजीकरण और भगवाकरण करने वाली भाजपा सरकार के एजेंडे में यह प्राथमिकता में कैसे हो सकती है? यहां तो जो शिक्षक हर साल सेवा निवृत्त हो रहे हैं, उन पदों को पूरी खामोशी से खत्म किया जा रहा है।
शिक्षा का अधिकार कानून के अनुसार, प्राइमरी स्कूलों में 60 छात्रों तक दो सहायक शिक्षक तथा प्रत्येक 30 अतिरिक्त छात्रों पर 1 अतिरिक्त सहायक शिक्षक का प्रावधान है। इसी प्रकार, मिडिल स्कूलों में 105 छात्रों तक 3 शिक्षक तथा प्रत्येक 35 छात्रों पर एक अतिरिक्त शिक्षक का प्रावधान है। नए स्कूल भवन बनाने, पुरानों का जीर्णोद्धार करने और शिक्षकों की भर्ती करने के बजाय भाजपा सरकार द्वारा युक्तियुक्तकरण के नाम पर स्कूलों को बंद करने और शिक्षकों का तबादला करने का अभियान चलाया जा रहा है। युक्तियुक्तकरण भाजपा का प्रिय शगल है, जो हर वर्ष शिक्षा सत्र शुरू होने से पहले वह करती है। दरअसल यह स्कूली शिक्षा की वास्तविक चुनौतियों से आंख मूंदने का तरीका है। भाजपा सरकार की इस मुहिम का प्रदेश के सभी शिक्षक संगठन कड़ा विरोध कर रहे हैं।
युक्तियुक्तकरण का अर्थ है कि जिन स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक हैं, वहां से उन्हें हटाकर उन स्कूलों में भेजा जाएं, जहां मानदंडों से कम शिक्षक है, विशेषकर शिक्षक विहीन और एकल शिक्षक स्कूलों में। इस प्रक्रिया में जिन स्कूलों की पढ़ाई संतोषजनक है, वहां की गुणवत्ता का भी प्रभावित होना तय है। युक्तियुक्तकरण का पिछले वर्षों का अनुभव भी यही कहता है कि इससे स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। शिक्षक संगठनों का आरोप है कि युक्तियुक्तकरण के नाम से हर स्कूल से एक शिक्षक को हटाया जा रहा है और 1762 शिक्षकों को अतिशेष बताया जा रहा है। इसके बाद भी 5536 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होगी।
पिछले भाजपा राज में भी युक्तियुक्तकरण के नाम पर 2000 से भी ज्यादा स्कूल बंद कर दिए गए थे। लगभग सभी ग्रामीण क्षेत्रों में थे और इसका शिकार वे हजारों ग्रामीण बच्चे हुए, जो दूसरे स्कूलों की गांव से ज्यादा दूरी होने के कारण और छात्राएं लैंगिक भेदभाव के कारण, शिक्षा क्षेत्र से बाहर हो गए। अब भाजपा के नए ‘सायं-सायं’ राज में भी पिछले वर्ष 4077 स्कूल बंद किए जा चुके है और इस शिक्षा सत्र में और 2000 स्कूलों को बंद करने की तैयारी है। बताया जा रहा है कि इन स्कूलों में विद्यार्थियों की दर्ज संख्या 10 से कम है। इस प्रकार, इस शिक्षा सत्र में और 10-15 हजार बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर कर दिए जायेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि लगभग सभी बच्चे ग्रामीण क्षेत्र के, आदिवासी इलाकों के और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे ही होंगे। इसके साथ ही, एक ‘तबादला उद्योग’ खोलकर बड़े पैमाने पर शिक्षकों को इधर से उधर किया जा रहा है।
पूर्ववर्ती कांग्रेस राज में प्रदेश के हर ब्लॉक में उत्कृष्ट शिक्षा केंद्र स्थापित करने के उद्देश्य से स्वामी आत्मानंद स्कूलों के नाम पर एक नवाचार किया गया था, जिसने निजी स्कूलों का विकल्प गढ़ने की कोशिश की थी। इन स्कूलों की ओर आम जनता बड़े पैमाने पर आकर्षित हुई थी। लेकिन भाजपा कभी भी इन स्कूलों के पक्ष में नहीं रही। अब भाजपा के सत्ता में आने के बाद उत्कृष्ट शिक्षा के ये केंद्र धीरे-धीरे और अघोषित रूप से अपनी मौत मरने के लिए बाध्य हैं। इन स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों का संकट पैदा कर दिया गया है, इसके साथ ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का निर्माण करने वाले साधनों का अभाव पैदा किया जा रहा है।
प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कहने के लिए तो बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जा रही है, लेकिन पहली से पांचवीं तक के बच्चों को निजी प्रकाशकों द्वारा मुद्रित औसतन 1000 रूपये की पाठ्येत्तर पुस्तकें खरीदवाई जा रही है। इन पुस्तकों की गुणवत्ता भी शोचनीय है। हर सरकारी स्कूल द्वारा अलग-अलग निजी प्रकाशकों की पुस्तकें चलाना उसी प्रकार के भ्रष्टाचार का संकेत है, जो निजी स्कूलों का हिस्सा है। केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अनुसार, छत्तीसगढ़ में औसत मासिक खर्च ग्रामीण इलाकों में 2739 रुपए तथा शहरी इलाकों में 4927 रुपए है, जो देश में सबसे कम है। यहां पालकों पर पड़ने वाले इस अवहनीय बोझ और इसके कारण शिक्षा क्षेत्र से बाहर होने वाले/रह जाने वाले छात्रों की कल्पना आसानी से की जा सकती है।
‘असर’ (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) की पिछले साल की रिपोर्ट स्कूली बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता को रेखांकित करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले पांचवीं कक्षा के केवल 52.7% बच्चे ही कक्षा-2 के स्तर का पाठ पढ़ पाते हैं, 22.8% बच्चे ही भाग की क्रिया कर सकते हैं तथा केवल 11.3% बच्चे ही अंग्रेजी का वाक्य पढ़ सकते हैं। पांचवीं के बच्चों का यह हाल है, तो निचली कक्षाओं के बच्चों की हालत समझ सकते है। बच्चों की इस दयनीय शैक्षणिक स्तर का सीधा संबंध स्कूली शिक्षा की बदहाली से है। ‘असर’ की यही रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में 15 साल उम्र तक के 13.6% बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। ये बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर क्यों है, इस पर कभी भी भाजपा की सरकारों ने मंथन नहीं किया।
युक्तियुक्तकरण का एक दूसरा पहलू भी है और वह यह है कि जितने सरकारी स्कूल बंद होंगे, शिक्षा के निजीकरण के दरवाजे भी उतने ही चौड़े होंगे। एक सर्वे के अनुसार, पिछले 10 सालों में बंद हुए स्कूलों की जगह सरस्वती शिशु मन्दिर जैसे आरएसएस-संचालित स्कूल उग आए हैं, जो शिक्षा का भगवाकरण करने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं। ये स्कूल पाठ्यक्रम से बाहर ऐसी पुस्तकों को चला रहे है, जो नितांत अवैज्ञानिक दृष्टिकोण और हिंदुत्व की अवधारणा पर तैयार की गई है और बच्चों को एक सांप्रदायिक नागरिक बनाने का काम करती है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही, पिछले 10 सालों में 2000 से अधिक निजी स्कूल खुले है, जिनके फीस के ढांचे और पाठ्य सामग्री पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।
आज नई शिक्षा नीति और शिक्षा के भगवाकरण का चोली-दामन का संबंध है और भाजपा सरकार द्वारा चलाया जा रहा युक्तियुक्तकरण का अभियान शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण के अभियान का ही हिस्सा है। इसलिए असली लड़ाई नई शिक्षा नीति के नाम पर लागू की जा रही निजीकरण और भगवाकरण की उस नीति के खिलाफ है, जो पूरे देश के शैक्षणिक जगत को अवैज्ञानिक सोच और अज्ञान के अंधकार में डुबो देना चाहती है और ऐसे मस्तिष्क का निर्माण करना चाहती है, जो अपनी अज्ञानता पर गर्व करे। यह नीति वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली का निर्माण करने और एक वैज्ञानिक-धर्मनिरपेक्ष समाज की रचना करने के संविधान के निर्देश के ही खिलाफ है। इसलिए शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण के खिलाफ लड़ाई वस्तुतः संविधान को बचाने की लड़ाई है। पूरे देश के साथ छत्तीसगढ़ को भी यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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