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मिशन से भटकती वर्तमान पत्रकारिता की दशा और दिशा

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष समाचार पत्र और पत्रकार (मीडिया) समाज के दर्पण कहे जाते हैं। समाज को आज भी इनसे काफी उम्मीदें हैं। समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति न्याय की खातिर अपनी बात को शासन-सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति तक पहुंचाने में जब असमर्थ हो जाता है तो वह […]

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

समाचार पत्र और पत्रकार (मीडिया) समाज के दर्पण कहे जाते हैं। समाज को आज भी इनसे काफी उम्मीदें हैं। समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति न्याय की खातिर अपनी बात को शासन-सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति तक पहुंचाने में जब असमर्थ हो जाता है तो वह इस दर्पण रूपी समाचार पत्र और पत्रकार की शरण में आता है। वह इस खातिर कि मीडिया के माध्यम से उसकी आवाज को संबंधित व्यक्ति तक ज़रूर पहुंचाया जा सकता है। उसे विश्वास होता है, आखिरकार हो भी क्यों न, पत्रकारिता का इतिहास ही इतना गौरवमई है। अगर बात करें देश के आजादी या नौकरशाही के विरुद्ध बिगुल बजाने की तो ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब समाचार पत्रों और पत्रकारों ने समाज के शोषितों, पीड़ितों, गरीबों और मजलूमों की आवाज बनकर शासन-सत्ता से लेकर नौकरशाहों को आड़े हाथ लिया है। देश की आजादी में भी पत्रकारिता का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसको भुलाया नहीं जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन के महानायकों के साथ-साथ पत्रकारिता के महानायकों ने भी अपनी कलम रूपी तलवार से अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने का कार्य किया। तब जब संसाधनों का अभाव हुआ करता था, पत्रकारिता का अपना एक लक्ष्य और मिशन था। इस मिशन भरी पत्रकारिता में तमाम तरह की परेशानियां थीं, बावजूद इसके उस दौर की पत्रकारिता के महानायकों ने कलम की ताकत को कभी झुकने नहीं दिया था। उनकी कलम आग उगला करती थी।

कालांतर में व्यवस्थाएं बदलीं हैं, संसाधन बदले हैं तो पत्रकारिता की जिम्मेदारियां भी बढीं हैं। काफी कुछ बदलाव भी हुआ है। खासकर सोशल मीडिया के युग में प्रिंट मीडिया की महत्ता कहने को भले ही घटी है, लेकिन देखा जाए तो इसकी उपयोगिता नहीं घटी है, बल्कि जिम्मेदारियां बढ़ी हैं। इन्हीं के साथ आज की पत्र और पत्रकारिता के समक्ष कई गंभीर चुनौतियां भी सामने खड़ी हुईं हैं। इन चुनौतियों में से सबसे प्रमुख चुनौती पत्रकारिता में बढ़ते घुसपैठ की है। आज की ‘मिशन पत्रकारिता’ में ऐसे घुसपैठियों की एंट्री तेजी से हुई है, जिन्हें पत्रकारिता के उसूलों और सिद्धांतों से कोई लेना-देना या सरोकार नहीं है। यदि उन्हें कुछ सरोकार है तो सिर्फ अपने निजी स्वार्थों का, जिनके चलते पत्रकारिता की गरिमा दिनोंदिन धूल धूसरित होती जा रही है। जिस प्रकार से पत्रकारिता में घुसपैठियों की भरमार होती जा रही है, वह न केवल चिंतनीय है, बल्कि पत्रकारिता की गरिमा के विपरीत भी है। जिनके काले-कारनामों की वजह से पत्रकारिता की गरिमा को ठेस भी पहुंचा है। यदि गौर से देखा जाए तो इस अव्यवस्था के लिए कोई और नहीं बल्कि अपने लोग ही जिम्मेदार हैं। चंद पैसों की खातिर पत्रकारिता के उसूलों और सिद्धांतों को ताक पर रख मिशन को ‘कमीशन’ में परिवर्तित कर दुकानदारी चलाने वाले कुछेक लोगों ने इस क्षेत्र का माखौल उड़ाने का कार्य किया है। जिनकी करतूतों से कहीं न कहीं मिशन पत्रकारिता को जीवित रखने वाले उन महान मनीषियों की आत्मा को ठेस पहुंच रहा है, जिन्होंने अपने जीवन प्रयत्न पत्रकारिता को मिशन की भांति जीने का कार्य किया है।

अपने मिशन से भटक आज की पत्रकारिता कई गुटों में बंटी नज़र आती है। जिसने पत्रकारों को एकता के सूत्र में पिरोने की बजाय उन्हें भटकाव की राह पर ला खड़ा किया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि शौचालय से लेकर सचिवालय तक के लोग अपनों पर आने वाली आपदा-विपदा के दौरान न केवल एक साथ खड़े नज़र आते हैं, बल्कि डंके के साथ अपनी बातों को मनवाने में कामयाब भी होते हैं। लेकिन वही बात जब पत्र और पत्रकार की आती है तो यह अलग-अलग नज़र आते हैं। अपराधी से लेकर अधिकारी तक के प्रताड़ना से जूझते कलमकारों के समक्ष कई गंभीर चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं। बात करें यदि निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की, तो आज इनकी राह न केवल दुरूह हो चुकी है, बल्कि जोखिम के साथ काफी दुर्गम भी हो गई है। हाल के वर्षों में देश के कई राज्यों में पत्रकारों के ऊपर हुए हमले यह बताने के लिए काफी हैं कि वर्तमान पत्रकारिता की राह में अब रोड़े उत्पन्न किए जा रहे हैं। नौकरशाही जहां सत्यता से भरी पत्रकारिता को पचा नहीं पा रहा है तो वहीं अपराधी अपने कृत्यों को उजागर होने से रोकने के लिए पत्रकार के राह में रोड़ा बन रहा है। खासकर ग्रामीण पत्रकारों के समक्ष ऐसी तमाम चुनौतियां और परेशानियां उत्पन्न हुई हैं, जिनके बीच से गुजरते हुए उन्हें जोखिम भरी पत्रकारिता करनी पड़ रही है। बावजूद इसके शासन-सत्ता समाचार पत्र और पत्रकारों की सुरक्षा के प्रति गंभीर नहीं है, जो बेहद चिंतनीय विषय है।

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बुल्ली बाई प्रकरण: संवेदनाओं और मूल्यों की नीलामी

सरकार देश की हो या प्रदेश की, पत्रकारों के प्रति उसका रवैया उचित नहीं रहा है। सरकार जहाँ पत्रकारों के आवश्यकताओं की लगातार अनदेखी कर रही है तो वहीं उनके उत्पीड़न जैसे मामलों में त्वरित कार्रवाई के बजाय इनमें लचर नीति अपनाई जा रही है। पत्रकार लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है, लेकिन देखा जाए तो दिन-प्रतिदिन यह चौथा स्तंभ कमजोर होता जा रहा है। इसकी आवाज को दबाने का चक्र रचा जा रहा है। लोकतंत्र सेनानियों, सांसद, विधायकों की भांति पत्रकारों को यह मानदेय देने के साथ ही पत्रकार एक्ट का गठन, सरकार द्वारा पत्रकार आयोग बनाये जाने की मांग पत्रकारों के विभिन्न संगठन समय-समय पर करते आए हैं, ताकि उनके मान-सम्मान और अधिकार की व्यवस्था सुनिश्चित हो सके। कहने को तो पत्रकार भीड़ का हिस्सा नहीं हैं, देखा जाए तो भीड़ में पत्रकारों के साथ जिस प्रकार से सौतेला व्यवहार किया जाता है, उससे यह समाज अपने आप को सर्वाधिक उपेक्षित लोगों में महसूस करता है। देश में पत्रकारों की समस्या के निस्तारण की व्यवस्था प्रमुखता से किए जाने की मांग लंबित पड़ी हुई है। इसी के साथ न्यूज़ कवरेज के दौरान कोई आपदा या अनहोनी होने पर आर्थिक सहयोग की व्यवस्था सुनिश्चित कराए जाने जैसे मुद्दों को लेकर भी आवाज उठती रही है, लेकिन इसमें भी भेदभाव चरम पर है। कुछेक मामलों को छोड़ दिया जाए तो इससे ग्रामीण पत्रकार उपेक्षित होता आया है। इससे यह महसूस होता है कि आज का पत्रकार चौथे स्तम्भ की जगह महज स्तम्भ बनकर रह गया है। इनके हित के बारे में सोचने के लिए सरकारों के पास न समय है और न ही प्रशासनिक अमलों द्वारा सम्मान देने की गुंजाइश है। लोगों को उनका हक़ और अधिकार दिलाने वाला पत्रकार आज खुद अपने अधिकार के लिए अपना हाथ-पांव मार रहा है।

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क्या महत्वहीन हो रहा है आंगनबाड़ी का लक्ष्य

हिंदी पत्रकारित दिवस का इतिहास बताते हुए पूर्व वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी दिनेश चन्द्र बताते हैं कि 30 मई, 1826 को कोलकाता (पश्चिम बंगाल) से युगल किशोर शुक्ल ने अपने संपादन में हिन्दी साप्ताहिक समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड के पहले अंक का प्रकाशन किया था। इस पत्र का प्रकाशन प्रत्येक मंगलवार को होता था। पहली बार इस अखबार की 500 प्रतियां छापी गईं थीं। महीने के प्रत्येक मंगलवार को प्रकाशित होने वाला यह हिंदी अखबार 79 अंक प्रकाशित होने के बाद बंद हो गया। दुनिया में हिन्दी का यह पहला अखबार था। इसमें प्रकाशित होने वाली खबरों और सामग्रियों ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। उन दिनों यह अखबार हिंदी जानने, समझने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में ऊर्जा भरने में सहायक साबित हो रहा था। जिसके चलते अंग्रेजी हूकूमत में इस अखबार के प्रति तिलमिलाहट बढ़ती रही। इसके सम्पादक कलम के सिपाही और अदम्य साहसी युगल किशोर शुक्ल कानपुर (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले थे। दिनेश चन्द्र कहते हैं कि निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता पत्रकार के जीवन का मिशन होना चाहिए। विशेषकर लोकतंत्र में इनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। आज हिंदी पत्रकारिता राजनेताओं, धर्मगुरुओं और बाबाओं के झांसे में आकर अपने मूल उद्देश्यों से भटक रही है। जनता को अंधविश्वास और पाखंड से उबारने के बजाय अंधेरे में धकेल रहे हैं। जबकि एक अखबार भूले-भटके के लिए रोशनी है, जहां उसे ज्ञान के साथ न्याय की भी उम्मीद रहती है। जनता की उपेक्षा और उसकी समस्या का जब कोई रास्ता नही निकलता है तब अखबार ही उसे संकट से उबारता है। लोकतंत्र में अखबार आम आदमी की आवाज़ है। कहा भी गया है कि

‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तब अख़बार निकालो।’

गाँव के लोग
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