इंदौर। बैंकों का राष्ट्रीयकरण 54 वर्ष पूर्व 19 जुलाई, 1969 को हुआ था। तब से अब तक बैंकों की कार्यप्रणाली एवं नीतियों में बड़े बदलाव आए हैं। उदारीकरण की नीतियाँ अपनाने के बाद 1991 से ही बैंकों को आम लोगों के बजाय बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों की सुविधा और लाभ के लिहाज से बदला जा रहा था। पिछले कुछ वर्षों में बैंकों में जो बदलाव किये गए, वे न केवल कॉर्पोरेट क्षेत्र को खुलेआम मुनाफ़ा पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए हैं, बल्कि बैंकों को आमजन की लूट का एक औजार बना दिया गया है। नित नई सरकारी योजनाओं का बोझ बैंकों पर बढ़ाया गया है, लेकिन वहाँ नये कर्मचारियों की भर्ती ही नहीं की जा रही है। इससे बैंकों के आम उपभोक्ताओं और कर्मचारियों, दोनों पर ही दबाव बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। आज यह बहुत ज़रूरी है कि आम लोगों को बैंकों में आ रहे इन बदलावों को समझाया जाए और उन्हें जागरूक किया जाए।
ये विचार अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संगठन (एआईबीइए) के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव देवीदास तुलजापुरकर ने व्यक्त किए। वे संदर्भ केन्द्र द्वारा ‘बैंकिंग का बदलता स्वरूप और आमजन पर उसका असर’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि बैंकों ने ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की चार हज़ार से ज़्यादा शाखाओं को बंद कर दिया है। अब ग्रामीणों को बैंक की सुविधा हासिल करने के लिए दस, बीस, तीस या चालीस किलोमीटर तक जाना होता है। बैंकों से सबको जोड़ने और बैंकिंग का डिजिटलाइजेशन करने के मकसद से पचास करोड़ जन-धन खाते खोल दिए गए हैं। मनरेगा की मज़दूरी का पैसा भी लोगों के बैंकों में सीधा आता है, लेकिन गाँवों में बैंक शाखाएँ बंद कर देने से लोगों की परेशानियाँ कम होने के बजाय बढ़ गयी हैं। राष्ट्रीयकृत बैंकों से आम लोगों को जो कर्ज सात प्रतिशत या उससे भी कम पर मिल जाता था अब उन्हें माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के चंगुल में फँसकर 24 से 40 प्रतिशत तक ब्याज देना पड़ रहा है।
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उन्होंने कहा कि बैंकों का विलय कर दिए जाने से सार्वजनिक क्षेत्र की 27 बैंक घटकर अब मात्र 12 ही रह गए हैं। सरकार ने ग्रामीण अंचलों में कमीशन पर आधारित तीन लाख से ज़्यादा बैंक मित्र नियुक्त किए हैं, जो ग्रामीणों को 10 हजार रुपये तक का ऋण देते हैं। इन बैंक मित्रों को न अच्छी तनख़्वाह मिलती है और न ही इन्हें स्थायी कर्मचारियों की तरह कोई सेवा-सुरक्षा या सुविधा ही हासिल है। इस व्यवस्था से दलाली, घूसखोरी बढ़ गई है।
अब बैंकें ग्रामीण इलाकों में ऋण वितरण नहीं करती। ऋण ले चुके किसान भी इस उम्मीद में कर्जा नहीं लौटाते कि सरकारें उसे माफ कर देगी। इसके चलते जरूरतमंद किसान साहूकारों के जाल में फंस कर ऊंचे ब्याज पर ऋण लेने पर विवश हो जाते हैं और उसे चुका पाने में असफल रहने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं। इस मामले में महाराष्ट्र का विदर्भ एवं मराठवाड़ा क्षेत्र सुर्खियों में रहा है। वर्ष 1991 से आर्थिक नीतियों में आए बदलाव का असर कृषि एवं ऋण व्यवस्था पर भी पड़ा है। एक ओर किसानों को उसकी उपज का न्यूनतम मूल्य नहीं मिलता, दूसरी ओर, सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली अंतर्गत मिलने वाले राशन को घटा दिया है। किसानों के लिए बनी अनुदान योजनाओं में भी अनुदान कृषि उद्योगों, विद्युत वितरण कंपनियों, कृषि उपयोग में आने वाले वाहन निर्माताओं को दिया जाता है। इस अनुदान का लाभ भी किसानों को नहीं मिलता। बदली हुई आर्थिक नीतियों के चलते ग्रामीण अंचलों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पहुंच 90 प्रतिशत से घटकर 70 प्रतिशत रह गई है, जिसका लाभ निजी बैंक और साहूकार उठा रहे हैं। देश बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पूर्व की स्थिति में पहुंच गया है।
उन्होंने कहा कि मुंबई और पुणे में ही जितना बैंक ऋण खेती के नाम पर बाँटा जाता है, उतना मराठवाड़ा और विदर्भ के क़रीब 20 ज़िलों को मिलकर भी नहीं दिया जाता। विडंबना यह है कि विदर्भ और मराठवाड़ा में तो वाक़ई खेती होती है जबकि मुंबई और पुणे में खेती बराबर होती है। इसकी वजह यह है कि धीरे-धीरे खेती के लिए ऋण की परिभाषा को ही बदल दिया गया है और बैंक का ऋण किसानों को न दिया जाकर अब बड़ी-बड़ी कंपनियों और कॉर्पोरेट को दिया जा रहा है।
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बैंक हर सेवा का शुल्क खातेदारों से वसूल रही हैं, चाहे ग्राहक उस सेवा का उपयोग भी न करता हो। देश में 200 करोड़ से अधिक बचत खाते हैं। इन खातेदारों को लेन-देन की सूचना देने के लिए एसएमएस सेवा के नाम पर बैंकें 90 रुपये प्रति वर्ष वसूलती हैं। अधिकांश खातेदारों को इस सेवा की ज़रूरत भी नहीं होती। बैंक मुनाफ़े में हैं, लेकिन उसका लाभ बचतकर्ताओं को नहीं मिलता। बैंक अब केवल मुनाफ़ा कमाने के लिए ही काम कर रही है, सामाजिक सरोकारों से वे दूर हो गई हैं। जिन बैंकों का निजीकरण नहीं किया गया है, उनकी सेवाएं निजी क्षेत्रों को सौंप दी गई है। ग्राहकों में सजगता और चेतना के अभाव के चलते सरकार मनमानी पर उतारू है।
गोष्ठी का संचालन करते हुए संदर्भ केन्द्र के विनीत तिवारी ने कहा कि क़रीब दस वर्ष पहले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में माइक्रो फाइनेंस के कारण अनेक लोग आत्महत्या के लिए विवश हुए हैं। बैंकें अब आम उपभोक्ता को ऋण न देकर माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को कम ब्याज पर ऋण दे रही हैं, जो आगे उपभोक्ताओं को अधिक ब्याज पर ऋण देती हैं।उपभोक्ताओं को इसी शोषणकारी व्यवस्था से बचाने के लिए ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। उन्होंने कहा कि बैंक व्यवस्था और आर्थिक नीतियों को समझने की जरूरत है।
अर्थशास्त्री जया मेहता ने कहा कि अमूमन रिजर्व बैंक और सरकार एक-दूसरे के खिलाफ रहती है। देश में दिया जा रहा मुद्रा ऋण राजनीतिक व्यवस्था है। यह कर्जा सरकार द्वारा अनुशंसित व्यक्तियों को ही दिया जाता है, जो इस वक़्त भाजपा के कृपापात्र कॉर्पोरेटों को दिया जा रहा है। इस ऋण का 10 लाख करोड़ रुपया डूब जाने का खतरा बना हुआ है।
बैंक अधिकारी संगठन के आलोक खरे के अनुसार, एप आधारित ऋण कंपनियां गैर कानूनी हैं और उनसे बचा जाना चाहिए। इन कंपनियों के सर्वर देश के बाहर रहते हैं इसलिए उन पर शिकंजा कसना आसान नहीं होता। चर्चा में गिरीश मालवीय, चुन्नीलाल वाधवानी, एमके शुक्ला, अरविन्द पोरवाल, अर्चिष्मान राजू, ईशान बनर्जी, सुनील चंद्रन, प्रमोद बागड़ी, अरविन्द पोरवाल, विजय दलाल, हेमंत मालवीय, अभय नेमा, अशोक दुबे, रामदेव सायडीवाल, सुभद्रा, अथर्व शिंत्रे, हरनाम सिंह, रविशंकर तिवारी, आदि ने भी शिरकत की।
सभा में मणिपुर में महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार पर सरकार के रवैये की निंदा करते हुए दोषियों को दंडित करने की माँग की गई। हिंसा में लिप्त दोनों समुदायों से वार्ता के माध्यम से शांति स्थापित करने के प्रयास का आग्रह किया गया। प्रस्ताव का वाचन सारिका श्रीवास्तव ने किया।
हरनाम सिंह, इंदौर से प्राप्त विज्ञप्ति के आधार पर।