राजनीति में दूर से सब कुछ बहुत साफ-शफ़्फ़ाफ दिखता भले है पर वास्तव में वैसा होता नहीं है। राजनीति की राह में तमाम दुरभिसंधियाँ हैं जिनको हर नेता आसानी से पार नहीं कर पाता। समय के डिजिटलीकरण और बढ़ते सोशल मीडिया के प्रभाव के साथ, राजनीति का ग्लैमर भी जन सामान्य के बीच बढ़ता जा रहा है। पिछले बीस सालों में राजनीति में तेजी से बदलाव आया है। पहले नेता, जनता के बीच अपनी विनम्रता को अपनी ताकत बनाते थे पर आजकल के नए नेता दबंगई और बैभव के प्रदर्शन को अपनी ताकत बनाते दिखते हैं। इस दबंगई को स्थापित करने और उसके रुतबे को हासिल करने के लिए छोटे से बड़ा हर नेता अपनी अपनी तरह से मेहनत करता दिखता है। इस ताकत को अहम बनाने और जनता के बीच अपनी स्वीकृति बढ़ाने के लिए छोटे नेताओं की जरूरत होती है की वह अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता से मिलें, उनके साथ कुछ मौकों पर दिखें ताकि उनके कार्यकर्त्ता भी विश्वास कर सके हैं कि उनके नेता जी के होने का कुछ तो मतलब है।
अपने इसी होने की अर्थवत्ता साबित करने के लिए नेता बार-बार पार्टी मुख्यालय का चक्कर लगाते हैं। अपनी ही पार्टी के मुखिया से मिलने के लिए तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। इतने सब के बावजूद भी नेता जी से मुलाक़ात न हो पाये तो यकीनन दिल टूटे भले ही ना पर टीसता जरूर है। इस टीस की एक बानगी हमें भी तब देखने को मिली जब लखनऊ के एक नेता जी का खुला पत्र व्हाटसअप पर मिला गया। यह पत्र समाजवादी पार्टी के एक कार्यकर्त्ता नें अखिलेश यादव के लिए लिखा है । हम पत्र में कार्यकर्त्ता का नाम नहीं छाप रहे हैं। कार्यकर्त्ता को इस बात का डर भी है कि अभी तो मन में बस ना मिल पाने का ही मलाल है, नाम आ गया तो कहीं ऐसा ना हो कि पार्टी की सदस्यता से भी बेदखल कर दिया जाऊँ ।
पहले पत्र पढ़ लीजिये
“प्रिय भैया जी
आज वाराणसी से आपकी पार्टी के दो वरिष्ठ नेता, जिसमें एक महिला भी थीं, सुबह ही वाराणसी से चलकर सुबह १० बजे आपके कार्यालय आपसे मिलने पहुँचे और चार घंटे इंतज़ार के बाद भी आपसे मुलाक़ात ना हो सकीं तो मेरे घर आयें और ख़ाना खा कर गये और उन्हीं लोगों से मुझे यह जानकारी हुई तो मैं यह लिख रहा हूँ । वे लोग बहुत निराश और हताश थे और कह रहे थे कि कैसे किसी को जोड़ने के लिए और राष्ट्रीय अध्यक्ष से मिलाने के लिए ले आयें जब हम ख़ुद ही नहीं मिल पातें है ।धक्का खा कर तो मिलेंगे नहीं और जब भीड़ में धक्का खाकर मिलते है तो राष्ट्रीय अध्यक्ष जी कहते है कि आप पार्टी के वरिष्ठ नेता है और धक्के खाकर मत मिला करिये । समझ में नहीं आता कैसे मिलूँ ।आपकी सिक्योरिटी के बात- व्यवहार से भी नाराज़ थे ।महिला तो यह भी बोली कि जैसा व्यवहार सिक्योरिटी वाला कर रहा था वैसा अगर मेरा पति कर दे तो उसे ख़ाना ना दूँ । वह लोग आपके वफ़ादार है और हमेशा आपके ही है । मिलने की कोई ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है कि कोई बिना मिले ना जाये, आपकी पार्टी के वरिष्ठ नेता तो कैसे भी नहीं । पार्टी कार्यालय पर ऐसी व्यवस्था और अनुशासन बनाने की ज़रूरत है ।बाक़ी आप ख़ुद समझदार है ।”
बात यहाँ खत्म नहीं होती
यह चिट्ठी एक सच्चे समर्थक की पाती है, जिनकी अगाध श्रद्धा अपने नेता जी में है। यह कार्यकर्ता किसी भी पार्टी की ताकत होते हैं । यह पार्टी से लेते बहुत कम हैं पर देते बहुत ज्यादा हैं, पर अफशोस की इन ईमानदार नेताओं के लिए किसी भी राजनीतिक पार्टी के पास कोई ऐसा कारीडोर नहीं दिखता जिसके माध्यम से वह अपने मुखिया से मुखातिब हो सके, थोड़े से दुख दर्द सुना ले और हो सकता है की कोई चमत्कारी सुझाव ही दे दें। बड़े नेता की अपेक्षा छोटे और जमीनी नेताओं के पास जुमला और मुँह सुहाती भाषा कम होती है। वह अक्सर किसी लावे की सी ख्हड़बदाहट लेकर ही अपने मुखिया तक आते हैं।
फिलहाल यहाँ बात सपा सुप्रीमों अखिलेश यादव की हो रही है। वह लगभग सात साल से सत्ता से बाहर हैं बावजूद उनके पास समर्पित समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा मौजूद हैं। यह समर्पण ही किसी पार्टी की ताकत होता है। ट्विटर(अब X ) पर सांड़ की फोटो डाल देने से सत्ता में पुनर्वापसी नहीं हो सकती बल्कि सत्ता की सीढ़ी तो यह कार्यकर्ता ही बनेंगे जो लखनऊ में जाकर अपनी ही पार्टी के कार्यालय में धक्का खाते हैं, बेइज्जत महसूस करते हैं और अपने मुखिया से बिना मिले ही लौट आते हैं।
अखिलेश यादव जिस विरासत के मालिक बने हैं उसमें एक संघर्षशील पार्टी का इतिहास और समर्थक ही नहीं हैं बल्कि दिवंगत नेता मुलायम सिंह यादव के उस मिलनसार व्यक्तिव का भावितव्य भी है जिसके मुरीद आज भी तमाम क्षेत्रीय नेता हैं। जिस समय मुलायम सिंह यादव का निधन हुआ था, उस समय जिस तरह से उनके चाहने वालों ने उनके साथ अपने निजी संस्मरण शेयर किए थे वह स्वतन्त्रता बाद के किसी और नेता के हिस्से में शायद ही आया हो। लोग कहते हैं कि हमें नेता जी नाम लेकर बुलाते थे। इस इतने से शब्द की त्वरा यह थी कि लोग जीवन भर के लिए समाजवादी पार्टी के होकर रह गए। समाजवादी पार्टी, आज जबकि लंबे समय से विपक्ष में है तब भी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव लोगो से वह भावनात्मक रिश्ता नहीं बना पा रहे हैं। पार्टी का कार्यकर्ता अपने ही प्रदेश कार्यालय में अपमानित महसूस कर रहा है तो यह कहीं न कहीं अखिलेश यादव और उनकी पार्टी के लिए अच्छा तो नहीं ही है। बाकी हम तो यह कह नहीं सकते की नेता जी कम से कम एक दिन अपने कार्यकर्ता से मिलने का दिन मुकर्रर कर दीजिये। यह सोचना तो पार्टी के शुभचिंतकों का काम है जो अध्यक्ष समाजवादी पार्टी को उनके ही समर्थकों से दूर रखे हुये हैं। 2024 और 2027 में यह जेब में रखने वाले शुभचिंतक नहीं बल्कि जमीन से जुड़े समर्थक ही सत्ता की खिचड़ी पका सकते है।